सोमवार, 3 मार्च 2014

खूब रोई दमयन्ती


अभी पिछले दिनों अपने गाँव की एक शादी में शिरकत का मौका मिला ।  सिंहासन पे बैठी वधुबाला  वर को अपने रिश्तेदारो से परिचित करा रही थी । दोनों एक दुसरे को पहले से ही जानते थे , अपनी पसंद से ही शादी कर रहे थे । दोनों अच्छे पढ़े लिखे , दोनों कमाने  वाले  । परिवार वालो ने सहर्ष स्वीकार किया था दोनों का फैसला । विदाई हुई तो माहौल कुछ ग़मगीन सा हुआ , पर आँसू रिवायती ही जान पड़ते थे ।
आह न थी , टूटने की करुण चीत्कार न थी । अच्छा ही है , परिवर्तन का दौर महिला सशक्तीकरण और बेहतर जीवन का आश्वासन देता जान पड़ता है । 
 
कल अमृता प्रीतम की एक किताब पढ़ रहा था । किताब  चालीस पचास के दौर में भारतीय नारी के जीवन संघर्ष की दास्तां से भरी हुई है । रुँआसा हो आया था मन , कितना त्याग , कितना समर्पण फिर भी नरक सा जीवन । 
अहसास हुआ , अरे वो दौर तो हमारे बचपन तक खिंचा  था ।अतीत के अधियारे युग के उत्तरार्ध के साक्षी तो हम भी रहे है । बाल विवाह ,बेमेल विवाह ,अशिक्षा और महिला वस्तुकरण के  दौर के मूक गवाह हम भी रहे है ।  अमृता की सहेलियों का जिक्र उनकी किताबों में तो आया । गाँव टोलो  की न जाने कितनी मासूम तो गुमनामी के अँधियारो में अपना जीवन काट चुकी ,कुछ जीवन पथ पर घिसट रही है। 

ऐसा ही एक वाकया है दमयंती के विवाह का । जिसे मैंने खुद अपने कानो से अपनी दादी से सुना था । 

दमयंती एक हँसती खेलती इकहरे हाड की बच्ची थी । अपनी हमउम्र सहेलियों जैसी ही । स्कूल से दूर दूर का भी वास्ता न था । घर का चौका बर्तन करती । उपले गोबर का काम करती । गाय भैंसो की देख भाल करती । फुर्सत होती तो पड़ोस की सहेलियों संग गुड़िया गुड्डो का खेल भी खेल लेती । दमयंती के बापू लम्बे कद के रौबीले इंसान थे । रंग साँवला था पर खाए पिए की चमक चेहरे पे दिखती थी । रौबीली मूछे थी , आवाज़ मूछों से भी ज्यादा रौबीली थी । जमीन जयदाद अच्छी खासी थी । तब शादी विवाहों के फैसले चौपालों पे हुक्का गुड़गुड़ाते हुए ही हो जाया करते थे । दमयंती के बापू ,दमयंती के रिश्ते की जुबान पास के गाँव के सरपंच को दे चुके थे । 

काल बड़ा बलबान होता है , जब जिसका बुलावा आ जाये , जाना पड़ता है । दमयंती के बापू का भी बुलावा आ गया । निर्मोही ने छोटे छोटे बच्चो का भी कुछ न सोचा । दमयंती खूब रोती  थी ,पर ऊपर वाले की मार के आगे सब निहत्थे है । 

इधर बापू की तेहरवीं निपटी उधर पास गाँव के सरपंच ने शादी का दबाब बनाना शुरू कर दिया । सीधी साधी दमयंती की माँ ना  भी ना  कर सकी । तय हुआ , गेहुं की फसल उठते ही बारात आ जायेगी । ग्यारह बारह साल की दमयंती को इस सब का कुछ  पता न था । पता होता तो भी उसे  कौन सा न करने का अख्तियार मिल जाता । उस दौर के बच्चों को ग्यारह बारह साल की उम्र में जीवन ज्ञान  कम ही होता था ।

 
 खैर दिन आया , बारात द्वारे आ पहुंची । दूल्हा दमयंती से उम्र में बहुत बड़ा था । पच्चीस छबीस का तो रहा ही होगा । परिवार , गाँव की औरतो ने खूब लानते दी । क्या देखा ? फूल सी नन्ही लड़की और ये पत्थर सा ,उम्रदराज  वर । वर के व्यवहार और चाल ढाल में भी मृदुलता न थी । कोई मेल न था । पर उस पुरुष प्रधान समाज में किसी की हिमाकत न थी कि जी खोल के बोल भी दे । 

 दमयंती भावहीन थी । न दुःख का भाव ,न कोई ख़ुशी । हो सकता है उसके  बालमन ने सदमे और गम में भावहीनता धारी हो या हो सकता है कि उस कम उम्र में कुछ समझ ही न रही हो कि उसका जीवन भाग्य बंधा जाता है । विदाई का समय आया । दमयंती न रोई ,न सुबकी । बस बुत सी बनी रही ।किराये की अंबेस्डर कार द्वारे आ खड़ी हुई । परिवार पड़ोस की बड़ी औरतों ने दमयंती को समझाया । री भलमानस झूठ माट का ही रो दे , अपशगुन हुआ जाता है । उन दिनों बिना दहाड़े मार मार रोये कोई डोली न उठती थी । दमयंती न रोई ।औढ़नी में दमयंती को लपेटे औरतों का जमघट कार की ओर  बढ़ चला । मोहल्ले की सबसे बुजुर्ग और समझदार चौधरन से रहा न गया । गाँव टोले की बेइज़ज़ती हुए जाती थी । क्या सोचेंगे रिश्तेदार । लड़की कैसी निर्लज है , रोई तक नहीं । घर वाले दुःखी रखते होंगे जो ऐसे मौके पे चुपचाप है । दमयंती की सुर्ख लाल ओढ़नी में चुपके से अपनी सूखी, कठोर कोहनी घुसा एक जोर की कोहनी दमयंती की भूखी कोख में दे मारी । चौधरन बूढी जरूर थी पर मजबूत हाड थी । 
बेचारी दमयंती की चीख निकल गयी । दर्द के मारे फ़क्फका के रो पड़ी । चौधरन ने बच्ची को गले से लगा लिया और रुँआसी होकर बोली ' रो मत लाडो , पीहर में किसका गुजारा  है , सबै ही जाना होता है ।'
दूसरी औरतो ने हाँ में हाँ मिला दी । सब फूट फूट के रोई । शायद सबको अपने दिन याद आये होंगे । मायके के दिन , अल्हड लाड दुलार के दिन । 
फिर गुजरियों ने मिलकर गीत ठा लिया ' लाडो रोवै मत ना , धीरज खोबे मत ना........ "
 विदा हो गयी दमयंती , साथ विदा हो गया उसका बचपन । एक नन्ही जान का बचपन छिन  गया समाज ने उफ्फ तक न की । 

अगले दिन शाम के पहर ढोर डंगरों के काम से निपट चौधरन , दादी के साथ हुक्कडी गुड़गुड़ाते  हुए वृतान्त सुना सुना के खूब हंसी ।  उस दौर में नारी जाति  का यही भाग्य था । किस्मत हुई तो अच्छा साथी मिल गया , बर्ना जिसके साथ बाँध दी उसी की हो चली । आम बात थी बेमेल ,बाल विवाह और आम बातों का मलाल कौन करता है ।गाँव टोले की इज्जत रह  गयी । चौधरन की कोहनी के  वार और नासमझ बच्ची की करुण चीत्कार ने रीत रिवाज़ को जिन्दा रखा था ।

                                                                                                            सचिन कुमार गुर्जर


शब्दावली :
पीहर : माँ का घर।, मायका
ढोर ,डंगर : पालतू पशु

* कहानी में पात्रों के नाम काल्पनिक है

रविवार, 2 मार्च 2014

छुटपुट जिसे है समझा


सालों बाद कॉलेज मित्र श्रीमन खजान सिंह किरोला जी से भेंट हुई , तो कॉलेज दिनों की यादें ताज़ा हो गयी ।कॉलेज में ध्रुवीकरण के दौर में जब सभी साथियों ने धुरी ताकतों का दामन थाम लिया था ,तब  हम नेहरू ,टीटो की तरह गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अग्रदूत रहे । कॉलेज राजनीति और आधिपत्य के शीतयुद्ध में हमारी महत्वहीनता और अप्रासंगिकता के चलते हमे छुटपुट गिरोह की संज्ञा दी गयी ।गम्भीरता से विश्लेषण किया जाये तो गुमनाम,महत्वहीन  और छुटपुट समझे जाने वालो ने ही संसार गढ़ा है ।

 गुमनाम छुटपुट, चुपचाप राष्ट्रनिर्माण में लगे साथियों के नाम चंद पंक्तियाँ :

 छुटपुट जिसे है समझा  ,वो  रुस्तम बहुत बड़ा है।
 चुटकी सा छोटा दाना , बरगद  लिए  पड़ा है ।

 उगते नए सिकंदर सम्राट जिसके  दम से ,
 जीते गए पुरंदर,यलगार जिसके दम से ,
 गुमनाम सा कोई सैनिक, सीना लिए खड़ा है ।

 गौरव कथा सुनाती , फौलाद सी दीवारें।
 टकरा के लौटे कितने  ,न पड़ सकी दरारें। 
 सर्वस्य लुटा कोई पत्थर ,दबा नींव में  पड़ा है ।

गुमनाम ,छुटपुटो ने ही ,  इतिहास मिल गढ़ा है। 
गाँधी तभी बना है ,जब  गुमनाम संग लड़ा है। 
दुनिया बदल गयी है , जब जब ये चल  पड़ा है ।

छुटपुट जिसे है समझा , वो रुस्तम बहुत बड़ा है ।
 
                                                                 सचिन कुमार गुर्जर













       





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