मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

अरे माँ , तू भी ना !



माँ कभी बड़े शहर नहीं आई , पर पोते का प्यार उसे पहली बार राजधानी तक खींच लाया । एयरपोर्ट के रास्ते के दोनों ओर पसरी आसमान की ऊंचाइयों को छूती गगनचुंभी अट्टालिकाएं को देख विस्मृत हो उठी !
"कितने धनी  है ये लोग, जिनके पास है सैकड़ो सीखचों वाले  ये ऊँचे ऊँचे किले , इतने ऊँचे कि ताड़ भी नाटा है ,चाँद भी इन मुंडेरों पे अटक अटक कर जाता होगा । कितने हवादार ,मरियल से मरियल हवा का झोंका भी गाता गुनगुनाता गुजरता होगा । मक्खी मच्छर तो ऊपर तक पहुँचते भी न होंगे !"

" वैसे इतनी ऊंचाई पे गर्मी ज्यादा होती होगी या कम ? ऊपर से नीचे झाँक इन लोगो को डर नहीं लगता होगा ?" माँ के मन में अनगिनत सवाल थे ।

बेटे ने समझाया " माँ ये किसी एक धन्नासेठ का किला नहीं है और  जिन्हे तू सीखचे बोलती है न , वो अपार्टमेंट है अपार्टमेंट । शहर के हर कमाते हाथो का पहला सपना ! "

" और ये सपना महंगा है माँ ,इतना महंगा कि पूरी जवानी बैंक में गिरवी रखनी होती है "


फिर बेटे ने माँ को विस्तार से सुनाई अपार्टमेंट्स की जादुई दुनिया की कहानी,हवा में लटके घरोंदों की कहानी ।


पर माँ ने हवा में बंधे उन सपनों को घर की संज्ञा देने से इंकार कर दिया " वो घर कैसा जिसमे ना अपनी छत, और ना अपनी जमीन और  दीवारे भी परायी !बस हवा की एक गाँठ ही तो है "!

" वो कैसा घर, जिसके आँगन के बीचोबीच में तुलसी का मटियाला घेरा नहीं ,वो कैसा बसेरा जिसके सिरहाने पर नीम का पेड़ नहीं और ना  ही ऊँचा ,पड़ोसियों को लजाता चबूतरा! 
वो कैसा घर , जिसकी दीवारो पर बूढ़े,अनुभवों  हाथो ने गेरू से जोगी जोगन न काढ़े हो ,वो कैसा घर जिसकी छत पर सूखते आम के आचार के जार न हो और खटिया पे बिखरी बड़िया न हो ।बस हवा की एक गाँठ ही तो है !"

कार की अगली सीट से पीछे मुड़ पिता जी ने कहा " री ,निपट देहाती! , ये तेरा गाँव है क्या , शहर में जगह की कमी है सो यही साधन है , यही व्यवस्था है और इसी में निष्ठा रखना और इसी को अपना सपना बनाना तर्कसंगत है । भविष्य तर्क संगत करने में है  ,ज़माने की रफ़्तार पकड़ चलने में है। तेरी बातो में भावना है , यथार्थ नहीं । भावनाओ से,जज्बातों से कहानी किस्से बनते है ,घर नहीं !"

"तू कीमत जानती है इन घरो की , आदमी जवानी से बुढ़ापे तक कोल्हू के बैल सा पिलता है , तब सधता है ये सपना , बिरले है वो खुशनसीब,जिनकी  मुठ्ठियाँ छूती है अट्टालिकाओं में बसे सपनो की चाबियाँ "

माँ पिता जी से प्रतिवाद नहीं करती ,बस धीमी आवाज़ में, बेटे के सिर  पर हाथ फेर बोली " बेटा तू मत बसियो ठगियों के इस देस में ,जहाँ हवा बेच देते है ठेकेदार और ख़रीदते है खरीददार !तेरी मेहनत की बूंदो से जब झोली में कुछ वजन जमा हो जाये तो तू अपने गाँव से बाहर वाली काले डामर की सड़क पे बनाना अपना घर । सीधा साधा सा छोटा मोटा सा घर , जिसमे छत  भी अपनी हो , तल भी अपना ! उसके आँगन में मैं  अपने बूढ़े हाथो से रोपूंगी तुलसी और ताज़ी लीपी  दीवारो पे काढूँगी गेरू के जोगी जोगन!"

"क्योंकि घर चाहे छोटा हो या बड़ा ,दूर हो या पास ,बाजार में हो या निर्जन में , वो बना हो भावना और प्यार के ईंट गारे से ।उसके कण कण का तू हो सम्राट,बस उस नीली छतरी वाले के बाद ।बेटा , तर्क को तू व्यापार के लिए बचा के रखना । "

" अरे माँ ,तू भी ना .… कितनी भोली है। … हम्म ,पर सच ही कहती है! " बेटे के मुँह  से निकला था।  विंडो सीट पे बैठी बहू ने  टेढ़ी निगाह से माँ बेटे को सिर्फ देखा भर । कुछ कहना चाहा था पर कहा नहीं । वो कहेगी जरूर किसी दिन ,जब कभी नोकझोक में उड़ेंगे इतिहास के पन्ने,और माँ का किरदार आएगा विचार में , प्रहार में!

हाँ ,बेटा उस दिन भी कहेगा " मेरी माँ , भोली है,पर सच ही कहती है ! "












शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

यूँ ही चलते फिरते

बड़ी अलसाई सुबह है जी आज । रात को बकार्डी से तरबतर होने के बाबजूद जबरन आइसक्रीम खिला दी थी दोस्त ने । शपथ के साथ खायी थी कि आँधी आये या तूफ़ान ,शनिवार की सुबह लम्बी जागिंग के साथ ही शुरू होगी । है कोई अंदर जो लड़का रहना चाहता है ,जवान जज्बाती आशिक़ सा ! और आज शक्ल पे ठन्डे पानी के छींटे तक मारने की मशक्क़त नहीं हुई है , बस जा चिपका हूँ बगल वाले फ़ूड कोर्ट की हिंदुस्तानी दुकान पर । दुकान पे काम करने वाला लड़का अब पहचानने लगा है । सांवला सा इकहरे हाड का लड़का है ,मंझले कद का ,बाल बढ़ाये है शौकीनी में । पच्चीस छब्बीस का है हँसमुख,विनम्र ,थोड़ा शर्मीला ।

बूढी चीनी दादी की व्हीलचेयर को ढ़ेलती एक युवती आई है ,हिज़ाब में । इन्डोनेशियाई केयरटेकर है शायद!
बड़ी बड़ी कटार सी आखें है काजल के  डोरे से बंधी हुई ,गोल नाक ,शरीर भरा भरा सा है,भरपूर गोलाई युक्त । चेहरे पे रौनक है ,उम्र यही कोई बाइस तेहिस की अल्हड , यौवन उमंग के दौर में है!  पराता बनाने वाले लड़के की आँखे  यकायक ख़ुशी से चमक उठी  है । मुस्काने बिखर रही है दोनों ओर से । दोनों एक दूसरे को जानते है ,शायद बड़ी अच्छी तरह,दिल की गहराईयों तक ! आखें रह रह बंध रही है,नाच रही है और फिर थोड़ा बहुत इधर उधर देखने का दिखावा सा होता है । लड़के के हाथों में बिजली सी आ गयी है यकायक  ! एग पराता को बड़ी ही कलाकारी से पलट रहा है ,आशिक़ मोर बन गया है ,नाच नाच मोरनी का मन मोह रहा है । और उसका दिल गा रहा है कोई तमिल नगमा । प्यार का कोई फव्वारा सा फूट पड़ा है उधर,उसके छींटे मुझ तक छिटके है । उस आशिक़ के प्रेमगान को मैं सुनना चाहता हूँ और उस माशूका के नगमे को भी!

उनका प्यार चौकन्ना  भी है ,जंगल में हिरणों के जोड़े जैसा । कोने वाली चेयर से मौन प्रेमप्रदर्शिनी का लुत्फ़ उठाती छोटी आँखो को भाँप लिया है दोनों ने ! हिज़ाब ने हया का पर्दा ओढ़ नज़रे झुका दी है ,पर लड़के का प्रेम निर्भीक है,  हर शंका ,हर विघन से दो चार होने को तत्पर !

'सब ठीक है ' हलकी मुस्कान से मैंने उसकी थोड़ी बहुत हिचक भी हर ली है ।
 तमिल और भासा इंडोनेशिया का ग़ज़ब का मिलन है । मल्टी कल्चरिस्म का एक सुखद नमूना है ये ।
प्यार की सचमुच अपनी भाषा होती है , जो सब जगह बोली समझी जाती है चेन्नई की मरीन ड्राइव से पूर्वी  जावा के जंगलो के पार बसे गाँवो तक में ।
आह्ह ,दिल जवान सा हो गया है ! रात की बकार्डी का असर बाकी  है शायद अभी तक !

सचिन कुमार गुर्जर                                                     
 -सिंगापुर द्वीप प्रवास के संस्मरणों में से

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

शर्मा फैमिली और विलायती बोतल


यूँ तो शर्मा जी  ज़माने से पीते आ रहे है पर उन्हें शराबी कहना बेईमानी होगा । वो यूँ , क्योंकि उन्होंने जब भी पी है , शौकिया ही पी है और हद में रहकर पी है । गरम जवानी के दिनों से लेकर उम्रदराज़ी के दिनों  तक , मज़ाल है कि किसी ने एक भी बार शर्मा जी को नशे की गफलत में देखा हो । शराबी उसे कहा जाता है जो इस कदर मदिरा प्रेमी होता है कि अपनी दुनियादारी जूते के तल्ले पे रख छोड़ता है । शर्मा जी ने अपनी दुनियादारी की एक एक जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है ।
 हाँ लेकिन वो  पीते उस ज़माने से ही रहे है!

'ब्लैक एंड वाइट ' के उस ज़माने में कभी कभार जब कोई जिगरी दोस्त या रिश्तेदार आ जाता तो कच्चे ,मटियाले दालान के ऊँचे चबूतरे पे महफ़िल जम  जाती,मसालेदार बसंती को अंटी में दबाये चखने का इंतज़ार होता ।
शर्माइन सुलगती तो थी पर शर्मा जी के कभी कभार के इस शगल को बर्दाश्त कर लेती थी । शीशे के मर्तबान से पुराने ,सूखे आम के अचार की कुछ फाखें और नमक में सनी ताज़ा प्याज की गोल गोल कतरने कटोरियों में रख अपने लड़के को दालान भेज देती । सरकंडों के मूढ़ो पे जमीं चौखड़ी के बीच में पड़ी चारपाई मेज का काम करती थी , लड़का जब जब चखना खटिया पर रख वापस जाने को मुड़ता ,शर्मा जी उसे रोकते और कहते 'देखो बेटा ,ज़िंदगी के किसी मोड़ पे अगर दारु पीना भी, तो बस दवा माफिक पीना , ये असुरा है असुरा , इस अंगूर की बेटी से ज्यादा दिल्लगी करोगे तो उल्टा  तुम्हे पी जाएगी !'

शर्माइन भले ही दूर उसारे में तरकारी में छौंक लगा रही होती पर कान उसके वहीं होते !

 'पीना ही क्यों है जी इस करम जली को, इस सुरसा ने  बहुतो के घर बर्बाद किये है ! ' बिना चूके  शर्माइन इस बात को हमेशा जोड़ देती थी ।



उदारवाद के छींटे उस छोटी बस्ती तक भी पहुंचे ।वो दालान , वो उसारा जमींदोज़ हो पक्के मकान में तब्दील हो गया । ऊँचे चबूतरे की जगह अब  वाल पुट्टी से चिकनाई दीवारों वाली बैठकी ने ले ली है । उस बस्ती के बहुते लौंडे पढ़ लिख नौकरी पैसा हो गए है । शर्मा जी का लड़का भी विलायती फर्म में नौकर हो गया है । आप इसे मेहनत कहिये या किस्मत कहिये या स्वाभाविक  परिवर्तन कहिये ,पर उदारवाद के इस दौर में उस बस्ती में भी एक तबका खड़ा हो गया है जिसने हिचकोले खाते हुए मसालेदार से अंग्रेजी तक का सफर तय किया है ।एक अलग क्लास खड़ा हो गया है अंग्रेजी पीने वालो का क्लास !

शर्मा  जी को अब देसी मसालेदार हज़म  नहीं होती , गले में खरांस हो जाती है , पेट अपसेट  हो जाता है, कै होने को होती है । हाँ , रॉयल स्टैग , बैगपाइपर जैसे किफायती अंग्रेज़ीदा ब्राण्ड अपच नहीं है । अब सब रिश्तेदार ,यार दोस्त जानते है कि शर्मा जी सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी ही पीते है !

शर्मा जी आज भी उतने ही जिम्मेदार इंसान है । 'शर्मा एंड फैमिली ' की ब्रांड मेकिंग और शाख  बढ़वार की जिम्मेदारी को समझते है । लड़का विलायत जाता रहता है ,ठीक ठाक कमाता है पर शर्मा जी खुदमुख्तार है , कुछ नहीं मांगते ।

हाँ , पिछली बार बेटा जब विदेश गया था तो लौटते हुए एक अच्छी सी विलायती शराब की बोट्ली लाने की दुर्लभ इच्छा जताई थी उन्होंने !वापस आकर आज्ञाकारी बेटे ने 'ग्लेनफ़िद्दीच सिंगल माल्ट व्हिस्की ' ' १२ साल पुरानी वाली ' लाकर शर्मा जी के हाथ में थमा दी थी ।

ना ना ना ! उस महंगी विलायती शराब मंगाने के पीछे शर्मा जी का निज स्वार्थ न था वो तो  बैगपाइपर व्हिस्की ' 'एक्सपोर्ट क्वालिटी वाली ' से खुश थे !दरअसल  ये उनकी 'शर्मा एंड फैमिली ' की ब्रांड मेकिंग की एक कवायद भर थी ।आल्हे के एक कोने में ग्लेनफ़िद्दीच की महंगी बाटली को सहेज, शर्मा जी गहन चिंतन में पड़  गए । उनकी नज़र में रसूख वाले ऐसे कई लोग थे जिनके लिए उस विदेशी बोतल का न्यायोचित उपयोग हो सकता था । बगल के कसबे से सत्तारूढ़ पार्टी का एक लोकल नेता , जिससे बेहतर सम्बन्धो का फायदा होता , या फिर जान पहचान का थानेदार !
हाँ , हलके का अमीन भी फेरिस्त में शामिल था , उससे जमीन के कागज़ों का कुछ काम अटका पड़ा था ।

हफ्ता बीता , महीना बीत गया , शर्मा जी उलझन को सुलझा ना पाये । बोट्ली पड़ी रही ,लबालब ,बिना किसी कद्रदान के !

संयोग से उन दिनों दूर के दो रिश्तेदार आ टपके जो इंसान तो बुरे ना  थे पर मदिरापान की लत के चलते आवभगत का सौभाग्य कम ही पाते थे।  उन बेचारों का कोई ऐसा रसूख भी था कि जिसे खाद पानी देने से कुछ हासिल होता ।शराब उनकी खुराक में थी सो कच्ची,मसालेदार,महुआ ,बसंती जो भी मिल जाये उसी को प्रेम भाव से स्वीकार कर  शिकायत न करते थे ।शराब पीने की लत आदमी को हम्बल बना देती है , न कोई खाने पीने को लेकर नकचढ़ी ,न किसी और घणी लल्लोचप्पो की आकांक्षा ! बस मूल चीज़ का साधन हो जाये !

 जिस तरह 'दाने दाने पे खाने वाले का नाम ' लिखा होता है वैसे ही हर बोतल ,हर अध्धे ,हर पव्वे पे पीने वालो का नाम लिखा होता है ।संयोग पे अगला संयोग ये था कि उस शाम को शर्मा जी घर न थे ।  लड़के ने शाम के खाने से पहले महीने भर से पड़ी उस गेलफीडीज़ की बोट्ली को उन मदिरा प्रेमी आत्माओ के आगे परोस दिया ।
 बड़ा ही अप्रत्याशित क्षण था वो ! अविश्वास के धरातल से सौभाग्य के अहसास तक आने में उन आत्माओं को काफी समय लगा । माहौल को और भी अद्धभुत बनाने को लड़के ने बोट्ली को घुमाते हुए बताया कि ये वो दारु है जिसे बड़े बड़े अँगरेज़ पीते है और इसके बनने के बाद इसे बारह साल तक गोदाम में पुरानी होने के लिए रखा जाता है ।

उसके बाद तो वहाँ भावनाओं का समंदर सा बह चला । दो पैग गटक आँसुंओं का दरिया बह चला । फिर शिकायतों , लानतो , मन्नतो का दौर चला । बार बार जतावा दिया गया कि शर्मा परिवार उन्हें कुछ समझे या न समझें , वे उस परिवार को अपनी जान से भी बढ़कर मानते है ।देसी घी से तर गरमागरम फुल्के आते जाते थे और विलायती शराब में तर आत्माओं के उदर में उतरते जाते थे । बड़ी लम्बी और बड़ी भावुक शाम थी वो !

अगली सुबह शर्मा जी की नज़र बैठकी के कोने में उपेक्षित पड़ी खाली बोतल  पर  पड़ चुकी थी , पर वो कुछ न बोले ,बस एक ठंडी सी ,दबी सी आह भर के रह गए !छुट्टियों से वापस लौटते हुए बेटे ने चरण छू प्रस्थान की इजाज़त मांगी तो शर्मा जी ने आशीर्वाद के बाद जोड़ा ' सुनो , आगे से कभी ये महंगी शराब बराब मत लाना , पैसे की बर्बादी है '। उन्हें गुस्सा था ,उनकी नज़र में जिस महंगे रतन का इस्तेमाल परिवार की शाख बनाने को होना था ,उसका ये तुच्छ प्रयोग उसे नाली में बहाने जैसा था ।


पर इस बात को वो लड़का ही जानता है , उन  भावुक मदिराप्रेमी आत्माओ ने उस दिन के बाद से जब भी, जहाँ  भी मदिरापान किया है उस विलायती बोतल  को याद किया है और 'शर्मा एंड फैमिली  ' के बढ़ते रुतबे का यशोगान किया है । लड़के की नज़र में विलायती बोतल  का उससे बेहतर इस्तेमाल हो ही नहीं सकता था ।










बुधवार, 3 दिसंबर 2014

शाबाश ! यू आर अ सॉलिड कंट्रीब्यूटर

आज मौसम  बड़ा ही अच्छा है । नन्ही नन्ही बुंदियाँ बरस रही है । ऐसे मौसम में तो बस एक खटिया हो और उस पर खेस तानकर टाँग पसार सोने को  मिल जाए तो समझो जन्नत मिल जाये !
मन होता है कि सामने वाली कांच की खिड़की तोड़ के बाहर निकल जाऊ और शर्ट को कमर से लपेट दूर तक बारिश में भीगता भागूँ  ,ऊँची आवाज़ में गाता जाऊं ।

सामने की बिल्डिंग में बड़े बड़े लाल ,स्पष्ट अक्षरो में लिखा है " हनी वैल " ।
शायद उधर बसने वाली सारी आत्मायें शहद के कुओं में गोते लगाती होंगी , हर कोई  बताशे सा मीठा बोलता होगा ।
सुन्दर सुन्दर हसीन परियाँ  होंगी जो हर बात बेबात पर मुस्कुराती होंगी ,हर छोटे बड़े काम पर मैनेजर शाबाशी देते होंगे और चमच्च भर शहद चटाते होंगे । होदे बढ़ते होंगे , मेहनताने बढ़ते होंगे !


या फिर उधर भी साल में  एक बार ही  पड़ती है  कंधे पर धाप और एक उवासी लेती आवाज़ कि 'सुनो ,शाबाश !… यू आर अ सॉलिड कंट्रीब्यूटर'
केवल और केवल एक सॉलिड कंट्रीब्यूटर!









शनिवार, 22 नवंबर 2014

'मौसमी बुखार' बनाम साम्यवाद


कॉलेज के फर्स्ट ईयर हॉस्टल के उस कोने वाले कमरे में पिछले कई दिनों से प्लानिंग चल रही थी । रूम पार्टनर्स में सबसे छोटा और सबका चेहता दोस्त एकतरफा प्यार के मौसमी बुखार से पीड़ित था । लड़की पास के कला स्नातकोत्तर कॉलेज में समाजशास्त्र की छात्रा थी । कई दिनों से मॉक एनकाउंटर कर इजहारे-इश्क़ का रिहर्सल चल रहा था । वार्तालाप के हर संभावित पहलुओं को ध्यान रख एक लिखित प्रश्नोत्तरी बनायीं गयी थी और एक एक जबाब लड़के को रटाया  गया था ।
मुलाकात के  दिन दिल्ली वाले धनी दोस्त ने अपना नोकिआ ३३१० और टाइमेक्स नौटिका की स्टाइलिश हथघड़ी लड़के के हाथ में थमा उसे 'बेस्ट ऑफ़ लक' बोल विदा किया । उन दिनों विरलों के पास ही मोबाइल फ़ोन हुआ करते थे ,हाथ में नोकिआ ३३१० स्टेटस सिंबल होता था । चमक चौन्ध  से मन हरने की विधा पुरानी रही है और यहाँ वहाँ सफल भी होती रही है ।

देवदार के पेड़ो से घिरे पौड़ी कॉलेज के कला संकाय के बाहर सीढ़ियों के किनारे लगी रेलिंग से सटकर लड़के ने हिम्मत की । "सुनो , एक बात करनी थी तुमसे "
 ""मुझसे ?"  स्थिति का पूर्वाभास होने के बाबजूद लड़की ने ऐसे कहा जैसे किसी ने ग़लतफहमी में उसे पुकार लिया हो ।

"हाँ , तुमसे ही " ,लड़के ने   हिम्मत बाँध कहा ।
"हाँ , बोलो ,क्या बात है " प्रतिउत्तर मिला ।
" असल में , मैं काफी दिनों से सोच रहा था , कि....... मैं सोच रहा था कि.…… "
"जल्दी बोलो , मेरा समाजशास्त्र  का पीरियड शुरू होने को है " लड़की ने दबाब बनाते हुए बोला ।

" एक्चुअली , आय वांट टू हैव फ्रेंडशिप विद यू " , अंग्रेजी में हाथ तंग होने के बाबजूद उसके दोस्तों  ने उसे अंग्रेजी के जुमले ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने की सलाह दी थी । उनका मानना था कि इसका प्रभाव अच्छा होता है और सफलता के चांस बढ़ जाते है !

"क्यों ,तुम्हारे और कोई दोस्त नहीं है क्या ?" लड़की ने थोड़ी खीज के साथ कहा ।
" नहीं , वैसे दोस्त तो है पर …" लड़का शर्माता हुआ बोला ।
"पर क्या ?"
"तुम मी तैं बहोत सुन्दर लग दी ,परी ! आय  मीन, आय  लाइक यू अ लोट " घबराहट में गढ़वाली में बह जाने के बाद लड़का दोस्तों के दिए वार्तालाप के फॉर्मेट से चिपकते हुए बोला ।

" मुझे टाइमपास करने वाले लड़के बिलकुल भी  पसंद नहीं ,और तुम पहले तो हो नहीं " लड़की लगभग उखड़ती हुई बोली ।
 " लेकिन मैं  सच में.तुम्हे चाहता हूँ । "
"दूसरे भी तो यही बोलते है ,उनका क्या करुँ ,पहले उन्होंने बोला है , तुम तो कतार में बहुत पीछे हो "
"हाँ लेकिन ,मैं मैं सच में ........"
लड़की एक साँस बोलती चली गयी "तुम ही बताओ , पहला हक़ उनका है कि नहीं ,कतार तोड़ तुम्हे चांस देना गलत होगा कि नहीं ? मैं  ऐसा पाप क्यों करूँ ? "

"तुमने कार्ल मार्क्स का 'लैटर टू हिज फादर ' पढ़ा है , इतिहास में वही लोग महान होते है जो सबके हित के लिए काम करते है । सबसे खुशनसीब लोग वो होते है जो ज्यादा से ज्यादा लोगो को खुश रखने के लिए प्रयासरत रहते है "

"हाँ ,वो तो है लेकिन........ " लड़की के साम्यवादी और 'सबका हक़ बराबर'  के तर्क ने  बातचीत के फॉर्मेट का रायता कर दिया । दरअसल , पिछली दिनों में लड़के के दोस्तों ने उसे जो संभावित प्रश्नोत्तरी रटाई  थी उसमे इस सिनेरियो(संभावित परिस्थिति) का जिक्र ही नहीं था ।

"कुछ और बोलना  चाहते हो..... हुँह"
जबाबी तर्क ढूंढने की कोशिश में लड़का आसमान की ओर गर्दन उठा  शुन्य में खो गया ।
"चलो बाय ! "  बातचीत का आकस्मिक पटाक्षेप कर ,बिजली की तेजी से कदम बढ़ाते हुए लड़की कला संकाय के बरामदे की ओर बढ़ गयी । लड़का निरुत्तर ,झुके कंधे ,पतली कलाई में माँगी हुई ढीली घडी को घुमाता अपने हॉस्टल की ओर लौट आया । कई दिनों का रिहर्सल ,नोकिआ ३३१० फ़ोन ,महंगी घडी और अंग्रेजी के जुमले , साम्यवादी तर्क के आगे तार तार हो बिखर गए ।

शाम की चाय के बाद बुखार हल्का होने पर लड़के ने अपने मार्गदर्शक रूमपार्टनर से पूछा "यार टिंकू , ये साला कार्ल मार्क्स कौन हुआ ठहरा ?नाम तो सुना सुना है ?"
" इंग्लैंड का प्रधानमंत्री था यार " ,सर्वज्ञानी टिंकू  ने पलक झपकते ही अपने सहजज्ञान से  जबाब थमा दिया !




गुरुवार, 20 नवंबर 2014

बाबागिरी फॉर डमीस


सोचूँ हूँ कि ये साला अपने दिम्माग के खोपचे में कभी बाबा बनने का विचार क्यों नहीं आया । धंधा चोखा है , रिस्क कम है ,मुनाफा ज्यादा । फिर इस धंधे में इतना आधुनिकीकरण तो हो ही गया है कि न तो अब लम्बी जटायें बढ़ाने की जरूरत है ना नाम में श्री श्री श्री  लगाने की और ना ही गेरुए कपडे पहनने की ।

मैंने गूगल बाबा से पूछा कि महाराज रेसिपी क्या है , क्या एक तुच्छ प्राणी का बाबा के रूप में कायाकल्प हो सके है , या बन्दा गिरधारी के दरबार से ही किस्मत लेके उतरे है!
गूगल बाबा कहते है कि देखो भाई , बाबा बनने की गूठ रेसिपी अब लगभग तैयार है , सारे अवयव ज्ञानियों ने यहाँ वहाँ ,बखान कर रखे है ।बस यहाँ तहाँ  बिखरे पड़े है ,आपको समेटने है । मतलब जे है कि अगर आप संजीदा है  और दस पंद्रह साल का समय लगाने को तैयार है तो यकीन मानिए कि बाबा हो जाना तय है । हाँ , आप कितने ऊँचे बाबा बन पाएंगे वो आपकी क्षमता ,मेहनत निर्धारित करेगी ।  वैसे ही कि जैसे एक डॉक्टर तो बड़ी बड़ी डिग्रियाँ ले स्पेशलिस्ट बन ऊँचे ,पैसे वाले लोगो का तारणहार हो सकता है और दूसरा किसी गली नुक्कड़ का 'बबासीर एक इंजेक्शन में जड़ से खत्म ' टाइप का बंगाली डाक्टर हो सके है ।रोजी रोटी के लाले उसे भी नहीं!

इस लाइन में रिस्क भी कम ही है। अब कोई लंगोट का कच्चा निकल आये या सीधे ही 'आ बैल मुझे मार ' की तर्ज़ पे सरकार से भिड़  जाये तब तो किरकिरी होनी ही है ।

तो क्या है बाबा हो जाने की रेसिपी?

तय कर लें कि बस बाबा होना है :
सबसे पहले तो आप दिमाग में ठान ले कि बस भैय्या बाबा बनके ही दम लेना है । आधे अधूरे मन से धंधे में कूदने में हालत 'साँप छछूंदर ' जैसी हो सकती है,न उगलते बनेगा , न निगलते । मतलब , गाँठ बांध ले ,समय लम्बा लगेगा ,दस पंद्रह साल से पहले किसी रिटर्न की उम्मीद छोड़ दें  ।

स्किल डेवलपमेंट से शुरुआत :
एक बार आपने मन बना लिया तो बात आती है स्किल डेवलपमेंट पर । धर्म ज्ञान पढ़े ,यहाँ वहाँ से थोड़ा बहुत वेद पढ़ ले ,मनोविज्ञान पढ़ लें  ,कामसूत्र की किताब के चित्र देख ले । थोड़ा बहुत जादू मंतर सीख ले , जैसे बन्द मुट्ठी से धुँआ निकलना ,सोने की अंगूठी गायब कर देना ,हवा में से गुलाब का फूल तैयार का देना । भोली भली जनता पे इसका अच्छा असर पड़ता है आपकी प्रसिद्धि दिन दूनी रात चार गुनी  हो सकती है ।
हालाँकि प्रतिवाद किया जा सकता है कि निर्मल बाबा ने तो कभी वेदो की बात नहीं की , न गंभीर धरम चर्चा छेड़ी और झंडे गाढ़ रहे हैंगे । तो इसका जबाब ये है कि सोच लो भैय्या कि किस लेवल का बाबा बनना है !शार्ट कट मार बंगाली डॉक्टर टाइप या भरी भरकम डिग्री वाले बड़े सर्जन माफिक !

ज्ञानोदय का दिन : फिर किसी अच्छे दिन सुबह सुबह 'मसाला एग हाफ फ्राई ' का नाश्ता कर अपने आस पास के लोगो में , इष्ट जनो में ,भद्र जनों में घोषणा कर दे कि भैय्या ,अभी अभी साक्षात् काली कमली वाले ने आकर जोर की ठोकर मारी है और आपके ज्ञान चक्षु खुल गए है । या  कह दो कि आप फलाना के अवतार हो ,ढीमाका देवता आपके शरीर में साक्षात आ धरा है । कुछ हंसेंगे , खिल्ली उड़ाएंगे , पर साधक जुटते जाएंगे ।

वाक् क्षमता पे खासा जोर :फिर बात आती है ,वाक् क्षमता की । वाणी पे गज़ब का कंट्रोल , उतार चढाव ,घंटो बिना रुके बोलने की क्षमता ,भरी भीड़ में बिना हिचके बोलने की क्षमता , कही के तार कही जोड़ कहानी तैयार करने की क्षमता ये सब होना चाहिए । घबराये नहीं , ये सब एक दिन में नहीं होता । लगन रहेगी ,सुनने वाले जुड़ते जायेंगे तो धीरे धीरे निखार भी आ जायेगा,सुरसती लगन से जागत होवै है । सफर लम्बा है । फिर वो कहावत सुनी है न ' करत करत अभ्यास के जड़ मति होत  सुजान ' । आपके दिन बहुरेंगे , बस जुटे रहे ।

बात का सच्चा , लंगोट का पक्का : अब बाबा होने के लिए  अखंड ब्रह्मचारी होने की शर्त  तो रही नहीं सो लिहाजा आम आदमी की तरह स्थिर गृहस्थ की पतवार लिए आगे बढ़ सकते है ।छोटे छोटे ,रहस्यमयी  कैमरों की दुनिया में , धंधे में कूदने से पहले नसों में बलबलाते  टेस्टस्टेरॉन की रफ़्तार को धीमा करना ज़रूरी हो चला है । काम की धूनी  साधक को ही जला डालती है ,पूर्व में आये तमाम मामलों का हश्र आपको पता ही है। सालों की कमाई कुछ क्षणों की  कामान्धता की भेंट चढ़ सकती है ।

इसकी कमाई , इसी में  लगाई :कमाई पुनर्निवेशित करें ।  एक बार चढ़ावा आना शुरू हो जाये तो उसे तिजोरी में न रखें , सर्कुलेट करें , माता रानी की कृपा से दोगुना होकर आएगा । मिशन स्कूल खोले । अस्पताल खोलें । कम्बल बाँटे । नेत्र शिविर लगाये । फ्री योग कैंप लगाये । फोटो खिचाये । कृपा आ जाएगी । आपकी प्रसिद्धि फैलेगी । 

 इसका न उसका , बाबा हूँ मैं सबका(क्लाईन्टेल डायवर्सिफिकेशन) : प्रयास करें कि आपके भक्त हर श्रेणी  से आये । अगड़े -पिछड़े , अमीर गरीब ,पढ़े लिखे नकचढ़े ,सीधे साधे देहाती । इससे आपका मार्केट रिस्क कम हो जायेगा और सपोर्ट बेस भी तगड़ा रहेगा । किसी राजनैतिक दल की पूँछ थामने में रिस्क है । दूसरों के हत्थे चढ़ गए तो 'नारी लज्जा निवारण अन्तः वस्त्रम् ' पहन भाग जान बचानी पड़  सकती है । वैसे ,इट्स योर कॉल , आप रिस्क लेना चाहे तो ले सकते है ।

टीम वर्क मैन , टीमवर्क! : बिना मज़बूत और समर्पित  टीम के सफलता संभव नहीं । काफी लोग लगेंगे । मैनेजर ,अकाउंटेंट ,फील्ड वर्कर ,गवैये ,नचैये ,बिचौलिये ,रास रचैय्ये ! एक मज़बूत ,मंझी  टीम लगेगी । सबका ख्याल रखना होगा , रुपया पैसा से लेकर लत्ता कपडा तक !

ब्राण्ड मेकिंग और धारणा प्रबंधन : ब्राण्ड मेकिंग ध्यान देना बहुत जरूरी है । आप क्या पहने , किस तरह पहने । बाल कैसे हो , चाल कैसी हो ,कैसे हँसे , सब बातों पे करीने से ध्यान देकर अपना एक स्टाइल तैयार करे ।
अब तक आपकी चेलों की फ़ौज़ खड़ी हो चली होगी जो हर नुक्कड़ हर तिराहे ,हर गली मौहल्ले में , टीवी पर ,रेडियो पर ,गला फाड़ फाड़ चिल्लाएगी कि ' ये जो बाबा हैंगे , बड़े ही पहुँचे हुए बाबा हैंगे । इन्होने अलाना का फलाना कर दिया । फलाना का धीमाका  कर दिया ।
टीम पर पैनी निगाह रखें ,रहस्य बनाये रखें । काम चल निकलेगा ।

अधिक और विस्तृत अध्यन के लिए हमारी शीघ्र छपने वाली पुस्तक '
बाबागिरी फॉर डमीस ' का इंतज़ार करें । कार्य प्रगति पर है! मोटी,साफ़  टाइप वाली ये सजिल्द किताब मार्च २०१५ तक फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध होगी ।
तब तक बोलिए , बाबा ठुल्लेश्वर महाराज की जय !


ये जो पॉइंटर है न पॉइंटर !

यूँ तो उस छोटे कद के शर्मीले ,गवई लड़के का जेहन तमाम तरह के कोम्प्लेक्सेस से भरा हुआ था , पर कॉलेज का पहला सत्र पार  कर लेने के बाद भी और प्रोफेसर लोगो की सुझाई सब किताबों में झाँकने के बाबजूद भी लड़के के समझ में ये नहीं आया कि  आखिर ये पॉइंटर क्या बला है ,कैसे ये लिंकलिस्ट में इधर से जुड़ उधर जुड़  जाता है और क्या क्या गुल खिलाता है ।  फिर कुछ एडवांस लड़के होते है न , जिन्हे पहले से ही सब कुछ आता है , उनकी बातें सुन लड़के का दिल और भी बैठ जाता  ।
कंप्यूटर साइंस के विद्यार्थी को अगर प्रोग्रामिंग ना आये तो ये ऐसे ही है जैसे किसी चितेरे को चित्र उकेरना न आये ।

'पॉइंटर्स इन सी ' की किताब हाथ में उठाये ,त्राहिमाम त्राहिमाम करते हुए ,कम्प्यूटर डिपार्टमेंट के कोने वाले केबिन में अपने प्रोफेसर के पास पहुँच जाता है और दर्द बयां करता है । गहरी ठंडी साँस ले प्रोफेसर लड़के के हाथ से  किताब ले ,मुड़े पन्ने को सीधा कर मेज पर रख देता है और अपनी खिचड़ी दाढ़ी खुजलाते हुए कहता है ' देखो बेटा, ये जो पॉइंटर है न पॉइंटर , इसको समझने का और फिर करने का स्पार्क तो बन्दे के अंदर से खुद-ब-खुद  ही आता है । जिसे आता है ,आता है । जिसे नहीं आता , नहीं आता । '

सीन कुछ ऐसा ही था जैसे किसी गंभीर , नाउम्मीद मरीज़ की नाड़ी  देखे बिना ही लुक़्मान हकीम शक्ल देख कर ही कह दे कि "देखो जी ,इसे दवा की नहीं ,दुआ की जरूरत है । किस्मत में  होगा तो जी मिलेगा। "

उस लड़के ने स्क्रीमिंग थेरेपी के बारे में सुन रखा था । वो अपने हॉस्टल के पीछे वाली पहाड़ी की चोटी पर चढ़ कर खूब ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता  । इस आस  में कि शायद कही सिगरेट के धुएं से धूसरित फेफड़ो के तले दबा वो 'स्पार्क' पड़ा हो जिसकी चमक से ज्ञानतंतु हिल जाये और एक जबर प्रोग्रामर का उदय हो।
उसके बाद कई मौसम आये गए हुए । पहाड़ो पे बर्फ गिरी, मानसून के बादल बरसे ,हरियाली आई । ग्रीष्म ने घास के तुनको को सुखाया ,जलाया । पर अफ़सोस ,वो 'स्पार्क' कभी नहीं  आया ।

सालों बाद उस लड़के के पास उसके गाँव के एक अनुज का फ़ोन आया जो बावरा उसी पथरीली राह पर चल पड़ा था। उसने पूछा 'भैय्या ,बाकि तो सब ठीक है लेकिन कंप्यूटर साइंस में दाखिले के बाबजूद ये जो पॉइंटर है न पॉइंटर , कुछ ढंग से समझ नहीं आता '

लड़के ने बड़े विस्तार से और गंभीर हो समझाया ' हे अनुज ! ये आईटी सेक्टर है न , इसे नदी या नाला मत समझो ,ये समंदर है समंदर । इसमें सब खपते है । गधे भी ,घोड़े भी और खच्चर भी । धैर्य धारण  करो , जो समझ आता है उसी को समझ लो । बतियाना सीख लो , चटियाना सीख लो , सुटियाना सीख लो ,लगाना सीख लो,इश्क्क़ियाना सीख लो ।
मतलब जो सीख सकते हो सीख लो , सबकी अपनी अपनी कला है , किसी को कुछ आता है तो किसी को कुछ आता है । सबकी अपनी जगह है  और सब काम आता है ।
 
फिर कुछ गहरी साँस के बाद ' वैसे सुनो !,ये जो पॉइंटर होता है न पॉइंटर इसको समझने का और फिर करने का स्पार्क तो बन्दे के अंदर से ही आता है । जिसे आता है ,आता है । जिसे नहीं आता है , नहीं आता है । '



शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

तुम आओगी न गौरैय्या ?



अभी परसों ही की तो बात है ।

ध्रुव की नानी के घर जामुन के बड़े छायादार पेड़ के नीचे चारपाई  डाले मैं  सुस्ता रहा था । 
अचानक  कही से बड़ी प्यारी सी , नाज़ुक सी गौरैय्या अवतरित हुई और नीची शाखों पर छलांग लगाती हुई , चारपाई के एकदम बगल में उतर बैठ गयी । मुझे देख उसने अपनी गर्दन को बड़ी नज़ाकत से पहले दायें फिर बाए घुमाया और फिर फुदक फुदक कर नलके के आगे बने गड्ढे में पानी पीने लगी । 

अपनी छोटी सी ,चमकीली चोंच में पानी भर उसने आसमान की तरफ उठा दी ।  पता नहीं कितने अरसे बाद गौरैय्या के दर्शन हुए मैं तो इस प्राणी को लुप्त मान बैठा था । लपककर मैंने अपना मोबाइल उठाने की कोशिश की पर इससे पहले की मैं उसे अपने मोबाइल में कैद कर पता , नन्ही चिड़िया फुर्र  हो गयी । शायद वो मुझसे नाराज़ थी , बचपन में हमने उसके परिवार को बड़ा सताया था , शायद इसीलिए ! 

बचपन की दुनिया में कितनी सारी गौरैय्या हुआ करती थीं  , है ना । 
हमारे मकान के आगे बने छपरे में उनके घोसले थे । माँ कई बार गुस्सा कर जाती , वो घर द्वारा  बुहारती और नन्ही गौरैया अपने घोंसले के लिए चुने तिनके बिखेर बिखेर उसकी मेहनत पे पानी फेर देतीं  । 

हमारे मकान से छपरे की ओर जो बड़ा वाला रौशनदान खुलता था ना ,वो तो मानों गौरैयों के लिए ही बना था । 
घर में उन दिनों एक बड़ा सा दर्पण था , आदम कद का।माँ कहती थी कि पिता जी ने उसे  पास के शहर से स्पेशल आर्डर दे बनवाया था । माँ गर्व से कहती थी कि उससे बड़ा और आलीशान दर्पण पूरे गाँव में न था । 
गौरैया उस दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देख कई बार बड़ी देर तक दर्पण में चोंच मार मार कर लड़ती रहतीं थी
 जब तक वो हार न जाती थीं । 

फिर अपनी दादी थी जो गौरैयों को पानी या धुल में नहाते देख बरसात के आने की भविष्यवाणी कर देती थी । 
हम भी शरारती थे , गर्मियों के दिनों में जब माँ और दादी मसूर या उड़द की छाली घर के आँगन में धूप  लगाने को बिछा देती थी तब दर्जनो गौरैया आ जाती थी । 
हम किसी टोकरी के तले रोटी के कुछ बारीक टुकड़े बिखेर देते और टोकरी को एक सिरे से उठा एक पतली लकड़ी से अटका देते , फिर उस लकड़ी में रस्सी बाँध देते और उसके सिरे को पकड़ छपरे तले खटिया डाल उसकी अदवायन  पे इत्मीनान से बैठ जाते । कोई बेचारी लालच की मारी गौरैया आती और हमारे जाल में फंस जाती । फिर हम पूरे मोहल्ले भर के दोस्तों में उसकी प्रदर्शनी लगाते । उसे जबरदस्ती पानी के कटोरे में डुबो डुबो पानी पिलाते । जब मन भर जाता तो उसके पैर में मजबूत डोरा बाँध उसे उड़ा देते । 

गौरैया यहाँ वहाँ फुदकती । इस आँगन से उस आँगन जाती । वो जिस जिस दोस्त के घर जाती वो दोस्त हमे रिपोर्ट देता कि तेरी वाली चिड़िया आज मेरे घर आई थी । पूरी  दोस्त मंडली को कलर कोड के जरिये पता होता कि कौन सी गौरैया किसने पकड़ी । जैसे नीले डोरे वाली भोलू ने पकड़ी , काले डोरे  वाली  मुन्नू ने  । 

तब किसने सोचा था कि हमारे बचपन के साथ साथ गौरैया भी चली जाएगी । पता होता तो या तो किसी पक्की डोर से बांध जाने ही न देते , कहते यही रहो पूरे परिवार के साथ । हम तुम्हारा पूरा खर्च पानी उठाएंगे । या माँ से कह देते  कि माँ इस छपरे को छपरा ही रहने दे , पक्का मकान न बना यहाँ हमारी दोस्त का परिवार बसता है । 

प्यारी गौरैया हम माफ़ी मांगते है अपनी तमाम बचकानी हरकतों के लिए , तुम प्लीज लौट आओ अपने परिवार के साथ ।विद्या कसम खाते है  , अब कभी तुम्हारे पाँव में डोर न बांधेंगे । 

बड़ी इच्छा है कि जब बालक ध्रुव हमारी बातों को समझने लगे तब किसी दिन कोई गौरैया नानी के घर वाले जामुन के दरख़्त से नीचे उतरे , फुदक फुदक कर हैंडपंप के गड्ढे में जा अपनी छोटी सी प्यारी चोंच डुबो डुबो पानी पिए और फिर उस दिन  की तरह हमारे पास आ अपनी गर्दन दायें घुमाएं ,फिर बाए घुमाए । 
और फिर हम बालक को अपने बचपन की दोस्त के सारे किस्से सुनाये । 
और हाँ , हम बालक ध्रुव को सख्त हिदायद देंगे कि कभी गौरैया के पाँव में रस्सी न बाँधे । 

तुम आओगी न गौरैय्या ? हम तुम्हारे अस्तित्व की लड़ाई में जीत की दुआ करते है ।



गुरुवार, 21 अगस्त 2014

बनिए की नौकरी




शर्मा जी अपने गाँव के बड़े रसूख वाले आदमी है । थे नहीं , हो गए है । शर्मा जी का  छोरा  पढ़ लिख गया  ,दिल्ली में किसी विलायती फर्म में इंजीनियर लग गया , अच्छी खासी आमद है । और अच्छी आमद तो रसूख पैदा कर ही देती है ।

शर्मा जी दूरदर्शी आदमी ठहरें ,मेहनत कश भी । जब गाँव के निकम्मे दिन रात बड़े पीपल तले ताश के पत्ते पटक पटक खटिया चटकाय  रहे , शर्मा जी ने हाड़तोड़ मेहनत की । न जाने कितनी काली रातें  और पीली सुबहे  यूँ ही गुजारी  । उस ज़माने में जब  गाँव के लोगों को कम्प्यूटर का ककहरा भी न पता था तभी उन्होंने अपने  छोरे को एक एक कौड़ी जोड़ , दूर कम्प्यूटर इंजीनियरी की पढाई करने भेज दिया ।

उनका छोरा दिमाग से कोई चाचा चौधरी तो ना  था पर कितबिया रट रटाए के और घंटो ऑनलाइन  चैट  रूम में घुस घुसाय के  कम्प्यूटर की थोड़ी बहुत नब्ज नाडी पकड़ना सीख गया । उसकी किस्मत का तारा चमका और रजधानी की एक नामी गिरामी विलायती फर्म में नौकर हो गया

 विलायती फर्मों में नौकरी वाले माहवार तनख्वाह  की बात नहीं करते उनके सालाना पैकेज होते है जैसे पांच लाख रुपए सालाना, आठ लाख रुपए सालाना!

शर्मा जी इतरा के जब छोरे का पैकेज गाँव में अपनी कथा वाचन में सुनाते  तो गाँव वालों के पाँव तले की जमीन खिसक जाती । कुछ पढ़े लिखे लोग पैकेज को सीधे बारह से भाग देकर माहवार वेतन का आंकलन कर देते तो कुछ खीज उठते ,  कुछ की आँखों के गुल्ले बाहर आने को  होते ।

अब गाँव में भले ही सब एक कुएं बाबड़ी का पानी पिए है पर दिमाग और स्वभाव तो फिर भी अलग अलग होता  ही है ।
गाँव में शर्मा जी की वाह वाही कर उन्हें सातवे आसमान पे चढाने वाले जजमान बसते है , तो कुछ पंख कुतरने वाले भी है । कुछ शर्मा जी की उड़ान को काटने को कह देते  ' भैया ,ये पैकेज वैकेज चाहे कितना भी होवे , पर है तो बनिए की नौकरी ही ना , कोई सरकारी नौकर थोड़े ना  है , और बनिए का क्या है , जब जी चाहे तब फैक्टरी से लतियाय  बाहर करे ।फिर इसमें सरकारी नौकरी  जैसे ऊपर की कमाई  भी ना है। "

शर्मा जी सब समझते  कि उन जलकड़वो की बात में सच्चाई उड़द की सफेदी के बराबर भी ना  है , ख़ीज है जो झूठ सच बोल बाल के मिटाने की कोशिश करें है मोटी अकल के मारे !

शर्मा जी का दिमाग तब पलटा जब वो एक दिन बैठकी के सामने से गुजरते पास गाँव के बनबारी  कुम्हार को बुला बैठे  । बनबारी  उनके पुराने जजमानों में से रहा , शर्मा जी जब  पण्डिताई करते रहे  , तब  से आना जाना रहा  ।

रामा किशना  के बाद बातचीत में पता चला कि बनबारी का छोरा भी , जो शर्मा जी के छोरे से उम्र में काफी छोटा है , इंजीनियरी पढ़ गया है और बंगलोर में अठरह लाख का मोटा  पैकेज पाता है ।लम्बी सफ़ेद कार में चलता है । शहर में घर खरीद लिया है ।सालो बाद ,शर्मा  जी को अपना तिलिस्म टूटता सा  जान पड़ा है । बनबारी  के छोरे के मोटे पैकेज  तले उनका रुतवा  दब गया है शायद ! रुतवा खास होने में है , खास जब आम हो जाये तो रुतवा भी नहीं रहता ।


शर्मा जी ने अपने छोरे से कह छोड़ा है  "विचारो , ये पैकज कैसे बड़ा हो ?सोचो , विलायत जाने का प्रयोजन कैसे हो ।आखिर  है तो बनिए की नौकरी  ही ना  । फिर सरकारी नौकरी जैसी ऊपर की आमद भी तो ना है,  बदल डालो । ''

शर्मा जी का छोरा नौकरी बदलने की सोच रहा है । 
















शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

भैय्या जी की तो डेटॉल से ही बनेगी !

 
 पिछले दिनों गाँव के नुक्कड़  वाली हज्जाम की दुकान पर  हजामत बनवाने गया तो हज्जाम के नए शागिर्द ने पूछ लिया " सिम्पल  या डेटॉल से ? डेटॉल की शेविंग क्रीम से शेव कराने का पांच रूपया एक्स्ट्रा लगता है ।"उस्ताद हज्जाम  ने उसे लगभग झिड़कते हुए कहा ' ये भी कोई पूछने की बात है , भैय्या जी की तो डेटॉल से ही बनेगी । '

 हालाँकि हमने कभी  अपनी तरफ से कोई पसंद  नापसंद  जाहिर नहीं की पर उस्ताद ने  अपनी कुछ गुणा भाग के आधार पर ही  हमारा चयन डेटॉल की शेविंग वाली इलीट ग्राहक सूची में डाल रख छोड़ा  है। 
हमने कभी कुछ कहा भी नहीं । अब  आप ही बताये कि पांच रुपए के चक्कर में क्यों इलीट होने का स्टेटस खोया जाये ? मतलब ये कि दाढ़ी बनाने , बनवाने में भी क्लास घुस गया है । हसनपुर के नाई की दुकान में  भी क्लास का कीड़ा घुस बैठा । 

बात आपको साधारण , बेमतलब लग सकती है । पर हमसे पूछो जिन्होंने आजकल के हज्जाम के अब्बा का समाजवाद ,समानतावाद   साक्षात्कार किया है ।उस ज़माने में आज के जैसे कटिंग सैलून न हुआ करते थे । महीने में एकाध बार चौपाल पे मुख्त्यार साहब की पोटली खुलती थी ।पोटली में गिने चुने औजार होते थे । एक मैली काली कैंची , एक नख कतरनी,बेरंग पुराना कंघा  और एक  जाना पहचाना जल्लाद ,खुट्टल उस्तरा ।होने को तो उस्तरे की धार चमकाने को चमड़े की एक थेक्ली भी होती थी , पर वो चीज हमे दिखावटी ही जान पड़ती थी । क्योंकि उस्तरा ,कैंची उस पर रगड़े  जरूर जाते थे पर रहते थे खुट्टल के  खुट्टल ही । उह्ह्  आह करते हुए ही हमे अपने बाल हज्जाम को न्योछावर करने होते थे ।

उस पर, पीछे से अड़ोस पड़ोस के कोई दादा आ जाते और मुख्त्यार को कहते ' रे मुख्त्यार   , बालों के संगी संग तनिक तनिक से कान भी क़तर लियो  इस बालक  के , बहुत बड़े हो गए है , हवा में उड़े है ।'
हम क्या बोलते , हज्जाम ने हमे पहले ही हिदायत दी होती थी कि चुप्पी चान साँस रोक बैठे रहियो , जरा से इधर से इधर हुए कि समझो उस्तरा लगा  । हालत वही होती जो एक बकरे  की होती है कसाई के के हाथो में । 
 उस एकल ,समाजवादी  उस्तरे के नीचे गाँव के सातों  जात के आदमी  नपते थे ।  पूरब के गुर्जर, दक्खन के गड़ेरिये , पश्चिम के बनिए भी ! और सबका अनुभव भी एक सा ही  होता था  खर्र खर्रर्र , खुरच खुरच … आअह ओह्ह्ह्ह आउच .... !

अब दुनिया तरक्की कर गयी है , खुट्टल  उस्तरे की जगह नए तरह के टोपाज ब्लेड वाले विलायती उस्तरे इस्तेमाल  होते है , जो मलाई के माफिक चलते है । नए लड़के शेविंग के बाद  आफ़्टरशेव लगाने की माँग  करते है।  गाँव के हज्जाम ने सबकी जरूरतों के  हिसाब से ताम झाम जोड़ रखा है ।जमाना बदल गया है , हसनपुर भी !

और हाँ , हज्जाम का वो नया चेला अब हमे पहचानने लगा है , उसे पता है कि भैय्या जी  की हज़ामत तो डेटॉल से ही बनेगी ।

सोमवार, 30 जून 2014

डिज़ाइन में कुछ अंतर तो ज़रूर है!


भले ही बुद्धिजीवी ,समानतावादी समाज क्यों न बार बार स्त्री , पुरुष के समान होने के नारे लगाता  रहे , पर कुछ न कुछ अंतर तो प्रकृति ने ही बना छोड़ा है । जैनेटिक मेकअप में कुछ तो है जिसके फलस्वरूप  स्त्री व् पुरुष दिमाग के व्यवहारों में कुछ तो अंतर है । 

अपने पिछले सिंगापुर प्रवास के दौरान बड़ी चिंता  के साथ इस बात की कोशिश में लगा रहा कि श्रीमती जी सप्ताह  में अकेले घर में न बैठे । घर के आस पास घूमे ,कुछ इतिहास भूगोल का ज्ञान अर्जित करें।बार बार मेट्रो लाइन के नक़्शे और आस पास के प्रमुख स्थलों की जानकारी देने के बाद भी जब कुछ ख़ास प्रगति न दिखी तो हम समझ बैठे कि यहाँ वहाँ साथ साथ ले जाना ही नियति  है ।

श्रीमति जी आजकल गाँव में है और हम घरवापसी को पुलिंदा बाँध रहे है । कल वार्तालाप के दौरान फरमाइश हुई कि आते हुए रेवलॉन ब्रांड की कॉफी कलर की लिपिस्टिक जरूर और जरूर  ले आना । हमने समझाया कि भाग्यवान्  कहाँ ढूढ़े ऐसा स्टोर कि जहाँ मिल जाये ये रेवलॉन ! फिर अपने शहर में भी तो सब मिलता है । 

लेकिन कौन बचा है जो हम बच पाते । 
बताया गया " बेडोक बस स्टॉप से बायीं ओर एग्जिट करने के बाद जो मार्केट आता है , उसमे गोलचक्कर के बाद , दायें हाथ पर वाटसन की दुकान  है , वहाँ मिल जाएगी । अगर वहाँ न जाओ तो टैम्पनीस मॉल  के दूसरे  माले की कोने वाली दुकान  पर भी मिल जाती है । अरे हाँ ! तुम्हारे ऑफिस के पास वाले मॉल  में ग्राउंड फ्लोर पे भी मिल जाती है । "

जिस दिमाग में बार बार प्रयासों के बाद भी मेट्रो लाइन की साफ़ सीधी  लकीर पे चिपके दो चार स्टेशनों के नाम और भूगोल का अंकीकरण कराने में हम असफल रहे उसी दिमाग में रेवलॉन की लिपस्टिक की दुकानो से लेकर रेवलॉन की शेल्फ तक के कोऑर्डिनटेस इस बारीकी के साथ अंकित है कि उम्दा से उम्दा जी पी एस यन्त्र भी शर्मिंदा हो जाएँ । 

है कोई जवाब !  डिज़ाइन में कुछ अंतर तो ज़रूर है !  




 

शनिवार, 14 जून 2014

मैं और अंतर्द्वंद



बात साल २००१  की है , गर्मियों के दिनों में मैं एन डी ए  की प्रवेश परीक्षा देने बरेली गया हुआ था । चूँकि बरेली मेरे गाँव से करीब सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर है इसलिए सुबह की पाली में परीक्षा के लिए सीधे गाँव से पहुँचना  नामुमकिन था ।हमारे पिता जी बड़े ही जुगाड़ू किस्म के रहे है कही से दूर के मामा जी का पता निकाल लिया जो पुलिस में थे और उन दिनों बरेली में ही नियुक्त थे ।

परीक्षा से एक दिन पहले ही मैं बरेली चला गया । मामा जी शहर से बाहर नयी बसावट वाली कॉलोनी में किराये के मकान में रह रहे थे ।  तिकोनी बसावट वाली कॉलोनी का एक सिरा शहर से जुड़ा था तो दूसरा राजमार्ग को छूता था । तीसरी तरफ खुले खेत थे । नयी कॉलोनी में इंसानो ने जमीन को  फाँक फाँक कर बाँट तो लिया था पर मकान अभी  छीदे छड़े   ही थे ।

मकान के पहले तल पर गृह स्वामी का परिवार बसता था । दूसरे माले पर मामा जी रहते थे ।गृहस्वामी के दो बच्चे थे , एक लड़का और एक लड़की।
लड़के के हाव भाव ,इतिहास ,भूगोल में तो हमारे किशोर की कोई रूचि नहीं थी किन्तु धनात्मक , ऋणात्मक आवेशों के प्राकृतिक आकर्षण नियम में बंधे मन ने लड़की का कम समय में जितना हो सका , विश्लेषण  कर लिया था ।आँगन बुहारते मोहिनी की मुस्कान का परोपकार पा मन और भी रुचिकर हो उठा था । 

अगले दिन परीक्षा से निपट मैं वही रुक गया । खाना खा कोने में पड़ी पत्रिका के पन्ने पलटते नींद आ जाने की बाँट जोह रहा था । तभी  नीचे से  'साँप साँप ' की आवाज़ सुनाई दी ।नीचे जाकर देखा तो घर के कोने वाले स्टोर रूम में कही से सर्प घुस आया था । शायद नाली से आया होगा , गर्मी में बिलबलाता  छाँव ढूँढ़ता होगा ।मैंने दर्शन के अलावा कोई और प्रतिक्रिया  नहीं दी । गृहस्वामिनी के हाथ में पुरानी ढूढ़दार झाड़ू थी और मोहिनी के हाथ मे डंडा , पर हिम्मत कौन करे ! ' मोनू भैय्या होते तो मार देते,' कहाँ  चले गए मोनू भैय्या' , लाचारी भरे स्वर लिए मोहिनी ने कहा ।

उन दिनों मोबाइल फ़ोन आम आदमी की जेबों तक नहीं पहुंचा था । लिहाजा मोनू भईया के इंतज़ार के अलावा कोई चारा न था ।उन्होंने  दुपहरी में घर के आगे से गुजरते इक्के दुक्के राहगीरों को  रोका भी , पर सब कुछ न कुछ बहाना बना खिसक लिए ।

मैंने समझाने  की कोशिश की कि थोड़ा इंतज़ार कर लो शायद नाली  से ही बाहर निकल जाये । घर के मुख्या हिस्से में न जाये इसके लिए मैंने स्टोर  के दरवाज़े से टाट फँसा कर दरवाजा बंद कर दिया ।समझाया  कि थोड़ा शांति का माहौल बनाया जाये और प्राणी को मौका दिया जाये ।घर के इर्द गिर्द खुला जंगल था , तर्क था कि एक बार वो सर्प बाहर की नाली का रुख कर ले तो फिर आराम से उसे  घर से दूर जंगल की तरफ जाने को बाध्य किया जा सकता था ।

पर माँ बेटी की  ची पों  बंद न हुई और हो हल्ले से डरा सर्प और भी कोने में सिकुड़ कर बैठ गया ।किशोर मन धरम संकट में था । एक और बौद्ध मन जीवन को अवसर देने का पक्षधर था  तो दूसरी ओर मोहिनी मोनू भैय्या  का नाम ले लेकर पौरुष को ललकारे  जाती थी ।
इंसान अहिंसा और  कायरता में  भेद करने में चूकता आया है ।यही  चूक कई बार उकसावे का कारण  बनती है । उफ्फ   …क्यों कर हो । राह  चलते  गलती से कोई चींटी भी पाँव तले दब जाये तो बड़ा मलाल होता है । फिर वहाँ  तो बड़े प्राणधारी के वध का प्रश्न  था!
 
मानव चेतना की विडंबना और विरोधाभास तो देखिये । प्राणी वध करने की इच्छा मोहिनी की थी पर वो स्त्रीत्व का लबादा ओढ़े ताने मार कर ही कर्म से छुटकारा पा  रही थी । उधर बौद्ध के दर्शन शास्त्र का अनुगामी वो किशोर, मन में  तो 'जियो और जीने दो ' का  भाववृक्ष पोषित करता था ,जीवन को अवसर देने के पक्ष में था ,पर पौरुष कर्त्तव्य का भार उसे ढाये जा रहा था । पुरुष के चेहरे पे मूछें बाद में उगती है ,  दम्भ की मूछें पहले ही ताव खाने लगती है ।खून से बाल धोने की  इच्छा द्रौपदी की है ।  रण में अर्जुन किंकर्त्तवविमूढ़ है, किन्तु कर्त्तव्य और धर्म निर्वाह के आग़े मजबूर है । मूल स्वभाव और कंधो पड़े पौरुष भार की टकराहट दिमाग  में एक गुबार खड़ा कर देती है । संवेदनाये शून्य  हो जाती है , तर्क  को ग्रहण लग जाता है और स्थिति के त्वरित निपटारे को पशु रूप मुखर हो उठता है ।

फिर वही हुआ जैसा अक्सर इस तरह के हालातो में होता है ।
बिजली की तरह लपककर किशोर ने सीढ़ियों के किनारे रखा डंडा उठा ताबड़तोड़ प्रहार कर जीव के प्राण हर लिए  ।लड़की  और माँ के चेहरे पर जीत के  भाव उभर आये ,मोहिनी ने गहरी मुस्कराहट से फिर से परोपकारित  किया किन्तु बौद्ध मन में मलाल का ज्वर उमड़ आया था ।उस रात सपने में शिव जी आये और हिंसा और हत्या का स्पष्टीकरण माँगा । किशोर मन के पास पैरों में गिर गिडग़ड़ाने के अलावा कोई जबाब न था ।

कभी कभी इंसानो के गिरोह का हिस्सा होने का मलाल होता है जो दुनिया के निरीह बाकी प्राणियों को अपने पौरुष तले कुचलता , लीलता बढ़ा जा रहा है । संवेदी मन की हार व बौद्ध तत्व की कमी दुनिया को विनाश की सुरसा के मुँह में खींचे जा रही  है ।

अच्छा ही हुआ कि उस साल देहरादून के एस एस बी चयन बोर्ड ने उस किशोर को आर्म्ड फ़ोर्स की सेवा के लिए नकारा  घोषित कर दिया ।ऐसा सूक्ष्म संवेदी मन  अपने कर्तव्य से शायद ही न्याय कर पाता  । 

सोमवार, 9 जून 2014

रात का मुसाफिर



उलझे  विचारों की गुथ्थी सुलझाने के अनवरत प्रयास में अटका मैं सड़क पार करने को हरी बत्ती के इंतज़ार में प्रतीक्षारत था , तभी अकस्मात  किसी अनजान ने अपनी कोमल बाहें गले में डाल दी ।मुलायम सफ़ेद हाथ , लम्बी उंगलियाँ । अप्रत्याशित  व्यवहार  से मेरा हतप्रभ होना स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी ।उसके नाखूनों की नेलपॉलिश अभी सही से सूखी भी न थी । 

मेकअप की गहरी परतो में दबे उस चेहरे पे आग्रह के भाव थे । आँखों में आतिथित्य  का भाव , स्वागत में बिछ जाने की आतुरता थी  । अधरों पर प्रयास से लाधी गयी मुस्कान थी ।रात्रि के पहले पहर में स्ट्रीट लाइट की दूधिया रोशिनी में नहाये सड़क के उस छोर पर उसका ये जतन  एक मुसाफिर  में अवसर ढूंढने का एक आवश्यकतावश उपजा प्रयास ही था ।

ठंडी सी वैराग्य भरी भंगिमा  दे बिना कुछ बोले आग़े बढ़ गया मैं ।
आग्रह , निमंत्रण के तिरस्कार का बुरा मानने का वक़्त शायद उसके पास भी नहीं रहा होगा । 




सप्ताहांत की रात्रि के प्रथम पहर में  ,ऑर्चिड रोड के इस छोटे से दृश्य में कुछ भी नाटकीय नहीं है , न ही कुछ अतिश्योक्ति !
सिंगापुर द्वीप के सबसे मशहूर इलाको में से एक आर्चिड रोड शाम होने के साथ ही जवान होता है । सड़क के दोनों सिरो पर जवानी का एक दरिया सा बह निकलता है ।  भांति भाँति के रंग रूप । दुनिया के हर कोने के नर नार ।यहाँ खूबसूरती है ,चटक चमक है । निमंत्रण का भाव देती आँखे है ।
 हक्का नूडल्स है तो इतालियन पास्ता भी है । टर्किश कबाब है तो इच्छा होने पर रोटी पराता भी तैय्यार है!
 सस्ते ,सहज उपलव्ध फिलिपिनो व्यंजन तो हर जगह भरे पड़े है ।थाई मेखोंग से लेकर रसियन बोद्का तक की उपलब्ध्द्ता है । चटक रंगो का और स्वादों का कॉकटेल  आपको दिग्भ्रमित करता है और आपकी इच्छाशक्ति का कड़ा इम्तेहान लेता है । 

लेकिन सिंगापुर की सुंदरता का अक्स ऊपर दिए वर्णन से ही करना बड़ी भूल होगी । द्वीप की सुंदरता विरोधाभासों को समरसता के साथ समेटने के सफल प्रयास में है ।नाईट लाइफ की चमक  , सघन ,घने वनस्पति पार्को के साथ सामंजस्य बिठाये सहअस्तित्व का सन्देश देती है । भीड़ को चीर  बॉटनिकल गार्डन जाने वाली पगडण्डी की तरह जैसे जैसे कदम बढ़ते है ,माहौल ,भूगोल सब बदलने लगता है । इंसानो की भीड़ छितराने लगती है । इंसानो की जगह पेड़ ले लेते है । स्ट्रीट लाइट्स की रोशनी भी शर्मा के धीमी पड़ने लगती है । 
सॉफ्टवेयर कारखानो में काम करने के कारण बेडौल ,स्थूल  हुए जा रहे शरीर में नवप्राण फूँकने  का सपना लिए तेज़ी से बढ़ा चला जाता हूँ । 
चमक धमक की इस मायानगरी में सब कुछ कमाना होता है । पसीना भी !  पसीना कमाने की इच्छा अलसाये पैरो को जोर जोर से सीमेंट की पगडण्डी पर पीटने को मज़बूर कर रही है । 
बॉटनिकल गार्डन के सिरे पर जाकर ठहर गया हूँ । पूरब के सिरे की अट्टालिकाओं के पीछे से जोर का काला बादल ग़रज़ के साथ बढ़ा आ रहा है । वक़्त रहते अपनी आरामगाह  में लौट जाने में ही भलाई है । 
शायद आज रात आर्चिड रोड में जोर का मेह बरसेगा !


शनिवार, 7 जून 2014

मेहनत के फूल


मार्च में दिल्ली के  पूसा कृषि अनुसंधान केंद्र जाने का अवसर प्राप्त हुआ था । वापसी में वहाँ  से कुछ फूल पौधों के बीज लाया था जो घर की छत पर सीमेंट के खाली बोरो में  रोपित कर दिए थे । 

फिर कार्यवश बाहर गाँव आ गया तो उन पौधो की सुध न रही ।
आज छोटे भाई ने जब उन रंग बिरंगे फूलो से लधे पौधो के फोटो भेजे तो हृदय गदगद हुआ । तीन महीने में पौधे तैयार होकर अपनी जवानी में है ।

इससे भी ज्यादा ख़ुशी की बात ये है , पिता के मज़बूरी वश  बाहर जाने की दशा में पुत्र ने अपनी जिम्मेदारी को न सिर्फ समझा बल्कि बखूबी निभाया भी ।आप खुद ही देखे, उत्तर भारत की भीषण गर्मी में कैसे नंगे बदन अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन किया गया । 

बालक ध्रुव की मेहनत से खिले फूलो का रंग गहरा और चटक है !





शुक्रवार, 23 मई 2014

नए कंधे , पुराना ढोंग


फ्रांस की जनक्रांति के दौरान जब भूख और कुपोषण से परेशान मज़दूर, किसान  सड़को पर उतर आये और रोटी की मांग करने लगे तो फ्रांस की महारानी मैरी अंटोइनेटे ने उन्हें रोटी के अभाव में केक खाकर गुजारा करने की सलाह दे डाली थी ।महारानी के इस बयां का क्रांतिकारिओ ने खूब प्रचार किया था । आम जनता ने इस बयां को उनके कठिन हालातों का मखौल माना । 

ये बयां आपको भी अटपटा लग सकता है पर महारानी ने ये बयां गरीबो का मखौल उड़ाने के लिए दिया होगा ऐसा मैं कतई नहीं मानता । दरअसल, महारानी के इर्द गिर्द जिन चाटुकारो , सलाहकारों का जमावड़ा था वो सब धनाढ्य वर्ग से आते थे । दो जून की रोटी भी कोई समस्या हो सकती है , महारानी को इसका इल्म न था । केक लक्ज़री नहीं, दिन प्रतिदिन की भोजन सूची में शामिल था । 
 
जनसाधारण की आकांक्षाओं के कंधो पर चढ़ जब कोई नया नायक उभर कर सामने आता है तो उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती तृणमूल से जुड़े रहने की होती है ।चुनौती होती है जनमानस का मूड भाँपने की , उनकी आकांक्षाओं ,दबी आवाज़ो को बुलंद करने की । आप अगर चाटुकारो की  फ़ौज़ से घिर गए और जमीनी हकीकतों से कट गए तो समझो पतन शुरू हुआ ।

 दिन प्रतिदिन के अरविन्द केजरीवाल के व्यवहार में भी सच्चाई से कट जाने और अप्रासंगिक विचार,सुझाव  मंडली से घिर जाने के लक्षण प्रतीत होते है । दिल्ली में 'आप' का प्रादुर्भाव दबी कुचली जन इच्छाओ, छटपटाहटो  और भ्रष्टाचार का कुचक्र तोड़ने की कोशिशो का एक प्रयास था । लेकिन परिवर्तन की इस नाव के चालक दल ने समय के साथ जो दिशा पकड़ी है उससे लगता है कि ये प्रयोग पतन की ओर है । 

भ्रष्टाचार उन्मूलन के मूल मंत्र से पथ भ्रमित अरविन्द केजरीवाल ने उन सब पैंतरों  का इस्तेमाल किया  है जो  ठीठ , पुराने नेता और राजनैतिक दल समय समय पर करते रहे है । न्यायालय की अवमानना कर जेल जाना, जनता में सहानभूति पैदा करने का एक प्रपंच मात्र ही लगता है । 
'आप' के भावुक समर्थक शायद इत्तेफाक न रखें पर माफ़ करना , 'आप' के व्यवहार में बदलाव की हवा नहीं बल्कि जड़ता और पुरातन की सड़ांद ही महसूस होती है ।

                                                                'आप' का एक पुराना समर्थक 
 

गुरुवार, 1 मई 2014

एक अनुत्तरित पत्र



कभी कभी यूँ  होता  है कि आप बड़ी ग़रज से काम के किसी दस्तावेज  की तलाश में अपनी अलमारी में बेहतरतीब  लगी क़िताबों को उलट पलट रहे होते है । अलमारी के उन कोनो में झाँक रहे होते है जहाँ  सालो से सिर्फ़ और सिर्फ़ धूळ  का हीं साम्राज्य रहा  होता है । बन्द पड़ी किताबो के पीले पड़ते पन्नों को पलटते है इस आस में कि न जाने कहीँ आपकी ज़रूरत का  पेपर हाथ लग जाये ।
या आप अपंने मेलबॉक्स के आर्काइव्स में झाँक रहे होते है ।
ऐसे में वो जरूरत का दस्तावेज़  तो हाथ नहीं आता ,पर कुछ ऐसा  दिख जाता है जो बड़ा ही अप्रत्याशित होता  है ।कोई पुराना खत ,कोई  पुरानी  मेल दिख पडती है जो आपकों अतीत में खीच ले जाती  है ।

आज एक ऐसा ही एक भावुक मेल पत्र  हाथ लगा जो कभी  सालों पहले उस युग के प्रेमी मन ने लिखा था । यादों का एक पिटारा सा खुल गया है।धुंधले चेहरे फिर से चटक हो उठे है । 
बहुत कुछ याद आ पड़ा  है झपाक से याद आ गया है वो गुड़गांव का किराये का मकान । वो दोस्त जिससे देर रात तक दुनिया जहान की बातें होती थी ,सब तरह की बातें ! उसके सलाह मशवरे याद आते है जो अक्सर नाकाम हो जाते थे ।याद आ जाती है वो मकान मालकिन जो उम्र के लिहाज़ से तो आँटी ही दिखती थी पर जिसने हमसे साफ़ साफ़ शब्दों में बोला था कि हम उसे भाभी जी बुलाकार ही सम्बोधित करें । 

उस पृष्ठभूमि में और उस काल में ही रचित किया गया था ये प्रेम पत्र । घंटो की मेहनत और अंग्रेजी डिक्शनरी का इस्तेमाल करके लिखा गया ये पत्र उस युग के प्रेमी की करुण चीत्कार है । इसमें मुन्हार है, मान मनोव्वल की कोशिश है , भावनाओं का समंदर है जो उस दौर के मानस में उमड़ा था । सम्मोहन  ,खिचाव ,प्रेम पिपासा  की लबलबाती एक नदी है ।
 एक ऐसी नदी जो भावहीन ,निष्ठुर और संवेदनहीन मरुभूमि में भटकती , राह बनानें  क़ी नाकाम कोशिश करते हुए दम तोड़ देती है ।उस युग के प्रेमी को आस थी कि भले ही तब तक के सारे टोटके असफल ,निष्तेज साबित हुए हो ,पर इस मनुहार का  जबाब जरूर आएगा ।

उसके बाद दिन गए , महीने गए फिर साल भी  गुजर गये । ज़िन्दगियाँ  अपने अपंने रास्ते निकल चलीं , पत्र अनुत्तरित ही रह  गया । शायद अच्छे के लिए ही!

आज सोचता हूँ कि अंग्रेजी में न लिखकर अगर हिँदी मेँ लिखा होता तो शायद शब्द चयन की आसानी होती और भावनाएं भी बेहतर उभर पातीं । हालाँकि अंतिम परिणाम हार ही होता क्योंकि पत्थरदिल चट्टान से सामना था । और चट्टान से टकराकर तो लहर को ही बिखरना होता है ।

हालाँकि पत्र अंग्रेजी में क्यों लिखा गया इस बात को लेकर भी मनोवैज्ञानिक विशलेषण किया जा सकता  है । प्यार का मॉडल अंग्रेज़ीदा हो चला है शायद इसलिए । अपनी संस्कृति और जुबान भी प्यार के इज़हार में असहज महसूस कराती है , टूटीं फूटीं अंग्रेजी में 'आई लव यु ' के उदगार उस सांस्क़तिक असहजता  से निज़ाद दिला देते है ।

कौन कहता है कि भूलना , बिसरा देना एक बीमारी  है । यही तो कुदरत की एक नेमत है कि आज का मन मुस्कराहट के साथ इस प्रेमपाती  को मसालेदार खबर क़ी तरह पढ़ रहा है ।
वर्ना ,उस दौर में तो दिल ख़ून  के आँसू रोया था  !





रविवार, 27 अप्रैल 2014

विदेशी बाजार में देसी फल



सिंगापुर के एक बड़े सुपरमार्केट मे  घूमते हुए यूँ ही अचानक नजर शेल्फ में बड़े करीने से सजे इस फल पर पड  गयी । नजदीक  से देखा  तो पाया ये तो अपना जाना पहचाना देहाती फल है जिसकी दावत हम यूँ हीं खेत खलियानों में  घूमते हुए उड़ा लिया करते  थे । नाम भी शायद कुछ स्थायी नहीं है  , हमारे  यहाँ तो बच्चे वीरबताशा कहकर बुलाते  है । होता भी सचमुच बताशे जैसा मीठा है । 

भारत में इसका व्यावसायिक उत्पादन न के बराबर है । अधिकतर क्षेत्रों में ये खरपतवार के रुप मेँ ही  उगता है । वैसे इसका अंग्रेजी नाम पिसलिस   गूसबेरी (PHYSALLIS GOOSEBERRY) है । 
 सिंगापुर में ये फल कोलंबिया से आयातित किया जाता है । डेढ़ सौ ग्राम के पैकेट की कीमत है लगभग तीन सिंगापुर डॅालर!
गुणा भाग करे तो अपने रूपयें के हिसाब से ये फल यहाँ लगभग नौ सौ पचास रुपए किलो के हिसाब से बेचा जा रहा  है । 

विटामिन ए एवं विटामिन सी से भरपूर ये फल खॉसी , बुखार से लेके वजन घटाने तक के लिये लाभकारी है ।सलाद के रूप में भी इसका चलन बढ़ा है । 
तो अगली बार गर्मियों की छुट्टियों में जब आप ग़ाँव जाये और खेत खलियानों में टहलते हुए इस प्यारे वीरबताशे के दर्शन हो जाएं तो उसे यूँ ही खरपतवार समझ नज़रअंदाज़ न करे । सिंगापुर में इसके कदरदान इसे हज़ारो मील दूर कोलंबिया से आयातित कर प्रयोग कर रहे है। 


शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

बावरा मन





उस दिन अचानक तुम यूँ ही दिख पड़ी थी गुडगाँव के उस मॉल की सीढ़िया उतरते  हुए । एक क्षण को तो पहचान ही न पाया ।पहचानता भी कैसे , तुम इतना  जो बदल गयी हो  ।बोलने के लिए दो शब्द भी न जुटा पाया । सही किया तुम शायद पहचान भी न पाती । बोल तो तब भी न पाया था जब बोलना  चाहिए था । अब तो गृहस्थी के घेरे बंध गए है इधर भी ,उधर भी ।

सच में ,शर्मीला होना भी एक त्रासदी है । भावनाओं का , उलझे विचारों का , इच्छाओं का एक भॅवर सा उमड़ता है पर संकोच का कवच भेद दो शब्द बाहर नहीं आ पाते । पल्ले आती है तो सिर्फ झुंझलाहट । बारिश  में भीगी पत्तियों के ढेर में लगी आग की  सुलगन की तरह , ना भड़कती है , ना मरती है ।

पर ये जो समय है न , बड़ा ही बलबान है । सब कुछ बदल छोड़ता है ,यादें भी ।आज जिसे तुम अपनी जिंदगी की त्रासदी समझ निढाल हुए जाते हो , कल हो सकता है महज एक संस्मरण बन कर रह  जाये । महज एक याद , भावना का लेस भी शायद जाता रहे ।

तुम एक ऐसी स्मृति ही हों , भावना के अंकुर  तो कब के  सूख गए ।
फिर भी ,न जाने क्यों देर तक पीछे मुड़कर  देखता रहा तुम्हे , जब तक तुम मॉल के मुख्य द्वार से  ओझल न हो गयी । तुम्हारी बेटी बिलकुल तुम ही पे  गयी है । वही नाक नक्श ,दिये  सी चमचमाती आँखे , वही सूरज को शर्माता उजला रंग । कही से भी नहीं उतरी । शायद जिद्दी भी होगी ,तुम्हारी ही तरह।  निष्ठुर !



तुम कितना बदल गयी हो , पिछले कुछ ही सालों में । मोटी हो गयी हो , समय की  लकीरें माथे पे साफ़ दिखती है ,हिना में रंगे कुछ बाल भी सफेदी की दुहाई देते दीख पड़ते है । अब भी सुन्दर हो कोई दोराय नहीं , पर वो रूप कहाँ जिसे मैंने अपने मानस की गहराइयो में दबा संजो के रखा है ।
कॉलेज में तो साँसे थम जाया करती थी नजरो के साथ साथ  । किसी सिद्ध योगी के ध्यान सा अनुभव देता था तुम्हारा साक्षात्कार । मन बाँध लिया था तुमने ,सम्मोहन का अटूट तिलिस्म था जो कभी न टूटता था ।

पहले तुम हँसती थी तो आँखे नाच उठती थी ,फूल से झड़ते थे ।तुम्हारी परछाई को भी छू मन झूम उठता था । तुम आज  भी हँसी थी पर वो उल्हास न था ,महज खानापूर्ति थी  ।पहले  तुम कितना सजती थी , बालो की लटे बार बार झटकती थी । बाल आज  भी ठीक ठाक से बंधे थे  पर उपेक्षा की दुहाई देते थे  , शायद अब तुम्हारा सारा ध्यान तुम्हारी बिटिया पे रहता होगा ।तुम अब आँटी हो चली हो , किसी खाते पीते घर की आँटी, दूसरी आँटियों की ही तरह , साधारण !
 क्रूर है, पर तुम्हारे आंटी होने में मन को बड़ा सुकून है। तार्किक  मन, भावुक मन को समझा रहा है कि कॉलेज का प्यार महज एक कैमिकल लोचा था जो अक्सर उस उम्र में  हुआ करता है। परी तो दिमाग में ही बसती  थी , तुम हमेशा से ही साधारण थी । 

समय की लकीरें इधर भी खिची हैं।  और भी ज्यादा गहरी, और भी ज्यादा उलझी हुई ।मॉल से लौटते हुए एक दुकान के शीशे में झांकता हुँ , कनपटी के सफ़ेद बाल अब प्रबल होते जा रहे है ।
बूढ़ा हम भी रहे हैं ,पर शायद हमारे अंकल होने में किसी को सुकून न आये । हम कभी किसी के सपनों के राजकुमार  जो न थे ।










 

सोमवार, 3 मार्च 2014

खूब रोई दमयन्ती


अभी पिछले दिनों अपने गाँव की एक शादी में शिरकत का मौका मिला ।  सिंहासन पे बैठी वधुबाला  वर को अपने रिश्तेदारो से परिचित करा रही थी । दोनों एक दुसरे को पहले से ही जानते थे , अपनी पसंद से ही शादी कर रहे थे । दोनों अच्छे पढ़े लिखे , दोनों कमाने  वाले  । परिवार वालो ने सहर्ष स्वीकार किया था दोनों का फैसला । विदाई हुई तो माहौल कुछ ग़मगीन सा हुआ , पर आँसू रिवायती ही जान पड़ते थे ।
आह न थी , टूटने की करुण चीत्कार न थी । अच्छा ही है , परिवर्तन का दौर महिला सशक्तीकरण और बेहतर जीवन का आश्वासन देता जान पड़ता है । 
 
कल अमृता प्रीतम की एक किताब पढ़ रहा था । किताब  चालीस पचास के दौर में भारतीय नारी के जीवन संघर्ष की दास्तां से भरी हुई है । रुँआसा हो आया था मन , कितना त्याग , कितना समर्पण फिर भी नरक सा जीवन । 
अहसास हुआ , अरे वो दौर तो हमारे बचपन तक खिंचा  था ।अतीत के अधियारे युग के उत्तरार्ध के साक्षी तो हम भी रहे है । बाल विवाह ,बेमेल विवाह ,अशिक्षा और महिला वस्तुकरण के  दौर के मूक गवाह हम भी रहे है ।  अमृता की सहेलियों का जिक्र उनकी किताबों में तो आया । गाँव टोलो  की न जाने कितनी मासूम तो गुमनामी के अँधियारो में अपना जीवन काट चुकी ,कुछ जीवन पथ पर घिसट रही है। 

ऐसा ही एक वाकया है दमयंती के विवाह का । जिसे मैंने खुद अपने कानो से अपनी दादी से सुना था । 

दमयंती एक हँसती खेलती इकहरे हाड की बच्ची थी । अपनी हमउम्र सहेलियों जैसी ही । स्कूल से दूर दूर का भी वास्ता न था । घर का चौका बर्तन करती । उपले गोबर का काम करती । गाय भैंसो की देख भाल करती । फुर्सत होती तो पड़ोस की सहेलियों संग गुड़िया गुड्डो का खेल भी खेल लेती । दमयंती के बापू लम्बे कद के रौबीले इंसान थे । रंग साँवला था पर खाए पिए की चमक चेहरे पे दिखती थी । रौबीली मूछे थी , आवाज़ मूछों से भी ज्यादा रौबीली थी । जमीन जयदाद अच्छी खासी थी । तब शादी विवाहों के फैसले चौपालों पे हुक्का गुड़गुड़ाते हुए ही हो जाया करते थे । दमयंती के बापू ,दमयंती के रिश्ते की जुबान पास के गाँव के सरपंच को दे चुके थे । 

काल बड़ा बलबान होता है , जब जिसका बुलावा आ जाये , जाना पड़ता है । दमयंती के बापू का भी बुलावा आ गया । निर्मोही ने छोटे छोटे बच्चो का भी कुछ न सोचा । दमयंती खूब रोती  थी ,पर ऊपर वाले की मार के आगे सब निहत्थे है । 

इधर बापू की तेहरवीं निपटी उधर पास गाँव के सरपंच ने शादी का दबाब बनाना शुरू कर दिया । सीधी साधी दमयंती की माँ ना  भी ना  कर सकी । तय हुआ , गेहुं की फसल उठते ही बारात आ जायेगी । ग्यारह बारह साल की दमयंती को इस सब का कुछ  पता न था । पता होता तो भी उसे  कौन सा न करने का अख्तियार मिल जाता । उस दौर के बच्चों को ग्यारह बारह साल की उम्र में जीवन ज्ञान  कम ही होता था ।

 
 खैर दिन आया , बारात द्वारे आ पहुंची । दूल्हा दमयंती से उम्र में बहुत बड़ा था । पच्चीस छबीस का तो रहा ही होगा । परिवार , गाँव की औरतो ने खूब लानते दी । क्या देखा ? फूल सी नन्ही लड़की और ये पत्थर सा ,उम्रदराज  वर । वर के व्यवहार और चाल ढाल में भी मृदुलता न थी । कोई मेल न था । पर उस पुरुष प्रधान समाज में किसी की हिमाकत न थी कि जी खोल के बोल भी दे । 

 दमयंती भावहीन थी । न दुःख का भाव ,न कोई ख़ुशी । हो सकता है उसके  बालमन ने सदमे और गम में भावहीनता धारी हो या हो सकता है कि उस कम उम्र में कुछ समझ ही न रही हो कि उसका जीवन भाग्य बंधा जाता है । विदाई का समय आया । दमयंती न रोई ,न सुबकी । बस बुत सी बनी रही ।किराये की अंबेस्डर कार द्वारे आ खड़ी हुई । परिवार पड़ोस की बड़ी औरतों ने दमयंती को समझाया । री भलमानस झूठ माट का ही रो दे , अपशगुन हुआ जाता है । उन दिनों बिना दहाड़े मार मार रोये कोई डोली न उठती थी । दमयंती न रोई ।औढ़नी में दमयंती को लपेटे औरतों का जमघट कार की ओर  बढ़ चला । मोहल्ले की सबसे बुजुर्ग और समझदार चौधरन से रहा न गया । गाँव टोले की बेइज़ज़ती हुए जाती थी । क्या सोचेंगे रिश्तेदार । लड़की कैसी निर्लज है , रोई तक नहीं । घर वाले दुःखी रखते होंगे जो ऐसे मौके पे चुपचाप है । दमयंती की सुर्ख लाल ओढ़नी में चुपके से अपनी सूखी, कठोर कोहनी घुसा एक जोर की कोहनी दमयंती की भूखी कोख में दे मारी । चौधरन बूढी जरूर थी पर मजबूत हाड थी । 
बेचारी दमयंती की चीख निकल गयी । दर्द के मारे फ़क्फका के रो पड़ी । चौधरन ने बच्ची को गले से लगा लिया और रुँआसी होकर बोली ' रो मत लाडो , पीहर में किसका गुजारा  है , सबै ही जाना होता है ।'
दूसरी औरतो ने हाँ में हाँ मिला दी । सब फूट फूट के रोई । शायद सबको अपने दिन याद आये होंगे । मायके के दिन , अल्हड लाड दुलार के दिन । 
फिर गुजरियों ने मिलकर गीत ठा लिया ' लाडो रोवै मत ना , धीरज खोबे मत ना........ "
 विदा हो गयी दमयंती , साथ विदा हो गया उसका बचपन । एक नन्ही जान का बचपन छिन  गया समाज ने उफ्फ तक न की । 

अगले दिन शाम के पहर ढोर डंगरों के काम से निपट चौधरन , दादी के साथ हुक्कडी गुड़गुड़ाते  हुए वृतान्त सुना सुना के खूब हंसी ।  उस दौर में नारी जाति  का यही भाग्य था । किस्मत हुई तो अच्छा साथी मिल गया , बर्ना जिसके साथ बाँध दी उसी की हो चली । आम बात थी बेमेल ,बाल विवाह और आम बातों का मलाल कौन करता है ।गाँव टोले की इज्जत रह  गयी । चौधरन की कोहनी के  वार और नासमझ बच्ची की करुण चीत्कार ने रीत रिवाज़ को जिन्दा रखा था ।

                                                                                                            सचिन कुमार गुर्जर


शब्दावली :
पीहर : माँ का घर।, मायका
ढोर ,डंगर : पालतू पशु

* कहानी में पात्रों के नाम काल्पनिक है

रविवार, 2 मार्च 2014

छुटपुट जिसे है समझा


सालों बाद कॉलेज मित्र श्रीमन खजान सिंह किरोला जी से भेंट हुई , तो कॉलेज दिनों की यादें ताज़ा हो गयी ।कॉलेज में ध्रुवीकरण के दौर में जब सभी साथियों ने धुरी ताकतों का दामन थाम लिया था ,तब  हम नेहरू ,टीटो की तरह गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अग्रदूत रहे । कॉलेज राजनीति और आधिपत्य के शीतयुद्ध में हमारी महत्वहीनता और अप्रासंगिकता के चलते हमे छुटपुट गिरोह की संज्ञा दी गयी ।गम्भीरता से विश्लेषण किया जाये तो गुमनाम,महत्वहीन  और छुटपुट समझे जाने वालो ने ही संसार गढ़ा है ।

 गुमनाम छुटपुट, चुपचाप राष्ट्रनिर्माण में लगे साथियों के नाम चंद पंक्तियाँ :

 छुटपुट जिसे है समझा  ,वो  रुस्तम बहुत बड़ा है।
 चुटकी सा छोटा दाना , बरगद  लिए  पड़ा है ।

 उगते नए सिकंदर सम्राट जिसके  दम से ,
 जीते गए पुरंदर,यलगार जिसके दम से ,
 गुमनाम सा कोई सैनिक, सीना लिए खड़ा है ।

 गौरव कथा सुनाती , फौलाद सी दीवारें।
 टकरा के लौटे कितने  ,न पड़ सकी दरारें। 
 सर्वस्य लुटा कोई पत्थर ,दबा नींव में  पड़ा है ।

गुमनाम ,छुटपुटो ने ही ,  इतिहास मिल गढ़ा है। 
गाँधी तभी बना है ,जब  गुमनाम संग लड़ा है। 
दुनिया बदल गयी है , जब जब ये चल  पड़ा है ।

छुटपुट जिसे है समझा , वो रुस्तम बहुत बड़ा है ।
 
                                                                 सचिन कुमार गुर्जर













       





गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

नानी ले चली ननिहाल





उस दिन जब लम्बे अर्से बाद मामा से बात हुई तो वो फ़ोन पे ही डांटने लगे।  क्यों रे , कुछ  ज्यादा ही बड़ा आदमी हो गया है , अब ननिहाल की  याद नहीं आती । घिसा पिटा  सा व्यस्तता का तर्क दे बात सम्भाली थी मैंने । कौन बताता उन्हें कि अब मन नहीं लगता उधर । दो  साल से ऊपर हो गए नानी को गए हुए । नानी ही न गयी एक पूरी दुनिया चली गयी किस्से कहानियो की  दुनिया , लाड दुलार की  दुनिया । 

अलग ही था वो जमाना ।  साल भर इंतज़ार होता था गर्मियों की छुट्टियों का । गर्मियां आएँगी और हम जायेंगे नानी के गाँव ।ना  फ़ोन,ना  चिट्टी पत्री का तकल्लुफ , फिर भी पता नहीं माँ और नानी में  कैसे संवाद हो जाता था कि हम  ज्येठ के फ़ला दिन पधारेंगे  । 
घोड़े तांगे में बैठ हम जाते तो मन कुलांचे मारता । तीनो भाइयो के कपडे एक से , एक ही थान  से बने । 
भाइयो में मैं सबसे बड़ा था सो माँ के कपड़ो की कंडिया (जालीदार झोला) मैं  ही सम्भालता । कपड़ो के बीच में एक दो नंदन या चम्पक या नन्हे सम्राट भी ढूंस लेता  और बाद में आराम से नीम के पेड़ तले बड़े चाव से एक एक कहानी पढता  ।

नानी पलकें  बिछा द्वारे पे बाँट जोहती मिलती , पूरा घर गौ माता के ताज़े गोबर से लीपा होता , मानो कोई त्यौहार हो । ताँगे  से हमारे उतारते ही  देर  तक पुचकारती , लम्बी उम्र की दुआए देती जाती ।
खीर पूड़ी खिलाती । उस दुनिया में हमारी सारी  गलतियाँ , सारी  शरारते माफ़ थी । नानी के सामने माँ की एक भी ना चलती थी ।


 कच्चे रास्ते पर दूर तक अमराही  थी,जामुन के दरख़त थे । पूरी दोपहर ट्यूबवेल  में डुबकी लगाने में या कानपत्ता(पेड़ से लटकने का एक देहाती खेल) खेलने में जाती ।  वैसे ननिहाल तो नानी के स्वर्गवास से पहले ही सिमटने लगी थी । सड़क किनारे के पेड़ काट लाला ने अपनी पक्की दुकाने बनवा दी ,  परचून की , टायर पंचर की , चाट पकोड़ी की । 
अब तो मामा ने भी दूकान चला ली है , खेती करना अब रसूख़ का धंधा नहीं ,हाड़तोड़ ज्यादा है और आमद कम ।  फिर धीरे धीरे दुमंजिले मकानो की कतार खड़ी  हो चली । छोटा मोटा कस्बाई अड्डा सा बन चली अपनी स्वप्निहाल  । 

नानी हमारी उस  दुनिया की  आखिरी कड़ी थी ।
नानी तुम क्यों चली गयी, क्या जल्दी थी । बाहर का मर्द तो सांसारिक ,व्यवाहरिक ज्ञान का लवादा औढ़े स्थिर प्रतीत होता है पर क्या तुम्हे पता है अंदर का बालक आज भी सुबकता है। किस हक़ से छीन चली वो दुनिया ,जिस पे हमारा अख्तियार होना चाहिए था ,आखिर उस दुनिया के राजकुमार हम थे । नानी तुम अकेली न गयी , ननिहाल भी  ले चली ।




बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

चाय के बहाने





बोझिल है मन , सूखी आँखे ।
                                बाहर हरियाली जब खिड़की झाँके
मौसम  खोकर क्या पायेगा तू ?चल आँख सेककर आना है ।
 चाय तो एक बहाना है!

बिगड़ रहे सारे इकुएशन ।
                             ना  पी. बी. सी.*, ना  प्रमोशन ।
जले कलेजा क्यों अपना ही फिर? अब बड़को का भी खून जलाना है ।
चाय तो एक बहाना है!

थोड़ी खुशियाँ ,थोडा सा गम ।
                              पत्ती ज्यादा , चीनी थोडा कम ।
व्यर्थ इतना गम्भीर बाबरे ,अरे सब यही तो रह जाना है ।
 चाय तो एक बहाना है !

उठा पटक संसद के अंदर ।
                            गधे, घोड़े ,खच्चर  और बन्दर। 
तर्क तराजू  तोलो , साधो ,किसको इस बार जिताना है ।
 चाय तो एक बहाना है !



शब्दावली -
पी. बी. सी. : आधुनिक कारखानो में मजदूरों की कार्यकुशलता मापने की  एक गूठ मापक विधि है , जिसे साधने का गुण विरलों में ही होता है ।
        
 

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

ऐसी भी क्या हड़बड़ी थी भैय्या



दिया प्रज्वलित होने के साथ ही भभक  उठे , भड़भड़ा उठे तो समझो दीर्घायु नहीं । 
ज्योत स्थिर जले ,धैर्य के साथ , तभी लम्बी जलती है और लम्बे अँधियारे को काटने के लिए दीर्घता ,अनवरत संघर्ष क्षमता अनिवार्य है । 

सर्दी गयी और मफलरधारी भी निकल लिए । क्या जल्दी थी केजरीवाल जी । बुराई के बड़े झाड़ न उखड़ते थे तो छोटी छोटी  समस्याएँ क्या कम थी । छक्के मारना ही बल्लेबाजी नहीं ,एक एक रन जमा कर भी रनो का अम्बार लगाया जा सकता है । आम आदमी होने का दम्भ भरते हो फिर सुपरमैन बनने का भूत क्यों कर सवार हुआ ।

स्वराज की लड़ाई लम्बी है , महीने दो महीने में चमत्कार की उम्मीद चाटुकारो को ही रही होगी या वो जिनके सिर बादलों में है । जमीनी सच्चाइयाँ भिन्न हैं , भ्रष्टाचार ,कुशासन से बंजर देश की माटी की सीरत बदलने को बरसों हाड़तोड़ मेहनत का कोई विकल्प नहीं है । 
निराश किया है आपने । ऐसी भी क्या हड़बड़ी थी भैय्या ।  








श्रद्धा भाव

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