tag:blogger.com,1999:blog-35455452608832376232024-02-19T05:38:44.965-08:00संवादSimple and short Hindi stories from day to day life Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.comBlogger140125tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-50130700847898084542023-09-15T18:38:00.007-07:002023-09-15T18:49:11.474-07:00श्रद्धा भाव <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgW4-2VOpvfO8ITbmWnPSPjMFhb2Yw97grag-sZS6tMe7NJCGPbf-z1JncA5EYRKJ2JWZOsJV_Bwm_kVvBWEdfYjdXL0SmR0ttBnuhh8-_J-mQyW7-xBs4zt8wpq4JGvYb48bfoedxFi6mJy8rmzrjYSrg9UTOWVKZS-sgraGJfwL-aId4MW_oRQ3VDlBk/s8000/IMG20230916081454.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="8000" data-original-width="6000" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgW4-2VOpvfO8ITbmWnPSPjMFhb2Yw97grag-sZS6tMe7NJCGPbf-z1JncA5EYRKJ2JWZOsJV_Bwm_kVvBWEdfYjdXL0SmR0ttBnuhh8-_J-mQyW7-xBs4zt8wpq4JGvYb48bfoedxFi6mJy8rmzrjYSrg9UTOWVKZS-sgraGJfwL-aId4MW_oRQ3VDlBk/w300-h400/IMG20230916081454.jpg" width="300" /></a></div><br /> <p></p><p>सिंगापुर सुविधाओं , व्यवस्थाओं का शहर है | सरकार आमजन की छोटी छोटी जरूरतों का ख्याल रखती है | फेरिस्त लम्बी है , हम और आप महीनो जिक्र कर सकते हैं | एक छोटी सी पर हर कम्युनिटी पार्क में दिखने वाली व्यवस्था है , एक्यूप्रेशर बेल्ट | </p><p>फ्लॉवर बेड के सहारे या ग्रास लॉन के किनारे आठ दस मीटर की संकरी कंक्रीट फ्लोर होती है | जिस पर नुकीले पैबल्स को बड़ी सघन बसाबट में जमा दिया जाता है | किनारे से , चलते हुए सहारा लेने के लिए पॉलिशड स्टील की रेलिंग गाढ़ दी जाती है | मान्यता ही है या विज्ञान भी , मुझे नहीं पता , पर ऐसा बोला जाता है कि इस तरह की एक्यूप्रेशर बेल्ट पर सुबह सुबह नंगे पैर चलने से रक्तचाप नियंत्रित होता है | </p><p>मैं सोमवार से शुक्रवार साढ़े आठ बजे उठने को शरीर घसीटता हूँ , लेकिन शनिवार को सात बजे आँख खुल जाती है | झुंझलाहट होती है , देर तक सोना चाहता हूँ ,पर ये मेरे बुढ़ाते शरीर की व्यवस्था है | जो है सो है , मॉड में रहकर स्वीकार करता हूँ | </p><p>सुबह मैं कम्युनिटी पार्क के चक्कर काट रहा था तो पाया कि एक अधेड़ भारतीय स्त्री एक्यूप्रेशर बेल्ट के मुहाने पर नंगे पाँव खड़ी है | एक हाथ में ताँवे का लोटा, लोटा जिसकी गर्दन पर मोटा गेरुआ सूती धागा लिपटा था | </p><p>उसने दाए हाथ में लोटा उठाए , एक्यूप्रेशर बेल्ट का एक चक्कर पूरा किया | नुकीले पेवल्स की चुभन से चेहरे पर दर्द उभर आया था | दूसरे सिरे पर पहुंची तो कुछ देर ठिठकी | वापस मुड़ी और फिर उसी दृढ़ता से दूसरा चक्कर पूरा किया | फिर तीसरा और चौथा | </p><p>फिर एक लैम्पपोस्ट के सिरहाने खड़ी हो गयी | चांगी राइज अपार्टमेंट बिल्डिंग के ऊपर सूरज बस ऊगा ही था | उँगलियों के गुलदस्ते में फँसे लौटें को उसने सूरज की ओर उठा दिया | काँपते होठों से कुछ बुबुदाते हुए , उसने लोटे में जमा जल की आखिरी बूंद तक सूर्य को अर्पित की और बड़े तेज कदमों से अपने अपार्टमेंट में लौट गयी | </p><p><br /></p><p>दूसरे सिरे पर बनी बेंच पर जम चुका मैं मुस्कुराया तो मेरा दायाँ हाथ अकस्मात आशीर्वाद की मुद्रा में खड़ा हो गया | सूर्य देवता अगर अपने भक्तो पर तबज्जो देते होंगे तो मुस्कुराये वे भी होंगे | अजी ,सुबह उठकर जल चढाने वाले बहुत है | लेकिन पार्क में बनी एक्यूप्रेशर बेल्ट के चार कष्टप्रद चक्कर काट अर्घ चढाने वाला शायद कोई विरला भी ना हो | </p><p>उस स्त्री के १० में से १० नंबर बनते है !</p><p> सचिन कुमार गुर्जर </p><p> मेलविल पार्क , सिंगापुर </p><p> १६ सितम्बर , २०२३ </p><p> </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-60023399273341837292022-10-14T22:25:00.001-07:002022-10-14T22:46:12.216-07:00मलाल<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1ml67RNAwMmpjWRf-7K4Oj5wtcrEkkEmmHT1fvwb2XJ7i8Auy9zhYHmWer-qA2Lzu6A00-9LmQajT0B9wKbL7QDx9wy_5Ypy9ySlqscyBouEVlxCjiDqW7JkA5O5d1FIApl0u-AVtwJh8ure7ApRoaL-p9z-VSg_AY6dpVnuy5AsSWewKWrNZqrSF/s1300/tea.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="910" data-original-width="1300" height="280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1ml67RNAwMmpjWRf-7K4Oj5wtcrEkkEmmHT1fvwb2XJ7i8Auy9zhYHmWer-qA2Lzu6A00-9LmQajT0B9wKbL7QDx9wy_5Ypy9ySlqscyBouEVlxCjiDqW7JkA5O5d1FIApl0u-AVtwJh8ure7ApRoaL-p9z-VSg_AY6dpVnuy5AsSWewKWrNZqrSF/w400-h280/tea.jpeg" width="400" /></a></div><br /> <p></p><p>अभी पिछले कुछ दिन पहले मैं एक 'मलाल' से टकरा गया | लंच के बाद कॉर्पोरेट दफ्तरों की कतार के गलियारे में चहलकदमी करते हुए वो टकरा गयी | </p><p>"अरे तुम , तुम यहाँ कैसे ?" उसने कहा | </p><p>"मैं तो इधर ही जॉब करता हूँ , तुम यहाँ कैसे ? " सवाल के जबाब में सवाल ही था मेरे पास भी | </p><p>कॉर्पोरट की छोटी दुनिया | पुराने लोग टकराते रहते है | शायद पास के किसी ऑफिस में क्लाइंट मीटिंग के लिए आयी थी | </p><p>"कितना टाइम हो गया है ना ? याद है तुम्हे ? " उसके शब्दों में गर्माहट कुछ ऐसे थी जैसे हम किसी जमाने में बहुत ही घनिष्ठ रहें हो | </p><p>"शायद दस साल | " एक मोटा अनुमान लगा कर मैंने बोला | </p><p>"दस नहीं बारह साल | " </p><p>हमने पुराने ऑफिस के दो चार साथियों को याद किया | कौन किधर जॉब करता है ये बताया, सुनाया | </p><p>"चलो चाय के लिए मिलते है | तुम हो न अभी इधर? " मैंने पूछा | </p><p>उसके मिल जाने से दिमाग की तहो में दफ़न ना जाने कितनी बातें बुलबुलों की तरह फूट फूट कर ऊपर आने लगीं | </p><p>यही कोई चौदह साल पहले जब मैं कामगारों के जहाज में सवार हो सिंगापुर आया था , तभी पहल पहल उसका दर्शन हुआ था | और दर्शन ऐसा दर्शनीय कि आदमी भूल नहीं सकता ! शादीशुदा थी | शायद कोई बच्चा नहीं था तब तक | कद औसत भारतीय स्त्री कद से थोड़ा ऊँचा | शरीर भरा हुआ था | डॉयटिंग वाइटिंग के चोचलों से परे थी | रंग दूधिया उजला | हँसती या थोड़ा लजाती तो एक दम से खून के दौर से गाल लाल हो जाते | अनार दाने की तरह बारीक दांतो की कतारें थोड़ी ही खुलती थीं | नाक खड़ी , सुतवा | पर नासिका छिद्र इतने छोटे थे कि देख के अचम्भा होता कि इतने महीन छिद्रो से जीने भर लायक हवा भी कैसे अंदर जाती होगी | पपीहे की तरह छोटी और मीठी आवाज़ वाली , हर बात बेबात पर मोटे बटन सी गोल आँखे घुमा घुमा कर हॅसने वाली| अपने क्यूबिकल और आस पास के चार पांच क्यूबिकल की ख़ुशनुमाई की अहम् किरदार थी | </p><p>मलाल? मैंने कहा ना वो शादीशुदा थी ! खूबसूरत पर शादीशुदा स्त्री हर दूसरे पुरुष के मन में मलाल ही होती है | मीठा पीठ दर्द होता है ना | दर्द जिसका दिन की आपाधापी में ना ध्यान होता है ना इलाज | पर फुर्सत में आदमी जब चित्त हो लेटता है , तब वो एहसास देता है | बर्दाश्त के बाहर नहीं जायेगा , पर आपको चैन से सोने नहीं देगा | बस वैसा ही कुछ होता है ये मलाल | </p><p>खैर, हम चाय पर मिले | उसने नेवी ब्लू कलर का मॉक नैक , ट्रम्पेट स्लीव्स फ्रॉक पहना था | नी लेंथ | ब्राउन कलर , फ्लैट लोफ़र्स डाले हुए थे | और हाथ में एप्पल वाच , जिसका रिस्ट बैंड ऑफ वाइट कलर का था | </p><p>"सुनाओ कुछ।, कैसी चल रही है लाइफ ? " चाय की एक चुस्की भर ले उसने कप किनारे खिसका दिया | </p><p>"बस जी | चलना रुकना अपने हाथ में कहाँ | बस जिंदगी की नदी बही जा रही है | उसमे हम भी बह रहें हैं | "</p><p>"तुम बाबाओ जैसे बातें करने लगे हो | " वो खिलखिला पड़ी | उसके अनारदाने जैसे दाँतो को पंक्तियाँ अभी वैसी ही थी | </p><p>"तुम बूढ़े हो रहे हो , मोटे भी हो गए हो | "उसने कहा | </p><p>"हाँ जी , देखो ना , मेरे बाल इतना ऊपर तक खिसक गए हैं |" मैंने हामी भरी | </p><p> वो गुस्सा हो गयी | झूठ मूठ का गुस्सा | नाक चढ़ा कर बोली " तो क्या , इस उम्र में भी कोई अफेयर करना चाहते हो ?हुह ? हो गया ना बस | "</p><p>वो जो महसूस कर रही थी , कह रही थी | कुछ ऐसे जैसे हम बारह साल बाद नहीं बल्कि हफ्ते दो हफ्ते बाद ही मिल रहें हों | </p><p>और मैं ? मैं अपने अंदर एक बबंडर को दबाये बैठा था | कितना बदल गयी थी वो | उसके बदलाव देख मेरा कलेजा बैठ गया था | उसके गाल अब हँसते हुए लाल नहीं होते | चेहरा बड़ा हो गया था | रंग फीका था | सिन्दूर लगाने की सीध में फटने वाली बालों की मांग चौड़ी हो गयी थी | वो निश्चित रूप से घर का कोई भारी काम नहीं करती होगी | नौकरानी होगी घर पर | पर उसके हाथ कितने बड़े लगने लगे थे | आँखे जो बात बात पर नाचतीं थी वो अब इस भाव से देखतीं थी जैसे कहतीं हों सब कुछ देख तो लिया , जी तो लिया ,अब क्या बचा है | वो अब कितनी सहज हो गयी थी , कोई भी बात उसे अचंभित नहीं करती थी | उसके चेहरे पर दुःख और सुख के भाव ठहर गए थे |शरीर वैसे ही भारी जैसा कि किसी भी आम अधेड़ ग्रहणी का होता है | </p><p>वो जब कोई दुनियादारी की बात कह रही थी तब मैं सोच रहा था कि क्या ये वही थी जिसे सहज हो मैंने एक दिन बोला था " सुनो , तुम्हे शादी की इतनी जल्दी भी क्या थी " और जबाब मे उसने बिना कुछ बोले मुँह तिरछा किया था बस , कुछ ऐसे जैसे कहती हो " न भी की होती तो क्या एक तुम ही थे !"</p><p>मल्लका की खाड़ी से उठा घना बादल अब टपकने लगा था | टी हाउस की शीशे की दीवारों के ऊपरी सिरे पर बारिश की बूंदे आ चिपकती | धीरे धीरे नीचे की ओर खिसकती | अध्-बीच तक आते आते बूंदे भारी होने लगतीं और फिर बढे भार के चलते बड़ी तेज गति से नीचे जमीन की ओर को भागती | वैसे ही जैसे जिंदगी भागती है | </p><p>हमने कोई चालीस पैतालीस मिनट बात की | शायद इससे ज्यादा बात करने के लिए हमारे पास कुछ था भी नहीं | </p><p>उसने बताया कि उसका बड़ा बेटा सज्जन है | संवेदनशील , हर बात को मानने वाला | और छोटा उसका उलट | वो अब कोई आराम की नौकरी देखना चाहती है | ज्यादा ग्रोथ हो न हो सुकून हो बस | उसके पति कहते है कि चाहे तो वो नौकरी छोड़ दे , पर उसे लगता है कि घर में बंध कर ही रह न जाए | </p><p>मैंने उसे बताया कि किस तरह से बेटी का बाप बन जाने से आदमी की भावनाओं के , सोच के नए आयाम खुल जाते है | किस तरह बच्चों के आ जाने से बाकी सब बातें गौढ़ हो जाती हैं | सब कुछ उनका और उन्ही के लिए हो जाता है | </p><p>फिर हमने एंग्जायटी , नींद कम आने , कोलेस्ट्रॉल , थाइरोइड , हैल्थी लाइफ स्टाइल से जुडी बातें की | </p><p>शाम को ऑफिस से ट्रैन से वापस आते हुए मेरा मूड उखड़ा हुआ था | बारह साल , बारह साल | बारह साल में इतना कुछ गुजर जाता है , इल्म ही नहीं था | सोचता रहा कि कुदरत इतनी बेरहम क्यों है ? सब कुछ पहले बनाना और बिगाड़ना क्यों होता है ?शीत में खिले गेंदे के फूल , बसंत की नयी पत्तियां , और दिलों में हूँक देने वाले खूबसूरत चेहरे | कुछ तो यूँ ही छोड़ देती | </p><p>और उस रात मैंने हाथ मुँह धोने के बाद आईना नहीं देखा | </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-10534280238569411892022-10-02T05:45:00.003-07:002022-10-02T06:02:44.639-07:00निस्वार्थ भाव <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9z5YBtnRu00Tw3IjuCbxgy59jYx3FhbSo5Oiia67UpjuwUmiIlgWPbP50Vew-Y_u95gCm03kYaCfwMZzDh8gH6dL-WCwjOiYHdxZzwCYOEcGPquwRMSj-Zo4XwLQUN_GF6V3Z69JEA4e9XJFHdwLMJlneGYBwAbasIXG2H1rqZp6jPiCe6Z12GgKN/s541/baar.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="541" data-original-width="500" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9z5YBtnRu00Tw3IjuCbxgy59jYx3FhbSo5Oiia67UpjuwUmiIlgWPbP50Vew-Y_u95gCm03kYaCfwMZzDh8gH6dL-WCwjOiYHdxZzwCYOEcGPquwRMSj-Zo4XwLQUN_GF6V3Z69JEA4e9XJFHdwLMJlneGYBwAbasIXG2H1rqZp6jPiCe6Z12GgKN/w370-h400/baar.jpeg" width="370" /></a></div><br /><p><br /></p><p>विचार , महज एक विचार आदमी को बौरा सकता है | फिर चाहे आदमी स्वर्ग में ही क्यों न बैठा हो | आप ही बताएं , पुरुष की इच्छाएँ कितनी सी होती हैं ? कुछ अदद सामान ही तो लगता है | मेज पर यार-चौकड़ी की गिनती भर के कांच के गिलास , आइस क्यूब्स , सस्ती महंगी कैसी भी व्हिस्की , भुनी हुई मुर्गी , शाम की ठंडी हवा ,हल्का म्यूजिक और ऊँगली के इशारे भर पर लपक कर गिलास भर देने को तैयार युवतियाँ | बस इतना भर ही न | </p><p>बाबजूद इस सबके , छब्बीस सत्ताईस साल का वो युवक कुलबुलाए जा रहा था | घूट दो घूट लेता फिर किसी बोडम की तरह मन ही मन बुदबुदाता, इधर उधर घूरता | उसका प्रौढ़ साथी उसे समझाता | </p><p>'क्लार्क की' से गुजरती सिंगापुर नदी का वेग बेहद धीमा था उस दिन | ऐसा जैसे मानो नदी का अपना प्राण हो जो कहता हो : "आराम से | इत्मीनान से | हे सोमवार से शुक्रवार बैल की तरह जुतने वाले इंसान , शुक्रवार की इस शाम को आराम से | खुल कर जी और खींच इन लम्हों को , जितना खींच सकता हो | " </p><p>और लम्हे | क्या ही खूबसूरत | मलक्का की खाड़ी से उठने वाली धीमी हवा नदी के ऊपर यूरोपियन वास्तुकला में बने कैंटीलीवर के पुलों को बिना आवाज एक के बाद एक कर पार करती , फ़ुलर्टन होटल के आगे से वलय लेते हुए रिवरसाइड में बने दर्जनों मयखानो में हाजरी लगा रही थी | 'लिटिल सैगोन' , 'विंग्स बार' , 'टोमो इसाकाया' , 'हूटर्स' , 'हाई लैंडर' , 'लेवल अप' ऐसे दर्जनो, कुछ नामचीन तो कुछ नए बार्स की कतार दूर तक जगमगा रही थी | नदी के उस पार शॉपिंग काम्प्लेक्स की बत्तियों का प्रतिबिम्ब नदी की सतह पर कुछ ऐसे बनता था जैसे किसी ने एक साथ सैकड़ो दिये तैरते छोड़ दिए हों | एक्का दुक्का टूरिस्ट बोट जब पानी को चीरती तो लहरों के साथ वो दिए भी किनारे की ओर भागते | 'यू ओ बी' बैंक के ऊँचे टावर के कोने पर चाँद कुछ ऐसे निकला था जैसे मानो कोई बिजली का बड़ा गोल हाण्डा बिल्डिंग की मुंडेर से टाँगा गया हो | </p><p>नदी के उस पार कोई लोकल बैंड अंग्रेजी गाने गा रहा था | नदी के किनारों को बांधती सीढ़ियों पर कॉलेज के कम उम्र लड़के लड़कियाँ , एक दूसरे के हाथ थामे कसमें खा रहे थे |कसमें ,जो तोड़ी जानी थी | और इस पार | थाई , वियतनामी , चीनी , फिलिपीनो | जितनी विविधता लिए व्यंजन उतनी ही वैरायटी लिए बार गर्ल्स | बेहद कम उम्र | उनमे से अधिकांश ने बामुश्किल वर्क परमिट की वैध उम्र को छुआ होगा | कद काठी, नैन नक्श , चाल ढाल, बोल चाल , इस सब मे ऐसी जैसे उन्हें 'बार' नहीं किसी इंटरनॅशनल एयरलाइन्स में एयरहोस्टेस होने को चुना गया हो | </p><p>'ड्रमस्टिक्स' , 'चिकन विंग्स' , 'सीक कबाब' , 'बारबेकु चिकन' , 'टाइगर प्रॉन' , 'पड थाई' , 'टॉम यम सूप' , 'स्मोक्ड सैमन' ये कुछ चंद डिशेस है | ऐसी न जाने कितनी एक्सोटिक रेसेपी की तस्तरियाँ लिए युवतियाँ दौड़ रहीं थी | व्हिस्की , वोदका , मोजिटो , शिर्ले , बियर , वाइन इन सबके ग्लास खाली होते और फिर से भर दिए जाते | </p><p>अजी , शाम कुछ ऐसी कि आदमी शराब ना भी पिए तो माहौल ही चढ़ जाए ! </p><p> और इस सबके बीच वो छब्बीस सत्ताईस का बाँका मारे कुढ़ के जला भुना जा रहा था | कुढ़ ? हाँ , बात सिर्फ इतनी सी कि जिन हिरणी जैसी चाल के साथ उँगलियों पर तस्तरियाँ उठाये युवतियों को उसे बार बार 'एक्सक्यूज़ मी ' कहकर बुलाना होता था वे ही युवतियां रेलिंग के सहारे लगी मेज पर जमा चार पांच गोरों पर इस कदर न्योछावर थीं जैसे किसी अमीर रियासतों के वारिस पधारे हों | </p><p>वे उनके हर नए पुराने , अच्छे घटिया हर जोक पर खिल उठती| बोतल छूट न जाए इस लिए मेज पर रख देतीं | उनके छोटे छोटे वक्षस्थल देर तक थरथराते रहते | गोरों की फ़रमाहिशों को फेहरिस्त में सबसे ऊपर रखतीं | दूसरे कस्टमर्स को निपटाती और फुर्सत होते ही गोरों की मेज पर फूलदान सी झूल जातीं | </p><p><br /></p><p>प्रौढ़ साथी ने समझाया "ये व्हाइट प्रिविलेज है भाई | इनको हर जगह मिलता है | एक परसेप्शन है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है | परसेप्शन ये कि गोरे ज्यादा खर्च करते है , रईस होते हैं | अच्छी टिप देतें है | पैदाइशी जेंटलमैन होते है | इज़्ज़त से पेश आते है | दिल से सॉरी , थैंक्स बोलते हैं |बड़े ही सेंसिटिव होते है | अपने लोगो की इमेज कुछ इतर है |"</p><p> "ये एक फसल है जो इनके पुरखे बो गए है जिसे ये आज काट रहे है | और फिर 'बार' में ही क्या | अपने वर्क एनवायरनमेंट में भी ये दिखता है की नहीं ?"</p><p>सोया सॉस में तर जूसी चिकन लेग को व्हिस्की से गले में उतारते हुए नवयुवक कुछ नरम तो हुआ, पर उसके अहम् पर लगे दाग का धुआँ देर तक उठता रहा " ऐसा कुछ नहीं है , आज की दुनिया में कोई किसी से कम नहीं है | "</p><p>"हाँ , सही हैं | लेकिन जो पेसेप्शन है सो है | उसके बनने में और बिगड़ने में पीढ़ियां लगती है मेरे भाई , पीढ़ियाँ | " प्रौढ़ ने कर्त्तव्य भाव से समझाया | </p><p>घडी का काँटा ग्यारह की तरफ जा रहा था | बिल चुकता करने के बाद बार की कुर्सियों से उठते हुए प्रौढ़ ने बार गर्ल की हथेली पर दस दस डॉलर के दो नोट रख दिए " ये तुम्हारी मेहनत और सेवा भाव के लिए | शुक्रिया , दिल से शुक्रिया "| युवती ने थाई मुद्रा में झुककर अभिवादन किया | एक मुस्कान से उसका चेहरा खिल उठा | मुस्कान जो उसकी नाक के नीचे से शुरू हो कान के सिरों तक जाती थी | ऐसी गहरी और आत्मा की गहराईयों से उठने वाली मुस्कान सिर्फ और सिर्फ पैसा ही पैदा कर सकता है !</p><p>ट्रैन स्टैशन के लिए कैंटीलीवर पुल को पार करते हुए नवयुवक ने टिप को लेकर कहा " बड़े भाई इसकी जरूरत नहीं थी | कम से कम आज तो नहीं | " </p><p>और प्रौढ़ ने मुस्कुराते हुए इतना भर कहा " ये अपने लिए नहीं था छोटे | ये अपनी नस्ल के उन लोगों के लिए था जो हमारे बाद इस बार में आएंगे !" </p><p><br /></p><p> -- सचिन कुमार गुर्जर </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-6614174403567194072022-09-19T05:50:00.004-07:002022-09-19T06:12:16.337-07:00पहली दफा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4B1ej81IG5l5lJfPhHCKR4ZqdawLAO1DjkaOAbF_U1AZtN-0q4mNxlERj1HGYAbBm6zADvX2eOzj2FI4j7XQA2geYw4wQLhbNqepPR74n3phc2JGeG6xNLp6oTzN9ZcstKaFvfjpyUjwI9usvU6detByE0vc-0aa6rSnWxVwxZ7UqeUgCS562OJxL/s928/Webp_net-resizeimage.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="522" data-original-width="928" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4B1ej81IG5l5lJfPhHCKR4ZqdawLAO1DjkaOAbF_U1AZtN-0q4mNxlERj1HGYAbBm6zADvX2eOzj2FI4j7XQA2geYw4wQLhbNqepPR74n3phc2JGeG6xNLp6oTzN9ZcstKaFvfjpyUjwI9usvU6detByE0vc-0aa6rSnWxVwxZ7UqeUgCS562OJxL/w400-h225/Webp_net-resizeimage.jpeg" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p>जो दूसरों के पास है , वही सब अपने बच्चों के लिए जुटाने की जद्दोजहद | अपनी ऊर्जा-सामर्थ्य से मिडिल क्लास आदमी यही साधता है | पर एक मलाल है | मलाल ये कि नौकरी से समय मिलता तो मैं बच्चों को कुछ सिखाता | एक विचार , कि माँ , स्कूल टीचर्स, दादा दादी , ये सब समझाते तो होंगे | अपनी कूबत अपनी इच्छा के हिसाब से | पर क्या वो सब , जो मैं बता पाता !</p><p>आप इसे गुमान कहिये | पर चम्पक , आविष्कार , मनोहर कहानियाँ , सुपर कमांडो ध्रुव , नागराज से होते हुए उपकार ,प्रतियोगिता दर्पण ,इंडिया टुडे , दी हिन्दू , फिर टेड टॉक्स , न्यूज़ डिबेट्स से निकल दाँते ,लियो टॉलस्टॉय , मैक्सिम गोर्की तक को छूने वाले आदमी को आप थोड़ी नरमाई से नापिये | उसे इस अहसास के साथ जीने की मोहलत दीजिये कि जिंदगी में तीर मारे हों या न मारे हों , विषयवस्तु की पकड़ उस अधेड़ को है | इतना कुछ तो उसके तरकश में है कि एक बच्चे की जीवन दिशा की प्रस्तावना तो बांध ही दे | </p><p>और इसी अहसास से तरबतर वो आदमी , दस साल के बच्चे का हाथ पकडे सिंगापुर के एक लोकल मार्किट से गुजरा जा रहा था |बच्चा जो कि अभी अभी विलायत आया था | पहली दफा , नयी आँखें | रविवार की अलसाई सुबह | ताजा सब्जी , फल, दूध , अंडे ,ब्रेड यही सब रोजमर्रा की चीज़े उठाए कुछ अच्छे पति , वृद्ध गृहणियां , कम उम्र काम वाली बाइयाँ , | नुकक्कड़ो पर , मुनिसिपलिटी की सीमैंट की बैंचों पर , कॉफी हाउस के बाहर बूढ़े जमा थे | बूढ़े जो काफी बूढ़े थे | </p><p><br /></p><p>"अच्छा , तुमने ऑब्ज़र्व किया बेटा | सिंगापुर में अपने देश के मुकाबले कितने ज्यादा बूढ़े लोग दीखते है ? "</p><p>"सोचो , ऐसा क्यों हैं ?"</p><p>और फिर वो दिमाग में गढ़ने लगा कि बच्चे को कुछ समझायेगा - विकसित देश , क्वालिटी ऑफ़ लाइफ , हेल्थ केयर , लोंगेटिविटी इसी सब के बारे में | </p><p>बच्चे ने सोचा , एक दो दुकान के होर्डिंग पढ़े और फिर बोला " हाँ , तो क्या पापा , सिंगापुर भी ब्लू जोन में आता है ?"</p><p>"ब्लू ज़ोन ?" </p><p>"हाँ , ब्लू जोन , जिसमे जापान आता है , इटली आता है | "</p><p>"ओह , ये क्या होता है ?" आदमी ने इतना कहा पर उसका दिमाग ब्लू जोन , जापान , दीर्घायु इन सबका युगुम बनाने में कामयाब रहा | धीरे से चलते चलते गूगल से कन्फर्म किया | </p><p>"तुमने ये सब कहाँ से सीखा ?"</p><p>"पापा आप यू ट्यूब पर नास डेली को फॉलो नहीं करते क्या ? आपको करना चाहिए | "</p><p><br /></p><p>मार्किट के किनारे बबल टी की एक एक स्टाल की तरफ इशारा करते हुए बच्चे ने कहा " पापा , वाओ , बबल टी मिलती है यहॉ !मैंने कभी पी नहीं | ट्राई करें ?" </p><p>आदमी ने पूछा नहीं कि जब कभी पी ही नहीं , अपने शहर में मिलती भी नहीं तो ये 'वाओ !बबल टी ' कहाँ से आया | रेमैन , किमची ये सब शब्द इसकी वोकैब में आये कहाँ से | </p><p> हाँ, बबल टी स्टाल की तरफ जाते हुए उसने सोचा कि उसकी दुनियादारी की समझ सिकुड़ रही है | दुनिया बदल गयी है तरीके बदल गए है , इनफार्मेशन कई गुना तेज रफ़्तार से दौड़ रही है | आप जो खाली छोड़ रहें हैं ,यू ट्यूब उसे भर रहा है | </p><p>"पापा आपको अगर इंटरेस्टिंग फैक्ट्स चाहिए ना तो मैं आपको कुछ चैनल्स बता दूंगा | सब्सक्राइब कर लेना | " </p><p>"ठीक है बेटा| अच्छा सुनो , सिंगापुर ब्लू जोन में नहीं आता | वो कुछ दूसरी थ्योरी है | बाद में डिटेल में बताऊंगा | "बबल टी लगे स्ट्रा को घुमाते हुए आदमी ने कहा | </p><p> लेकिन पहली दफा , गुमान में तरबतर रहने वाले आदमी को ऑउटडेटेड हो चलने ,और फिर अप्रासंगिकता की ओर लुढ़क जाने का का डर सताने लगा है | </p><p><br /></p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-42073558072134126292022-08-09T07:21:00.000-07:002022-08-09T07:21:06.096-07:00अगले साल वापस<p> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtC5fIc_-VWEyWeKTFxa4YLO0xCkww-_5ucGHeOfRiiAfU7XZVBd52yhK_lcZQRyLUy_QCyigr6RmNOB1D6eNx87j0-Z-LFkwqsjqYvLapKLIoaWRkRk0wFbu2seLIKiPOzhPo_QjFaFlA-oyvUaTAXSIDBeHEc6q1Mp-2mAbWbqxExvRKNqGJqHPn/s1809/IMG_20220806_183713.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1526" data-original-width="1809" height="338" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtC5fIc_-VWEyWeKTFxa4YLO0xCkww-_5ucGHeOfRiiAfU7XZVBd52yhK_lcZQRyLUy_QCyigr6RmNOB1D6eNx87j0-Z-LFkwqsjqYvLapKLIoaWRkRk0wFbu2seLIKiPOzhPo_QjFaFlA-oyvUaTAXSIDBeHEc6q1Mp-2mAbWbqxExvRKNqGJqHPn/w400-h338/IMG_20220806_183713.jpg" width="400" /></a></p><br /> <p></p><p>सिंगापुर का सिटी हॉल मेट्रो स्टेशन | शाम को ऑफिस छूटने की भीड़ है | दिल्ली जैसी धक्का मुक्की तो नहीं पर डब्बा फुल है | अंग्रेजी , केंटोनीज़ , होक्कैन , तमिल , मलय मिक्स के ऊँचे डेसीबल के बीच सामने की सीट पर दो पुरुष हिंदी में बतला रहे है | बोलचाल , मिजाज से दिल्ली के आसपास के लगते है | कॉर्पोरेट की चाकरी करते है | बड़ा चालीस जमा का है | छोटा शायद पैंतीस हो या उससे भी कम | खाता पीता है , शायद शरीर के भारीपन से उम्रदराज दीख पड़ता है | </p><p>छोटा बड़े से मुखातिब हो कह रहा है " पता नहीं क्यों , ऑफिस में सब सरप्राइज क्यों होते है , जब मैं पेरेंट्स के लिए इंडिया वापस जाने की बात करता हूँ | "</p><p>और बड़ा आदमी कुछ ऐसी तबियत से सुन रहा है जैसे कोई साइको थेरेपिस्ट हो | "हाँ ये तो है | " इतना भर कहता है बस | </p><p>मैंने लाइब्रेरी से उधार में ली शार्ट स्टोरीज की बुक खोली है पर उनका वार्तालाप मेरा ध्यान खींच रहा है | </p><p>छोटा पुरुष " वो इंफ़्रा टीम का जतिन है न ? "</p><p>" हाँ | "</p><p>"उसका एक छोटा भाई भी है | पुणे में जॉब करता है | उसकी मदर इंदौर में रहती है | अकेले | कभी गाँव चली जाती है बेचारी | फिर वापस अकेले इंदौर के मकान में | "</p><p>वो झुंझुला रहा है | "यार हम अपने किड्स के लिए सब कुछ करते है | हर स्ट्रगल , हर सैक्रिफाइस | क्या हमारे पेरेंट्स ने हमारे लिए ये सब सैक्रिफाइस नहीं किया | किया है कि नहीं ?अपने टाइम के हिसाब से उनसे जो बन पड़ा , वो किया है | गलत बोल रहा हूँ ?"</p><p>"बिलकुल किया है | " बड़ा पुरुष हामी भरता है | </p><p>"फिर हमारी कोई ड्यूटी बनती है कि नहीं ? मैं तो अकेला नहीं छोड़ सकता | पैसा ही सब कुछ थोड़े ना है | "</p><p>"और आरती ? वो वापस जाना चाहती है ?" बड़े ने पहली बार सवाल दागा | </p><p>"वो कभी हाँ नहीं करेगी | मुझे ही कदम लेना पड़ेगा | "</p><p>मेरे स्टेशन से पहले ही वे दोनों ट्रैन से उतर रहे है | और कोहलाहल के बीच मैं छोटे आदमी को घोषणा करते हुए सुनता हूँ " इस साल देखता हूँ बस | अगले साल वापस !"</p><p><br /></p><p>पास की सीट खली होने से मैं तिरछा हो बाहर देख मुस्कुरा रहा हूँ | ट्रैन की रफ़्तार के साथ हाउसिंग बोर्ड की बिल्डिंग्स पीछे छूटती जा रही है | इन बिल्डिंगस पे अलग रंग की पट्टियां जरूर खिची हैं | कुछ की सपाट सतहों पर मुराल बने हैं | पर ये सब किस हद तक एक जैसी है | इनके खाके , इनका मैटेरियल , इनका इतिहास , इनका मुस्तकबिल | सब मिलता जुलता ही है | </p><p>और ठीक वैसी ही मिलती जुलती है हम हिन्दुस्तानियों की कहानियाँ , हमारी जद्दोजहद , हमारे सपने , हमारे फ़र्ज़ | </p><p>अगर वो पुरुष मेरा परिचित होता न | तो मैं उसकी उद्धघोषणा के बाद उसके कंधे पर हाथ मारता और कहता " नहीं जा पायेगा भाई | अगले साल वापस नहीं जा पायेगा | शायद अगले दस साल भी नहीं !" </p><p>"वो यूँ कि जिस फ़र्ज़ की तराजू का एक पड़ला तुम्हे इंडिया जाने के लिए खींचता है | उसी फ़र्ज़ की तराजू का एक दूसरा पड़ला भी है | जो अमूमन पहले पडले से भारी होता है | "</p><p><br /></p><p> सचिन कुमार गुर्जर </p><p> बेडोक मेट्रो स्टेशन , सिंगापुर </p><p> 5 अगस्त , 2022 </p><p> </p><p> </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-2526839063673952712021-06-21T08:17:00.012-07:002021-06-21T09:28:02.051-07:00 फ्लोरल मास्क<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDH32h390G2zYX-u2xo9Kz4KV-luec5P8lub_1B23GBGOPn-1BvQk3vOPfqGzUMbXgqdmK4i1z81sMZihT6EJF4Rs-r5_K5bfvbek_LgfJc4tl2XdCUKM7hYBa_U_yu6VAo3HceZtKK1Q/s2048/IMG20210621210132.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2048" data-original-width="1536" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDH32h390G2zYX-u2xo9Kz4KV-luec5P8lub_1B23GBGOPn-1BvQk3vOPfqGzUMbXgqdmK4i1z81sMZihT6EJF4Rs-r5_K5bfvbek_LgfJc4tl2XdCUKM7hYBa_U_yu6VAo3HceZtKK1Q/w300-h400/IMG20210621210132.jpg" width="300" /></a></div><br /><p><br /></p><p>पता नहीं ये अनुशासन कब तक कायम रहेगा पर आजकल मेरा रूटीन ये है कि जरूरी, गैर जरूरी, पसंद ना पसंद , हर तरह के काम निपटाते हुए मैं शाम के साढ़े छः बजने का इंतज़ार करता हूँ | साढ़े छः बजते ही मैं अपना मास्क अपनी कलाई में लपेट जॉगिंग के लिए झील के किनारे निकल लेता हूँ | इधर जॉगिंग करते हुए मास्क न लगाने की मोहलत है , पर वापसी में धीमी चाल लौटने पर मुझे मास्क चाहिए होता है | झील की परिधि पर लगभग साढ़े चार किलोमीटर का ग्रेवल ट्रैक है | ट्रैक के आखिर में झील के ऊपर एक फ्लोटिंग वुडेन ब्रिज बना है ,जहाँ जिंदिगी के ढलते सूरज के बाबजूद कुछ जिंदादिल बूढी , चीनी मूल की महिलाएं मैंडरिन गानो पर नियमित रूप से सालसा करती हैं | कुछ दंपत्ति अपने बच्चों के साथ कछुओं और मछलियों को ब्रैड क्रम्स खिलाते रहते है | और वही कहीं खड़ा मैं पसीना सुखाता जिंदगी के तमाम फिलोसॉफिकल सवालों के जबाब तलाशता रहता हूँ | </p><p></p><p>मौसम अच्छा था आज | ना ज्यादा उमस , हलकी हवा थी | टीले पर लगे समन के पेड़ो के झुण्ड के पीछे डूबते सूरज का रंग सुरमई था | कुछ बादळ का टुकड़े यहाँ वहाँ रूई के फाहे से छितराये थे , कुछ ऐसे जैसे किसी मंझे हुए पेंटर ने तस्वीर पूरी करने के बाद ब्रश के दो चार स्ट्रोक यहाँ वहाँ मार दिए हों | एक एयर फाॅर्स का ट्रैनिग प्लेन झील के किनारे लगे पेड़ो की कैनोपी से काफी पीछे , धीमी गति से उड़ रहा था | एयर फाॅर्स का प्रैक्टिस ग्राउंड है उधर | हर बार में एक के बाद एक आठ पैराट्रूपर्स प्लेन से कूदते | ब्रिज से उनकी बड़ी छतरी में लटके ट्रूपर्स किसी आधी इस्तेंमाल की हुई पेंसिल से दीखते और महज मिनट भर में उनकी आकृतियाँ पेड़ो की कनोपी की आड़ में आ गायब हो जातीं | ट्रैक पर चलते, ब्रिज पर खड़े लोग रुक रुक कभी सनसेट तो कभी पैराट्रूपर्स की काली आकृतिओं को अपने फ़ोन्स में कैद कर रहे थे | </p><p>सड़क झील से थोड़ा ऊपर की तरफ है | मास्क चढ़ाये मैं वापसी में सड़क की तरफ चढ़ रहा था | एक युवक , कोई छब्बीस या सत्ताईस का रहा होगा , जॉगिंग करते से मेरे पास रुका और बोला : हेलो , हाऊ आर यू डूइंग टुडे ?"</p><p>"फाइन फाइन वैरी फाइन , थैंक्स !"</p><p>खुशगवार मौसम में आदमी का मूड भी खिल जाता है , वरना आजकल कौन किसका हाल पूछता है , रेड लाइट पर खड़ा मैं यही सोच रहा था | </p><p>दो अपार्टमेंट ब्लॉक्स पार करने के बाद एक पार्क कनेक्टर आता है | एक पतला ग्रीन कॉरिडोर , जहाँ काफी हरियाली है | कुछ झूले और एक्सरसाइज मशीन्स लगीं है | छोटे बच्चों और उनके पेरेंट्स को ये जगह काफी मुफीद आती है | </p><p>एक युवक , मेरा ख्याल है , तीस का रहा होगा , पार्क कनेक्टर से मेरी तरफ आया | काफी बड़ी मुस्कान लिए था | नस्ल का उल्लेख गैरजरूरी जानकारी है | स्वागत भरी मुस्कान | जैसे वो मेरा परिचित हो और मेरा इंतज़ार करता हो | आज मौसम वाकई खुशगवार था !</p><p>ग्रेन कॉरिडोर के बाद एक हाई वे आता है | हाईवे क्रॉस करने को एक फुट ब्रिज है | मैं चढ़ने को ही था | एक आदमी , जो थोड़ा उम्रदराज था , पर काफी वेल ग्रूम्ड , स्लिम ड्रिम , स्पोर्ट्स वियर डाले , वाइट स्नीकर्स में , मुझे देख कर वो ठिठक गया | उसका देखने का तरीक थोड़ा अजीब था | उसकी आँखे किसी जंगली बिल्लौटे जैसी थीं | घूरने की मुद्रा थी उसकी | जैसे पूछ रहा हो तू इधर कैसे ? मुझे समझ नहीं आया | मैं चलता गया | शायद कुछ गलतफहमी हुई हो | या मेरी शक्ल किसी से मेल खाती हो | आखिर उसके पास मुझे नफरत करने की कोई वजह तो थी नहीं | मैंने उसका रास्ता तो काटा नहीं | पूरा मास्क चढ़ाये एक दरमियाने से प्राणी से उसकी क्या नफरत | </p><p>फुट ब्रिज सुनसान था | दूसरे कोने से भी कोई आदमी नहीं दीखता था | स्थिति का फायदा उठा मैंने मास्क उतार लिया | </p><p>और मास्क उतारते ही मेरे दिमाग में जैसे बिजली दौड़ गयी " ओह्ह , ये मास्क "</p><p>"ओह्ह्ह , ये मास्क! " </p><p>मैं रुक गया | ये मास्क मैंने अभी दो दिन पहले ही एक माल से खरीदा था | मेरे पास कई सारे काले, नीले मास्क है | जब मैंने इसे शॉप कार्ट से उठा देखा तो मुझे लगा कि थोड़ा फ्लोरल है , थोड़ा फेमिनिन लगता है | पर काले बेस पर डर्टी वाइट में बने जैस्मीन के फूल के छापे वाला मास्क , मुझे लगा ठीक ही है | कभी कभी लगाया जा सकता है | इसका फ्लैप नाक के जोड़ तक जाता है | कपडा सूती है | कानों के पीछे जाने वाली तनियाँ कानों की नसों को नहीं दबातीं | आरामदायक है | </p><p>पर कहीं ये ही तो कारण नहीं | 'हेलो' , फिर स्माइल और और वो वो पैंथर की आँखे लिए वो आदमी | अहह , ये जैस्मीन का फ्लावर मास्क | कुछ रॉंग सिग्नल हो गया क्या ? गलत दुनिया में कदम रख दिया शायद | </p><p>मैंने पैर जमीन पर मारा | धत्त्त | फिर खुद को ही दुत्कारा "सचिन , टू मच फिक्शन , हुह्ह। .. " एक इंडियन शॉप पर रुका , कुछ रस्क के पैकेट लिए , एक सेवई का पैकेट भी | खुश हुआ , काफी अरसे से सेवई खाने का मन था | </p><p>पर मेरा दिमाग अब भागने लगा था | मैट्रिक्स मूवी , जोमंविज जो रात को निकलते हैं , दूसरे गृह के प्राणी जो इंसान बनके हमारे बीच में रहते है और हम उन्हें परख नहीं पाते | ये दुनिया कई सारे आयामों में चल रही होती है | हम जिस घेरे में रहते है, सोचते है बस उतने में ही सब कुछ है | ये वाइट स्नीकर्स पहने , स्लिम ड्रिम , वेल ग्रूम्ड , लगभग परफेक्ट बॉडी लिए , ऐसे जिन्हे देख मेरे जैसे लोग हीन भावना से भर उठते है, ये सब शायद अलग घेरे में रहने वाले लोग हैं | क्या सुन्दर, फैशनअबल दिखने वाले सभी पुरुष ? नहीं नहीं | </p><p>महज इत्तेफाक भी तो हो सकता है | घर के नजदीक आते आते मैं सोच रहा था | आखिर किसी ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो वाकई कुछ ठोस साबित करे | </p><p>हाँ ये महज संयोग भी हो सकता है | देखो न , फिर आज मौसम भी कितना अच्छा है | </p><p>घर से ठीक पहले बस स्टॉप पर , मेरे पीछे पीछे एक युवक चल रहा था | काफी सुडोल , जिम का शौक़ीन | </p><p>"हेलो ब्रदर " पीछे से आवाज आयी | वो शायद फ़ोन पर था | </p><p>कुछ देर बाद उसने फिर कहा "हेलो ब्रदर "</p><p>अब वो बिलकुल मेरे बगल में आ गया | </p><p>"नाइस मास्क ब्रदर " बड़ी चौड़ी मुस्कान लिए उसने कहा | </p><p>"कहाँ से लिया ?" उसने पूछा | </p><p>अचानक से मुझे याद भी नहीं पड़ा | "यहीं से किसी दुकान से "</p><p>फिर मुझे याद आया और मैंने कहा " बेडोक मॉल से |"</p><p>"वैरी नाइस ब्रो , वैरी नॉइस "</p><p>फिर वो मेरे घर की ओर मुड़ने वाली स्ट्रीट तक साथ साथ चलता रहा | </p><p>होता है कई बार | इत्तेफाक में इत्तेफाक जुड़ते चले जाते है | आखिर आज मौसम भी तो बड़ा प्यारा है | </p><p>लेकिन ये मास्क ? मुझे लगता है इसे उठा कर रख देना ही मुनासिब रहेगा !</p><p><br /></p><p> - सचिन कुमार गुर्जर </p><p> २१ जून २०२१ </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-27953797919702086632021-06-05T01:36:00.006-07:002021-06-05T02:26:52.759-07:00जाने भी दीजिये | <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9g1Wv-dL1_9QETsfSeDLiw80VOLEMpUE4FRU7xKR1Wol1IclCfPfIKkqrriAdawGZZ_JaIJjlKd08zqmmD0wPNv6o_9TkhwkeiqlCmlIAm3yPFQkFc5WUEBMDCWXBXpIb-sEyWhpCeRM/s590/590.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="332" data-original-width="590" height="360" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9g1Wv-dL1_9QETsfSeDLiw80VOLEMpUE4FRU7xKR1Wol1IclCfPfIKkqrriAdawGZZ_JaIJjlKd08zqmmD0wPNv6o_9TkhwkeiqlCmlIAm3yPFQkFc5WUEBMDCWXBXpIb-sEyWhpCeRM/w640-h360/590.jpg" width="640" /></a></div><br /><p><br /></p><p>सिंगापुर में बारिश वैसे ही गिरती है जैसे अचानक बिना खबर, डोरबैल दबाने वाला कोई आगंतुक | नीचे उतरने से पहले कमरे की खिड़की से, अपार्टमेंट्स की पहाड़ियों के पीछे काला बादल जरूर था, पर था बहुत दूर |दूर, वैसे ही जैसे वजूद की हकीकत के बैकड्रॉप में उभरते सपनों में पलने वाली खुशहाली , सुकून और मनचाहा प्यार | ढाई फर्लांग की दूरी पर 'न्यू रेज़की इंडियन मुस्लिम रेस्टोरेंट' है | छोटा दुकाननुमा , पांच छः टेबल | इंडियन के साथ मुस्लिम लिखने का यहाँ चलन है | इससे भारतियों के साथ साथ मलय मूल के मुस्लिम भी ग्राहक हो जाते हैं | आजकल डाइनिंग तो बंद ही है | एक मलयाली लड़का काम करता है , मेरे लिए चपाती बना देता है | थोड़ी आत्मीयता रखता है | मैं कुछ दिन उधर नहीं जाता तो शिकायती लहजे में कारण पूछता है| चीनी मूल की युवती है | आर्डर लेने , परोसने , बिल काटने का काम करती है | शरीर से थोड़ा भारी ,आँखे चीनी मानक के लिहाज से भी छोटी ,चेहरे मोहरे से आकर्षक नहीं | लेकिन उम्र के गुलाबी सालों में है | सबसे बात करती है, तुकी बेतुकी हर बात पर हंस देती है | तोते पालने वाले, आर्थिरिटस से जूझते बूढ़े ,पड़ोस की दूकान का नाई , बेकरी में काम करने वाला कमउम्र लड़का, साइकिलों पर मछली पकड़ने के हुक लटकाये झील को जाते शौक़ीन अधेड़, हर कोई उससे कुछ कहता है और उसकी सुनता है | दर्जनों दिल हलके होकर जाते है | वो मुझे देखते ही रसोई की तरफ देखकर चिल्लाती है: चपाती , टू चपाती | शायद वहाँ चपाती खाने वाला मैं अकेला हूँ | चपाती मेरी पहचान हो गयी है | </p><p>बारिश का मौसम , घर में बैठकर कौन खाये | यही सोचकर बिल्डिंग के पटिओ कवर में जमी कंक्रीट की बेंच पर आ जमा हूँ | दो चीनी मूल के आदमी पहले से विधमान हैं | पोक्का जापानी ग्रीन टी पी रहे हैं | एक कोई पचपन छप्पन का होगा | मूछें रखे हुए है ,चूहे जैसी मूछें, बाल गिनने भर लायक है बस | तोतई रंग की मैंडरिन कालर की शर्ट पहने है | इस कदर दुबला कि उसकी कोहनियों के जोड़ उसकी भुजाओं से बड़े है | दूसरा चौतीस पैंतीस का होगा | बाल साइड जीरो कट , मुर्गे की कलगी की तरह बीच से छोड़े है बस | दोनों औसत चेहरे , शायद सामने की सेमीकंडक्टर फैक्ट्री के वर्कर हैं | जिंदगी की भाग दौड़ में खर्च होने वाले आम इंसान |</p><p>पचपन साला कुछ सुना रहा है | शिकायतें हैं कुछ | कुछ नहीं बहुत सारी | होक्कीयन में बात कर रहें है शायद | या फिर केंटोनीज़ में | मैं फर्क नहीं कर सकता | शिकायतें , उफ्फ कितनी शिकायतें | उसका साथी जब बीच बीच में उसकी शिकायतों को कमतर आंकने की कोशिश करता जान पड़ता है तो वो अपने पिटारे से कोई नयी बात निकाल पेश करता है| कंक्रीट की मेज पर हाथ मारता हुआ दोगुने दम से फड़फड़ाता है जैसे कहता हो : "क्यों ,पर क्यों , मेरे साथ ही क्यों ? "</p><p>अवेनुए के किनारे चौड़े पत्ते की महोगनी के पेड़ों की कतार है | पेड़ , लैम्पपोस्ट , स्पीडमॉनीटर कैमरे के पोल , रोड सिग्नल, सबके ऊपर जैसे आसमान टूट पड़ा है | लोहे के सरिये जैसे मोटे धार की बारिश है | मैंने चाय आर्डर की थी लेकिन कवर वाले डिस्पोजल कप में पहली सिप ली तो एहसास हुआ कि रेस्टोरेंट वाले लड़के ने कॉफ़ी डाल दी है | कोई शिकायत नहीं | </p><p>लेकिन इस पचपन साला आदमी को क्या शिकायत है | बीवी से अनबन ? नापसंदगी अभी तक ? लेकिन क्यों ? क्या उसके पास माँ नहीं रही ,जिसने जब वो पैंतीस का हुआ हो , उसके बालों में हाथ फेर कहा हो , अब अपना सोचना छोड़ , बच्चों का सोच | उसकी खुद के लिए जीवनसाथी से जुडी आकांक्षाओं, उम्मीदों को तो उसी दिन मर जाना चाहिए था | है कि नहीं ? </p><p>फिर ? शायद बेटा सही राह न चलता हो ? पर उसका बेटा तो कॉलेज कर चूका होगा या जो भी राह पकड़नी होगी ,पकड़ चुका होगा | क्या बेटे की मसें भींगने के साथ ही इस आदमी की संतान के भाग्य का विधाता बनने की इच्छा नरम नहीं पड़ जानी चाहिए थी ? संतान तो तरकश के तीर की भांति ही है | बल लगा के छोड़ दीजिये , फिर जो भी ऊंचाई ले | कमान से निकलने के बाद भला क्या इच्छा, क्या उम्मीद | शायद इस आदमी का बॉस उसे तंग करता हो | या स्वास्थ्य सही न रहता हो | इंसान के पास माथा पटकने के लिए लम्बी फेहरिस्त होती है | </p><p>महोगनी के तने से चिपटी पुरानी छाल बारिश के पानी भर जाने से तना छोड़ गिर रही है और उसकी जगह नयी छाल में तना नया हो गया है | इंसान की उम्मीदों को , सपनों को उम्र के साल गिरने के साथ गिर जाना चाहिए | उम्मीदे , सबसे पहले खुद से| फिर बीवी से, संतान से, समाज से , सरकार से , भगवान से | सबको ढह जाना चाहिए | </p><p>घास पर चलते हुए घुटने दर्द नहीं करते तो मुस्कुरा दीजिये | अच्छा खाइये , अच्छा पहनिए | </p><p>हाँ , जेब इजाजत देती है तो अच्छे लेदर के महंगे जूते पहनिए | महंगा जूता राजा होने जैसा फील देता है | सच्ची !</p><p> पुराने सपनों को गिर जाने दीजिये | जाने भी दीजिये | </p><p><br /></p><p> - सचिन कुमार गुर्जर </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-25290707784568199232021-05-08T10:26:00.008-07:002021-05-08T10:45:13.167-07:00क्या कह दूँ | <p>खैर ये अच्छा बुरा समय तो सभी के पल्ले आता है | पर पहली दफा जिंदगी में हालात कुछ यूँ हैं कि दिन हफ्ते में, हफ्ते पखबाड़े में तब्दील होते जा रहें है और मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि क्या कह दूँ | </p>कई दिनों से बस सोचता ही जा रहा हूँ | कुछ तो कहना बनता है | दूर से ही सही | वो अपना अपना ही क्या जो इन हालातों में भी कुछ न कहे | <div>पर क्या कह दूँ , उस बाप से जिसकी वंश वेल में बस एक ही पत्ता था | जड़ जमीन , योजना प्रयोजना , सौंज साधन सब उसी के लिए तो था | और वही चला गया | </div><div> उस बाप से कैसे कह दूँ कि सब्र करो | किस ठिठाई से कह दूँ ? बेहयाई नहीं होगी ये ?</div><div>और उस माँ से ? उस माँ से जिसके हाथ में नौकरी की पहली तनख्वाह धर वो बोला था "बहू ढूढ़ ले माँ , जिसे तू हाँ कर देगी उसे ही सिर माथे रखूँगा | "कॉलेज तक पढाई , कॉर्पोरेट की नौकरी , माँ की पसंद से शादी ,बताइये ,मिडिल क्लास के पैमाने के लिहाज से आदर्श बेटा और क्या होता है ?</div><div>उस माँ से क्या कह दूँ जिसे घर द्वारे में रिश्तेदारों का इंतज़ार तो था पर यूँ कर नहीं | </div><div>क्या ये कह दूँ कि जो गया सो गया ,आगे की जिंदगी के जो भी पन्ने बचे हैं ,उन्हें संवारों | उनसे , जिनकी किताब के सारे पन्नों पर काली स्याही उंध पड़ी है | जाने वाले का दुःख अपनी जगह है पर जो पीछे छूट गए उनकी जो टीस होती है ना , बस वैसे कि जैसे बबूल के गहरे कांटे देह में गहरे घोप बस अंदर ही छोड़ दिए जाएँ | </div><div>उफ्फ ये कोविड, ये काल | और किस पर तोहमत जडूँ ?</div><div><br /></div><div>छोटे बच्चों के दिमाग इंटरनेट से जुड़े है | कोई आठ साल का बच्चा यूटुब पर सच्चे झूठे , अधकचरे वीडियो देख अपने बाप से मुखातिब हो पूछ रहा है " पापा , पहली लहर बूढ़ों के लिए थी ना और दूसरी जवानों के लिए | तो क्या तीसरी बच्चों के लिए होगी ? क्यों? "</div><div>आप बच्चे को डाँट सकते है | लेकिन ये बोल , महज इतने से बोल आपको खौफ और लाचारी से तरबतर करके ही जायेंगे | पसीना छूटता है | </div><div>क्या कह दूँ ? जब बड़ों को समझाने के लिए बोल नहीं हैं , तो बच्चों को समझाने का असाइनमेंट किस हौसलें से ले लूँ |</div><div><br /></div><div><br /></div><div>पहली दफा ऐसा हुआ है कि मरीज अस्पताल जाने से डर रहा है | आई सी यू , वेंटीलेटर , ऑक्सीजन इन शब्दों में भय की प्रतिध्वनि क्यों है | आखिर ये सब तो जान बचाने के साधन हैं ना ? आदमी की साँस फूल रही है , उसकी क्या जरूरत है ,जानता है| पर उसे क्यों लग रहा कि अस्पताल जायेगा तो वापस नहीं लौटेगा | व्यवस्था , शासन , समानता , न्यायोचित, अवसर, अधिकार इन मूल तत्वों में आदमी का भरोसा क्यों नहीं है | ट्रैक्टर ट्राली में गन्ने की जगह अपने मरीज की चारपाई जमाये किसान शहरों की तरह जा रहे है | अस्पताल में बेड , ऑक्सीजन , सही इलाज पा जाने की उनकी आस कुछ उतनी ही है जितनी रात भर अपना तेल जला चुके भोर में फड़फड़ाते दीये की | पर अपनों का जी कहाँ मानता हैं | कोशिश ना करने का अपराध बोध समझते हैं ना आप ?</div><div><br /></div><div>उन कुछ हार कर लौटते तो कुछ आस लिए जाते ट्रैक्टर ट्रॉलियों के रंग लाल हों या हरे ,अमूमन हर किसी के पीछे लिखा होता है :"खेत पर किसान , सीमा पर जवान | "</div><div>और इससे भी बड़े , बोल्ड अक्षरों में : "मेरा भारत महान ! "</div><div><br /></div><div>हम्म , भारत तो महान रहेगा ही , पर ये लिख कर इतराने वाले शायद हताहतों की गिनती में भी ना आएं | </div><div><br /></div><div><br /></div><div> -- सचिन कुमार गुर्जर </div><div><br /></div><div> </div><div></div><div><br /></div><div> </div><div><br /></div><div> </div><div><br /></div><div> </div><div><br /></div>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-87534172034970002592021-04-03T22:34:00.004-07:002021-04-17T03:42:10.688-07:00परिवार की लड़कियाँ <p>माता के जगराते बोले गए | तीर्थों के बरगदों से डोरे बाँधे गए | पचास पचास कोस के बाबाओं की राख भभूत देह से लपेटी गयी | तब जाकर लल्ला पैदा हुआ | तीन तीन देवियों के पीछे आया घर का वारिस | पूरे गाँव में लड्डू बाटें गए | बड़े जनों को चार और छोटे बच्चों को दो दो लड्डू | और तब से ही हर साल कुलदीप के जन्म के त्यौहार पर पूरा मोहल्ला दावत न्योता जाता है | और वो तीन लड़कियां भाग भाग खीर पूड़िया परोसती हैं | 'थोड़ा और, थोड़ा और' खुशामंद कर कर सब जनों को इतना खिलाती हैं कि वे मारे बोझ के कराहते हुए उठते हैं | उन तीनों का जन्मदिन नहीं होता | पर त्यौहार तो परिवार का होता है ना | पूरे परिवार का | और वो परिवार की लड़कियाँ हैं | वैसे ही जैसे परिवार की गायें , परिवार की जमीन , परिवार की अलमारी में रखी उधारी की पर्चियां, पीढ़ी दर पीढ़ी हाथ बदलते जाते पुराने गहने |</p><p>हाँ इतना ही वजूद है उनका | वो परिवार की हैं | महज, परिवार की लड़कियाँ | </p><p> </p><p><br /></p><p> </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-80816156367240854032021-03-26T23:38:00.017-07:002021-03-28T09:27:29.509-07:00पिचकारी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBcd1LjRPK0SG7KwTbjBvPlpR8NJfqYn39aopSJrooG_PeDUHmEtSV-xUt5uyhpRVkB8ZZSbQySpmwrGPrd0LRCM-k_eOMpdd6uhchqNmPWuV-Cgbmrbx3zubm1hmUxjzRuiY8aXO_0Bs/s600/holi-celebrations-boy-playing-gun-600w-1022003281.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="459" data-original-width="600" height="306" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBcd1LjRPK0SG7KwTbjBvPlpR8NJfqYn39aopSJrooG_PeDUHmEtSV-xUt5uyhpRVkB8ZZSbQySpmwrGPrd0LRCM-k_eOMpdd6uhchqNmPWuV-Cgbmrbx3zubm1hmUxjzRuiY8aXO_0Bs/w400-h306/holi-celebrations-boy-playing-gun-600w-1022003281.jpg" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p>"ओ देसा , भैंसिया लात मार गयी क्या आज | " लकड़ी के पुराने तख्तों से बने मटमैले दरवाजे की झीरियों से झाँकता दूधिया चिल्ला रहा था | देसा गडरिया बगल में खुरपी दबाये अपने खेत पर निकल गया था | बांकले की फली की क्यारियों में गाजर घास उग आयी थी | घर के आँगन में लगे कड़वे बकैन के पेड़ तले टोकरी फेंक उसकी घरवाली दरवाजे पर आई | </p><p>"साल भर का तिभार (त्यौहार ) हैगा | मावा गुँजिया करै है हम | बालक हैं , आये गये मिलने वाले हैं | तीन दिना की बेच बंद रहे हमारी | "</p><p>"ओ भलमानस , ऐसा क्यू कहो हो | अभी तो डिमांड जियादा है दूध की | आधा तो देओ कम स कम | " </p><p>आँगन के किनारे लगे करोंदे की झाड़ियों पर बकरियाँ आ गयीं थी | आठ साल का राजू , शहतूत की कमची से उन्हें छपरिया की ओर धकेल रहा था | साथ ही सोचता जा रहा था कि बात सेर या सवा सेर अनाज से बन पाती तो माँ की नज़र के नीचे से खींच लेता | पर लाला की दुकान के बाहर खटिया पर गुलाल की थैलियों के पीछे सजी गुलाबी, लाल , पीली पिचकारियाँ इतनी महंगी थी कि कम से कम आधा धड़ी (अढ़ाई किलो ) गेहूँ लगता | फिर माँ के हाथ में हमेशा विधमान लोहे की फुकनी इतनी भारी थी कि उसकी चोट खाल, माँस को भेदती हुई रीढ़ की हड्डी तक जाती थी | खींझ में उसने बकरियों को कई कमचियाँ जड़ दीं थीं | </p><p>"ना ,तम से बताई ना क्या इसके बाबा नें ? " राजू की ओर इशारा कर उसकी माँ ने कहा | हताश दूधिया लौट गया | </p><p>सुबह की आपाधापी से निपट राजू की माँ ने आँगन में एक उठाऊ चूल्हा जमा दिया और राजू को घर की छत पर चढ़ा दिया | छत पर दुनिया जहान का लकड़ काठ जमा था | सरसों की तूर के गठ्ठर , बकैनिया के सूखे कुंदे , मोटे बाँस , यूकेलिप्टिस की टहनियाँ , टूटी खाट के पाए और पिछली साल की अरहर के सूखे झाड़ | चूँकि कढ़ाई लम्बे समय तक आँच पर रहनी थी सो माँ ने राजू से कुछ ठोस और मोटी लकड़ी का ईंधन आँगन में फेंकने को कहा | </p><p>हवाईजहाज के अल्मुनियम की चादर की कढ़ाई थी जिसे राजू की माँ ने अपनी शादी में मिली काँसे की परात और पीतल के लोटे के बदले खरीदा था | कढ़ाई में गोल गोल घूम दूध जब सूखने लगा और माँ कढ़ाई के किनारे पलटनी से खुरचने लगी तो राजू ने अपनी बटन जैसी गोल और छोटी आँखे माँ के चेहरे पर जमा कहा "माँ री , सुने है ? लाला की दुकान पे बड़े जोर की पिचकारी हैंगी इस बार | सहर जाने की कोई जरूरत ना है | सब सामान अपने गाम में ही मिलन लगा अब | "</p><p>माँ का चेहरा ऐसे बिगड़ा जैसे चूल्हे का सारा कड़बा धुआँ उसकी आँखों में जा घुसा हो | "रकम लुटे हैगा जु बनिया | अभी तीन दिना है होरी के | सबर कर | पीर की बजरिया से मंगा लीजो "| माँ ने आश्वासन दिया और राजू ने सहर्ष मान भी लिया | </p><p> बड़े किसानों और बनियों के लड़कों के हाथों में पिचकारियाँ कब की आ चुकी थी और वे सब अपने अपने हथियारों की फेंक नाप रहे थे | किसी के पास मछली के ढाल की गुलाबी पिचकारी थी जो पंप दबाने पर बड़ी ही महीन और लम्बी धार फेंकती थी | किसी के पास तमंचा था जिसका पंप खचर खचर की आवाज़ निकालता था | कुछ के पास स्टील की बड़ी पिचकारियाँ थीं, जिनमे आधा लीटर पानी आता था | उन बच्चों के बाप जब गलिहारों से गुजरते तो बच्चों को चेताते जाते "बालको ,पहले ही खराब करके मत बैठ जइयो | कदी (कभी ) फिर होरी के दिना टुकर टुकर बैठे देखो | " इन सबसे अलग राजू अपने घर की चबूतरी से सब देखता | दूसरी की होड़ नहीं किया करते , ये बात उसे हर दूसरे दिन सिखाई जाती थी |उसे पीर की बजरिया का इंतज़ार था | </p><p>ढाई डग भर चौड़ी काले डामर की सड़क थी जिससे कोई फेरी वाला चला आ रहा था | गाँव में घुसते ही उसने साईकिल से उतर ऊँची टेर लगाई "ले लो लीची | टूटे फूटे लोहे प्लास्टिक से लीची बदल लो | ले लो लीची | " </p><p>"ओ जी , रद्दी से भी दे रहे लीची? " पड़ोस के किसी बच्चे के हत्थे कुछ रद्दी ही थी शायद् | </p><p>राजू का अपना खजाना था | भूसे के कोठड़े में , खेतों की ओर खुलने वाले सीखचे में, सड़क किनारे मिले कुछ बाल बियरिंग ,ट्रक से गिरा प्लास्टिक के पाइप का टुकड़ा , सड़क पर दौड़ते घोड़ों के खुरों से छिटकी लोहे की तनालें , नट बोल्ट, इंजन की पुरानी नोजल यही सब जमा था | उसका मन थोड़ा उदास था | रसीली लीचियों ने उसे खींच लिया | अपना खजाना लुटा और बदले में दो हथेलियाँ भर लीची पा राजू अपने चबूतरे पर आ गया | खेत से लौटते बापू को देख राजू को फिर से पीर की बजरिया याद आ गयी | बस एक रात और | </p><p>अगले दिन सुबह से ही देहात के लोग यूरिया के पुराने बोरों से बने थैले लिए बाजार की ओर कदमताल करते जा रहे थे | साईकिलों के पीछे बंधी बकरियाँ मिमियाती चली जा रहीं थीं | बैलगाड़ी में बैठे अपने बच्चे को सूँघती भैंसे पैर पटकती जा रही थी | अपनी साईकिलों के पीछे कपड़ो के गठ्ठर बांधे बजाज चले जा रहे थे | बाँझ और बेकार हो चुके मवेशियों के मालिकों को कसाई बजरिया से पहले ही रोक मोल भाव कर रहे थे | तांगे वाले कोस भर की मंजिल का एक रूपया वसूलते थे और बाजार के दिन भूसे की तरह आदमी और जनानियों को जबरिया तांगे में ठूसते जाते थे | पचास का नोट और मवेशियों की खली का पुराना बोरा ले राजू के बापू दोपहर बाद बजरिया को चले | दरवाजा लांघने को थे तो पीछे से राजू की माँ ने कहा " मिर्चा पिसी हुई मत लईयो | पिछली बार की मिर्चा में ईटा मिला हुआ जान पड़ै हा | साबुत ही लईयो | "तांगे में बैठने से पहले राजू ने याद दिला दिया "बाबा , पिचकारी मति भूल जइयो | "</p><p>शाम को बजरिया से लौटते ग्रामीणों के बच्चें तांगे के ठोर पर जमा थे | एक एक कर मर्द और जनानियां ताँगों से उतरते जाते | उनके झोलों की बुकें सामान के बोझ से फटी जा रही थीं | छोटे बच्चे अपनी मांओं की ओढ़नियाँ कुछ ऐसे पकड़ लेते जैसे घर का रास्ता वे ही दिखाने वाले हों | बड़े बच्चें अपने बापों के कंधो से थैले , जिनसे लौकियाँ बाहर झाँक रहीं होती ,अपने कंधो पर ले लेते और बड़े उतावले से घर की ओर निकल जाते | </p><p>लम्बे इंतज़ार के बाद वो तांगा आया जिससे राजू के बापू उतरे | उसने अपने साथियों की तरह लपककर झोला ले लिया और साँस तब लिया जब उसे आँगन में पड़ी चारपाई पर ला पटका | फिर वो एक एक कर सामान निकालने लगा | धनिया , मिर्च , चाय पत्ती , दादा के लिए तम्बाखू , गुड़ , माँ के लिए रिलेक्सो के चप्पल , खरबूजे के बीज , छटाँक भर किशमिश , सूजी , साबुन , यही सब निकला | इससे पहले की राजू कुछ कहता , उसकी माँ ने ही पूछ लिया " पिचकारी ना लाये लल्ला की ?" </p><p>"अरे , अनाप सनाप कीमत मांगे है ससुरे दुकानदार | कुछ जँची ना | "</p><p>"कीमत दो तो चीज हो कुछ मजबूत | छुए भर से ही टूटें हीं प्लास्टिक की पिचकारियाँ |" </p><p>राजू के मन की कौन जानें | क्या ये सब सुनने को ही वो दिनों से पीर की बजरिया का इंतज़ार करता था | कितना सब्र रखता | </p><p>"अच्छा जी , अच्छा जी | " वो कहता हुआ आँगन में पैर पटकता हुआ बाहर की ओर भागा | कोई मनाने नहीं आया तो वापस लौटा और माँ के आस पास भिनभिनाने लगा | माँ एक दो बार करहाई "सबर कर लल्ला | आ जाएगी तेरी पिचकारी | "</p><p>"अच्छा जी , अच्छा जी | अब ना चाहिए मुझे | "राजू मारे गुस्से के फड़फड़ा रहा था | नाक चौड़ी किये कुछ कुछ मिनमिनाता चला जा रहा था | माँ ने गुझियाँ और नमक पारे दिए तो उसने खटिया पर दे मारे और बोला "तुम ही खाओ |"</p><p>राजू को झींकते , भिनभिनाते घंटा भर हो चला तो माँ का माथा गरम हो गया | उसने दांत भींचे और बोली "फूकनी लाइए जरा ठाय कै | तेरा पिचकारी का भूत उतारू अभी |" </p><p>और इस तरह बिना पिचकारी के ही होली का दिन आ गया | </p><p>होली की सुबह उठते ही राजू के पिता ने आल्हे में रखी आरी ली | आँगन में एक ईंट जमा राजू को पास बिठाया | खोखले बाँस की दो बालिश भर की लकड़ी काटी और उसके एक सिरे पर चव्वनी से भी छोटा छेद बना दिया | फिर पतली दरांती दूसरे सिरे से अंदर घुमा घुमा बांस का पेट साफ़ कर दिया | अब उन्होंने सफेदे की सीधी टहनी क़तर उसके एक सिरे पर कुछ कपड़ा लपेटा | फिर उस कपडे के ऊपर बारीक सुतली की कई लपेटन खींचीं | बाँस के पेट को उन्होंने सरसों के तेल से तर कर चिकना कर दिया | सफेदे की टहनी का कपडे बंधा सिरा बांस के पेट में फंसा दिया और बैलगाड़ी के टायर की पुरानी ट्यूब के टुकड़े की कतरन में टहनी के आगे पीछे का निकास ढीला छोड़ बांस का पेट का सील कर दिया | राजू से बाल्टी भर पानी मंगाया और कुछ देर के लिए बाँस को पानी में छोड़ दिया | पानी की गील से कपडे और सुतली फूल गए | सफेदे के लकड़ी की पिस्टन को बापू ने खींचा तो बाँस को वो पिचकारी एक ही घूँट में आधा बाल्टी पानी पी गयी | राजू की माँ की ओर बाँस का मुँह घूमा उन्होंने पिस्टन को दबा दिया | माँ सराबोर | उसके मुँह से निकला "हाय री मेरी मैया | " और बापू हँस पड़े " होरी है भई होरी है | "</p><p>गली में हल्ला हो रहा था | प्राइमरी स्कूल के मास्टर साब साइकिल से चले जा रहे थे | गोबर के ढेर पर दो जनानियाँ खड़ी थी | बचके ना जाने पाएँ | मुँह जुगत से रगड़ दीजो इनका | हो हो हो।होरी है जी होरी है |" </p><p>और हल्ले गुल्ले के बीच मास्टर साब हाथ जोड़े खड़े थे " देखियो जी , रहम करियो | गोबर ना रगडियो | रंग लगाओ | गुलाल लगाओ | बस गोबर ना | "</p><p>मास्टर साब के ओहदे का ख्याल कर औरतें पीछे हट गयीं | और मोहल्ले के बच्चे अपनी अपनी पिचकारियों से मास्टर साब से स्कूल की पिटाई का बदला लेने लगे | पतली पतली पिच पिच रंग की धारों के बीच से मास्टर साब बड़े लापरवाह हो आराम से जाने लगे | </p><p>अचानक से बिजली की फुर्ती से राजू उनकी साईकिल के सामने आया और सीने के सामने जमा अपनी बांस की पिचकारी खोल दी |एक ही धार में मास्टर साब चोटी से एड़ी तक तरबतर | गाढ़ा काला रंग | अभी एक पल पहले जहाँ मास्टर साब खड़े थे वहाँ अब एक भूत खड़ा था | काला भूत | </p><p>"होरी है जी होरी है | बुरा ना मानो होरी है | " </p><p>"ओ बेटे की | जू है असली पिचकारी ! " कई आवाजें एक साथ बोल पड़ी | बनिए और किसानों के लड़कों ने राजू को घेर लिया | </p><p>" ओये , हमें दिखा | हमें दिखा| " सारी पिचकारियाँ राजू की पिचकारी के सामने फीकी पड़ गयी थीं | </p><p>राजू अपने चबूतरे की तरफ मुड़ा तो किसी लड़के ने उसे बाँह पकड़ रोक लिया " आडी, यही रह हमारी संगी | ऊ देख दक्खन के मोहल्ले के बालक हमपे हमला करने आ रए हैं | " और राजू ने अच्छे सिपाही की तरह पलटन के बीचोंबीच मोर्चा संभाल लिया | </p><p>शाम को कामधाम से निपट राजू की माँ ने उसके पिता जी से कहा " इस साल बड़ी अच्छी बीची (बीती ) होरी | राजी खुसी , गाम में कोई झगड़ा नाय हुआ | " </p><p>खाट पर पसरे बापू ने राजू की तरफ देखा " क्यूँ राजू , कहो कैसी रही ?"</p><p>बगल में लेटे राजू ने कहा " अच्छी रही बाबा , बहुते ही अच्छी | " </p><p> </p><p> - सचिन कुमार गुर्जर </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-51669158487670417042021-03-13T11:12:00.026-08:002021-03-25T20:18:04.975-07:00गहरा सब्र<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjm17VslsxPcbSXzERXJErwoikhU0ozxrqKpNQ_NxGp22EoDI0Ac4fYSFjTbI8h_tA6_8d5CQrOMLY0D7QSKKvaZ5CdtEwIMx_YA-K4F7cUnJwSWowhJ1bbiaFzK44kkAlAIw2mt1_67oo/s599/149d5e11686d021e0e5e1d491fb3c725.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="440" data-original-width="599" height="294" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjm17VslsxPcbSXzERXJErwoikhU0ozxrqKpNQ_NxGp22EoDI0Ac4fYSFjTbI8h_tA6_8d5CQrOMLY0D7QSKKvaZ5CdtEwIMx_YA-K4F7cUnJwSWowhJ1bbiaFzK44kkAlAIw2mt1_67oo/w400-h294/149d5e11686d021e0e5e1d491fb3c725.jpg" width="400" /></a></div><br /> <p></p><p>हर गाँव बस्ती में एक दो आदमी ऐसे हुआ करते है कि जिन्हें कोई मुँह लगाना पसंद नहीं करता | यहाँ तक की दिन भर चबूतरों पर बैठ ताश पटकने वाले ,राहगीरों को रोक बीड़ी मांगकर पीने वाले भी नहीं | चतर सिंह उर्फ़ चतरे कुछ इस तरह की शख्सियत का ही आदमी था | लेकिन इस तरह के आदमी से भी समाज की एक उम्मीद होती है| उम्मीद ये कि फलाना की हद वहाँ तक है , उससे नीचे वह कभी नहीं गिरेगा | चतरे ने वह हद तोड़ी थी| तभी उसका चर्चा हो रहा है ,वरना कौन उसका चर्चा करता | </p><p>चतरे को समाज से कटे होने का, बेरसूख़ जीवन जीने का एहसास तो था पर अपना जीता था वो आदमी | फिर उसे दरकार भी क्या थी | कच्ची भीत का ही सही , अपना घर था , जिसमें नीम के पेड़ की छांव थी | थोड़ी ही सही खुद की खेती थी , जिसमें साल भर खाने लायक गेहूँ , बाजरा हो जाता था | एक भैंसिया थी जो बरसात में बाल्टी भर तो जाड़ों में चाय सफ़ेद करने लायक दूध देती ही रहती थी | गाँव के मोंटेसरी स्कूल में पचास रुपया फीस थी | दो बच्चों पर तीसरे बच्चे की फीस माफ़ | आठवें दर्जे तक पढ़ी ,गन्ने की पोर सी लम्बी, खूबसूरत औरत थी | जो तीन तीन बच्चे जनने के बाबजूद अभी तक नई बिहाता जान पड़ती थी | उलटे पल्लू की झमकीली साडी पहन वो पाजेब बजाती गलियों से गुजरती तो आँखों में नकली ममीरे का सुरमा लगाए , डोढियों पर बैठी बूढ़ी औरतें पूछतीं " कौन जावे है ?" तो कोई नई आँख लड़की बताती "ऊ है , चतरे के घर की अंतरा | " कोई चिढ़ती हुई कहती "इसकी जवानी खत्म ना होने की है री बहना !" </p><p>और खुद चतरे ? | मंजला कद , ज्यादा नमक खाने से ईद के बकरे की मानिद फूली गुदधी लिए | कच्ची शराब पीने से शक्ल ऐसे उधड़ी हुई जैसे कोई घरेलु स्त्री अपने बच्चे को मनाने में मशगूल हो और बाजरे की रोटी को भभकते तवे पर रख भूल जाये| सफ़ेद बाल , हिना से लाल किये हुए | हर नयी पुरानी बुशर्ट में बीड़ी के पतंगों से खुले छेद यहाँ वहाँ किसी डिज़ाइन की तरह फैले होते थे | मोटी लेकिन लकीर की तरह सीधी मूछें रखता | नाई से हजामत बनवाने के बाबजूद पंद्रह मिनट खुद शीशे के आगे खड़े हो मूछों के बाल कतरता रहता | आदमी का रूप न देखा जाता , गुणी होना चाहिए | चतरे के गुणगान में यही लिखा जा सकता है कि जब घरवाली धकिया धकिया कर उसके सब्र के कब्जे कुंदे तोड़ने लगती तो वह साईकिल उठा पास के पीतल कारखानों में जा काम करता | महीना दो महीना करता फिर उतने ही समय आराम | उसकी सुबह कैसी भी कटी हो , दोपहर बाद उसकी चिंता यही होती कि शाम की दारु का प्रबंध किस तरह हो ?जीभ चटान मांगती थी | नकदी सुलभ ना थी | इधर उधर घूमता | किसी किसान का लोहा काट खेत क्यारी में कहीं दिखता उसे बड़ी सफाई से कबाड़ी को बेच देसी मसालेदार पी लेता | गाँव के कुछ कच्चे घरों में पुलिस की चोरी से कच्ची दारु की भट्टियाँ थीं , उन घरों में चतरे का उधार खाता चलता था | उसे भनक लग जाए कि जोहड़ के उस पार भंगियों के घरो में मेहमान हैं और आज सुअर पकेगा तो उसके पैरो में जैसे घनचक्कर आ जाता | वो भीत पर बैठा दूर से जानवर को टीकरी पर सुर्ख भुनता देखता रहता , अँधेरा होने का इंतज़ार करता ,फिर थोड़ा छिपता बचता कटोरा भर मांस शोरबा मांग लाता | </p><p>बिरादरी को वो सब्जी तरकारी समझता था | कोई उससे कहता न, ये उचित नहीं , समाज क्या सोचेगा ? तो वो कहता "समाज मेरा कद्दू !" कभी झांझ में होता ,ज्यादा ताव खा जाता तो खड़ंजे पे खड़े हो, अपने पौरुष की तरफ भद्दा सा इशारा कर सबको सुनाता "इहा धरु हूँ मैं बिरादरी कू इहा , उखाड़ लो जिससे कुछ उखड़े तो | " बड़ा लड़का रिंकू सोलह सत्रह का हो गया था | परती में साथियों के साथ क्रिकेट खेल लौट रहा होता | अपने बाप को ताने मारता हुआ हुआ घर की तरफ ले जाता | चतरे पैर पटकता , बिना बात किसी से उलझने को होता तो रिंकू उसे कंधो पे धक्का देता और गुस्से में फुंकारता " चल लए हो के ना | हम्बे सई | बहुत देर हो गयी है अब |" मंजलि लड़की थी , नाम था छवि | उम्र चौदह या पंद्रह | और वाकई वो अपनी माँ की छवि थी | रंग उसका जरूर पीला था | वैसा ,जैसा कि अभाव में पली, आयरन की कमी से जूझती किशोरियों का होता है | पर वही लम्बा कद , आँख नाक सुथरे | वो बिना काम घर के बाहर कदम तक ना रखती | कोई सहेली नहीं | अपनी माँ के साथ साड़ियों में फाल लगाती | पेटीकोट सिलती | सादे काट के सूट सलवार सीं लेती | नमक मिर्च , चाय पत्ती , चीनी ऐसे रोजमर्रा के खर्च का जुगाड़ इससे हो जाता | पुरुष का समाज में स्थान उसके काम , समाज में बर्ताव , उसकी माली हालत से तय होता है | स्त्री गरीब घर में भले ही हो , रूप और चरित्र की उसकी अपनी निजी पूँजी होती है | और इस पूँजी की बदौलत उसकी बूझ होती है | छवि के पास रूप और चरित्र दोनों ही थे |बुआएँ , मोहल्ले की शादी शुदा बहनें सब गिनती थी कि बस साल दो साल और गुजर जाये | फिर उनमें से कोई अपने ननद के लड़के के लिए तो कोई अपने देवर के लिए छवि का रिश्ता मांगने को थीं | चतरे का सबसे छोटा लड़का पम्मी सात या आठ का था , गलिहारों में साईकिल का पुराना टायर दौड़ता , दोस्तों संग आइसपाइस खेलता | कुछ इस तरह वो परिवार चलता जा रहा था | और ऐसे चलता ही जाता अगर वो बाहरी लोग ना आ गए होते | </p><p>रेत का बोरा बालू से ठसाठस भरा हो और उसमें जबरिया ढूंस ढूंस और भी भरा जाये तो उसकी बूंके फट जाती हैं | कुछ इस तरह ही आबादी के दबाब के चलते जब दिल्ली फटी तो नोएडा और गुडगाँव बसने शुरू हुए | कितने ही गाँवों की जमीन बर्फी के टुकड़ों के माफिक छोटी छोटी , चौकोर, कतली कतली हो बिकी | बिल्डर्स के बड़े बड़े होर्डिंग्स लग गए | अट्टालिकाएं खड़ी हो गयीं | ऐसे किसान जिनके खेतों में अनाज कम , कीकर बबूल ज्यादा उगते थे , रातोरात करोडपति हो गए | बहुतों ने ट्रांसपोर्ट कम्पनियाँ खोल लीं | कई कई मंजिल ऊँचे मकानों के लाखों में किराए आने लगे | उनके लड़के जिम में कसरत कर अपनी भुजाओं को देख फूलते , व्हे प्रोटीन के डिब्बों से प्रोटीन शेक बना पीने लगे और महंगी मोटरसाइकिलों पर घूमने लगे | कुछ के काम सधे ,तो बहुतों की औलादे बिगड़ गयीं | सुनने में आता कि नोएडा में बसने वाले उन कल के आम किसानों के घरों में इतनी संपत्ति आ गयी थी कि उनकी भैंसो का गोबर भी स्कार्पियो में भर कर जाता था ! फिर वो पैसा पूरब की ओर बहने लगा | राष्ट्रीय राजमार्गों से होता हुआ ,छोटे शहर, कस्बों और फिर गाँवों तक पहुंचने लगा | </p><p>ऐसे ही कुछ नवधनाढ्य लोगो ने चतरे के गाँव के पास सस्ते में जमीन खरीद फार्म हाउस बना लिया था |वे 'राम राम जी' को भारी आवाज़ में दम्भ लिए 'रोम रोम जी' कहने वाले लोग थे | टीनोपाल और स्टार्च में डुबोकर नेताओं जैसे कुर्ते पहनने वाले लोग |'एस यू वी' कारों में चलने वाले ,खाने पीने के शौक़ीन , जिंदगी खुल कर जीने वाले लोग | </p><p>यूँ तो घर में जवान होती लड़की सुन्दर के शराबी बाप को शराब पिलाने वालों की कमी कहीं भी नहीं होती , लेकिन इन लोगों से चतरे का मेल होना अचरज तो था ही | और मेल भी इतना गाढ़ा कि पहले खाना दाना फिर उपहार में लत्ते कपड़ो का लेना देना होने लगा | वे बिरादरी के ही लोग थे | गाँव के लोग समझते रहे कि नए लोग है , अभी आदमी की समझ नहीं , एक बार चतरे के चरित्र से वाकिफ होंगे तो याराना उड़न छू हो जायेगा | लेकिन गर्मी गयी , मेह बरसा , शीत में पेड़ो की पत्तियाँ सिकुड़ गयीं ,नए फार्म हाउस पर चतरे की दावत में मुर्गे भुनते ही रहे और अंग्रेजी बोतलें खुलती ही रहीं | गंगा स्नान के बाद जब बिहा बारातों का सिलसिला शुरू हुआ तो एक दिन एक बस और दस बारह गाड़ियों का काफिला गाँव के सिरहाने पर आ थमा | सफ़ेद लकीर छोड़ते हुए दो गोले आसमान में ठीक गाँव के ऊपर फूटे तो गाँव वालो को पता चला | चतरे की लड़की की बारात आ गयी थी | </p><p>और नोएडा से आयी वो बारात भी क्या बारात थी | ऐसी बारात उस गाँव में कभी नहीं आयी | दिल्ली का कोई नामचीन बैंड था | बैंड से अलग कुछ भंगड़ा स्पेशल ढोल वाले थे | धाड़ धाड़ धाड़ , दुनालियाँ गरजतीं तो बच्चे अपनी माओं के आँचल में चुप जाते | पूरे गाँव के आवारा कुत्ते दूर जंगल में भाग गए थे | गायें और भैंसे अपने रस्से तोड़ जोहड़ की तरफ भागी जा रही थीं | सफ़ेद कुर्ते पहने मेहमानों के चेहरों से रईसी टपक रही थी | बड़े बड़े डौले लिए और डिज़ाइनर कपडे पहने लड़के नए ढाल का नाच कर रहे थे | काफिले के पीछे पीछे चलती दो स्कॉर्पियो में शराब और बीयर की क्रेट रखी थीं | कम उम्र और जीन्स ब्लेजर पहने लड़के दूल्हे की बग्गी , जिसमें चार सफ़ेद झक घोड़े जुटे थे , के आगे गाँव की नालियों की कीचड साफ़ करते जा रहे थे | बुनडी खुली कारों में सोने की मोटी चैन पहन अधेड़ हाथों में बोतल नचा , सिर्फ हाथ नचा ख़ुशी का इजहार कर रहे थे | बारात में एक भी गरीब ना था | वो सब किसी रियासत से आये दीवान जान पड़ते थे | जो नाचना नहीं जानते थे वे खुले हाथों से दूल्हे के ऊपर घुमा नोट उड़ा रहे थे , जिन्हे उठाने की होड़ में नीची जातियों के छोटे- बड़े आपस में लडे जा रहे थे | तथाकथित ऊँची जातियों के लोग भी उन बड़ी रकम के नोटों को उठाना चाहते थे पर उनकी जात उन्हें रोकती थी ! चूँकि अधिकांश गाँव में दावत का न्योता ना था ,सो बहुत से लोग जंगल में ही थे | घसियारिने अपनी घास की छोटी गठरियाँ ही लिए गाँव ओर लपक चलीं | मुंडेरों पर लटकी लड़कियाँ और औरतों को देख दूल्हा हर थोड़ी देर में रुमाल उठा नमस्ते ठोकता जाता | उनमें से कई एक दूसरे को कोहनियाँ मार फुसफुसाईं "अये, सोयना हैगा पहाना तो ! " पुरानी नई सब बैठकों पर हुक्के बज रहे थे | हर नया आने वाला पहले से बैठे लोगों की ओर हाथ उठा कहता " रोम रोम साब " | जबाब में चबूतरों पर बैठे कई लोग एक सुर में कहते " राम राम साब , आ जाओ | "</p><p>चतरे के घर के बगल में खाली खलिहान में छोटा सा पंडाल लगा था | व्यवस्था कोई भव्य ना थी | ऐसा जान पड़ता था जैसे सब कुछ जल्दी में किया गया हो | हलवाई पालक के पकोड़ो के गर्मागर्म घान उतार मेज़ों पर सजा रहे थे | गुलबजामुनो के बड़े भगोने सीधे मेज के ऊपर जमा दिए गए गए थे जिन पर कुटुंब के कुछ लड़के मुस्तैद हो खड़े थे | पूड़ियाँ , आलू गोभी की सब्जी , पुलाव , उड़द राजमा मिक्स दाल , सब कुछ अपनी जगहों पर आ जमा था | उस गाँव में अभी तक पालथी मार जमीन पर दावत खाने रिवाज था | नोएडा की बारात के साथ डोंगा सिस्टम भी आ गया था | घर के दरवाज़े पर बग्गी रुकी तो गीत गाती औरतें दूल्हे का आरता उतारने को बढ़ी | दूल्हे को नीचे उतारने की माँग हुई तो दूल्हे के जीजा ने कहा "आंटी , यही से उतार लो आरती , बार बार क्या उतरना चढ़ना , बिना वजह | " लेकिन परिवार की कोई होशियार काकी आगे आई और उसे डपटते हुए बोली " ओ लल्ला , जाने है हम , नोएडा से आये हो तम | पर रीतिरिवाज भी कुछ होया करें है कि ना ?" दूल्हे ने उठने की कोशिश की ,पर खुद से उठ न सका | दो लड़कों ने बगलों में हाथ लगा उसे नीचे उतारा | उतरते के बाद भी दूल्हे के दोनों पैर जमीन में घिसट गए | छतों से पूरा गाँव देखता था | "पी रखी है , पी रखी है" किसी ने छत कहा | जो छतो पर नहीं चढे थे , भीड़ से थोड़ा हट कर खड़े थे , वे सुन कर बोले " बताओ रे बताओ , शादी के दिन भी दूल्हे ने पी रखी है ! "</p><p>चतरे का छोटा भाई था नज़र सिंह | भाई से बनती ना थी , ना ही जल्दबाज़ी के इस रिश्ते से खुश था | पर अपने परिवार की बात रखने को और दुल्हन का चाचा होने का फ़र्ज़ निभाने को काम में लगा था | और वो नाम का ही नजर सिंह ना था | नाश्ता कर चुकने के बाद भी जब दूल्हे ने उठने चलने की कोशिश ना की तो उसने दृष्टि डाली | "ओह हो , ओह हो , हरामजादे ने जुल्म कर दिया" उसके मुँह से यही निकला , जब उसने देखा कि दूल्हे के दोनों पैर लकवे के मारे हुए हैं | लकवे का असर धड़ तक था | अपराध , अपमान , जगहंसाई ऐसी कई भावनाओ का बवंडर उसके दिमाग में उठ खड़ा हुआ | महज पंद्रह बरस की फूल सी मासूम भतीजी का चेहरा उसकी आखों के सामने घूम गया और उसे फार्म हाउस में उडी तमाम दावतों का प्रयोजन समझ आ गया | वो डंडा उठा भागा | बुआएँ भागीं , भतीजे भी भागे | </p><p>"ओ घोड़े के मूत पीवा | तू मेरे बाप का बीज है ही नहीं कंजर | है कहाँ तू हरामखोर| " नजर सिंह घर की दहलीज पर खड़ा चतरे को ललकार रहा था | किसी ने खींचा तो वो पेट्रोल की लाग पायी आग सा भड़भड़ा उठा "खोपडा दो फाँक करूँगा आज इसका | आज या तो यू ही है या मैं ही हूँ | " उसकी दोनों बहनें काँपती , हाथ जोड़े उसके आगे खड़ी थी "ओ मेरे वीरन , ओ मेरी माँ के जाए , मत कर , मत कर | जमाना देखे है | " फिर उनमे से एक फफक के रो पड़ी "डुबो दी रे मेरी फूल सी बच्ची | दारु ने कैसी मत मारी रे तेरी चतरे| कुछ तो मेल देखता | ओ दोखी , तुझे दोजख में भी जगह न मिलेगी | " बाप का गुस्सा देख नजर सिंह का बड़ा लड़का भी रौद्र हो उठा , वो अपने घर की तरफ भागा | लोड तमंचा लिए वापस लौटा और चतरे की दीवार पर खड़ा हो गया और धाय धाय| दो फायर ख़ोल दिए | दहाड़ा " भागो सब , कोई फेरे वेरे ना होंगे | जब तक हम जिन्दा है |किसी माई के लाल में हिम्मत है तो सामना करे | " सामना कौन करता | भगदड़ मच गयी | और पूरे गाँव में बात फ़ैल गयी कि चतरे ने शराब के नशे में अपनी लड़की नोएडा के जमीदारों को बेच दी | </p><p>लेकिन बिरादरी तो बिरादरी है | बारात खाली हाथ कैसे लौटे | कुछ समझदार लोग जुटे | नजरे और उसके लड़कों को शरबत पिला ठंडा किया गया | कुछ गणमान्य बोले "न्याव की बात करो नजर सिंह | मेल देखने का और मना करने का अधिकार तुम्हारा था | पर ये सब पहले ही होता ना | पूरी बिरादरी यहाँ इकठ्ठा है , अब अपना ही नाम ख़राब करते हो | "</p><p>फूफा , मौसा , मामा सब रिश्तेदार बैठे तो नजर सिंह का पारा नीचे गिरा | उसके कंधे नीचे लटक गए, वो बोला "भलमानसो ,धड़ से नीचे पूरा ही बेकार है लड़का | कहाँ तक सब्र करो | बताओ | किस तरिया धीर धरु ?" </p><p>"कल को वंशबेल ना चली तो? नौकरानी बना भेजना चाहो हो लौडिया ने ? बोलो ?" और फिर वो फफक के रो पड़ा | "इसे मारना चाहु मैं, लग जान दो मेरे हाथ खून आज | ओ कोढ़िया चतरे, डूब मर कहीं | "</p><p>"अर अर इसके घर की चतरा कहा है ? कहाँ है महारे ससुर की | बात तो बड़ी 'अगर मगर' से करे है | सूध ना हुई इसे | मिली हुई है ये भी | "</p><p>किसी रिश्तेदार ने नजर सिंह की ठोडी में हाथ डाल दिया "ओ नज़रे , ओ नज़रे | बिरादरी देखे है | सब्र कर | "</p><p>अंतरा बेचारी कमरे में घुसी मुँह दबाये रोये जा रही थी | उस बेचारी की दलेल कौन सुनता | कौन मानता उसकी बात कि चतरे ने उसे महल अटारी , गाड़ियों और जंमीन के आगे कुछ देखने समझने का मौका भी कहाँ दिया | वो कुछ ज्यादा कुरेदती तो कहता राज करेगी लड़की अपनी , राज | " कोई सांखिया ला दो रे मुझे | मैं खाय मरुँ | " उसकी आवाज़ बाहर तक आ रही थी | </p><p>दहाडो , गर्जनाओं और तानों ने बीच छवि पूरे परिवार रिश्तेदारों में आ खड़ी हुई | रोते रोते थक गयी थी , आँखे सूज आयी थी | हाथ जोड़ बोली "कोई मत मरो , ना कोई किसे मारो | मैं जड़ हूँ , मुझे ही खत्म करो | "</p><p>बड़ी बुआ ने उसे अपने आगोश में ले लिया " ना मेरी बच्ची , ना मेरी राजकुमारी | धीरज धर मेरी गुड़िया | "</p><p>घंटो ये सब चलता रहा | रोज नशे में रहने वाला चतरे उस दिन नशे में ना था | वो सब की नज़रो से बचता कभी इस रिश्तेदार को घर भेजता कभी उस रिश्तेदार को | शिकायत करता " ये मेरे घर के कोढ़िया, कब चाहे है कि चतरे का कोई कारज सिद्ध हो | जलते है सब मुझसे | बोलो मिलेगी कहीं ऐसी ऊँची रिश्तेदारी ? बताओ ? समझाओ इन्हे , इनकी अकल पे पत्थर पड़े हैं | उस घर राज करेगी लड़की | "</p><p>शाम तक मान मनोव्वल के दौर चलते रहे | दर्जन भर को छोड़ बाकी बारात भाग गयी | मोटे न्योछावर की आस में सुबह से द्वारे पे जमी नाईन , धोबिन , धीमरी और भंगिन बिना न्योछावर लिए ही लौट गयीं | शाम को छोटे भाई के सहारे खड़े हो दूल्हे ने लड़की संग फेरे लिए और हाथ जोड़ते जोड़ते बारात विदा हुई | </p><p>रिश्तेदारों का मेला ख़त्म हुआ तो अंतरा को अपराधबोध और अवसाद ने आ घेरा | कैसे सब्र करती | लकवे की झपट पंजो तक होती या एक पैर ही बेकार होता , तो धीर धरती | लगड़ा के भी चलता तो कोई बात नहीं | लेकिन धड़ से नीचे पूरा ही शरीर निष्प्राण ! फिर नजर सिंह के बोल उसके दिमाग में चरखी से घूमने लगे | सचमुच छवि की वंशबेल न चली तो ? तो क्या होगा ? आह कैसी फूल सी बेटी और किस्मत ? बिना पूती औरत सोने के महलों में भी रहे तो क्या ? कीमत कौन करता है | छवि का चेहरा उसकी नज़रो में आता |और वो जल्लाद चतरे, वो तो विदाई के बाद से ही गायब था | कहाँ जा छुपा था , इसकी खबर किसी को ना थी , ना ही किसी ने कोशिश की | </p><p>तीसरे दिन छवि वापस लौटी | नए रिश्तेदारों ने गुजारिश की कि रात को रुकने का कोई प्रयोजन नहीं है | उसी दिन वापसी होनी थी | अंतरा ने अकेले जो बन पड़ा वो सेवा सुश्रवा की | भागती भागती जैसे ही थोड़ा खाली होती तो बैराग में भरी ,जिस वस्तु पर नज़र गढ़ा देती उसे ही देखती जाती | उसे जैसे घुन का कीड़ा लग गया था | रोटी पानी के बाद मेहमान बैठकी में आराम को गए तो छवि ने पीछे से आ अपनी माँ की कोहली भर ली | अपनी गर्दन माँ की गर्दन से मिला बोली "ओ मम्मी औ मम्मी मरी मत जावै | ओ ठीक हैंगे | मैं कहु हूँ ओ ठीक हैंगे | बिलकुल ठीक ! " </p><p>अंतरा ने छवि को बाँह से पकड़ अपने आगे खड़ा कर लिया | छवि की आँखे डबाडब थी पर चेहरे पर सब्र था | उसके होंठ मुस्कुरा रहे थे | कुछ ऐसी मुस्कान जैसी कोई अपनों को खुश करने को ओढ़ता है | </p><p>"सच कहवे है ना तू मेरी गुड़िया , हुह ? सच बता मेरी जायी | बस बस , तेरे सुख के सिवा मैं क्या चाहु हूँ ,मेरे कलेजे का टुकड़ा है तू | "</p><p>"हाँ हाँ ,सच कहूं हूँ मम्मी | सब ठीक हैगा "</p><p>फिर उसने इतराते हुए दायें हाथ का अंगूठा माँ के चेहरे के सामने उठा दिया और चिढ़ाती हुई बोली "औ अंतरा , तू फांकिये जिंदगी भर इस गाँव की धूल | मुझे अपने दुमंजिले से नीचे उतरने की जरूरत भी न है | " </p><p>फिर दोनों हिड़की बाँध लिपट लिपट इतना रोई , इतना रोई के यूँ लगा के आसमान , सब दिशाएं , नीम का पेड़ , भैसिया , सिलाई की मशीन , कच्ची भींत ,सब का सब एक साथ रो पड़ेगा | </p><p>तमंचे दिखा , एक दूसरे को गालियाँ भकोस ,बिरादरी का ताना मार , अपनी अपनी चाल चल आदमी अपने अपने ढर्रो पर लौट गए थे | और एक दूसरे के सब्र बांधती वे औरतें नए हालातों से तालमेल बिठाने में लग गयी थी | भगवान् ही जाने, उनकी जिन्दगियों में कभी सब कुछ ठीक हुआ कि भी नहीं | </p><p><br /></p><p> --सचिन कुमार गुर्जर </p><p><br /></p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-4531931351538212332021-02-19T23:15:00.010-08:002021-03-15T06:13:17.795-07:00दिल तोड़ने वाली बात <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEju10z2OeBj9UrBeDbmuFkolZNqd5JIjRKCt8LGfrnO2kPolxNz7cI3p6mI847L1ACrf6UcjzTBR1Nx-1vgbKdV2Inz-VtlCTIGljuTP1EvunMeMJh3p09oz3Obh7cz7x6genrE6BJU268/s400/images4.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="400" data-original-width="332" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEju10z2OeBj9UrBeDbmuFkolZNqd5JIjRKCt8LGfrnO2kPolxNz7cI3p6mI847L1ACrf6UcjzTBR1Nx-1vgbKdV2Inz-VtlCTIGljuTP1EvunMeMJh3p09oz3Obh7cz7x6genrE6BJU268/w333-h400/images4.jpg" width="333" /></a></div><br /><p><br /></p><p>शुक्रवार का दिन था | और जैसा मेरे और मेरे ऑफिस के तीन दोस्तों के बीच तय हुआ था , घडी के काँटे ने जैसे ही छह को छुआ , अपने अपने लैपटॉप पिट्टू बैग्स में घुसेड़ हम 'बीच' की ओर जाने वाली बस में सवार हो गए | 'चांगी बीच' सिंगापुर सिटी से काफी बाहर की ओर स्थित है | सिटी मेट्रो ट्रैन अभी यहां नहीं पहुंची है | आबादी कम है | जोहर की खाड़ी यहाँ पर एक महीन लकीर जैसी पतली है | 'पुलाओ उबीन ' द्वीप खाड़ी के फांट के बीचोबीच में कुछ यूँ जमा दीखता है जैसे कोई बड़ी व्हेल पानी से आधी अधूरी बाहर आ आसमान की टोह लेती हो | घनछत हरियाली का लबादा ओढ़े द्वीप पर सैलानियों को लाने ले जाने के लिए मोटरबोट मिलती हैं | मोटरबोट जेटी के सहारे सहारे दर्जनों छोटे बड़े 'सी फ़ूड' रेस्टोरेंट है | एक तो जगह हर तरफ से खुली हुई है , खाड़ी के उस पार मलेशिया तक का नज़ारा दिखता है | दूसरा, यहाँ मिलने वाले टमाटर और मिर्च की गाढ़ी ग्रेवी में लिपटे , मसालेदार सुर्ख लाल केकड़े, बेहद लजीज होते हैं | शायद ही पूरे सिंगापुर में इससे बेहतर केकड़े कही मिलते हों | </p><p>कार्ल्सबर्ग बियर की बाल्टी और एक बड़ा केकड़ा आर्डर कर हम बड़े इत्मीनान से बैठे थे | शाम को जो हवा धीमी थी, रात होने के साथ साथ रफ़्तार पकड़ने लगी थी | जेटी के किनारे बंधी दर्जन भर मोटरबॉट्स हर छोटी बड़ी लहर के साथ ऊपर नीचे उभरती उतरती जा रही थी | खाड़ी में उठने वाले ज्वर से जमीन के किनारों को महफूज रखने के लिए बड़े बड़े लाल और सफ़ेद पत्थरों को सीमेंट से जोड़ ढालू तटबंद बना हुआ था | तेज लहरों से रोज रोज पीटे जाने के चलते तटबंद कई जगह से उधड़ गया था | यहाँ वहाँ मोखले खुल गए थे | लहरों का पानी उन मोखलों में घुसता और फिर पिचकारी की तरह आवाज करता थोड़े ऊपर खुले छेदो से दबाब के साथ निकलता | संकरे 'बीच' के किनारे किनारे जहाँ तक नज़र जाए वहाँ तक लैंपपोस्ट लगे थे जिनकी दूधिया रौशनी में नहाये नारियल,छत्तेदार समन ,पीले गुलमोहर के पेड़ , हवा और समंदर की लहरों के ऑर्केस्ट्रा की धुनों पे झूमते जाते थे |हरियाली और समंदर इस कदर दिलकश कि रेस्टोरेंट्स में बैठे आदमी बीयर कम, नज़ारे ज्यादा पीते थे | </p><p>'चियर्स फॉर हेल्थ एंड हैप्पीनेस ' के साथ हमने एक घूट ले बोतले रखीं तो मैंने पूछा " आज भीड़ कम क्यों है ? "अभी पिछले हफ्ते चीनी नए साल की छुट्टी गयी है , अभी जनता आराम कर रही है| शायद इसीलिए " दोस्त ने बताया | </p><p>"तो ये क्या आराम नहीं है ?" दूसरे दोस्त ने कुर्सी पीछे खिसका , दोनों हाथ सिर के ऊपर बाँध तंज कसा | </p><p>हम चारो वाकई आराम में थे लेकिन हमारी बगल की कुर्सियों पर जमे दो चीनी मूल के लोग गैरआऱाम मालूम होते थे | उनके आर्डर में देरी हुई थी शायद | वेट्रेस ने एक दो बार 'सॉरी सर', 'यस सर' जैसे रटे रटाये जबाब दिए तो उनका पारा चढ़ गया | मैंडरिन में बोलते थे कुछ समझ तो नहीं आया लेकिन उस कमउम्र , सरकंडे सी पतली चीनी युवती का चेहरा देख ऐसा लगा जैसे उसे अच्छी खासी डाँट पिलाई गयी थी | मैनेजर आ गया और काफी देर उन्हें समझाता रहा | आर्डर आने के काफी देर तक भी उनमे से एक रुक रुक वेट्रेस को सुनाता रहा | </p><p>"क्या जरूरत थी ? दिल तोड़ दिया बेचारी का |" एक दोस्त ने कहा , जो थोड़ा संवेदनशील स्वभाव का आदमी है | </p><p>"तेरा दिल तो नहीं तोडा किसी ने, भाई ?" दूसरा बोला | </p><p>"टूटता ही रहता है | अब ठीठ हो गया हूँ |आदमी ठीठ न हो तो दुनिया सुसाइड ही करवा दे |" </p><p>केकड़ा आ गया था | केकड़े की टांग चटका, गूदा निकाल , लाल चटनी में डुबो,एक दोस्त ने कहना शुरू किया | </p><p>" दिल तोड़ने की बात चल रही है ,और फरवरी प्यार का महीना चल रहा है , तो सुनो :</p><p>तब मैं पहली बार सिंगापुर आया था | सिंगापुर छोटी जगह है | शुरू के दो चार महीने मैं खाली समय में यहाँ वहाँ घूमता रहा | बर्ड पार्क , बोटैनिकल गार्डन , मरीना बे सैंड्स , यूनिवर्सल स्टूडियो , ये आइलैंड वो आइलैंड | लेकिन उसके बाद सप्ताहांत में अकेले रह ऐसे विचार आने लगे जो सेहत के लिए अच्छे नहीं होते | जैसे 'जिंदगी क्या है| ' , 'मैं इस दुनिया में क्यों हूँ |' मुझे ऊपर वाले ने कोई भी हुनर क्यों नहीं दिया | ' वगैरह वैगरह | मुझे इस तरह के विचार हमेशा से ही डराते है | मुझे एक अदद साथी की तलाश थी | ऑफिस के कुछ पुरुष मित्र थे ,लेकिन उनमे से ज्यादातर की कल्पनाशीलता 'इंडियन पॉलिटिक्स', क्रिकेट या फिर दूसरे सहकर्मियों की खिचाई तक ही सीमित होती | फिर मैं पच्चीस साल का नया लड़का था | मुझे एक प्रेयसी की दरकार थी | </p><p>एक लड़की थी ऑफिस में | फ्लोर के दूसरे सिरे पर बैठती , ज्यादातर अकेली तो कभी अपनी टीम के साथ | ज्यादा खूबसूरत तो नहीं लेकिन साफ़ , सुथरी | लम्बी और सुतवा, गेहुँआ रंग लिए | शरीर खिंचा हुआ, एकदम चौकस, वैसे ही जैसे शावक अवस्था को पार करती नयी जवान बाघिन | जैसा कि अब आप लोग जानते ही हैं मुझे 'एथेलेटिक्' बनावट वाली स्त्रियाँ पसंद आती हैं | फ्लोरल टॉप और स्किन फिट जीन्स को वो मैचिंग स्नीकर्स के साथ पहनती थी | स्लीवलेस में उसके हाथ गन्ने की पोरी जैसे दीखते थे, एक में वो लेथर स्ट्रैप की चौकोर डायल वाली घडी बांधती , तो दूसरें में ड्रेस से मैचिंग कोई रिस्ट बैंड | गले में तीन बारीक लकीरे थी ,वैसी जैसी कम उम्र बच्चो के नरम गलों में होती है | स्तन या तो थे ही नहीं या फिर बेमालूम से थे | उस तरफ मेरा कभी गौर गया भी नहीं | बाल लेयर्स में कटे हुए, बॉब काट ,कंधों से ऊपर ही खत्म हो जाते थे | नैन नक्श ठीक थे किसी दिन अच्छे मूड से थोड़ा मेकअप कर आती तो काफी खिंचाव पैदा करती | मैं उसे एलेवेटर में या कभी पैंट्री हाउस में कॉफ़ी बेन्डिंग मशीन के सामने खड़े देखता तो सोचता " बात बन जाए तो अच्छा रहेगा ! " </p><p>एलेवेटर रोक के रखने , गुड मॉर्निंग बोलने से शुरुआत हुई | एक दिन मैंने पैंट्री से बाहर आते हुए उससे शिकायती लहजे में कहा " इस वेंडिंग मशीन की कॉफ़ी कितनी बाहियात है न | " उसने कहा "बेशक , बेहद घटिया है |" और उसके बाद हम बाहर की कॉफ़ी के लिए साथ जाने लगे |</p><p>हमारे आहार विहार , सोच विचार में बहुत कुछ मेल खाता था | सो हमारी दोस्ती बहुत तेजी से परवान चढ़ी | साथ में लंच , ऑफिस से साथ में छूटना | मैंने उससे कहा "मुझे हरियाली में घूमना काफी पसंद है "| और उसके बाद लगभग हर शनिवार हम किसी पार्क में हरियाली के बीच होते | फिलॉसॉपी , भारतीय समाज और नारी , मानव जीवन का धेय क्या है , ऐसे तमाम मुद्दों से हम घंटो जूझते | विकिपीडिया पर पढ़े आधे अधूरे ज्ञान से मैं तर्क में तर्क जोड़ता जाता तो वो आँखो को आँखो से बंध जाने देती और कहती " वाओ , आई ऍम इम्प्रेस्सेड !"वो इस कदर सहज हो गयी थी कि बातचीत करते करते बिलकुल सट कर बैठ जाती | कुछ ऐसे ही भाव से जैसे दो लड़के बैठ जाया करते है | उसकी चिकनी बाजुएँ जब मेरी बाजुओं के संपर्क में आती तो मेरे अंदर एक ज्वर सा उठता | पुरुष मन लालची हो उठता | पर अगले ही पल मुझे उस किसान की याद आती जिसने लालच में आ सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को काट डाला था | </p><p>हमने कई फ़िल्में साथ देखीं | कैरेमल चॉकलेट में सने पॉपकॉर्न को उठाने जब पैकेट में हाथ एक साथ जाते तो मन तलबगार हो उठता | पर अरमानों को मैं ऐसे ही दाब लेता बड़ी परात के नीचे मुर्गी के चूजे | </p><p>ये सब काफी लम्बा चल रहा था | मुझे एक अदद बोल्ड चाल की जरूरत थी | 'वीर भोगे वसुंधरा ' के रस में तर मैं साहस बटोर रहा था | </p><p>फिर वो रात आयी | 'दी टवीलाइट सागा - भाग २ ' का लेट नाइट शो देख हम निकल रहे थे | मैंने प्रस्ताव दिया कि थिएटर से हमारे घर कोई महज दो किलोमीटर के दायरे में ही तो है | क्यों ना , पैदल चला जाए | और फिर हम चल दिए | </p><p>अहह , वो रात क्या रात थी | उससे ज्यादा खूबसूरत रात मैंने अपने पूरे जीवन में कभी नहीं देखी | एलिवेटेड रेलवे ट्रैक के किनारे किनारे सुन्दर पुटपाथ बना था , जो किसी ड्राइंग बोर्ड पर खींची लकीर की तरह सीधा और मील भर लम्बा था | कोई इक्का दुक्का आदमी ही दीख पड़ता था | दोनों तरफ कतार में बंधे अपार्टमेंट्स थे , जो काफी जगह छोड़ गहराई में उतर कर थे | हर कुछ दूरी पर छोटे छोटे पार्क बने थे | </p><p>रेलवे ट्रैक के पिलर्स के बीच बीच में बोगेनविल्या , जिंजर लिली और जैस्मीन के पौधे फूलो के गुच्छो से लधपध भरे पड़े थे | चाँद पूरा था | अपार्टमेंट्स के बीच के फासलों से आती चांदनी में जिंजर लिली के फूल इतने सुर्ख लग रहे थे जैसे किसी में उनपर खून छिड़का हो | खाड़ी से उठने वाली हवा हलकी सर्द थी , वैसी जैसी कि बारिश के बाद होती है | और इस सबके बीच वो मेरे साथ थी !</p><p>माय फ्रेंड्स ! चाँद और चांदनी की कितनी ही कवितायें हमने सुनी है| सचमुच , कुछ जादू सा होता है | रात की दूधिया रोशनी में नहाया उसका चेहरा मुझे ऐसा लगा जैसे वो कोई अजनबी है , पहली बार मुझे मिल रही है | बला सी खूबसूरत | लगा किस्मत मुझ पर मेहरबानियां बरसाने को थी | मैं नशे में था | </p><p>हाँ , जब उस प्रोटेस्टैंट चर्च के सामने से हम गुजरे तो उसने मुझे बाजू के ऊपर खींच रोक लिया | पूरा का पूरा साबुत चाँद , चर्च के ऊँचे सलीब पर लटका हुआ था | ऐसा लगता था जैसे पारदर्शी गोल हांडे में कोई बिजली का बल्ब लगा है और उसे सलीब के किनारे से लटका छोड़ा गया है | </p><p>हम वहाँ कुछ देर खड़े रहे | उसने पूछा " ये प्रोटेस्टेंट क्या होता है ?" मैं अपने खुमार से बाहर नहीं आना चाहता था पर मैंने उसे ईसाइयत के भिन्न भिन्न मतों की थोड़ी बहुत जानकरी दी | उसने एक एक लफ्ज को ऐसे सुना जैसे कोई दिव्यज्ञान चूसती हो और फिर उसने कहा " तुम्हे इतना सब कैसे आता है , आई ऍम इम्प्रेस्ड !!" | वो दिन किस्मत वाला दिन था !</p><p>फुटपाथ के आखिरी सिरे पर , जहाँ से हमे अपने अपने घरो के लिए मुड़ जाना था , एक छोटा सा गार्डन था | चार पांच आम के पेड़ थे जो बड़े सठा के रोपे गए थे | कुछ छोटे सजावटी पौधे थे | इन सबके झुरमुट में दो लोहे की बैंच जमी हुई थी , जिन पर गाढ़ा मोटा नीला इनेमल चढ़ा हुआ था | </p><p>"क्यों ना हम थोड़ी देर यहाँ बैठे " मैंने प्रस्ताव दिया और हम एक बैंच पर जा बैठे | वो कुछ कुछ ऐसी बाते कह रही थी जैसी हम रोज सुनते है और जिन बातों के आखिरी सिरे हमें पहले से ही पता होते है | </p><p>अचानक मैं उसकी ओर मुड़ा और लैंप पोस्ट की रौशनी में चमकती उसकी पेशानी को निगाह भर देख बोला " सुनो , क्या मैं तुम्हे ' किस ' कर सकता हूँ ?"</p><p>"क्या ?" उसने ऐसे कहा ,जैसे उसे बात समझ ना आयी हो | लेकिन उसके चेहरे के बदलते भाव को मैं पकड़ गया | </p><p>" क्या मैं तुम्हे 'किस ' कर सकता हूँ ?</p><p>उसका चेहरा ,जो अभी तक चांदनी में नहाया दूधिया सफ़ेद था , अचानक से लाल हो गया | </p><p>वो झटके से खड़ी हुई , दो कदम चली और रुक गयी " तुमने सोच भी कैसे लिया ? मैं और वो भी तुम ? हुह "</p><p>मैंने उसे खलील जिब्रान की 'दी प्रोफेट ' किताब दिन में गिफ्ट की थी | उसने बैग से किताब निकाल हवा में उछाल दी, जो बैंच से करीब चार कदम दूर जा गिरी | </p><p>"तुम्हे लगता है कि तुम्हारा वो लेवल है कि मैं तुम्हारे लिए हाँ करुँगी " बोलती हुई वो लम्बे पैरो से पार्क से निकलती , अपार्टमेंट्स के गुच्छे में लापता हो गयी | </p><p>और आत्मग्लानि में गले तक डूबा मैं अपने बिस्तर में आ सोया | </p><p>दो तीन दिन बाद जब मुझे लगा कि उसका गुस्सा कम हुआ होगा तो मैंने ऑफिस मेस्सेंजर पर उससे कहा "देखो , जो भी हुआ एक निवेदन ही तो था , इस उम्र में इस तरह की गुजारिशों को अपराध माना जाए तो फिर पुरुष स्त्रिओं को अलग अलग ग्रहों पर बसना होगा | कुछ माहौल था ,मैं बोल गया | "</p><p>और उसने जबाब में इतना भर कहा " सब कुछ ठीक था | पर तुम्हे क्या लगता है कि तुम्हारा वो लेवल है कि मैं तुम्हारे लिए हाँ करुँगी !!"</p><p><br /></p><p>हमने कॉर्न चिप्स आर्डर किये थे | गाढ़ी क्रीम में चिप्स का कोना डुबो , खाने को मित्र रुका तो दूसरे मित्र ने कहा :" तुम गलत थे मेरे दोस्त | लेवल वेवल कुछ नहीं | 'किस' कभी बोलकर, मांगकर नहीं किया जाता | एक मूड होता है , एक माहौल होता है | तुम्हे भांपना आना चाहिए कि लोहा गरम है की नही? "</p><p>और इस बात से तीसरे दोस्त को ऐसा जोश सा चढ़ा कि उसने मुठियाँ भींच मेज पर दे मारीं | बीयर की बोतलें , कॉर्न चिप्स , केकड़े की खाली हो चुकी डेकची, सब खडख़ड़ा उठा , वो बोला "लोहा गरम होता है और चोट कर दी जाती है | बस ! "</p><p><br /></p><p>कितनी बीयर बची है, ये भांपने के लिए आपबीती सुनाने वाले दोस्त ने बोतल को हवा में उठाया।, एक घूट लिया और फिर बोला</p><p> "हाँ मेरे दोस्त , मैंने कहा ना , तबं मैं महज पच्चीस का था | </p><p>आज मैं बीयर की चुस्की के साथ हंसकर सब बता सकता हूँ | लेकिन उस समय मैं महीनो अवसादग्रस्त रहा था | उसकी लेवल वाली बात मुझे कुछ ऐसे चुभती थी जैसे कांच की टूटी बोतल से कोई हलक में चीरा लगा जाए | ये सब ऐसे हुआ था जैसे सपाट खाली सड़क पर दो कारें समान रफ्त्तार से एक दूसरे के समान्तर भागती जा रही हो और फिर एक अचानक से दूसरे के किनारे से रगड़ती हुई एक लम्बी गहरी खरोंच खींच रास्ता बदल निकल जाए | </p><p>"तो फिर उसके बाद तुम दोनों नहीं मिले " मैंने पूछा | </p><p>"नहीं, कभी नहीं | मैंने ऑफिस ही बदल लिया | " गहरी साँस के साथ दोस्त ने अपनी बात ख़त्म की | </p><p>साढ़े ग्यारह बज चुके थे | शहर को जाने वाली आखिरी रुट नंबर २ की बस यार्ड से निकल बस स्टैंड पर आ लगी थी | हम सब उठ चले | रोड पर उतरने को सीढ़ियों से पहले मैं ठिठका | मेज से क्रॉकरी समेटती वेट्रेस के हाथ में दस दस डॉलर के दो कड़े नोट थमा मैं वापस मुड़ गया | सीढ़ियों के नीचे खड़े मेरे दोस्त मुस्कुराये तो मैंने एक पैर ऊपर की सीढ़ी तो दूसरा निचली सीढी पर रख राजसी भाव से हथेलियाँ फैला कहा" क्या रखा है जिंदगानी में , खाओ, पीयो और प्यार बाँटते चलो !"</p><p>उन तीनो ने एक आवाज़ में कहा " सही बात दोस्त ,सही बात ! "</p><p>और फिर हम भागते हुए शहर की ओर जाती आखिरी बस में सवार हो लिए | </p><p> </p><p> - सचिन कुमार गुर्जर </p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-91753199961432882612021-02-13T08:38:00.015-08:002021-03-25T20:34:44.748-07:00बदलाव <div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3-x9Kh_xja7lJbSmFNyof88TU5bZBn9g5xnhsr0zMjF8456y3tQyakiz1LJ2uWUfjLYb9rXZUM2L3C3YRhLLNo9p88J-biuwzDU6VBsiLNNiH9kiwLj7MCMReFzSm5TD8Oy98D2FtUyk/s2048/1*3iVZZo1gsfCpPw9FLRwQ3Q-2.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1230" data-original-width="2048" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3-x9Kh_xja7lJbSmFNyof88TU5bZBn9g5xnhsr0zMjF8456y3tQyakiz1LJ2uWUfjLYb9rXZUM2L3C3YRhLLNo9p88J-biuwzDU6VBsiLNNiH9kiwLj7MCMReFzSm5TD8Oy98D2FtUyk/w400-h240/1*3iVZZo1gsfCpPw9FLRwQ3Q-2.png" width="400" /></a></div><br /><div><br /></div><div>तकनीक ने दुनिया को सिकोड़ दिया है | दुर्गम सुगम्य हो गया है| घंटे मिनटों में सिमट आये है | जहान भर की जानकारी आदमी के अंगूठे के नीचे दबी पड़ी है | तब्दीली आयी है | और कुछ इस रफ़्तार से आयी है कि जिन घरों में एक पीढ़ी पीछे आदमी दिल्ली तक जाने में डरता था , चौपड़ की लकीरो जैसे एक दूसरे को काटती दिल्ली की सड़कों को याद रखना 'तेरह के पहाड़े' को याद रखने से भी कठिन जान पड़ता था ,वहाँ आज लंदन , टोरंटो , दुबई , सिंगापुर , मेलबर्न से होते हुए होनोलूलू और टिमबकटू तक की बातें होती हैं | कुछ ऐसे जैसे ये सब घर के पिछवाड़े ही बसे हों ! लेकिन ज्यों ज्यों दूरियां सिमटी हैं , जमे जमाये परिवार कुछ ऐसे बिखरे हैं जैसे ज्यादा दबाब में मूंगफली के खोल से छिटके छोटे बड़े दाने | बीवी बच्चे इस पार तो अकेला आदमी दूर कही विलायत , शीशे की इमारत में कैद | 'बस ये हो जाए' , 'उतना भर जुट जाए' ,'उसके बाद आराम से इकठ्ठा जियेंगे' |'देखो, बेटे के लिए मकान हो गया है , एक जमीन का टुकड़ा बेटी के नाम हो जाए तो बच्चो की चिंता खत्म' | आगे , 'कुछ अपने लिए जुट जाए , अपना खुद का कारोबार , बुढ़ापे का कुछ साधन जुट जाये ' | बस , बहुत ज्यादा नहीं | कुछ इसी तरह की आकांक्षाओं की सीढ़ियाँ चढ़ते, आशा-निराशा की लहरों में डूबते उतरते , वीडियो कॉल्स में एक दूसरे की पेशानियों की सलवटें पढ़ते , प्रवासियों के परिवार चलते चले जाते हैं | डॉलर , डॉलर, डॉलर ! खुशनसीबी , मुकद्दर ! कुछ इस तरह की खुशामंदे करते अडोसी-पडोसी , यार-रिश्तेदार , और उस सबके बीच अकेलेपन से जूझते परिवार तारीखों के कलेण्डर पलटाते जाते हैं | </div><div>कोरोना का आना कुछ ऐसे हुआ जैसे सुई धागे से रफू किये जख्म हों और उन्हें नश्तर से खोला दिया जाए | न इंसानो के कुछ समझ आया न उनके भगवानो को | और सरकारें ? सरकारों के मथ्थे नयी शब्दावलियाँ हत्थे चढ़ गयी | 'लॉक डाउन' , 'बायो बबल' , 'ग्रिडलॉक' , 'क्वारंटीन' , 'नो फ्लाई', 'ग्रीन लेन ' ,'आइसोलेशन' वगैरह वगैरह | जब तक दवाई नहीं , तब तक ढिलाई नहीं !जो जहाँ था वही फंस गया | </div><div><br /></div><div>फिल्मो में जिस तरह निष्ठुर बाप घर से बाहर कदम रखते बेटे से कहता रहा है : जा तो रहे हो पर वापस देहलीज पर कदम मत रखना | सरकारों ने कुछ वैसा ही रूप धर लिया | निशाने पर आये प्रवासी(NRI पढियेगा ) | जाना है तो जाओ वापसी नहीं | अभी तो नहीं | कब तक नहीं ये भी पता नहीं ! </div><div><br /></div><div>सिंगापुर के स्पेशल इकनोमिक जोन में बनी दर्जनों ऊँची , काले , नीले शीशे की इमारतों में से एक में बैठे, मोटे चश्मे में शक्ल दबाये दीपांकर को कोरोना वोरोना का कोई डर नहीं था | अपने काम की धुन में कंप्यूटर स्क्रीन को वो किसी निशाचर पक्षी की तरह ताकते रहता ,कभी कीबोर्ड को किसी तबला वादक की मानिद पीटता जाता | उसकी तबियत वैसी ही थी जैसी सदा से थी | </div><div><br /></div><div>दुनिया भर के अखबार पोर्टल कोविड के शिकार लोगों की गिनती क्रिकेट के स्कोर बोर्ड की तरह दिखा रहे थे | चूजे से कमजोर दिल लिए लोगो की पेशानियाँ मारे डर के भीगी रहतीं | शेर सा जबर कलेजा लिए लोगों के चेहरे भी सिकुड़े रहते| वो देखता कि कैसे मारे भय लोगों के गलों के कौए सूखे चले जा रहे हैं | दीपांकर (घर का नाम दीपू ) थोड़ा झुंझलाता , थोड़ा हँसता, फिर बगल के केबिन में बैठे अपने सहकर्मी से कहता " कुछ नहीं है ये , एक तरह का सर्दी जुकाम है बस | गरम पानी पियो , तीन दिन में आदमी चंगा !" फेसमास्क की तंग डोरियों से खिचे उसके कान रडार उपकरण की भॉंति आगे की ओर झूल आये थे | छोटा कद , अधेड़ उम्र , गेहुए वर्ण का वो आदमी , मीटर भर दूरी बनाकर बैठे सहकर्मी के सही गलत हर तर्क को बिना पूरा सुने काट अपनी बात रखता " ये न्यू ऐज वारफेयर है दोस्त , इसे समझो | चीन ने इसे दुनिया की इकॉनमी डुबोने को फैलाया है | ये इतना खतरनाक है नहीं जितना बड़ा हब्बा मीडिया ने खड़ा कर रखा है !"</div><div><br /></div><div> चर्चाएं चलती रहतीं | फिक्रमंद लोग अपने ही हाथों से नफरत करते जाते | एक हलकी छींक से ट्रेन के कैरिज खाली हो जाते | इस सबके बीच दीपू खुद इत्मीनान में रहता | पुर अमन , वैसे ही जैसे बिना लहर कोई गहरा सागर | कुछ नहीं है ये !</div><div>लेकिन जिस तरह शांत सागर की तलहटी में कोई केकड़ा विचरता है , वैसे ही सुकून में डूबे दीपू को एक विचार ततैया के डंक सा छू जाता " गया तो वापस नहीं आ पाउँगा !" सख्त पंडेमिक मैनेजमेंट कोड को लागू करती सिंगापुर सरकार ने साफ़ साफ़ कह दिया :अगर आप डॉक्टर हैं तभी वापस आइयेगा , वरना जहां जाते हैं वही आराम फरमाइयेगा ! " विदेश की नौकरी छोड़ कर जाना , वो भी इस दौर में | उसकी रीड की हड्डी के सिरे से एक सिरहन सी उठती | बस चंद बरस और | दीपू उतना भर रुकना चाहता था | बीवी लड़ती थी | देश में ,बड़े शहर में रहती थी |सास ससुर से दूर | इतना दूर कि वो बेचारे तीज -त्यौहार भी पोता पोती को गोद में उठाने को तरसते | इस लक्ज़री के बाबजूद वो दीपू से लड़ती ! कहती " तुमने मेरी जवानी बर्बाद कर दी | बदकिस्मत हूँ मैं| बहुत हुआ ,इधर आकर रहो | " और फिर दोनों फ़ोन की स्क्रीन में घुस लड़ते जाते , लड़ते ही जाते | जब खरी खोटी सुनते सुनाते दोनों के सिर फटने को होते तो दोनों तय करते कि बॉर्डर खुलते ही बच्चे सिंगापुर आएंगे | और आगे की व्यवस्था ये रहेगी कि टिकट महंगा हो या सस्ता, हर तीन महीने के अंतराल पर दीपू देश आएगा | </div><div><br /></div><div>पत्नी ज्यादा बात बढाती भी तो क्योंकर | हालात से वाकिफ तो वह भी थी , उसके पास बच्चे तो थे , दीपू के पास वो सुकून भी कहाँ | फिर पूरी जिंदगी रोटी, कपडा और मकान की जुगत में धुंनने से अच्छा है कि चंद साल बाहर कमा लिया जाए | |इधर आदमी की जिंदगी यूँ ही खर्च हो जाती है | प्रदूषण , ट्रैफिक , 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपय्या' , भीड़भाड़ , धक्का मुक्की , छल कपट और इस सबके बीच साधारण से सपने | मकान , बच्चो की पढाई , माँ बाप की देखभाल , गाढ़े वक्त में काम आ जाये उसके लिए कुछ जमा | ये सब जुटाने में भी आदमी का पसीना चोटी से छूटता है और शरीर के पूरे भूगोल को नापता ऐड़ी से निकलता है | लक्ष्य साधे नहीं सधता | प्रवासियों के सपने कुछ अलग नहीं होते | बस फर्क इतना है कि विदेश की चौड़ी सड़कों पर अतिक्रमण नहीं है , हर कोई नियम से चलता है , मील के पत्थर जल्दी जल्दी आते हैं | </div><div><br /></div><div>दीपू के ऑफिस में ही कोई मित्र था , एकलौता था |माँ बाप देश में थे , खुद बीवी बच्चो समेत सिंगापुर में रहता | एक दिन शाम को पता चला कि उस मित्र के पिता जी चल बसे| ढांढस देने , जरूरी सहयोग देने मित्र लोग जुटे | पता चला वो इंसान गत चार बरसों से देश गया ही नहीं ! बाप कहता रहा | देख जाओ , मन है | उसे फुरसत नहीं हुई | </div><div>फिर जब खबर आयी तो वो अपना लेपटॉप बैग पटक बदहवास हो भागा | इस कांउटर से उस काउंटर | एयरलाइन्स वालो ने कहा, एम्बेसी | एम्बेसी वालो ने कहा , कोरोना जांच कराओ | जांच वालो ने कहा कतार में आओ | वो भागा ,दोस्त भी भागे | लेकिन. उस भागदौड़ का फायदा क्या ? जाने वाला चला गया , प्यासा मन लिए , डूबती उबरती आस में मिटटी के तेल की ढिबरी सा जलता बुझता , एकलौते सपूत को देखे बिना चला गया| उफ्फ ये डॉलर | अब वो इंसान 'बी ऍम डब्लू' में घूमे , रियल एस्टेट खड़ा करे | पिता जी तो नहीं आने वाले | जियेगा , मरने वाले के साथ मरता कौन है | लेकिन उसके ही वजूद का एक हिस्सा उसे हमेशा खाता रहेगा | जीवनपर्यन्त | </div><div><br /></div><div>दीपू फिक्रमंद था, उसके दिल में अभी माँ बाप के लिए जगह बरक़रार थी | सप्ताहांत में माँ पिता जी को फ़ोन करता तो तमाम आसन, योग की जानकारी देता | अपने चचेरे भाई को कुछ पैसे भेजता | उससे उनकी देखभाल करने की गुजारिश करता |विटामिन सी , जिंक , मिनरल्स की डिब्बियाँ भिजवाता | पिता जी से कहता "देखिये , कब तक खुलती है फ्लाइट | "</div><div>पिता जी समझदार आदमी थे , कहते " फ़िक्र ना करो , यहाँ सब मजे में है | सब कुसल मंगल "</div><div><br /></div><div>मौसम बदलता था और जैसा हर बदलते मौसम में होता है , दीपू के पिता जी को हल्का बुखार हो आया | दीपू ने समझाया "तीन दिन ना उतरे तो अस्पताल चले जाना , जांच करा आना |" पिता जी हामी भरते हुए बोले " गंभीर कुछ नहीं , तनिक चिंता ना करो | "</div><div>चौथे दिन भाई का फ़ोन आया कि चाचा जी तो आई सी यू में है | कोरोना की पुष्टि हुई है | </div><div>और पांचवे दिन दीपू के पिता जी चले गए | ये सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि खबर सुन उसे यकीन ही नहीं हुआ| दो चार जो घनिष्ठ सहकर्मी थे , वो साथ में निकले | वे सब भागे | इस काउंटर से उस काउंटर| एयरलाइन्स से एम्बेसी , एम्बेसी से कोरोना जांच केंद्र | प्रबंध हो गया| दीपू चला गया | जिन्दा रहते ना सही , बाप की मिट्टी के आखिरी दर्शन उसे मुयस्सर हो ही गए | </div><div> </div><div>समय के पंख होते है | तारीखे आगे बढ़ चली | उत्तरी भारत के मैदानों में जाड़ों के दिन बेहद छोटे , सुबह शाम कोहरे की चादर ओढ़े , एक दूसरे को धकेलते हुए निकलते जाने लगे | संस्कार , पितृशोक और मलालो के ज्वर से उबरने में दीपू को महीना भर लग गया | और तब जाकर उसकी तबज्जो अपनी नौकरी की तरफ हुई | वापसी कैसे हो , सब रास्ते बंद ।पूंजीवाद में सब सम्बन्ध नफे नुकसान पर ही टिके होते है | काम नहीं तो वेतन नहीं | वापसी नहीं तो नौकरी नहीं | पिता मृत्यु का दुःख अब झुँझलाहट में तब्दील होने लगा | तमाम दलीले , गुजारिशों के मुलम्मे चढ़ा स्पेशल एंट्री परमिट को अर्जी दी पर ख़ारिज | एक बार नहीं दर्जनों बार ख़ारिज |</div><div>हाय री किस्मत ! एक विपदा से उबरे तो दूसरी आन पड़ी | वह छटपटाने लगा | कुछ ऐसे ही जैसे किसी खरगोश को बाहर धकेल उसका बिल मूँद दिया जाए | उम्मीदें , सपने , वादे सब कुछ विदेश की नौकरी से ही तो था | </div><div>ऑफिस के मित्र का फ़ोन आया तो दीपू से रहा नहीं गया " यार मुझे लगता है मैंने इधर आकर सही नहीं किया| तूने मुझे क्यों नहीं रोका ? "</div><div>मित्र ने समझाया " कैसी बाते करते हो , आ जाओगे वापस | ऐसा सोचा भी कैसे ?"</div><div>"नहीं यार , आने का निर्णय प्रैक्टिकल नहीं था !"</div><div>"तुम्हे मुझे रोकना चाहिए था | पिता जी तो चले ही गए थे | मैने आकर क्या किया !"</div><div>"अरे यार,शर्म करो ,इतने खुदगर्ज़ मत बनो | एकलौते हो , पिता की अंत्येष्टि में भी ना जाते तो कब जाते | "</div><div>"खुदगर्ज़ ? हुँह ?"</div><div>अब वो गुस्से में फड़फड़ाने लगा "पिता जी कम थे क्या | हर हफ्ते के हफ्ते मैं तोते सा रट्टा लगाता रहा | घर बैठो, घर बैठो | </div><div>भाई साब , रिश्तेदारों के रिश्तेदार तक की दावतों में शामिल हुए ये | हर हफ्ते , कभी ये शहर, कभी वो शहर | यार दोस्त | दारु पार्टी | अपनी लापरवाही की वजह से गए है पिता जी | </div><div>और खुदगर्ज़ मैं ??"</div><div>अब वो अच्छी जगह हैं , क्या बोलू | यहां सामने होते तो..... "</div><div><br /></div><div>दोस्त हक्का बक्का रह गया | दीपू ऐसा कुछ भी बोल सकता है , ये उम्मीद ना थी | इंसान के चरित्र में भी कितनी परतें होती है "कुछ शर्म करो यार , नौकरी आती जाती रहती है | कुछ कम कमाओगे | नौकरियां तो देश में भी है | किसी और से मत कहना | कोई सुने ना | दुनिया क्या कहेगी | "</div><div><div><br /></div><div>पर दीपू भांग खाये भंगड़ी जैसा बकता चला जा रहा था " भाड़ में जाए दुनिया </div><div> क्यों ? सुनने वाला भरेगा मेरी किस्ते , वो देगा मुझे ऐसी नौकरी| </div><div>बोलो | निर्णय गलत था यार | काश तुमने मुझे रोका होता "</div><div><br /></div><div>" पिता जी थे यार तुम्हारे "</div></div><div><br /></div><div>"तुम नहीं समझोगे यार "और उसने फ़ोन काट दिया | </div><div>फिर उसके बाद उसने फ़ोन उठाया ही नहीं | कई दोस्तों ने कोशिश की | </div><div>अगले महीने से कंपनी ने उसकी तनख्वाह रोक दी | </div><div> </div><div><br /></div><div>कुदरत की व्यवस्था ऐसी है कि वक्त बदलता जरूर है | सूखे के बाद सावन , उजड़ के बाद बहार , सब एक चक्र से घुमते जाते है | </div><div>समय लगा ,दीपू का एंट्री पास क्लियर हो गया | और महीनो बाद वो अपने काम , अपने ऑफिससिंगापुर लौट आया | रुपयों में टूटते डॉलर लौट आये | 'बस ये हो जाए' , 'उतना भर और जुट जाए' , दिमाग ने ख्वाबों की बुनाई जहाँ छोड़ी थी ,वही से फिर से शुरू कर दी | </div><div></div><div><br /></div><div><br /></div><div> सिंगापुर में सुंगई नदी के किनारे 'क्लार्क की ' में दर्जनों ओपन एयर रेस्टोरेंट है | 'बार' है , जहाँ कम उम्र वियतनामी , फिलिपिनो लड़कियाँ बेहद कम कपड़ो में शराब परोसती है | रोस्टेड चिकन , सी फ़ूड से भरी तस्तरियाँ ले सुंदरियाँ ग्राहकों की खातिर में भागी जा रही होती हैं | नीचे नदी में धीमी गति से लाल पीली बत्त्ती लगी बोटस पर्यटकों को ढोती जाती हैं | कई मित्र जमा थे | जूसी चिकन विंग्स और उम्दा स्कॉच के असर में तर दीपू का गला भर आया | " पिता जी देवता थे यार | मन में फांस की तरह चुभन है मेरे | मुझे उन्हें टाइम देना चाहिए था | "</div><div>एल्कोहल के उफान ने दिमाग को जकड़ा तो उसकी हिड़की बध गयी| चश्मे के मोटे किनारे तोड़ते आंसू बह चले | " पैसा क्या है यार | हाथ का मैल ही तो है | कोई मेरी उम्र भर की कमाई भी ले ले ना यार , पिता जी को वापस कर दे | मैं सोचूंगा तक नहीं ! सच कहता हू , सोचूंगा तक नहीं !</div><div>"</div><div>फ़ोन वाल पर लगी उसके पिता की तस्वीर स्क्रीन के बुझते ही गायब हो गयी |और शोक में डूबे बेटे ने ग्लेंफिडिक सिंगल माल्ट का गिलास कुछ इस भाव से हलक में उड़ेल लिया जैसे जहर पीता हो | </div><div><br /></div><div><br /></div><div> -सचिन कुमार गुर्जर </div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div> </div>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-52596421155986627802021-02-02T09:47:00.008-08:002021-02-04T05:08:49.118-08:00दिमाग का कीड़ा <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCQ8nIz341jsWzh0YTrI4tFkfh7EeQy-C3jumDM0AO_ldQHTPeu0XZAw_xooKwe9u4zVuaFEV4F8kKY9z0jyFKM8_DSIrWASEhL3kvnt6HpQN4GPfGanbxz8IKjPkN46xhDg6TMPlzDl0/s512/unnamed.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="437" data-original-width="512" height="341" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCQ8nIz341jsWzh0YTrI4tFkfh7EeQy-C3jumDM0AO_ldQHTPeu0XZAw_xooKwe9u4zVuaFEV4F8kKY9z0jyFKM8_DSIrWASEhL3kvnt6HpQN4GPfGanbxz8IKjPkN46xhDg6TMPlzDl0/w400-h341/unnamed.jpg" width="400" /></a></div><br /><br /><p></p><p>मेरे कॉलेज में एक सहपाठी था | पहलवान टाइप , गंवई लहजा , दिमागी कसरत कम , बदनी कसरत ज्यादा करने वाला | वो अक्सर अपने खांटी देहाती लहजे में कहा करता " यो आदमी के दिमाग में कीड़ा होया करै है , जो लपालप किया करे है !" बस इस बात का कहना होता था , वहाँ हॉस्टल की सीढ़ियों पर देर तक ठहाके गूंझते |अजी ,हँसते हॅसते बूके तन जाया करती | बताओ भी , 'डाटा स्ट्रक्चर' , 'कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम' , 'डाटा बेस मैनेजमेंट सिस्टम' , 'डाटा कम्युनिकेशन एंड नेटवर्किंग' ऐसी तमाम भारी भरकम तकनीकी विषयवस्तु से कुश्तमकुश्त करने वाला नौजवान ऐसी बाते करता था ! एक तो बात ऐसी बेसिरपैर , ऊपर से उसकी चौड़ी गुद्दी के बीच में फंसे हलक में से बोल कुछ यूँ फड़फड़ाते हुए फूटते थे जैसे किसी सस्ती नाटकमंडली का नक्कारची कच्ची बसंती का पाऊच पेट में डाल बेताल नगाड़ा पीटता हो | मजमा सा लग जाता | वो मित्र साथ में हँसता , सोचता कि ठिठोली में खिचाई का नंबर सभी का तो आता है | आज उसका , कल किसी और का | लेकिन कई बार जब मजाक का दौर लम्बा खिचता तो उसकी बर्दाशत के घोड़े बिदकने लगते | अब वो किसी एक को निशाने पे लेता , गिद्ध के डैनो के माफिक अपने हाथ फैलाता और गुस्से में हुंकारता " ना मानेगा तू ?" बात आई गई हो जाया करती | </p><p>डेढ़ दशक बीत गया | आज सोचता हूँ कि वो दोस्त ठीक ही तो कहता था | आदमी के दिमाग में कीडा होता तो है, जो कुलबुलाए या न कुलबुलाए लेकिन दिमाग के छोटे छोटे खाँचो में घुस वहाँ तह लगी तमाम यादो से छेड़खानी जरूर करता है | सही का गलत , गलत का सही कर देता है | कुछ नीरस था , उसे रोचक बना देता है |और जो वाकई रोचक था ,उसे अलौकिक बना देता है | आदमी के दिमाग और कंप्यूटर में यही फर्क है | कंप्यूटर में जो संग्रहित हुआ सो हुआ , आदमी के दिमाग का कीड़ा यादो से खेलता रहता है , पुनर्लेखन का काम करता रहता है | </p><p>मैं बड़ी छोटी सी उम्र से बोर्डिंग स्कूल में रहा | नवोदय विद्यालय में | शौक से नहीं ,बड़ा ही भारी मन लिए | सच कहूं तो उन दिनों अगर छुट्टियों से स्कूल लौटते , परिवहन निगम की बस की खड़खड़ाती खिड़की की मंजीरी की ताल के साथ भगवान् ने मेरी अरज सुनी होती तो मेरे स्कूल की बिल्डिंग कई बार भूंकप से जमींदोज होती | बिना नदी आयी बाढ़ में स्कूल की एक एक ईंट घुल, गायब हो गई होती | सिरफिरी सरकार ने स्कूल बंदी का ऐलानिया नोटिस स्कूल के गेट पे चस्पा दिया होता | गुनाह माफ़ हों, पर बेचारे कई प्रिंसिपल हार्ट अटैक से मरते ! अगर मेरी अरज सुनी गयी होती !</p><p>मुझे क्या चीज़ बाँध लेती थी ? एक तो ये कि हर छुट्टी के आखिरी दिन पिता जी ब्रीफिंग करते थे | दालान के आगे धूल में वे शहतूत की कमची से लम्बी लकीर खींच देते और कहते " देख , ये क्या है ?"</p><p>मैं शून्य में ताकता तो वो कहते "देख , ये है रेल की पटरी | "</p><p>"और तू है रेलगाड़ी का इंजन | "</p><p>"समझा ?"</p><p>"अब ये सोच कि इंजन अगर पटरी पे सीधा न चले तो क्या होगा ?"</p><p>मन होता कि मौनी बाबा बन जाऊ ,पर शहतूत की पतली कमची हलक में से ना चाहते हुए भी बोल खींच लाती " पलट जायेगा "</p><p>"और अगर इंजन पलटा तो डिब्बों का क्या होगा ?" ऐसा कहते हुए वो छोटे भाइयो को मेरे पीछे से, जो अभी तक कतारबद्ध खड़े होते , एक तरफ खींच लेते | कुछ ऐसे ही ,जैसे सचमुच रेलगाड़ी पलटा के दिखाते हों | मामले की गंभीरता को भांपते छोटे भाइयो के हाथों से अधखाये कच्चे अमरूदों की कलियाँ , सड़क से खुरेचे कोलतार से अकड़ी बुशर्टों की जेबों में जा दुबकती | माहौल संगीन हो जाया करता | एक तो ये बात | </p><p>दूसरी बात ये कि , कुटुंबदार और कुछ गैर कुटुंब भी , दो चार काका लोग ऐसे थे जो राह चलते आदमी को रोक देते | थोड़ी शेखी और कुछ मंगल कामना लिए कहते " यो लौड़ा हमारा ऐसे सरकारी स्कूल में पढ़े है कि वहाँ जो पहुंच गया ,कामयाब होके ही वापस आया करे है !!" ऐसा कह वो तो बीड़ी के कस के साथ जिंदगी धुआँ धुआँ करने निकल पड़ते ,मेरे कंधे उम्मीदों के बोझ तले दब जाते| </p><p>हुआ क्या ? गिल्ली कभी पूरी तरह मेरी आट पर नहीं आयी | कभी भी मेरे कंचे दौगने नहीं हुए | ऊँची भूड़ की बेरियो के बेर , जिनके बारे में दोस्त कहते थे कि उन पर इत्ते मोटे मोटे (अमरुद के बराबर मोटे ) बेर आते थे , मैंने नहीं खाये ! कानपत्ता का बल्ला चूमने को मैं पेड़ से छलांग लगाने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाया | </p><p>स्कूल के कुछ दोस्त थे | मुझसे कही ज्यादा बोल्ड थे| कई हॉस्टल की दीवार फांद कर भागे | अभिभावक दिवस में माँ की साडी पकड़ दूर तक घिसटते गए | उन्हें भूत आये | पेट में महीनो दर्द के मरोड़ उमड़ते रहे | जिसकी जैसी कल्पनाशीलता उसके वैसे जतन रहे | उनमे से आज कई नोस्टालजिक हो पोस्ट करते है "अपना स्कूल हेवन था यार !!, है ना ?" </p><p>और मैं कहता हूँ "यस इनडीड!! "</p><p> ये मैं वाकई मह्सूस कर कहता हूँ | बाय गॉड | विद्या रानी की कसम ! उन दोस्तों की शिद्दत मेरे से भी भारी होती होगी | </p><p><br /></p><p>तो बताइये , यो जो आदमी हुआ करे है , इसके दिमाग में कीड़ा होया करे है , है कि नहीं ? कीड़ा जो लपालप किया करे है ! </p><p> - सचिन कुमार गुर्जर </p><p> सिंगापूर द्वीप , ३ फरबरी २०२१ </p><p> </p><p><br /></p><p> </p><p> </p><p> </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-8134212974548432932021-01-21T06:29:00.014-08:002021-02-20T22:47:41.168-08:00दादा ऊदल <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNYCa2qA9iyFcvwbkCnCjbYkOSLM__GnQDNEggEEVMSveZ-3RyZsUEmqsbNo-tjfy_oFf5DTD01RfyDe98cAdGgXrzXlrsDmpnVAvqavElfYqe-wqigoOlkPDCssInsDS9PKoTqtUEJ5w/s1050/6bd26005ff345d9d53e11f36f8133e6f.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1050" data-original-width="761" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNYCa2qA9iyFcvwbkCnCjbYkOSLM__GnQDNEggEEVMSveZ-3RyZsUEmqsbNo-tjfy_oFf5DTD01RfyDe98cAdGgXrzXlrsDmpnVAvqavElfYqe-wqigoOlkPDCssInsDS9PKoTqtUEJ5w/w290-h400/6bd26005ff345d9d53e11f36f8133e6f.jpg" width="290" /></a></div><br /><p></p><p>उस पुराने दालान पर, जिसका चबूतरा एक जबर आदमी के सीने जितना ऊँचा था और जिसके बीचोंबीच एक बहुत पुराना ,पहाड़ सा बुलंद लेकिन गंजा होता नीम का दरखत था , वहाँ मैंने ना जाने कितने जेठ कितने आसाढ़ बूढ़ों को सुना | हुक्के की नाली को ताज़े ठन्डे पानी से तर कर और फिर लाल अंगारो से चिलम को ठूस ठूस भर , मैं दादा लोगो की चौखडी के बीच में हुक्का जमाता और आज्ञाकारी शिष्य सा किसी खाट की पांयत पे चिपक जाता | उनमे से कोई परिवार से रुष्ट हो कहता "खैर भैय्या , बुढ़ापा बुरापा होया करे है " और बाकि सब एक सुर में कहते "हम्बै , सही कहो हो | " दर्जनों गायें और उतनी ही भैंसे , जिनकी पूछें शाम को तंग करने वाली खून चूसा मक्खियाँ उड़ाने को हेलीकॉप्टर के पंखे सी भाग रही होती , वो 'हम्बै' न कहती पर उनके गलों के छोटे बड़े घंटे अपने ग्वालों की बात के समर्थन में देर तक बजते रहते | </p><p>और वो नीम , वो जैसे उन बूढ़ो में से ही एक था | उसके पीले पत्ते हमेशा गिरते ही रहते , घर परिवार की बहुये , लड़कियाँ आँगन बुहारती तो कोसती "अये मरजाना , यू पेड़ दिलद्दर हैगा , देखियो जी सुबह ही सकेरा(बुहारा) , अब देखो , कोई देखेगा तो क्या कहेगा , के के इस कुनबे की औरतें काम ना करतीं ! " पर कुदरत पे किसका जोर , किसका जबर | उस नीम के पत्ते गिरते ही रहते , बिना हवा , बिना आवाज़ | और वैसे ही गिरते वो बूढ़े | दादा दरियाब थे , बैलगाड़ी में रस्से की बांध को कसते थे , बस पीछे की ढाल ही लुढ़क गए | घर वाले भागे , गंगा जल भी न गटक पाए , पंछी उड़ गया | दादा कल्लन थे ,कढ़ी चावल खाते थे , पहला गोसा ही लिया था | ऐसा जोर का खांसी का अटैक सा हुआ कि मिनट भर में ठन्डे | जिन घरो से बूढ़े जाते उन घरो में तीन दिन दाना पानी न होता, पर ऊँचे दालान का हुक्का अगले दिन भी बजता और मैं पाता कि बाकि बूढ़ो में से एक के भी अक्स में मौत का भय नहीं है | वे अपने नीले नसों के गुच्छो वाले हाथो को माथे पे जोड़ , नीम की छाव में यहाँ वहाँ में खुले मोखलों में से भगवान् को ताकते और कहते "हे राम जी ,ऐसी ही मौत दीजो , झटफट , बिना धड़क बिना फड़क ! "</p><p>और फिर सब चले गए| कुछ ऐसे जैसे खेल खेल में बच्चो ने थोड़ी थोड़ी दूरी पे सतर ईंटें खड़ी कर दी हों और कोई शरारती एक सिरे से लात मार रेला सा चला जाये | ऊँचे दालान का वो रेला चला गया | बड़े बड़े हलंता , पचास पचास गायों के मालिक ,सवा छह छह फ़ीट के सुर्ख रंग वाले , बब्बर शेर से ललाट और मूछों वाले , घुड़सवारी के शौक़ीन दादा लोग चले गए | ऐसे ऐसे जबर गूजर , के जो बुढ़ापे में भी तबियत से दहाड़ मार देते तो हलके फुल्के आदमी की पतलून गीली हो जाती | सब चले गए | </p><p>रह कौन गया ? दादा ऊदल | उस फौज के सबसे मरियल आदमी | बाकी बूढ़े उन्हें 'गुरगल' कहते | गुरगल एक छोटा सा पक्षी , गौरैय्या जैसा | ठिगनी रास , परती पड़े खेत जैसा मटेला रंग , तोतई नाक जो बुढ़ापे में आगे से फूल के लटक गयी थी | गालों के गड्ढ़े इतने गहरे कि मुँह के अंदर एक दुसरे को छूते थे |चाचा चौधरी के जैसी छज्जेदार मूछें लिए थे | वो उम्मीद से ज्यादा और बहुत ज्यादा ठहर गए थे | शायद इसलिए कि उन्हें नीम के पत्ते की तरह बेआवाज़ नहीं जाना था , देवता होकर जाना था | हाँ देवता होकर ही | उस हाड ज्यादा , मांस कम की गठरी में जीवते वो जो साक्षात्कार कर गए , आप सामानांतर खोजेंगे तो ईशामसीह की जीवन लीला में ही मिल पायेगा ! इंसानी हदों के पार चले गए थे ऊदल दादा | वरना आज के जमाने में कौन मानता है | दुनिया तेज रफ्तार है, पर आज भी गाँव में हर गाय का पहला दूध उनके स्थान पर चढ़ता है | </p><p> **** II ******* </p><p>ये जो मर्द लोग होते है न , इनकी सीरत में दोगलापन ऐसे ही होता है जैसे उँगलियाँ चटका चटका के गूथे गए आटे में नमक | दिखाई नहीं देता ,पर है सर्वव्याप्त | दिन भर यही मर्द विधाता बन ऊँचे टीकरे पर चढ़ हुंकारे मारेगा | पैर के अंगूठे भर से ढेले को धूल धूल उडा देगा | जरा से विवाद में वनमानुष सा सीना पीटेगा , दूसरो के कंधो पे चढ़ मूतने का इरादा रखेगा | और औरत ? बेचारी तर्क की बात कहे या कुतर्क , आढा तिरछा हो गुर्राएगा " जा चली जा , काम कर अपना | " फिर झुकमुका (dusk ) होगा , रात का सन्नाटा उतरेगा | थके हारे बालक माओं की गरम करवटों में गहरी नींद में उतर जायेंगे ,तब वही मर्द जिसने दिन में 'जा चली जा ' कहा था , औरत के घुटनो में बैठा होगा | और औरत ये जानती है | बड़े अच्छे से , बिना शिक्षा , बस सहज ज्ञान से ही जानती है | यही के जिस तरह अनुकूल मौसम , सही समय, सही ताप पर धान का पौधा रोपा जाता है , ठीक वैसे ही सही समय , सही तबियत में मर्द के दिमाग में विचार रोपा जाता है !</p><p>लम्बी बदरंग हवेली में ,जिसके कोठड़े पक्की ईंट और कच्चे गारे के बने थे जिनके बाहर लम्बा फूस का छप्पर बरामदे का काम करता था , उन कोठड़ो में पोत -बहुए , मिट्टी के तेल की ढिमरी बुझा अपने अपने आदमियों से बड़े हौले से कहती " कुछ करो हो बालको के लियो या कटोरा देओगे तम इनके हाथो में | " और गर्माहट के ख्वाहिशमंद उनके आदमी उतने ही धीमे स्वर में कहते "हाँ , हाँ , देखे हैं !" पर जब ये 'देखे हैं देखे हैं ' का दिलासा लम्बा खिचा तो लम्बी चोटी ,गरम खून की पोत-बहुओं ने खुद ही बीड़ा उठाया | दालान उनकी पहुंच से दूर था , पर हवेली में पहले सांझे के चूल्हे फूटे , अपनी अपनी थाली कटोरियों पर पहचान के निशान खीचें गए , लीपने के आंगन बांटे और जब दिल नहीं भरा तो "उत्ती तू ऐसी , तेरा पीहर ऐसा , तेरा खसम मेरा खसम " ये सब वाचा जाने लगा | मर्द कुछ दिन दूर रहे , लेकिन फूस का घर और आग से रहम !</p><p>एक दिन ऐसा आया कि छोटी बहु ने बड़ा लम्बा सा घुंघट काढ़े काढ़े आपा खो दिया और चिमटे से अपने जेठ की ओर इशारा कर बोली " उरे कु मुच्छड़ , तेरी ही मूछ उखेड़ुगी सबसे पहलै | " बस उसी दिन सब कुछ बँट गया | पूरब का खेत , पश्चिम की जोत , साझे का कुआँ , मुर्रा भैंस , ढेला भैंस , धान, उड़द, मसूर | सब का सब | </p><p>और दादा ऊदल ? अरे उनका हामी कौन होता , जो बेटा पोता सबसे सीधा था , बिना ऐलान उसकी झोली में आ गिरे | दालान चार फाँक हुआ पोतों ने शहर जैसे दड़बे नुमा घर बनाने को फीता डाल दालान बाँट लिया | दादा के हलक से एक बात भी न निकली | हाँ जब नीम का बँटबारा हुआ और लकड़हारे बड़े आरे ले चले तब वे बोले " ओ लल्ला क्यों काटो हो इसे , हम्बे साई ?" किसी ने पूछा "क्यों ना काटें ?"</p><p> पर दादा कुछ न बोले | </p><p>काश उन्होंने बोला होता कि काट लेना , मुझे चले जाने दो | फिर इसे काट ,आरा मशीन पे ले जा तख्तों में तकसीम कर बाँट लेना | काश उस कभी के जबरदस्त किस्सागो ने कहा होता कि सुनो अकल के मारो , इस नीम के पत्ते पत्ते पे एक कहानी है | आह कितने किस्से उस नीम की छाँव में कहे गए | भूत ,चुड़ैल , परी , फरिश्ते , नल दमयंती , विक्रम बेताल , राजा हरिश्चंद , इन सबके कितने किस्से, वो भी मुँहजबानी ! वो मरघटिया के भूतों के नाच की कहानी , जिसे सुन मेरे और साथ के हमउम्र बालको के मसाने सूख गए थे और कई बड़ी उम्र में भी बिस्तरों में मूतने लगे थे | भूत जिनके पैर पीछे को घूमे होते थे और जो नंग धडंग हो अंगारों पे कूदते थे | अर अर अर... जो सुरैय्या की तरह नाक में ही बोलते थे "कहाँ कू जावै है , कहाँ कू.. ठहर जा "</p><p>काश वो कह पाते कि दादा को बर्दाश्त करते हो , तो इसे भी कर लो | पर वे कह भी देते तो उन्हें कौन सुनता | हुह्ह , भला कोई सुनता ? नीम का पेड़ और ऊदल दादा बस जगह भर ही तो घेरते थे | </p><p>और मैं कहाँ था ? मेरी मसे भीग रहीं थीं | और किसी भी औसत किशोर की तरह मैं बिना बात की अकड़ , कम उम्र के फिजूल के आकर्षण , जान बूझ घर वालों के हुकुम की नाफरमानी में मशगूल था | मैं वैसे ही था जैसे कि मेरे आस पास के लोग | मैं दुनिया में अपनी जगह ढूँढ रहा था | नीम और नीम वाले दादा पुराने ढोल जैसे थे , मुझे फ़िल्मी गाने जमने लगे थे | </p><p> </p><p> **** III ***</p><p>रामकृष्ण परमहंस भक्तिमार्ग के बड़े ही पहुंचे हुए संत थे | काली के उपासक | सत्संग करते तो सैकड़ो लोग उनकी जीवट लीला को देखने सुनने इकठ्ठा होते | लेकिन उनमे एक ऐब था : लजीज खाना | और भोजन में उनकी आसक्ति कुछ उस दर्जे की थी कि सत्संग पूरे शबाब पर भी हो तब भी वो बीच सत्संग उठ जाते और रसोई में जा अपनी ग्रहणी श्रद्धा से पूछते कि आज खाने में क्या है | कई बार किसी बालक से खबर भेजते कि खाने में देरी क्यों है | उनकी पत्नी को ये बात चुभती कि बताइये इतने बड़े ज्ञानी , लोक परलोक के ज्ञाता और जिव्हा इंद्री पे तनिक भी संयम नहीं | वो पूछती तो परमहंस हँस देते | आखिर जब पत्नी ने ज्यादा दबाब बनाया तो उन्होंने समझाया कि देखो इस दुनियादारी से मेरा सम्बद्ध खत्म ही हुआ , इधर जानने को न कोई रहस्य रहा , न बांधने को कोई माया | बस खाने की आसत्ति है जिससे मैंने अपने आप को इस दुनिया से बांधा है | जिस दिन भोजन से भी लगाव गया तो समझ लेना | और फिर ऐसा ही हुआ | एक दिन तरह तरह के पकवान सजा जब पत्नी उनके सामने हाज़िर हुई , परमहंस ने मुँह फेर लिया | बस , पत्नी के हाथ से थाली छूट गयी, चीख निकल गयी | परमहंस ब्रह्मलीन हो गए | </p><p>ऊदल दादा की भक्ति में परमहंस जैसा न तेज था, न ही उनके जैसा ज्ञान | अरे वे ऐसे सरल गऊ मन आदमी थे जिसकी जवानी गाय चराने में बीती और ढलती उम्र किस्सागोई और हुक्केबाजी में | वो घुटनों में अपना सिर रखते और सीधा सा मन्त्र उचारते " हे राम। तू ही है मेरे मालिक रे | " हाँ परमहंस की तरह उनकी आसत्ति जरूर थी | दो चीज़ें उन्हें दुनिया से बांधती थी : एक लोटा भर काले गुड़ की चाय और दूसरा बीड़ी का बण्डल | सुबह घर का काम निपटा जब बहुएँ किसी बालक से चाय का लोटा भिजवाती तो दादा उसे एक बड़े कटोरे पे भरवा लेते | दोनों हाथों से देर तक चाय की तपिश को महसूस करते और फिर सपाटे के साथ एक एक घूँट को रुक कर ऐसे पीते जैसे पेट को नहीं आत्मा को सींचते हो | फिर बीड़ी सुलगा लेते | वो साझे का हुक्का लड़कों ने बांध कर टांड पर रख दिया था इस वादे के साथ कि कोई हुक्का-पीवा रिश्तेदार आएगा तो उतार लेंगे | लेकिन दुनिया आई गयी | गायों की बछड़ियों की भी बछड़ियाँ पैदा हो गयी , हुक्का नहीं उतरा | </p><p><br /></p><p>दुनिया चाँद में उसकी शीतल चांदनी और उसकी छवि में अपनी प्रेमिका का रूप ढूढ़ती है , उसके अड्ढे गढ्ढ़े , काले पीले दाग नहीं | वैसे ही दुनिया का देहाती जीवन से रोमांस है | किसान चरित्र में भोलापन, सादगी और मेहनतकशी के गुण ही तलाशती है | जबकि देहात के जीवन का एक पहलु ये भी है कि शायद कठोर जीवन के चलते उनकी संवेदनायें कम होती है और मजाक के तरीके भी कठोर होते हैं | मौत और बुढ़ापे को लेकर जितने मजाक भारत के ग्रामीण अंचल में मिलेंगे शायद ही दुनिया में कहीं मिलें |</p><p>कई बार ऐसा होता कि सूरज की धीमी तपिश में दादा ऊदल अपनी सूखी टांगो को आंच दे रहे होते तो कोई लफंडर तफरीह में यू ही खामखा अपनी साईकल बैठक के आगे रोकता और कहता " ओ दद्दा , सुनो हो के ना | अब खबा भी दो उड़द चावल | दिखियो , महीनो से गाम में कोई दावत न हुई !" उसका इशारा मृत्युभोज की तरफ होता | उसकी बात में बात जोड़ता कोई इधर उधर के चबूतरे से होंका लगाता " अभी नाय जाएं ये , काला कौवा खाय के उतरे हैंगे दादा , देखिये कही तेरे उड़द चावल न खा जाएँ कहीं " और फिर बेगारी में इधर उधर मस्त सांड से घूमते कई जवान ठहाका लगा कर देर तक हँसते | </p><p>दादा क्या कहते | मैंने कहा ना दुनिया में उनकी आसक्ति ख़तम हो गयी थी , बस उनके लिवनहार फ़रिश्ते सोते थे | कभी वो धीमी आवाज़ में कहते " राजा हो या रंक , जिसका बखत जब आवेगा तभी जावेगा| सात तालों में बंद हो लियो , हुवा से भी खींच लेंगे फ़रस्ते "</p><p>लेकिन फिर वो दिन आया , जिसे मैं क्या पूरा गाँव नहीं भूलता | </p><p> **** IV *** </p><p>वो सेमल-गददे के फूलों का मौसम था | रास्ते के किनारे पसरे खलियान में, जहाँ मोहल्ले भर की औरते गोबर के कंडे और लकड़ी के ढेर संजोया करती थी , उसके बीच में खड़े दो दैत्याकार सेमल के पेड़ो पर खिले फूल ऐसे थे जैसे जवान मुर्गे की लाल कलगी | दूर तक पीली सरसो पसरी थी | उस रात मैं सही से सो नहीं पाया | एक तो मौसम ऐसा गर्म-सर्द , कि खेस में मुँह ढाँपो तो पसीना और न ढाँपो तो मच्छर पिनपिनाते | उस पर देर रात तक गांव भर के आवारा कुत्ते छतो पर चढ़ रोते रहे | कुत्तो को आसामन से उतरते फरिश्तों का भान होता है |और इस बात का भान मुझे था कि कुत्ते क्यों रोते है !बस इसी के चलते मेरा कलेजा बैठ बैठ जाता | </p><p>सुबह जंगल पानी को निकला तो गलिहारो में किसान अपनी अपनी हवेलियों से रात से पानी में भीगी खली के बालटे लटकाये गोशालाओं की तरफ जा रहे थे | सुबह सुबह भजन के समय कोई किसान अपनी भैंस से परेशान उसे कोस रहा था " खा ले महारे ससुर की , कसाई से कटवाऊ तुझे , कसाई सै | "दूर डामर की सड़क से कच्ची सड़क पे उतरती दूधिया की साईकिल से टकराते दूध के खाली गोलटे बेसुरे घंटो से बजते चले आ रहे थे | कोई आध कोस की दूरी पर एक टटीरी पक्षी पूरे जोर से चिल्ला रहा था : टर टर टटर टटर | शायद नित्यकर्म को जाता कोई इंसान उसके अंडो के नजदीक पहुंच गया था | सरकंडो के बाड़ों से घिरी चकरोड के दूर वाले छोर पर, अमराही के सिरे पर सूरज ने जब आसमान को फोड़ा तो मैंने वापसी का रास्ता पकड़ा | </p><p>उदल दादा की बैठक के आगे आठ दस लोग जमा थे | जो स्वाभाविक था वही विचार आया और बैठक में पैर रखते ही विचार सही साबित हुआ | दादा के दोनों पैर एक तरफ घूमे पड़े थे और मुँह खुला पड़ा था | कोई आशावादी था, आगे खड़े लोगो से बोला "नबज टटोल के देख तो लो , क्या पता साँस बाकी होवै | " आगे खड़े किसी नौजवान ने इसे अपनी पड़ताल की तौहीन माना और ऊँचा हो बोला "नाय है कुछ भी , ठन्डे पड़ गए | मट्टी ही बची है अब भईया , कुछ नाय बचा | " फिर कुछ लोग ऐसे होते है जो सब कुछ आभास होने पर भी पूछते है , किसी नए ने पूछा " क्या हुआ ?"तो माहौल के हिसाब से किसी ने संजीदा हो कहा " दादा ख़तम हो गए !"</p><p>शरीर जमीन पर उतारने की तैयारी होने लगी लेकिन कोई ठीठ पीछे से आके बोला " अरे गर्दन तो घुमा के देख लो , थोड़ा हिला डुला के देख लियो | " कई झुँझलाये | कई बार ऐसा होता है कि मृत को देख ऐसा भास होता है जैसे सांस लेता हो और अभी तपाक से बोल पड़ेगा | मुझे तो ऐसा ही लगा| और फिर मुझे क्या कई को ऐसा ही लगा | किसी ने दादा के मुँह के आगे कान लगा दिया और जोर से चिल्लाया " अबे , चल लइ है दादा की साँस !" और सचमुच दादा तो लौट आये ! भाग हुई कि चाय लाओ, चाय लाओ | </p><p>गरम चाय पेट में जाते ही दादा का शरीर ऐसे हरकत में आया जैसे सर्द पाले में अकड़ी छिपकली ने सूरज की तपिश पा ली हो | किसी ने पूछा " ठीक हो?" और फिर बीड़ी सुलगा के दे दी | दादा ने हाथ जोड़ आसमान की ओर उठा दिए और बोले " बस बालको , चला तो गया हा पर लौट आया | "</p><p>फिर वो सुनाते गए | शायद सालों बाद इतना बोले होंगे" तीन जने हे | सफ़ेद झक लत्ता में | बोले कि ऊदल , उठो और चलो | मैं नु बोला के थमो तो सई | अपनी लठिया तो उठा लूँ | " </p><p>भीड़ में पीछे कुछ हँसे ,पर अधिकतर गंभीर हो सुनते थे | बीड़ी का कश ले दादा बोले " मेरे पैर ऐसे उठे जैसे कि कोई फूल | और यूँ आँख मूंदते ही बादल ही बादल | "</p><p>"फिर , उसके बाद क्या हुआ दादा ?"</p><p>दादा ने अपने सूखे लकड़ी से हाथ को गोलाई में घुमाया और बोले " ऐसे बहुत से नर नार चुप्पी चान बढे चले जा रये | मैं, मेरे संग वो तीन फिरस्ते | बड़ा सोयना सा द्वार बना हुआ हा , एक ने हमे रोक लिया | नाम की बूझ हुई लल्ला "</p><p>"नाम बताओ "</p><p>"ऊदल सिंह "</p><p>"बल्द ?"</p><p>"फूल सिंह "</p><p>"बस इसपे आयके वो चारो चुप | पोथी में देर तक पड़ताल हुई | फिर उ जो चौथा हा ना लल्ला | नु बोला के गलत आदमी को ले आये | हलकी सी डांट देई | "</p><p>किसी ने पूछा " उनके मुँह दीखे हे क्या दादा ?"</p><p>दादा में जैसे नई ऊर्जा आ गयी थी " अरे नाय , उनके सफ़ेद लत्तो में इतनी तेज़ी ही , कि आँख कहाँ खुली पूरी| "</p><p>"और फिर वो नू बोले के चलो वापस , अरर आरर .. बस वही से धक्का दे दिया मुझे और बस्स्स| "</p><p>बैठक से कुछ लोग निकलते जा रहे थे कुछ आते जा रहे थे | कुछ दादा की कहानी को दोहरा दूसरों को सुनाते तो कुछ दोबारा उनके मुँह से सुनने की गुजारिश करते | कुछ विश्वास लिए तो कुछ बूढ़े का कपोल समझ , घंटे भर में भीड़ छट गयी | </p><p>बमुश्किल घंटा भर बीता होगा | पछाय(पश्चिम ) के मोहल्ले के नरपत चले आते थे अपनी 'राजदूत' पे | बनिए की दुकान से बीड़ी का बण्डल ले नरपत किसी बैठक की ओर मुँह ले बोले " काका , मँड़ैया की नदी में जल तो नाय है आजकल | मोटरसाइकल निकल जाएगी | कही जाना हो ना हो , घर परिवार की लौंडियो को तो खबर देनी ही पड़ेगी | "</p><p>एक काका चबूतरे पे चले आये " ऐसा क्या हुआ , के खबर देनी पड़ेगी तड़के तड़के ?"</p><p>नरपत उदास हो बोले " पते ना चले , अहह , ऊदल ख़तम हो गए ऊदल | "</p><p>"क्या ??"</p><p>"भल मानसो , अच्छे खासे उठे , जंगल पानी गए , आके चाय पी और अर बस | बड़े लौंडा कू आवाज़ दी जोर से , अर बसस | ठन्डे पड़ गए| "</p><p>आस पास के घरो से जनाने मर्दाने सब सुन गलिहारे में आ गए | </p><p>"कौन ?अरे कौन, नरपत कौन ??"</p><p>"ऊदल | "</p><p>ओहो , तो फ़रिश्तो ने अपनी भूल सही कर ली थी | घंटे भर के भीतर ही | और मैंने देखा कि गाँव के गलियारों में भरे लोग " राम तेरी माया , हे प्रभु तू ही है " जपते, हाँफते ऊदल की मँड़ैया की ओर लपके चले जा रहे थे | सबकी आँखों में भय था और सबकी आवाजें काँप रही थी | चबूतरे पे खड़े खड़े मेरी सांस धौंकनी सी चल रही थी | मृत्यु भय और डर के मारे रीढ़ की हड्डी के ऊपर पसीना छूटना क्या होता है , उस दिन मुझे आभास हुआ था | </p><p>इस घटना के बाद तो गांव का मौसम ही बदल गया | ऊदल दादा छह महीना और जीवित रहे | घसियारिनो के झुंड उनकी बैठक के आगे से निकलते तो सब एक सांस हो गीत सा गातीं " पाऊँ लागु हूँ बड़े दादा !!"मोहल्ले भर की गुजरियाँ छोटे बड़े तीज त्यौहार पर कटोरा भर खीर भेज देतीं जिसमें दिल खोल मखाने , दाखें और किशमिश बुरके होते | !राह चलता राहगीर रुक जाता और बीड़ी सुलगा दादा को देता | दादा मना करते तो मिन्नत सी करता ,कहता " लो ,पी भी लो भलमानसो , अब सुलगाय लेई मैंने !" रेलबाई या पुलिस की भर्ती का परचा देने कोई युवा शहर जाता तो बस पकड़ने से पहले दादा के चरण लेना न भूलता | सेवा से कुछ के काम सिंद्ध होते ,कुछ के ना होते, पर ऊदल दादा में पूरे गांव की आस्था जम गयी | दादा स्वर्गलोक हो लौट आये थे | </p><p>और फिर जब वे सही में गए तो गाँव की सातों जात के आदमी जुटे | ताजा बारिश में बलबलाती गंगा के किनारे चिता पे लिटा जब काका अग्नि देने को हुए तो भीड़ में बैठे किसी हँसोड़ से रहा न गया " औ काका , अभी रुकियो तनक , कुछ पता ना , अभी लौट सकें है दादा !" और फिर सब जोर जोर से हँस पड़े | </p><p>लेकिन धुआँ होते ही मिजाज बदल गया और एक बड़ा रुआंसा हो गा उठा :</p><p>"पत्ता टूटा डाल सै , ले गई पवन उड़ाय | </p><p>अबके बिछड़े नाय मिले , जाय बसेंगे दूर | </p><p>बोलो तो भाई , हर गंगे, हर गंगे | "</p><p>और फिर जीवन की क्षणभंगुरता और अपनी अपनी आखिरियत के अहसास से बहुत सी आवाजें एक साथ गा उठीं " बोलो तो भाई हर गंगे , हर गंगे | "</p><p>घी की लाग पा भड़की ज्वाला ज्यों ही शरीर को लीलने को ऊपर उठी , लकड़ी के सुलगते दो कुंदे चिता से लुढ़क कर बाहर आ गिरे | </p><p>हाँ ये उसी पुराने नीम की लकड़ी के कुंदे थे ! दादा अपने साथ एक पूरा युग समेट कर ले गए थे | </p><p> इति | </p><p> सचिन कुमार गुर्जर </p><p> २१ जनवरी २०२१ </p><p> </p><p><br /></p><p><br /></p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-84751406650789912532020-12-23T22:04:00.012-08:002021-02-04T05:15:49.277-08:00खट खट खट.. चॉप चॉप चॉप !<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMOH025dHmOg65jwq5Jn-LF8WS8IFTleVJElCFU1_8gP25gR-6408kQgEbblmnRlms-VZlNXltNizPHbcbx58kCFNEXWHt0N8SsV8pmCNs77oJmKk64euELVQfvd-OhhAZXX4B3LITo-4/s421/chinesegirl.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="421" data-original-width="300" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMOH025dHmOg65jwq5Jn-LF8WS8IFTleVJElCFU1_8gP25gR-6408kQgEbblmnRlms-VZlNXltNizPHbcbx58kCFNEXWHt0N8SsV8pmCNs77oJmKk64euELVQfvd-OhhAZXX4B3LITo-4/w285-h400/chinesegirl.jpg" width="285" /></a></div><br /><p><br /></p><p>वो मुझे रोज ही मिलती है | यही कोई नौ साढ़े नौ बजे के आस पास | या जानकारी को ज्यादा सटीक बनाना है तो यूँ कहिये कि सप्ताहांत को छोड़कर बाकि सभी दिन , क्योकि उन दो दिनों में मैं देर दोपहर तक सोता हूँ | 'माय लाइफ माय चॉइस ' के खुमार में डूबा होता हूँ | </p><p>सीधी सपाट चिनाई और पीले गेरुए रंग में पुती हाउसिंग बोर्ड की बिल्डिंग्स के झुरमुट से निकल , लाल बत्ती के पार , उन नौ दुकानों की टुकड़ी में , हाँ वो मुझे वही मिलती है | नौ दुकानें , जिनमे से पांच एक सीध में तो बाकि चार अंग्रेजी के 'एल' अक्षर की तरह नब्बे डिग्री का घुमाव लिए हुए है | ऊँचे बुलेवार्ड के तेज़ ढलान को रोकने के लिए दुकानों के सामने पैरापेट बनी है | पैरापेट के सहारे कुछ 'रात की रानी ' के खुशबूदार पौधे लगे है | एक पैर जमीन पर तो एक पैर मोड़ कर पैरापेट पर टिकाये वो यूँ खड़ी होती है जैसे वादा कर समय पर ना पहुंचे प्रेमी के इंतज़ार में हो , बेचैन हो , राह तकती हो | </p><p>मैं उसे दूर से देखता हूँ तो लगता है कि जैसे पास आने पर वो मुझसे कहेगी " वेंकट , माय डिअर वेंकट , अरे सोकर देर से उठे क्या ? " फिर थोड़ी फ़िक्र लिए और थोड़ी सलाह के भाव से कहेगी "ऑफिस टाइम से जाया करो ! लेट हो जाओ तो नॉश्ता ऑफिस कैंटीन में ही कर लिया करो | " </p><p>वेंकट ?? आप कहेंगे 'कौन वेंकट ?'</p><p>देखिये , सिंगापुर प्रवासियो का शहर है | वैसे अमूमन सभी शहर प्रवासियों के हुजूम समेटे होते है | लेकिन यहाँ प्रवासियों की तादाद इस कदर ज्यादा है कि अड़ोस पड़ोस में रहते , रोज बगल की टेबल पर कॉफी पीते अजनबी चेहरे कोई जिज्ञासा पैदा नहीं करते | फिर 'स्टीरिओ टाइप ' के खांचे इतने मजबूत है कि आदमी आदमी नहीं रहता , एक किरदार भर रह जाता है | </p><p>सो, अगर कोई भारतीय है जो पिट्टू बैग लाधे जाता है तो वो 'वेंकट' या 'राजू' है जो कि एक 'आय टी वर्कर' है | किसी बैंक या टेक्नो फर्म में कंप्यूटर पे काम करता है | तमिल बोलता है ,इडली डोसा या रोटी पराता खाता है | उसकी जिंदगी में कोई शगल नहीं है , सिवाय इसके कि उसे खूब सारा पैसा कमा , सब का सब इंडिया भेज देना है !कोई भारतीय जैसा ही , पर थोड़ा नाटा और सावला , सस्ते रबर या लेथर के बूट डाले है , तो वो समसुल है ,बांग्लादेशी है , कंस्टक्शन वर्कर है , या ऐ सी मैकेनिक | कोई पीले रंग का , एशियाई नाक नक्श लिए , मरियल सा , लाल या पीली टीशर्ट डाले है जिस पर कुछ कुछ प्रिंटेड है , वो तेओ है , वियतनामी जो किसी फ़ूड कोर्ट में सर्विंग स्टाफ या क्लीनिंग स्टाफ है | </p><p>किनारे की बेकरी की दुकान की युवतियाँ हर थोड़े अंतराल पर मध्यम स्वर में गाती जाती है "ओफा ओफा ओफा | " मतलब "ऑफर ऑफर ऑफर "| 'एप्पल पाई बन ', 'रेड बीन बन ' , 'चिकन टोस्ट ' , चॉकलेट कप केक। ऐसे छत्तीस प्रकार के आइटम उन्होंने दुकान के बाहर स्टैंड पे बड़े करीने से सजाये होते है | सामान उठाने के चिमटे और ट्रे सेट एक किनारे पे चट्टा किये होते है | फिर एक इलेक्ट्रीशियन की शॉप, उसके बाद एक सब्जी फल की दूकान | </p><p>चौथी दुकान के सामने , पैरापेट के पैर टिकाये वो मुझे मिलती है | </p><p>दूधिया रंग | और इस कदर दूधिया कि लगे जैसे छूने से मैला हो जायेगा | चिकनी सफ़ेद , सपाट पेशानी , नक्काशी की हुई भौहे ,कटीली मंगोल आँखे जिनके किनारे उसने मस्कारे से बांधे होते है | नाक रोमन तो नहीं लेकिन चमकीली , सुगढ़ | चीनी टँगेरीन के जैसे भरे हुए उसके होठ , ऐसे समरूप जैसे किसी चित्रकार ने पेन्सिल से बड़ी बारीकी से उकेरे हो | सूरत पे एक धब्बा तक नहीं | हाँ निचले होठ से गालिबन एक उंगल भर नीचे एक चोट का निशान है , जो उस पर जँचता है , रूप दबाने के बजाय निखारता है | अपने घने बरगंडी कलर बालों को उसने चारों तरफ से समेट सिर के बीचोबीच एक जूड़े में बाधा होता है | ऐसा करने से उसकी दूधिया गर्दन पे बना टैटू निखर कर ऐसे सामने आता है जैसे बादलो के घने टुकड़ो से पार पा चाँद दौगनी कशिश से चमकना चाहता हो | उसके मोटे, भरे हुए गाल जब मुँह की तरफ आते है तो लाफिंग लाइन की एक घाटी सी बन जाती है | हाथ गूदेदार है , मुलायम डबल रोटी जैसे | इस कदर गूदे दार की उंगलियों के जोड़ बाहर उभरने की बजाय अंदर की ओर दबे हुए है | </p><p>कोई ग्राहक आता है तो वो बड़ी तेज़ी से दुकान की तरफ बढ़ती है | छज्जे के नीचे कतार में जमे थर्मोकोल के बक्सों में , टूटी हुई बर्फ में जमी छोटी बड़ी मछलियों में से एक को वो यूँ उठाती है जैसे गुलाब की कोई टहनी | फिर फुर्ती से स्टेनलेस स्टील के गंडासे को उठा वो उस मछली के पर-पूंछ ऐसे कतरती है जैसे टहनी से पत्ते हटाती हो | बहुत ज्यादा नहीं , थोड़े से प्रयास से ही वो उस 'समुद्रफल' का पेट दो फाँक कर देती है | "खट खट खट .. चोप चोप चोप "| और बस मिनट से पहले सामान पकने के लिए तैयार | </p><p>कई बार जब मैं गुजर रहा होता हूँ तो कोई बॉडी बिल्डर आकर उससे बोलता है "वन चिकन ब्रैस्ट " | और वो दुकान में अंदर जमा फ्रोजेन चिकन को निकल कटान तख़्त पर ला रखती है | "खट खट खट ...चोप चोप चोप " | इस बार गंडासा ऊँची आवाज़ करता है | लेकिन समय , मिनट भर ही | काम को निपटा वो रबर के हौज़ में लगे जेट स्प्रे से कटान तख़्त को साफ़ कर देती है | पॉलिथीन को ग्राहक को थमा भुक्तान रकम को थाम आदर भाव से ऐसे झुकती है जैसे कोई बौद्ध भिक्षु ! फिर बकाया लौटा वो धीमे स्वर में बोल उठती है "शे शे " | शुक्रिया , शुक्रिया | </p><p>काम निपटा वो फिर से 'रात की रानी' की झाड़ियों के नजदीक पैरापेट पर आ जाती है और बिना किसी साथी की बात जोहे सिगरेट सुलगा लेती है | उसने रबर के वाटरप्रूफ बूट पहने होते है जो बूचरी के काम में उसे भीगने से बचाते है | एक वाटरप्रूफ एप्रन डाला होता है जो काफी मोटा और चिकना है और हमेशा भीगा रहता है | इस सबके बाबजूद आप उसे देखेंगे तो उसके मजबूत सीने को महसूस किये बिना नहीं रह सकते | </p><p>कई बार जब वो झुक कर सामान उठा रही होती है और मैं गुजर रहा होता हू | या काम की तीव्रता में इधर उधर भागते उसे पीछे से अवलोकन का किस्मतगार होता हूँ | तब मुझे उसके गदीले , सही विस्तार लिए हुए कटि प्रदेश , बिलकुल वैसा जैसा कल्पनशीलता की चरम अवस्था में पुरष मन गढ़ता है , का अहसास होता है | कटि प्रदेश के ऊपर , ठीक लव हैंडल्स के ऊपर अचानक से कमर अंदर की ओर वलय ले लेती है | ऐसा लगता है जैसे मानो वो रेनेसांस के किसी मूर्तिकार की कृति हो , और मूर्तिकार ने छैनी हथोड़े की चोट से कमर तरासी की हो | </p><p>अहह , वो सचमुच आज के समय की स्त्री नहीं है | ना ही वो आजकल के सनकी 'जीरो फिगर', 'ऑवर ग्लास फिगर ' घुड़दौड़ का हिस्सा है| आहा लापरवाह ,समय के साथ पकता उसका रूप | वैसे ही जैसे मानसून की बौछारों में पकता आम | ऐसे गोल , सुडोल , मांसल स्त्रीत्व की तलाश में स्टालिन रूस के गाँवो तक चला जाता था , किसान औरतो में अपनी कल्पना का रूप ढूढ़ता था | </p><p>मछली , मुर्गा काटने वाली उस सुकाया को कोई भी पुरुष प्यार करेगा | खुशकिस्मती समझेगा |इतना अनुभव तो मेरा भी है कि पुरुष में लाख कमियाँ हो , लेकिन इस तरह के ढकोसले कि.. कि ' आई लुक फॉर समवन विथ ग्रेट सेंस ऑफ़ ह्यूमर ' 'समवन वैरी केयरिंग ' 'समवन हु हैस मिशन इन लाइफ ' 'डॉग लविंग ' 'एनवायरनमेंट लविंग ' अलाना फलाना !!!| ये सब नहीं होता | जो पसंद आ जाये , जिसके नैन नक्श , मुखौटा, चाल ढाल , आकृति भा जाए तो भा जाये | फिर उसके हाथ में कलम हो या गंडासा | हाँ दूसरी चीज़े मायने रखती है , लेकिन उन सबके भारांक कम ही रहते है | </p><p><br /></p><p>उस गंडासे वाली कोई भीपुरुष प्यार करेगा | हाँ कोई भी !</p><p>लेकिन उसका प्यार पा , उसके फूल से खेल कोई उसका दिल तोड़ भी सकता है क्या ?क्या कोई उसे दगा भी दे सकता है क्या ?</p><p>किनारे की दूकान से मुड मैं बस स्टॉप की तरफ बढ़ चुका होता हूँ | </p><p>कोलाहल के बीच अभी तक गँड़ासे की आवाज़ आ रही होती है "खट खट खट .. चॉप चॉप चॉप ! "</p><p><br /></p><p> -- सचिन कुमार गुर्जर </p><p> 24th Dec 2020 </p><p> </p><p> #singaporelife, #singaporegirl #shorthindistory </p><p> </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-79763574999747587442020-10-10T23:11:00.013-07:002021-02-20T23:03:54.633-08:00विद्रोही लड़कियां <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgo2kPYp3Q3JEe6wHdfh_3bK13U4Ahkpa_Jkx7Ye4_1Zab_d-3a_dnExmgE17UcP-Mi9aG-eK4PcOmUZ8bhqvdLt53bOPAiT3iPUWEn3t0Jxni-6PAriT29PH8ynYMlZTLUqPOtNzPC0e8/s2048/women.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1403" data-original-width="2048" height="274" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgo2kPYp3Q3JEe6wHdfh_3bK13U4Ahkpa_Jkx7Ye4_1Zab_d-3a_dnExmgE17UcP-Mi9aG-eK4PcOmUZ8bhqvdLt53bOPAiT3iPUWEn3t0Jxni-6PAriT29PH8ynYMlZTLUqPOtNzPC0e8/w400-h274/women.png" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p>सुबह के आठ -साढ़े आठ का समय हुआ होगा। इडली डोसे की दुकान में मैं अकेला ग्राहक था। दुकानदार मेरे से अगली कुर्सी की कतार में बैठ मेरे से बतला रहा था। </p><p>"पहली बार मैंने किसी ऐसे तमिल आदमी को देखा है , जिसे तमिल बोलनी नहीं आती " मैं बोला। वो चौबीस पच्चीस साल का लड़का थोड़ा शर्मिंदा हुआ " एक्चुअली , कई पीढ़िया हो गयी इधर ही दिल्ली में । मम्मी पापा बोल लेते हैं , मैं समझ लेता हूँ। "</p><p>नारियल की चटनी में जरूरत से ज्यादा पानी था | मैं इडली के टुकड़े को पहले नारियल की चटनी में डुबोता फिर लाल मिर्च की चटनी में। चार लड़कियों का समूह धड़धड़ाता हुआ दुकान में दाखिल हुआ और एंट्री के पास की ही कुर्सियों पर काबिज हो गया। दुकानदार को कुछ बोल उनमें से एक मेज पर उँगलियाँ बजाते हुए दूसरी से बोली " तो फेर के देवे गी बॉयफ्रेंड नै बर्डे गिफ्ट में! "और फिर चारो की हंसी का फब्बारा कुछ यूँ छूटा जैसे कोई बगल की नरम खाल में गुदगुदा के निकल जाए। </p><p>वो निश्चित रूप से हरियाणा या उसके सीमान्त इलाके की नवयुवतियां थी | बीस इक्कीस की उम्र की। उनमें से एक, जिसकी गर्दन सुराही की तरह लम्बी थी और जिसकी मूछें थी , उसने मुझे कुछ ऐसे भाव से देखा जैसे कोई भी आदमी किसी निर्जीव वस्तु जैसे कुर्सी या मेज को देखता है।हाँ उसकी मूछें थी , उतनी जितनी की सोलह सत्रह की उम्र पकड़ते लड़को की होती है। </p><p>मैंने पाया कि उन चारों ने टी शर्ट और काले सलेटी लोअर डाले हुए थे और उनके हाव भाव हॉस्टल में रहने वाले आलसी , उबासी लेते , बिना मुँह धोये नाश्ता करने वाले लड़को जैसे ही थे । बन ठनकर घर से निकलने का जो मूल स्त्री स्वभाब होता है, नाखून बराबर भी नुमाया न था। हाँ , नई जबानी की कुदरती चमक उनके चेहरों पर थी , नए खिले फूल सी सुकाया थीं , पर प्रयास तो रत्ती भर भी न था। फिर उमंग में भर उनमे से एक गाने लगी " पल भर के लिए कोई हमे प्यार कर ले , झूठा ही सही "नहीं, वो प्रेमगीत मेरे लिए नहीं था। वो महज एक एक्सप्रेशन था उन्मुक्त , लापरवाह , बंदिशों से परे , बराबरी का जीवन जीने का।</p><p>आपने विद्रोही लड़के देखे है ? सुना तो जरूर होगा। वही जो साल दर साल दिल्ली या इलाहाबाद में रह 'यू पी एस सी' की तैयारी करते है।खाकी कुरता पहने , चश्मा लगाए और बाथरूम स्लीपर पहने ऐसे लड़के सरकारी ऑफिसो से घुस बाबुओ को हड़का आते है। मैं कुछ महीनो अपने मित्र के साथ दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहा। मुखर्जी नगर की जमीन , हवा और आसमान , इस सबमें सरकारी नौकरी के कम्पटीशन का खुमार इस कदर है कि आप किसी किसी भी रेहड़ी वाले से मूंगफली या पकोड़ी ले लीजिए और फिर उसे संभालती रत्ती को देखिये , लिखा मिलेगा : "सामान्य अध्धयन , समय तीन घंटे , अधिकतम अंक 250 | " हर रोज हज़ारों हज़ारों की भीड़ कोचिंग सेंटर्स में पहले क्लास लेती है , फिर मॉक टेस्ट देती है । वहाँ बड़े बड़े प्राइवेट हॉस्टल है , जिनमें प्लाईवुड के टुकड़ों से फ़ॉन्ट कर मुर्गी के दड्बो जैसे पार्टीशन बने होते है। बेरोजगारों को किफायती रिहायशगाह उपलब्ध कराने वास्ते। वहाँ देश के कोने कोने के लड़के लड़की मिलेंगें | एक ही ख़्वाब लिए : ऊँचा सरकारी ओहदा। </p><p>एक परिचय के दौरान एक लड़के से रहा नहीं गया और बिना किसी लाग लपेट वह मुझसे बोला " आपकी तो उम्र निकल ली भईया जी !"मैंने बताया कि मैं किसी प्राइवेट फर्म में जॉब करता हूँ, यहाँ तैयारी के वास्ते नहीं आया। उनमें से कोई संवेदनशील था , मैं बुरा महसूस न करूँ इसलिए बोला " कोई ना भईया जी , प्राइवेट जॉब भी ऐसी माड़ी न है आजकल! "|ढांढस के लिए मैं शुक्रगुजार था !</p><p>फिर मुझे कई लोगो से मिलवाया गया " देखो भाई साब , वो भईया जाते है न , इनका इनकम टैक्स में सब इंस्पेक्टरी में हो गया | इन भईया का सी आर पी आफ के कमांडेंड के लिए हो गया , लेकिन नहीं जा रहे !कुछ और भी बड़ा करेंगे |"</p><p>और मुखर्जी नगर की तंग गलियों से गुजरता वह आदमी कुछ ऐसे हाव भाव लिए होता जैसे विराट कोहली शतक मार पवेलियन को लौटता हो !फिर शतक से कम भी तो नहीं, लाखो की भीड़ में कुछ चंद ख़ुशनसीब ही होते है , बाकी बस विद्रोही ही रहते है। क्रूर है पर सत्य है , लाखो जवानियाँ यूँ ही खप रही है। </p><p>ऐसे ही किसी एक हॉस्टल में मैंने आज तक की सबसे पावरफुल मोटिवेशनल लाइन पढ़ी जिसे किसी ने अपनी स्टडी टेबल के सामने चस्पा किये हुए था " नौकरी नहीं तो छोकरी नहीं !"</p><p>मुखर्जी नगर की इन्ही तंग गलियों में मैं 'विद्रोही लड़कियों ' से भी रूबरू हुआ। </p><p>थोड़ा ज्यादा कमा लेनी की चाह में मैं परदेस में रहा हूँ और सिंगापुर में मैंने हर रोज छोटे से भी बेहद छोटे कपड़ों में युवतिओं को देखा है। इस कदर छोटे कि यूँ ही बस या ट्रैन में चढ़ते उतरते , बिना इच्छा ,बिना प्रयास नितम्ब के जोड़ तक नुमाया हो जाते हैं । 'ओवर एक्सपोज़र' इस कदर होता है और इतने लघु अंतराल पर होता रहता है कि रूचि कब अरुचि में तबादला पा लेती है ,एहसास भी नहीं होता। फिर आप दृश्य को ऐसे ही भावशून्य हो देखते है ,जैसे कोई पेड़ या कोई लैम्प-पोस्ट या कोई फुटपाथ की चिकनी रेलिंग।लेकिन मुखर्जी नगर में सब्जी , फलो के ठेलो पर , या पानी-पूरी के अड्डों पर जब मैंने उन लड़कियों को ऊँचे और सस्ते निक्कर पहने खड़े पाया तो मैं हतप्रभ हुए बिना न रह सका। </p><p>समाज में दर्शन के भी कुछ अलिखित नियम है | जो आदमी पर कम, स्त्रियों पर ज्यादा लागू होते है।मतलब, टांगे नंगी तो हो सकती है पर 'वेल ग्रूम्ड' ,खूबसूरत होनी चाहिए। निक्कर छोटे हो सकते है , लेकिन डिज़ाइनर और महंगे होने चाहिए!लेकिन खुली गलियों में ठेलो पर दो दो तीन तीन के गुटों में खड़ी उन लड़कियों की नंगी टाँगे ,जिन पर पुरुषों जैसे ही बाल थे , पुरुषो को जैसे दुत्कारती थी। गोल गप्पे खाते कई हाथ नाजुक नरम जरूर थे लेकिन मैंने पाया कि उन पर मेरे हाथों जितने ही बाल थे। दबाने ढकने का प्रयास था ही नहीं। सन्देश साफ़ था , जैसा चाहते हो वैसा नहीं चलेगा। </p><p>उन दृश्यों में मैं थोड़ा भयभीत था। मैं पुरुष एक ऊँचे पायदान पर खड़ा था और निचले पायदान से लम्बी डिग भर कोई स्त्री मुझे मेरे पायदान से धक्का दे एक तरफ खिसका अपनी जगह बना रही थी। हाँ हाँ, वो विद्रोह था। स्त्री नें रूप और श्रंगार को अपना औजार बनाने से इंकार कर दिया था। एक ही जैसे नियम के खेल खेलने को कमर कसी जा रही थी | किनारे टूट रहे थे। खांचे चटक रहे थे। आपकी राय हो सकती है कि क्या यह सब ही पुरुष कि बराबरी में खड़े होने के लिए जरूरी है? </p><p>ऐसा कर स्त्री पुरुष तो नहीं बनना चाह रही ? चेतना में परिवर्तन बहुयामी होते है| बाहर का दर्शन अंदर के दर्शन से प्रभावित तो होता ही है। मुझे लगता है कि जो स्त्री बिना मूछें छिपाये पुरुष के सामने आने का दम रखती है वो बराबरी की लड़ाई में किसी हद तक भी जाएगी। आपने 'दीपिका' , 'प्रियंका' वाला ग्लैमरस नारी सशक्तिकरण सुना पढ़ा होगा। नारी जब खुद के पंजो पर खड़े हो हक़ मांगती है ,उसकी असली तस्वीर देखनी हो तो मुखर्जीनगर चले जाइए । </p><p>हाँ, संज्ञान रहे , अगर ठेलो वाली तंग गलियों में कोई स्त्री आवाज़ खांटी हरियाणवी में दुत्कारते हुए बोले "परे हट के नें खड़े हो ले बहन के भाई !" , तो मर्दानगी के सुरूर में फड़फड़ाइयेगा मत , चुपचाप रास्ता दे दीजियेगा! </p><p> </p><p><br /></p><p> #WomenEmpowerment #HindiShortStory</p><p><br /></p><p> </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-22999308424543612962020-10-10T06:11:00.009-07:002020-11-12T02:37:57.919-08:00 बिरादरी का आदमी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixzU_XB6XLmizm8f_CAPDmVXTQ2Eluru5xMN0EBqDNl5IA0wqvfEDID-53_9tD6-0_eXXDBvCSwFY4HADk8YMmcc9ii1G29Aq9rarsvCaNOe4LDVWUOcw29tq0Kn8SP1mqqhIyqICvUKA/s225/inquallab.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="225" data-original-width="225" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixzU_XB6XLmizm8f_CAPDmVXTQ2Eluru5xMN0EBqDNl5IA0wqvfEDID-53_9tD6-0_eXXDBvCSwFY4HADk8YMmcc9ii1G29Aq9rarsvCaNOe4LDVWUOcw29tq0Kn8SP1mqqhIyqICvUKA/w400-h400/inquallab.jpg" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p>लाल ईंटो का खड़ंजा , जो काले डामर की सड़क को गांव से जोड़ता था , भरा जा रहा था। खड़ंजे पर गाय भैंस के गोबर और नाली के सूखे कीचड से बनी पपड़ी पर छोटे -बड़े , कुछ नंगे तो कुछ चप्पलो में घुसे पैर बदहवास , धड़धड़ाते चले जा रहे थे। "अरे म्हारी ससुआ के अंधाधुन्द भगामै हँगे !" बल्लू काका अनजान ड्राइवर पर खीज रहे थे और जितना शरीर सहयोग करता था , उतनी रफ़्तार से नौजवानो की भीड़ के पीछे पीछे घिसटते चले जा रहे थे।</p><p>कसबे की हाट से लौटते मुसाफिरों का 'टम्पू' , नहर के पुल के पार एक खेत में , खेत जो की सड़क से कम से कम पांच फ़ीट गहरा था , पलट गया था । तीनो टायर आसमान की ओर। आलू - गोभी , पॉलीथिन में बधे मसाले , नन्ही बारीक मछलियां , काली थैलियों में बधे मॉस के टुकड़े , लाल दवाई की शीशियां , जूते चप्पल ,सब छितराये पड़े थे। हड्डी पंजर तो कई के टूटे, पर एक बूढ़ा आदमी , जो छिटक कर दूर सरकंडो के झुण्ड में जा गिरा था , उसने कुछ देर हाथ पैर फ़ेंक छटपटाना बंद कर दिया था । लम्बी , हिना में पुती दाढ़ी गालों के दोनों कुओं को ढके हुए थी , साफ़ लेकिन पुराना कुरता डाले था। दुर्घटना के बाबजूद तेहमन्द अपनी जिम्मेदारी संभाले सूखी टांगो को ढ़ापे था। </p><p>"चलो कोई ना , बुढ़ाई की ढिमरी तो एक दो साल में वैसे भी बुझ ही जाती !" कोई धीमे से फुसफुसाया था और फिर उतनी ही धीमी आवाज़ में किसी ने 'हम्बे !' कह कर समर्थन किया था । किसी ने पहचान लिया और कुछ देर बाद पास के गांव के जुलाहे चले आये। कुछ रोये | अपने के जाने पर कौन नहीं रोता। सड़क की पालट पर खड़े एक आदमी ने , जो उनमे से ही एक था और इल्मदार था , बीड़ी का कश लगा बोला " बस जी , इत्ती ही लिखा के लाये थे चचा। बहाना तो कुछ न कुछ बनता ही है , ऊपर वाले की जो मर्ज़ी | " और फिर उसने अपने हाथ इबादत में आसमान की ओर उठा दिए । फिर जुलाहों का झुंड अपने बूढ़े की मिटटी को ले शाम के झुकमुके में खो गया ।</p><p>बल्लू काका का गुस्सा नाजायज नहीं था। दरअसल ,दर्जन भर गावों को राष्ट्रीय राजमार्ग से जोड़ती ये सड़क कई सालो से जर्जर थी।सरकार की मेहर हुई , चौड़ी हो गयी और बेहद चिकनी भी । अचानक से नए खून के लौंडे अपना आपा खोने लगे। कानो में मोबाइल फ़ोन की लीड घुसेड़े और रेस का तार पूरा खींच कोई नौजवान फर्राटे मारता निकलता तो कोई बुजुर्ग भी आपा खो बैठता " ऐ देखो , ऐ देखो , खुद भी मरेंगे भेन्ना $$ के , और दूसरो को भी मारेंगे। "</p><p><br /></p><p>मड़ैया के बागबां मंडी में सब्जी बेच बाकी बची आलू प्याज़ के साथ लौटते थे। ठीक उसी ठोर पर मिनी ट्रक पलट गया। एक जवान चला गया। कई रोये और बड़े बदहवास हो रोये। पर उनमे से एक जो काफी समझदार था , चैक की फुल बाजू बुशर्ट और नीचे पजामा पहने था , उसने खेत की पालट पर खड़े हो कहा " देखो जी , जिसकी जहाँ लिख दी , उसकी वहाँ आनी है, अर जैसे लिख दी , वैसे आनी है। "उसने आसमान की ओर ऊँगली उठा दी और भगवान पर लगभग तोहमद जड़ते हुए जोड़ा " जैसी उसकी मर्जी !"और फिर बगवानों का वो नर झुण्ड , बगवान जिनसे प्याज़ , शलजम और पसीने की घुलमिली बू आती थी और जिनके पाजमो की अंटियों में बाजार में कमाए कुछ गुड़मुड़ मैले नोट और सिक्के बधे थे , वो बगवान यूकेलिप्टीसो के बाड़े के बीच से जाने वाले कच्चे रास्ते पर उतर गए। </p><p> </p><p>आपको क्या लगता है कि भारत के गाँवो में "घनन घनन घन घिर आये बदरा " पर नंग धडंग हो इन्दर देवता को रिझाने वाले लोग बसते है ? ऐसा नहीं है , ये बस फ़िल्मी चित्रण है , देखने में अच्छा लगता है | सोचने समझने वाले लोग गावों में भी है | मंत्रणा हुई , बड़ी पाखड़ तले , सोचने समझने वाले छोटे बड़े दिमागों में रस्सा कसी हुई। विचार हुआ कि आखिर इसी जगह हादसे क्यों और वो भी इतने कम अर्से में ।</p><p>किसी बूढ़े ने कुछ कहा तो पीले रंग और कमजोर हाड का जीतू अपनी वाणी का संतुलन खो बैठा। उसने सलेटी रंग की टीशर्ट पहनी थी जिस पर चे गुएवारा की फोटो छपी थी। किसी क्रांतिकारी की तरह उबला " अजी जमराज काहा , गधैय्या की पूच !!"</p><p>फिर सँभलते हुए वो खड़ा हुआ बोला " देखो , मसला ऐ है कि नहर के पुल का ढाल है तेज और फिर ढाल ख़तम होने से पहले ही आ जावै है मोड़ "</p><p>" यूँ होया करै है कै जो पुराना ड्राइवर है उ हौले सै निकाल लेवे है अर जो नौसिखिया हौवे है उ मात खा जावै है। "</p><p>"फिर सड़क की दोनों ओर पुश्ते भी तो नाय बंधे है ?"</p><p>सबको बात जँची, और फैसला हुआ कि मजिस्ट्रेट के यहाँ दरखास (प्रार्थना पत्र ) लगाई जाए जिसपर गांव के हर जात हर मोहल्ले के आदमी के दस्तखत हो। किसी ने चिंता की कि जायेगा कौन तो जीतू फिर बोला " जाने कि जरूरत क्या है , सब काम ऑनलाइन है , शिकायत पोर्टल पे सीधे एप्लीकेशन लगाओ , सात दिन में शर्तिया कार्यवाही! "</p><p>जागरूक और पढ़े लिखे नौजवान लोक निर्माण विभाग से जबाब मांग रहे थे। और जबाब आया भी , ठीक सात दिन बाद! लोक निर्माण विभाग के क्लर्क ने लिखा " चूँकि मामला पुल से जुड़ा है , अतः आप सेतु निर्माण विभाग में अर्जी देवें | " सेतु विभाग वालों ने लिखा " चूँकि मामला सड़क के मोड़ का है ,अतः लोक निर्माण विभाग को ही अर्जी देवें |"</p><p>गांव वाले समझ गए कि सरकारी बाबुओ ने मामले के साथ फूटबाल फूटबाल खेलना शुरू कर दिया है | जागरूक लोगो ने प्रतिक्रिया दी " लोक निर्माण विभाग , सेतु विभाग मिलकर मामले का संज्ञान लेवे , अर्जी की कॉपी मुख्यमंत्री ऑफिस में प्रेषित की जा रही है | कार्यवाही न होने पर ग्रामीण धरना देने को बाधित होंगे | "</p><p>तब जाके सरकारी बाबुओ में कुछ हडकल हुई | जबाब आया " नियत स्थान का सर्वेक्षण किया गया तथा निर्माण में किसी भी तरह की अनियमितता नहीं पायी गयी | स्थान पर कुछ दुर्घटनाओं का होना महज एक संयोग है | "</p><p>महज एक संयोग !सबको पता था , जबाब से कोई हतप्रभ नहीं हुआ | हिन्दुस्तान में आप ऑनलाइन लाइए या ऑफलाइन , सरकारी बाबू सबका भरता बना देते है | सतही व्यवस्थाएं बदलती रहती है , चीज़े अपने ढर्रे पर ही रहती है | </p><p>बड़ी पाखड़ तले फिर चर्चा हुई | विचार हुआ कि सरकारी मुलाजिमों का जबाब तो सबको पता ही था | लेकिन जब पुल बनता था उसी वक़्त गांव में 'बड़े' क्यों सोये रहे | दिखता नहीं था कि ठेकेदार मिट्टी कम डालता रहा , डामर खाता रहा और सड़क की पालट बांधे बिना ही ठेका पास करा ले गया | जवान शहरों में कमाते थे लेकिन बुजुर्ग ? तभी विरोध क्यों नहीं हुआ ?</p><p></p><p>काफी देर सन्नाटा रहा | "अहह , अरे उ .. अरे उ ठेकेदार अपनी बिरादरी का आदमी था यार !" किसी बुजुर्ग ने बीड़ी का कस लेते हुए कहा था | </p><p>और फिर सर्वसम्मति से तय हुआ था कि मामले को अब छोड़ा जाए और जैसे 'ऊपर वाला' रखे वैसे ही रहा जाए !!</p><p><br /></p><p> सचिन कुमार गुर्जर </p><p> #castesystem , #babudom , hindishortstory</p><p><br /></p><p> </p>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-19962392253661487382020-10-08T01:17:00.016-07:002020-11-08T01:57:45.606-08:00सब कुछ <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwgUEsy1pPq5taoYYJ9ei5GK8vVNFZlYvaGFjqkoP0Aeci7CGE6k3Lk8QFd3RW6FJ3kOkQG7mzLMuRtT-ZIFPFaCx9GDhclwaNCxHfLOzGDvevZ7b9TGJATAGQ7Hhpx0wlXBmZ5y0gjxU/s2048/20201008_163324.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1769" data-original-width="2048" height="345" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwgUEsy1pPq5taoYYJ9ei5GK8vVNFZlYvaGFjqkoP0Aeci7CGE6k3Lk8QFd3RW6FJ3kOkQG7mzLMuRtT-ZIFPFaCx9GDhclwaNCxHfLOzGDvevZ7b9TGJATAGQ7Hhpx0wlXBmZ5y0gjxU/w400-h345/20201008_163324.jpg" width="400" /></a></div><p><br /></p><p>"तो क्या आजकल अकेले रहते हो ?"</p><p>" हाँ , अकेला ही हूँ काफी समय से "</p><p>"अरे वाह , ऐश करो फिर तो !"</p><p> हमेशा से ही मुझे ये लगता रहा है कि यह एक तरह का तकिया कलाम है , जिसे लोग- बाग़ यहाँ- वहाँ, गाहे बेगाहे इस्तेमाल करते है। बिना मतलब , बस यूँ ही ,शायद बातचीत का खालीपन भरने के लिए। </p><p>लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि नाना प्रकार के लोगो से नाना प्रकार की बातचीत में ये सलाह बार बार नुमाया होने लगी । जिज्ञासा हुई , लगा कि ये अकेले रहने में और अकेले होकर ऐश करने में कुछ तो ऐसा है जिससे मेरा चित्त अनभिज्ञ है। कुछ है जो छूट रहा है। कुछ ऐसा जिसका किस्मत अवसर दे रही थी लेकिन मैं मूर्ख भांप नहीं पा रहा था! मेरे सामाजिक जीवन का दायरा बहुत छोटा है पर है मेरे आस पास ऐसे लोग हमेशा विराजमान रहे है जिनसे सलाह मसविरा किया जा सकता है !</p><p>सिंगापूर में मेरे ऑफिस की काले शीशे की सपाट , ऊँची ईमारत कुछ ऐसी थी जैसे कुछ पांच या छै कार्डबोर्ड के चौकोर बक्सों को तले-ऊपर जमा दिया जाए और फिर बीचो बीच के एक बक्से को खींच कर अलग कर दिया जाए। ईमारत में खुद की एक कैंटीन हुआ करती थी लेकिन शाम के समय अधिकांश लोग दो चार , दो चार की टुकड़ियों में लालबत्ती के उस पार बने मॉल में चले जाते । एक तो पैर सीधे हो जाते और फिर मॉल के फ़ूड कोर्ट में खान पान के विकल्प भी ज्यादा होते ।</p><p> ऑफिस में एक मित्र थे , बहुत घनिष्ट नहीं पर कई बार जब चाय के लिए बेहतर संगत का अभाव होता तो कभी हम एक दुसरे से पूछ लेते।लम्बे कद के इस इंसान को मैंने हमेशा टीशर्ट और क्रीज जमी हुई पेंट में पाया। नीचे कुछ पुराने हवादार चमड़े के सैंडल पहने होते ,मय जुराब। सिर पर बालो की फसल कही से उजड़ी , तो बकाया जगह से पकी हुई थी । पेट निकला हुआ लेकिन कद लम्बा होने के चलते गेंद जैसा आकार लेने की बजाय यह एक वलय आकार लिए हुए था । कसरत के अभाव में हाथ काफी पतले थे और ऐसा आभास कराते थे जैसे किसी ने लम्बी पकी लौकी में, जो ऊपर से पतली और नीचे मोटी हो , उसमे दो सपाट लकड़ी की कम्मचिया घुसेड दी हो। शायद हफ्ते में एक बार शेव करने वाले , चालीस जमा की उम्र के उस इंसान के हाव भाव , प्रस्तुतीकरण को देखकर लगता कि वो शख्स अपने हिस्से की उम्र जी चुका था , अब बस जो भी करना था , बच्चो के लिए करना था ।</p><p>अक्सर ऐसा होता कि जब भी मैं पूछता " चाय के लिए चलोगे ?" तो कभी अकारण एक हाथ से दूसरा हाथ खुजा तो कभी दो उँगलियों से सिर की चाँद खुजा जबाब मिलता " अच्छा , रुको , पांच मिनट दे दो। "उस दिन ऑफिस से निकल ,ग्रीन हेज के किनारे किनारे चल ,हम लाल बत्ती पर खड़े थे , ट्रैफिक रुकने के इंतज़ार मे। </p><p>"वीकेंड पर क्या करते हो " मैंने पुछा। </p><p>अपनी उदेड़बुन से बाहर आते हुए मित्र ने कहा " ऐसे ही निकल जाता है , कुछ अच्छा पका लिया , कोई मूवी देख ली या कुछ पढ़ लिया या आस पास घूम आया , शाम को बैठ के बियर पी ली। "</p><p>"अच्छा , तो फॅमिली उधर देश में ही है क्या ?"</p><p>"हाँ , काफी समय से "</p><p>"और तुम्हारी ?"</p><p>मैंने कहा " हाँ , मैं इधर अकेले ही रहता हूँ "</p><p>मैंने पाया कि मित्र की भाग भंगिमा अचानक से बदली और वो बड़ी तर तबियत लिए बोले " सही , बहुत सही , ऐश करो फिर तो !"</p><p>फ़ूड कोर्ट के लिए एस्कलेटर चढ़ने से थोड़ा पहले एक किताबो की सेल लगी थी। एक बुक थी : दी कलेक्टेड स्टोरीज ऑफ़ इस्साक बबेल। पिछले ही दिनों विकिपीडिया पे कुछ पढ़ते पढ़ते मैंने बबेल के बारे में कुछ पढ़ा था। मैंने किताब उठा ली और हम फ़ूड कोर्ट की किनारे की टेबल पर आ जमे। </p><p>चाय की एक चुस्की ले और फिर शीशे से बाहर घास के लॉन और उसके किनारे बने जापानीज फिश पोंड पर एक सरसरी नज़र मार मैंने पुछा " एक बात बताओ यार , ये ऐश करना क्या होता है ?"</p><p>मित्र ने जबाब देना जरूरी नहीं समझा , एक हलकी सी हंसी जिसने कोई ख़ास ऊर्जा नहीं थी , हंसी और फिर चाय में मशगूल हो गए। </p><p>"नहीं , गंभीर सवाल है ये , 'ऐश करना ' है क्या ?"</p><p>"मैं इसलिए पूछ रहा हु कि ऐश करना अपने आप में एक ऐसा जेनेरिक सा टर्म है जो मुझे लगता है कि लोगबाग बस यु ही बोलते हैं |"</p><p>चूँकि मैंने काफी तबज्जो दे कर बात को दोहराया था इसलिए अब मित्र ने कुछ रूचि ली। </p><p>"देखो , हर किसी का अपना अपना मिजाज होता है। उसी के हिसाब से आदमी ऐश करता है। "</p><p>"आदमी के अपने इंटरेस्ट होते है , अब तुम फॅमिली में हो , जिम्मेदारी से घिरे हो , या कई बार दबाब होता है , काफी कुछ करना चाहते हो , नहीं कर पाते "</p><p>"काफी कुछ मतलब ? " मैंने पुछा। </p><p>"काफी कुछ मतलब ऐश यार !"</p><p>अब मुझे झुंझलाहट हुई , मैंने मुठ्ठी का एक झूठा प्रहार बबेल के चेहरे पर किया और बोला " सर सर।। वही तो मैं पूछ रहा , ऐश करना होता क्या है ?"</p><p>उस आदमी को लगा जैसे मैं उसका इंटरव्यू ले रहा हूँ। </p><p>कुछ देर उसने मेरे चेहरे को ऐसे देखा जैसे ये जानने कि कोशिश में हो कि सामने बैठा मैं भरोसे का आदमी हूँ कि नहीं। </p><p>" अच्छा खाना , दारु पार्टी , घूमना फिरना , अपने हिसाब से टाइम स्पेंड करना , यही सब "</p><p>फिर कुर्सी को पीछे कर एक आधी अंगड़ाई लेते , तिरछी शरारती मुस्कान में बोला "या फिर अगर तुम्हारा इंटरेस्ट स्त्री जाति में है तो।। " </p><p>"कहा कहा घूमे हो , ये बताओ ? " उसने मुझसे पूछ। </p><p>"एक बार लंगकावी , एक बार फुकेत और आस पास के आइलैंड्स बस यही " मैंने बताया।</p><p>"कभी फिलीपीन्स गए हो , सीबू या मनिला , हूह ?" </p><p>"नहीं मैं तो नहीं और तुम? "</p><p>"हाँ , कई बार !"</p><p>"साउथ ईस्ट एशिया में कही भी जाओ , वही 'बीच' और वही 'सी फ़ूड' , सब एक जैसा ही है " आधे अधूरे अनुभव के सहारे मैं चतुर बनने की कोशिश में था। </p><p>"नहीं , नहीं , नहीं " मित्र ने काफी जोर से विरोध किया और मुठ्ठी मेज पर दे मारी। </p><p>"वहाँ सब कुछ सस्ता है , सब कुछ मतलब सब कुछ | वो भी फुल दिन !समझे कुछ ? अररर्र अररर्र बाकि जगहों से काफी सस्ता !"</p><p>फिर थोड़ा रुक कर जोड़ा " और सब काम काफी प्रोफेशनल तरीके से होता है !"</p><p>बाहर जापानीज पोंड में कुछ पीली तो कुछ लाल तो कुछ चितकबरी मछलियों और टर्टल्स को एक दंपत्ति कुछ चारा खिला रहा था और दो छोटे छोटे चीनी बच्चे मछलियाँ देख ख़ुशी से कूद रहे थे। </p><p>चाय की आखिरी चुस्की ले और मेज में एक बार फिर ताल ठोक मित्र ने कहा " शर्त के साथ कह सकता हूँ इंडिया के किसी भी कोने में उस तरह का एक्सपीरियंस मिल ही नहीं सकता। वहाँ सब कुछ बड़े प्रोफेशनल तरीके से होता है , सब कुछ !!!!"</p><p>ये कहते हुए मित्र ने अपनी आँखो को कुछ इस कदर आसामान की तरफ तरेरा कि लगा कही गुल्ले आँखों के किनारे तोड़ सीबू के लिए ना उड़ जाए ! </p><div><div>वापस लौटते हुए मेरा व्यथित चित्त कुछ सुकून में था। 'ऐश करो ' को परिभाषा में बांधने में अभी समय और दूसरी कई वार्ताओं का लगना बाकी था पर ये जानकार कि मेरी जमीन का आदमी 'सब कुछ ' करने फिलीपीन्स तक जा रहा है , मेरा सीना चौड़ा हुए जा रहा था!</div></div><div> सचिन कुमार गुर्जर'</div><div> 8 अक्टूबर २०२० </div><div><br /></div><div> </div><div> #men will be men</div>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-27301602752478041972020-09-28T19:50:00.016-07:002021-02-20T23:39:47.197-08:00बिरजू का बिहा<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhG0KDYrb28FEb0XUdsw_tQemrVN1T2CcaphZJKgotb2i8ZeD8YAJ6i7uXXB9F4sPcDVkcwn7VHvOjsM7BqwoUsMdrZ_9JIuxiXzTGe3F2ZNY4s2H0s_Ad-tiMs-DvjrDwoBKO4-5W7C2Q/s507/Aqua_Power_HD_20161027_122719_1__19172.1482931910.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="507" data-original-width="500" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhG0KDYrb28FEb0XUdsw_tQemrVN1T2CcaphZJKgotb2i8ZeD8YAJ6i7uXXB9F4sPcDVkcwn7VHvOjsM7BqwoUsMdrZ_9JIuxiXzTGe3F2ZNY4s2H0s_Ad-tiMs-DvjrDwoBKO4-5W7C2Q/w395-h400/Aqua_Power_HD_20161027_122719_1__19172.1482931910.jpg" width="395" /></a></div><br /> </div><div> <b> I</b></div><div> गांव में पश्चिमी छोर पर , खदाने के उस पार , गूजरो के ऊँचे दालान से धुआँ उठ रहा था। गाय भैंसो का झुण्ड सुबह से गायब था | शायद उन्हें दालान से हटा पिछवाड़े के नीम तले बांध दिया गया था | किराये के रंगीन तरपाल टंगे थे , जिनमे कुछ नए नीले तो कुछ थेक्ली लगे, बदरंग पुराने थे | उन तरपालों को जब पछुआ का झोका छेड़ता तो उनका गठजोड़ कुछ ऐसे फड़फड़ाता जैसे कोई अनाड़ी ढोल पीटता हो। </div><div><div>हीर रांझे के किस्से की कोई रागनी बज रही थी ,<span style="background-color: white; font-family: Mangal; font-size: 16px; white-space: pre-wrap;"> </span>किसी सस्ते और पुराने टेप रिकॉर्डर पर ।</div><div> " रात मेरे सपने में चिनवा दे गई हीर दिखाई रे , </div><div> आंख खोल के देखन लागा फेर नहीं वा पाई रे| </div></div><div> .......</div><div><div> हीर र र र र......"</div></div><div><br /></div><div>अल्मुनियम के बड़े दैत्याकार भगोने ,बांस की लकड़ियों के जोड़ से बनी कामचलाऊं पकडन में गर्दन फंसाये , कुछेक सीधे तो कुछ औंधे पड़े हुए थे। औंधे पड़े भगोनो के मुँह से लपटे सूती छन्नो से रिसता मांड नालियों में ऐसे बह रहा था जैसे गाढ़े गरम लावे पर किसी ने सफेदी पोत दी हो। काले, कवरे ,लाल और भूरे , कुछ नाम वाले तो कुछ बेनाम , ऐसे सारे आवारा कुत्ते बिना न्योते की बाँट जोहे, नाली से गरमागरम मांड की दावत उड़ा रहे थे। </div><div>"औ काका सुनो हो , मिर्च कम रखियो इस बार। चेता के लौंडे के बिहा में उड़द की दाल में इतनी मिरच ही , कै कै पब्लिक ने खाया कम, पानी ज्यादा पिया| " किसी उत्साही आवाज़ ने खानसामे को चेताया था | </div><div>नेतराम का छोटा लड़का जिसका कागजी नाम बलदेव था वैसे, पर मोटी अकल और जानवर जैसे शरीर के चलते सामने से बल्लू तो पीठ पीछे बैल कहके पुकारा जाता था, उसी का बिहा था। कुछ शराबी भरी दुपहरी में धुत्त कभी नाली में लौट-पोट तो कभी गोबर के घूर में बिस्तर का आराम फरमाते, पूरे गांव का मनोरंजन कर रहे थे । </div><div><br /></div><div>मंढे की दावत का बुलावा देने को नाई जब चला तो नेतराम ने किसी चक्रवर्ती राजा की तरह चारों ओर हाथ घुमा कहा " सुन रे नाई के | गुजर , बनिए , कुम्हार , चमार , गडरिये , बगवान अरर.. मुसलमान , सात जात है इस गाम मे| कोई घर छोड़िये ना | पीढ़ी का आखरी बिहा है , सबकी ही दावत है !"</div><div>पूरा गांव खुश था| बड़े और छोटे सबके पेट चावल बूरा , मसालेदार उड़द के लिए गुडगुडा रहे थे। </div><div><br /></div><div><div>पर ऐसा जान पड़ता जैसे बासमती की खुशबु में लिपटा वो धुएं का बादल आसमान की ओर ऊर्ध्वाधर होने की बजाय यूकेलिप्टिस के झुरमुटों में बसे रामवती के आँगन में उतरा जा रहा हो | </div><div> ऊँचे दालान से वो उठता ख़ुशी और कहकहो के साथ ,पर जब रामवती के आँगन में उतरता तो घर में बसने वाली आत्माओ को जलाता , सुलगाता| | बूढी , जवान, सब आँखों को चिरमराता। </div></div><div>कच्ची पक्की अनघड़ हाथो से बनी दीवार जिसे गाय के ताजे गोबर से लीपा गया था , दो बड़े हवादार मोखले खुले थे , उसी दीवार और कोई चार पांच आडी तिरछी लकड़ी की टेकनो पे टंगे छप्पर तले रामवती का परिवार जमा था |</div><div>इधर उधर की बातें कर बड़े लड़के ने कहा " तो बताओ , क्या राय है तुम सब की , दावत में जाया जाये कि नहीं ?"</div><div>सब चुप रहे तो मंझले ने कुछ तो बोलना लाजमी समझा , बिना वजह सिर खुजला के बोला " कैसे ही कर लो हमारे जाने | सब की मर्जी हो तो जाएँ नहीं तो ना जाए | "ये बिना मतलब की, सिर्फ बात को आगे बढ़ाने वाली बात थी | </div><div><br /></div><div>तीनो लड़के , बड़ा रणपाल , मंजला नेपाल और छोटा बिरजू , सब जानते थे कि असल फैसला तो माँ से ही आना है | पिता जी थे , तीसरी खाट पर बिराजमान थे पर बुढ़ाते और बेहद सीधे मिजाज के बाप का ओहदा किसी काठ के पुराने लट्ठे जैसा था , जो आती जाती बरसात गरमी में गल चुका था ,किसी काम का ना था , बस स्थान भर घेरता था | </div><div><br /></div><div>"जाना तो चाहिए लल्ला , नेतराम से हमारा कैसा बैर | बिरादरी से मुँह फेर के किसकी गुजर हुई है| " रामवती का तुजर्बा बोल रहा था | </div><div> लेकिन ये कहना अलग बात थी उस पर अमल करना एक अलग बात | </div><div>कुछ दिन पहले ही तो चेता के लड़के की दावत में ये हुआ था जब दावत खाने को बैठी भरी पंगत में मुंहफट कन्हाई ने अट्टहास किया था " औ रणपाल , अरे भले मानस पूरे गांव में दावत उड़ाओ हो , कभी अपने घर भी खिलाओ | "</div><div>और जो बन पड़ा वो जबाब दे रणपाल चला आया था | </div><div>ये बात हंसी मज़ाक की हलकी फुल्की बात मानी जाती| पर परस्थिति कुछ ऐसी थी कि रामवती के घर में पिछले दसो सालों से कोई कारज न हुआ था | बिरजू कब से जवान था , उम्र ढलान पकड़ रही थी पर उसका बिहा न होता था | कन्हाई तो एक मुंहफट आदमी था उसका क्या | पर इन परिवारजनों को खुद ही एक अपराध बोध सा रहता था | बिरजू की शादी न हो पाना समाज में एक तरह का अपमान तो था ही | </div><div> </div><div> </div><div><div>'जख्म में नमक ' वाली बात ये थी कि ये जो नई बिहाता नेतराम के लड़के के घर आ रही थी , बिरजू से इसका लगन लगभग तय हो गया था | </div><div>अहह... उस दिन रामवती कजइतन होती , बासमती के भगोने उसके आँगन में लुढ़के होते | सबसे बड़ी बात उसकी परलोक जाने से पहले की आखिरी इच्छा पूरी हो गयी होती | </div><div> अगर और अगर उस करमजले कन्हाई ने भांजी ना मारी होती |</div><div>खैर, मलाल और दर्द अपनी जगह , बिरादरी में खान पीन , उठा बैठ अपनी जगह | </div><div>अपने नील लगे कुर्तो को निकालने का आदेश दे मर्द सरकारी नलके पर नहाने चले गए थे | दावत में शामिल होना तय हुआ था | </div><div><br /></div><div> </div><div> <b> II</b></div><div><b> ***</b></div><div><div>बिरजू काया से सुकुमार था | लम्बा कद , मजबूत कंधे ,खड़ी रोमन नाक , सुर्ख रंग | अभी तक उसके गालों पर छोटे बच्चो जैसी लाली थी | </div><div>उसकी आँखे दीये जैसी बड़ी बड़ी और इस कदर नशीली कि किसी को जी भर कर देख ले तो कलेजा खींच ले जाये | </div><div>सच तो ये है कि रामवती जहाँ दिन रात अपने राजकुमार से बेटे के बिहा की आस बांधती, वही अंदरखाने दोनों बड़ी बहुये नहीं चाहती थी कि बिरजू का बिहा हो | जमीन कम थी, क्यों एक और नया हिस्सेदार खड़ा किया जाए ! </div><div>रामवती ढोर डंगरो या खेत खलियान में जमी होती तो दोनों अपने अपने तीर आजमाती | मीठी चासनी में डुबो बातें सुनाती , रिझाती | कुछ अच्छा सा पका बच्चो के हाथ देवर तक पहुँचाती| कभी सीधे ,कभी घुमा फिरा बिरजू की तारीफों के पुल बांधती | </div><div>अजी सगी भाभियों का छोड़ो , बिरजू कभी बाहर निकलता तो मौका पा अड़ोस पड़ोस की स्त्रियां भी अपना जी हल्का कर लेती | </div><div>कोई शिकायत करती " तम तो निगाह भर देखते तक न बिरजू , भले मनसो , आ जाया करो कभी हमारी लग भी !"</div><div>तो कोई किसी बहाने खीर का कटोरा बिरजू को थमा जाती | </div><div>बिरजू सबको एक रस देखता , सबकी सुनता , सबके छोटे बड़े काम करता | कोई बोलती, बोल लेता | कोई खिलाती , खा लेता | कोई सुनाती , सुन लेता | </div><div>असल में औरतों में बिरजू को कोई विशेष आसत्ति थी नहीं !</div><div><br /></div><div>उसका एक ही शगल था | चारपाई पर पैर पसार , कच्ची भीत से कमर चिपका कर बैठ जाना और घंटो शून्य में ताकते रहना | </div><div>और वह ऐसा तब तक करता रहता जब तक रामवती उसे खरी खोटी सुना गाय भैस दुहने न भेज देती | </div><div>बी ए पास था | सिपाही , वन दरोगा , पटवारी , आग बुझाने वाली पुलिस , स्कूल चपरासी , रेलवई , हर तरह की सरकारी मुलाजमी को उसने अर्ज़ी दी थी | </div><div>पर सरकारी उसे मिली नहीं , प्राइवेट उसने की नहीं ! बस इसी में उम्र निकलती चली गई | </div><div>ज्यादा सोचने की उसकी चित्तवृति थी नहीं | </div><div><br /></div><div><br /></div><div>सोचने का जिम्मा रामवती के मत्थे था | दिन रात सोचती | </div><div>कोई रिश्तेदार आता तो जरूर कहती "सुंनियो रिश्तेदार , बिरजू की उम्र निकली जावे है | मैं कब तक हूँ | लगाओ कही जुगत | इतनी बड़ी बिरादरी है , क्या कोई ऐसा गरीब गुरबा नहीं , जो हमे सीधी साधी ओढ़नी में अपनी लड़की दे दे |</div><div>रूपमति की दरकार ना है , बस साफ़ सुध , बिरादरी की बालक हो | </div><div>हमारे अमीरी ना है , पर दो रोटिओ में टोटा न है | सच मानियो | पूछो इन बड़ी बहुओं से | ये भूखी मरी जावें है क्या ?"</div><div><br /></div><div>और जबाब अक्सर यही होता " सब जमीन देखे है मौसी , घनी जमीन या सरकारी नौकर | आदमी का रूप , लक्षण न देखती बिरादरी | </div><div>अच्छी जमीन हो या लड़का नौकरी पेशा हो , फिर देखो कैसे भागे हैंगे महारे ससुरे बिरादरी के लम्बरदार | </div><div>काले तवे का बिहा कर देंगे मौसी , काले तवे का !"</div><div><br /></div><div>बिरजू भिनभिनाता, कभी कभार माँ की मान मन्नतों का दौर ज्यादा लम्बा खिंच जाता तो धीमे से कहता "तू रिस्तेदारो का आना छुडवाएगी माँ , इतना मत झींका कर | कौन सा हमारा नाम डूबा जावे है | बड़े भईयों के बालक है तो "</div><div>रामवती कुछ झिड़कती , फिक्रमंद चेहरे पर अपने हाथ की मुठ्ठी से ढांप लेती और बहुओं की ओर इशारा कर कहती " अरे मेरे भोलू , जिस दिना मेरी आंख मिच गई, चार रोटियों को तरसा देंगी तुझे ये दोनों त्रिया | " उसकी आँखे डबडबा जातीं | </div><div><br /></div><div><div>रामवती को अपनी छोटी बहु से थोड़ी आस थी | उसकी एक छोटी कुँवारी बहन थी, बिहाने लायक | </div><div>छोटी बहु खांट थी , कैंची की तरह जवान चलती थी उसकी | पर रामवती सब सहती , आस बहु के सब तीरों पर भारी पड़ती | </div><div>फिर जब बहु की बहन का रिश्ता कही और तय हुआ तो बहु बोली " मुझे ही दे के पछताए मेरे बाबा , छोटी को भी इसी घर डुबो देते क्या !"</div><div>रामवती का कलेजा मुँह को आने को हुआ | दुःख और ऊपर से बेइज्जती का जो तेज़ाब बहु ने फेंका , भड़भड़ाती हुई बोली " हे राम जी , मेरे बिरजू का बिहा हो या न हो , ऐसी खांट लुगाई न चईये| "</div><div><br /></div><div>बहु और भी ज्यादा कड़वी " हाँ हाँ। देखूंगी , लाओ तो सही कही से भानुमति | लाओ तो | "</div><div><br /></div><div>बहु की बात रामवती तो ऐसे चीरती जैसे नुकीले कांच से कोई हलक में चीरा लगा दे | </div><div><br /></div><div><div>बड़ी मिन्नतों से एक रिश्ता गांव तक आया था | पता नहीं कन्हाई ने कहाँ से सूंघ लिया | क्या रिश्तेदारी निकाली , राम ही जाने | लड़की वालों को बीच रास्ते से खींच ले गया | गुड और गाढ़े दूध में उन्हें तर किया और फिर सगा बनता हुआ कानों में बोला " कहाँ डुबो हो रिश्तेदार , इन सालों के गाम में मँड़ैया ना, हार में टपरिया ना " | उसका तात्पर्य घर और जमीन से था | </div><div>फिर उसने ऐसा रंग जमाया, ऐसा रंग जमाया कि बिरजू के गले की माला का हकदार बन बैठा बल्लू उर्फ़ बैल उर्फ़ बलदेव | </div></div><div><br /></div></div><div> </div></div><div> <b> III</b></div><div><b> ***</b></div><div> प्रकृति ने ही शायद हम इंसानो की बनावट में कुछ ऐसा फेर किया है कि हमे लगता है कि हम लम्बे समय तक यहाँ टिकने वाले है | </div><div> सच ये है कि एक बार जिंदगानी का सूरज ढलान का रास्ता पकड़ता है तो फिर शाम , और किताब के आखिरी पन्नो को पलटाती रात बड़ी तेज़ी से आती है| </div><div>घर के पीछे लगे यूकेलिप्टीसो के पौधे अब दरखत हो चले थे | ज्यों ज्यों उन पेड़ों की नयी टहनियाँ आसमान को निगलने को बढ़तीं , रामवती की उम्मीदों का दामन त्यों त्यों सिकुड़ता जाता | </div><div>घर का काम करती तो उसकी बुढ़ाती देह हाँफने लगती | </div><div>हाथ पैरो पे सूजन आ जाती | चेहरा पीतवर्ण हुआ जा रहा था | जिगर ने खून बनाना बंद कर दिया था | </div><div>शहर के बड़े डॉक्टर ने पोटली भर के दवा दी थी | कोई कुछ खाने को कहता तो वो कराहती "अरे पेट तो दबाइयों से भरा रेहँवे है , खान पान की गुंजास कहाँ | "</div><div>परिवार भला था , बहुओ के व्यबहार बदल गए थे | अब वो उसे 'माँ' कह पुकारतीं | खान पीन का ख्याल रखतीं | </div><div>बड़े लड़कों को अहसास था कि माँ ज्यादा दिन टिकेगी नहीं | बिरजू के हाथ पीले होते देखने की फ़िक्र अब उनकी फ़िक्र हो गयी थी | </div><div>बिरादरी अच्छे बुरे लोगो की खिचड़ी हुआ करे है | कोई भला मानस एक प्रस्ताव लेकर आया | सब काम चट मंगनी पट बिहा की रफ़्तार से होना था | लड़की का बाप गरीब था बस ग्यारह आदमी बुलाता था | बिरजू के हिस्से कितनी जमीन आती है , इसकी उसने कोई पूछतांछ तक ना की | </div><div>राम जी की मेहर हो रही थी | परिवार जन राहत में थे | माँ की आत्मा तड़फती तो ना जाएगी | </div><div>घर का माहौल बदल गया था | सब साथ खाते , हर छोटी बड़ी बात पर हँसते | </div><div>रणपाल कहता " औ माँ , कुछ खाया कर| लगन का हफ्ता भर है , कमजोरी में मालपुए कैसे बनाएगी ?"</div><div>बड़ी बहु चहकती " माँ कू चूल्हे पे नाय बैठें देमे हम दोनों | तम पलंग पर बैठ हुकम करियो माँ |"</div><div>रामवती कराहती , धन्यवाद की मुद्रा में हाथ ऊपर करती और कहती " सब हो जायेगा | तुम अपने अपने कामों की फ़िक्र करो "</div><div><br /></div><div><br /></div><div>लगन से ठीक चार दिन पहले बिचौलिया आ गया और पुरुष चाय पानी के बाद छपरे तले जमी चारपाइयों पर आ जमें | </div><div>"डेढ़ लाख तो बहुत ज्यादा है रामफल भईया , वो भी ऐन मौके पर आकर | " रणपाल ने खाट पर बैठे बैठे ही जमीन पर लकीर खींची और फिर अगले ही पल मिटा दी | </div><div>"भईया , नहीं तो लड़की वाला बिहा टाले है अगले साल तक | उसकी गुंजाईश नहीं है |"</div><div>"कपडे लत्ते , सदूक़ पलंग , बरतन गहने | फिर चार आदमियों की दाबत | मैंने कोशिश की पर इससे काम में नहीं बनती बात | "</div><div>"पर डेढ़ लाख हमारी हद के बाहर है रामफल| तीस हज़ार चालीस हज़ार होते तो हम दो तीन भैसिया बेच देते | जमीन के खूँड़ कम है, इसे बेच बच्चों के हाथ कटोरा कैसे थमा दें? " रणपाल का स्वर हताश था | </div><div><br /></div><div>बिरजू खाट की पायत पर जमा था | उसके नथुने फूल कर चौड़े हो गए थे | सांस धोकनी सी चल रही थी | भृकुटियां तन गयी थी | </div><div>"लड़की बेचता है हरामखोर | सूअर का बीज | माँ ना मर रही होती ना रामफल तो उस साले की गर्दन गंडासे से काट कर आता | ख़तम करो ये स्वांग |" आँखों में आंसू लिए और लाचारी में पैर पटकता बिरजू वहाँ से निकल गया था | </div><div>इतनी बड़ी बात माँ से कैसे छुपती | </div><div><br /></div><div>हे विधाता , सालो की मन्नते , खुशामंदी , कोशिशे | इतनी ख़ुशी तो तुझे दे देनी चाहिए थी ! तेरी माया तू ही जाने ! </div><div><br /></div><div> </div><div> <b>IV </b></div><div><b> *** </b> </div><div><div>उस साल बारिश बहुत कम हुई थी | पूरब से तेज बादल उठता , गड़गड़ाता फिर थोड़ी बहुत फुसार होती और बिना बरसे ही बादल उड़ जाता | </div><div>खड़ंजों पर निकलते किसान मज़दूर कहते " तेरे घर भी न्याब ना है राम जी | कही बरसे है तो मूसलाधार तो कही निपट सूखा | "</div><div>कोई फुर्सत में होता तो कुछ देर रामवती के पास बैठ लेता | वह अक्सर नीम तले लेटी होती | शरीर अब विघटन की ओर था | पूरे शरीर में पानी उतर आया था | </div><div>और वाकई भगवान के घर न्याय था ही नहीं |</div><div>रामवती के घर से दो घर छोड़ कृपाल सिंह का मकान था | जमीन थी , बड़े नखरे किये थे | लम्बी हो , दरमियानी भी ना हो | गोरी हो , गेहुए रंग कि भी ना हो | परिवार ऐसा हो , वैसा हो | तमाम मापदंड नाप तौल अपने लड़के का रिश्ता थामा था | </div><div>हुआ यूँ कि रिश्ता जुड़ने के बाद कृपाल का लड़का पुलिस में भर्ती हो गया | एक तो अच्छी जमीन ,ऊपर से लड़का हो गया सरकारी नौकर !</div><div>बस दिमाग में बू भर गयी | बाप ने समझाया लेकिन लड़का कहाँ माने | </div><div>अड़ गया कि लड़की पढ़ी लिखी ही लेगा | चाहे जो करो | </div><div>कहने वाले तो ये कहते कि बाप और बेटे दोनों के ही दिमाग घूम गए थे | ज्यादा धन दहेज़ की इच्छा बलबला उठी थी | बाप खुल कर कह नहीं पाता था | बेटे को आगे कर दिया था | </div><div><br /></div><div>पर बिरादरी और चार पंचो में दिया हुआ वचन |उसका क्या ? लड़की वाला चार पंच ले दहलीज पर आ धमका |</div><div>"खुल कर बोलो मुकद्दम , चाहो क्या हो | वचन निभाओ हो या लालच में कतई अंधे हो चले ? "</div><div>कृपाल सिंह ने खूब लीपापोती की ,पर नए खून के लड़के ने अहंकार में साफ़ कर दिया कि रुपय्या (वचन की निशानी में दिया जाने वाला चांदी का रुपय्या ) वापस ले जाओ और हमारी राम राम पकड़ो | </div><div><br /></div><div>होनी बड़ी बलबान होती है | लड़की के पिता ने चार पंचो में ऐलान किया " देखो मुकद्दम , जब हम कोसों मंजिल काट , सात सुगन शुभ काम को इस गांव में है तो लड़की तो यही बिहायेंगे | इस घर ना सही किसी और घर सही ! "</div><div><br /></div><div>हवा इतनी मरियल थी कि गौर से देखने पर ही कोई पत्ता हिलता जान पड़ता था | </div><div>कुछ दवा के नशे में तो कुछ बेहद कमजोरी के चलते रामवती आँख मूंदे आँगन में खाट पर पड़ी थी | सब आस पास खड़े थे | बड़ी बहु हाथ का पंखा झलती थी | </div><div>लड़की के बाप ने खाट की बांसी पकड़ पहले धीमे फिर ऊँची आवाज़ में कहा " चौधरन औ चौधरन ,मक्क सुनो हो |"</div><div>"तुम्हारी मर्ज़ी हो तो मैं बिरजू का रुपय्या दूँ हूँ ! .. बोलो "</div><div><br /></div><div>रामवती की देह में इतना दम कहाँ बचा था कि वो 'हां' या 'ना' कहती | उसकी बंद आँखों से आंसू की धारा किनारे तोड़तीं हुई बुझते गालों पर लुढ़क गयी | </div><div>"हाँ कह रई हैं माँ , हाँ जी, हाँ है| " बड़ी बहु बोल उठी थी | </div><div>लड़की के बाप ने चांदी का रूपया जेब से निकाल , नसों और हड्डी के गुच्छे बन चुके रामवती के हाथ में रख दिया और अपने हाथ का बल प्रयोग कर रमावती की मुठ्ठी बाँध दी | </div><div>रामवती ने इस बार हिचकी ली तो फिर सांस नहीं लौटी | हिड़की बांधे रणपाल ने अपनी माँ की ठोडी उठा ऊपरी जबड़े से मिला दी और बिलखते हुए बोला " तू जा माँ , तू जा | अब तेरा दुःख ना देखा जाता | "</div><div>बहुये दहाड़े मार मार कर रोने लगीं " बिरजू का बिहा आ लिया री माँ | ओह माँ , बिरजू का बिहा देख जइयो री माँ | ओ म्हारी माँ !"</div><div><br /></div><div> इति</div><div> ******</div><div> </div></div></div><div><br /></div><div> #indian Village Life, Indian Farmer Life , Poor Life</div>Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-8416513641946990522020-07-13T07:07:00.001-07:002020-07-13T07:07:33.403-07:00होता आया है , होता रहेगा !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आपने कभी कोई चोर देखा है ? कोई जेबकतरा , उठाईगीर या कोई छोटा मोटा चोर उचक्का ?<br />
अपवाद हो सकते है लेकिन अमूमन ऐसा होता है कि कोई भी ऐसा निकृष्ट आदमी रंगेहाथ पकडे जाने पर लज्जित महसूस करता है | लात घूंसे पड़ें या पुलिस के डंडे , ऐसे आदमी की गर्दन नीची ही रहती है | ये एक अलग बात है कि छुटकारा पा वो फिर से उन्ही कुकृत्यों में संलिप्त हो जाए | पर पकडे जाने पर लजायेगा जरूर |<br />
हमारे लोकतत्र का नेता ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपनी हवस , लालच , सत्तालोभ का नंगा नाच करता हुआ पकड़ा जाए , उसकी चालीस चोरो की माल बॅटवारे को लेकर सर फुटब्बल की कहानी पब्लिक डोमेन में भी आ जाये , फिर भी वो किसी महंगे रिसोर्ट में विक्ट्री का "V" साइन वाला पोज़ ऐसे देगा , जैसे महाराज ने समाजहित में बड़ा ऊँचा झंडा गाढ़ दिया है |<br />
देखि है कही आपने समाज सेवा को लेकर ऐसी सिर फुटव्वल ??<br />
<br />
आप इस फोटो को देखिये और मुझे बताइये कि कोरोना की मार झेलते देश में , जहाँ हर दूसरा आदमी बेरोजगारी के मुहाने पे खड़ा है , जनमानस अवसाद से गुजर रहा है , इन लोगो ने कौन सा तीर मारा है जो ये विक्ट्री सिंबल बना रहे ? क्या इन्हे शर्मिंदा नहीं होना चाहिए कि इनकी हवस , ज्यादा से ज्यादा डकारने की छीना झपटी , जो अभी तक सत्ता के बंद , गुप्प गलियारों तक दबी ढकी थी , वो अब खुले मैदान में आ गयी है ?<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFInxnILNoRmZNzRXMt1x562hSF08NsqKbirAzCbTlZNE5tgeIHSWxIcSeLfSckI-bjdvLgRYw_jd3W_m0KlOEe8Q0VYa03rVDY_c5NZ95cORTArDhajvyapnoTcfUTyQ27yReoPw7xT8/s1600/20200713_212902.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="787" data-original-width="1600" height="314" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFInxnILNoRmZNzRXMt1x562hSF08NsqKbirAzCbTlZNE5tgeIHSWxIcSeLfSckI-bjdvLgRYw_jd3W_m0KlOEe8Q0VYa03rVDY_c5NZ95cORTArDhajvyapnoTcfUTyQ27yReoPw7xT8/s640/20200713_212902.jpg" width="640" /></a></div>
<br />
<br />
हमे घोट कर पिलाया गया है लोकतंत्र , लोकतंत्र , लोकतंत्र |<br />
असल में ये लोकतंत्र है ही नहीं , भीड़तंत्र है | सही लोकतंत्र एक लक्ज़री है जो चेतना के एक स्तर को पार कर चुके समाज के हिस्से आता है |<br />
जरा सोचिये , जिस भीड़तंत्र में एक पव्वे के लिए , 500 की पत्ती के लिए, या महज ये सोच के कि फलाँ हमारी जात का है , कही भी ठप्पा लगा देने वाले वोट की ताकत , 'देश दुनिया की सोचने समझने वाले' आदमी के वोट के बराबर हो , वहाँ किस तरह के नेता सामने आएंगे ?<br />
आप इसे गरीब -अमीर के खाँचो में रखकर नहीं , चेतना के स्तर के लिहाज से आंकिये |<br />
डेमेगॉग समझते है न आप ? बस वही लोग सामने आते है |<br />
<br />
सुकरात का लोकतंत्र से इन्ही कारणों से मोह भंग था |<br />
प्लेटो की कृति 'रिपब्लिक ' में सुकरात का एक वार्ता उल्लेख है जिसने वो पूछता है कि यात्रियों से भरे जहाज को कौन चलाएगा , जहाज का कप्तान कौन होगा , इसका निर्णय किसको करना चाहिए ?<br />
क्या जहाज के सभी यात्रियों को ?<br />
या उन लोगो को जिन्हे जहाज चलाने का कुछ ज्ञान हो , हवा , दिशा , भूगोल का कुछ अध्ययन जिन्होंने किया हो , और जो ये जानते हों कि जहाज को सही दिशा में में ले जाने के लिए कौन सबसे होनहार कैप्टेन साबित होगा |<br />
<br />
अपने तर्क को और आगे बढ़ा सुकरात कहता है कि एक डॉक्टर है और एक मीठे की दुकान वाला हलवाई |<br />
अपना समर्थन बटोरने को हलवाई कहता है की देखो भाइयों ये इंसान तुम्हे कड़वे काढ़े देता है , तुम्हारे शरीर में छेद करता है , चीरे लगाता है , तुम्हारा खून निकाल लेता है , ये तुम्हारा भला कैसे हो सकता है !<br />
मुझे समर्थन दो , मैं तुम्हे मिठाइयां , रेवड़ियाँ देता हूँ , मैं ही तुम्हारा हितैषी हूँ !<br />
<br />
और देखो न , सचमुच मिठाइयां , रेवड़ियाँ बांटने वाले डेमागोग ही तो हम चुनते आये है |<br />
बदकिस्मती कि ये दस्तूर जारी रहेगा | हाँ ,पार्टियों के नाम बदलते रहेंगे |<br />
<br />
-सचिन कुमार गुर्जर<br />
१३ जुलाई २०२० <br />
<br /></div>
Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-48521909158857477382020-07-12T23:05:00.001-07:002020-07-21T20:38:52.912-07:00चमड़ी की फसल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4wsTUQWdbQQdKoA6T_68INB9xUePFO0CzjFYzyuFH9yplZU1T83ghCDbdO25mlcgtmyjruHan1gtNsqYc2hapVbNh_FwJQ7T2iyFPmJZUXftpcFw3D4rUrILr9iRXAyN4tYnAn6DpvNc/s1600/DNM3EE.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1343" data-original-width="1300" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4wsTUQWdbQQdKoA6T_68INB9xUePFO0CzjFYzyuFH9yplZU1T83ghCDbdO25mlcgtmyjruHan1gtNsqYc2hapVbNh_FwJQ7T2iyFPmJZUXftpcFw3D4rUrILr9iRXAyN4tYnAn6DpvNc/s320/DNM3EE.jpg" width="309" /></a></div>
<br />
उस आदमी को मैं जानता था | ठीक ठाक जानता था | ठीक उतना ही , जितना मैं मेरे ऑफिस के पास की रेड लाइट पर लगे लैम्पपोस्ट को जानता हूँ | मतलब बिना किसी प्रजोयन , बिना किसी प्रयास , बस भौगोलिक परिस्थिति वश |<br />
मैं उसे जानता तो था , लेकिन वो इस दर्जे का कलाकार है ,इसका गवाह मैं पहली बार बना !<br />
<br />
उस आदमी का रूटीन मेरे रूटीन से मेल खाता था | अक्सर वो नौ से दस के बीच की किसी ट्रैन से उतरता | हम एक ही लालबत्ती पर सड़क पार करते और सिंगापूर के बिज़नेस पार्क में , कार्डबोर्ड के चट्टे जैसी इमारतों के झुण्ड में खो जाते | मेरी ही तरह वो भी किसी आई टी फर्म या बैंक में चाकरी करता रहा होगा |<br />
उसका व्यक्तित्व बड़ा रूखा, उबाऊ जान पड़ता था | मेरा अनुमान है कि वो तीस का तो रहा ही होगा | उसका चेहरा किसी ज्यादा नमक खाये बकरे जैसा फूला हुआ था | कद पांच नौ या पांच दस रहा होगा | बाल घने थे , बालिश भर लम्बे ,लापरवाह हिप्पिकट में , कनपटियों से किनारे छोड़ने लगे थे | मोटा तो नहीं , थोड़ी बियर बैली लिए था | डील डॉल से मुझे नहीं लगता वो अपने को फिट रखने को कुछ ख़ास तबज्जो देता होगा |<br />
अमूमन तौर पर वो कोई सिलेटी या बदरंग ट्रॉउज़र पहने , ऊपर से लूस टीशर्ट डाले होता था | हमेशा उनींदा , जैसे किसी ने जबरदस्ती बिस्तर से उठाकर सड़क में धकेल दिया हो | उसके अंग अंग से आलस टपकता था |<br />
उसके जूते एंटीक पीस मालूम होते थे ,पुराने स्पोर्ट्सवेयर, जिन्हे मानो कोई सालों तक घर के कोने में फेंक कर भूल गया हो |<br />
कुछ भी आकर्षक नहीं था | एस्थेटिक्स के लिहाज से मैं उसे औसत से भी कम आंक सकता हूँ |<br />
<br />
<br />
बिज़नेस पार्क और मेट्रो स्टेशन की बीच में एक मॉल है , जिसके गलियारे पैरामीशियम की आकृति लिए हुए है , जूते की सोल की तरह घुमाब लिए हुए |<br />
शाम को अक्सर मैं मॉल के फ़ूड कोर्ट में खाना खाता और फिर विंडो शॉपिंग करता हुआ , घूमता फिरता निकल जाता |<br />
स्टेशन के दूसरी पार एक एक्सहिबीशन सेंटर है जहाँ अक्सर कुछ अच्छी तो कुछ वाहियात थीम वाली प्रदर्शनियाँ लगा करती है | उस शाम को कोई फ़ूड एक्सहिबिशन लगी थी वहाँ |<br />
तंदूरी रोटी और पनीर की खुराक को 'ते सी सुताये'(कम चीनी की चाय ) के सहारे पेट में धकेल मै फ़ूड कोर्ट से निकल रहा था |<br />
तीन चीनी मूल की युवतियाँ , किनारे के एस्कलेटर से चढ़ी , एक दुसरे से चिपकती हुई , थोड़ी असहज |<br />
उनकी असहजता शायद उनके नए परिवेश में होने को लेकर थीं | शायद लोकल नहीं थीं |<br />
"हेलो ब्यूटीफुल !" इतना कह कर एक युवक मेरे बगल निकल कर चला गया | वही आदमी !<br />
और वो तीनो लड़कियां , खिलखिला के हँस दी | वो व्यक्ति बिना रुके एस्कलेटर से उतर गया | लड़कियां कुछ आगे बढ़कर ठिठकी फिर जिज्ञासा वश मुड़ उसे जाते हुए देखने लगी |<br />
ये जरा भी अप्रत्याशित नहीं था | इस तरह के कॉम्प्लिमेंट्स , खासकर मेरे परिवेश में बड़े आम से है | सिंगापूर में दुनिया के कोने कोने के आदमी है , सब अपना अपना कल्चर , अपनी आदतें , तौर तरीके लेकर आते है | और इस सब का प्रदर्शन यहाँ वहाँ होता रहता है |<br />
<br />
<br />
माल के एग्जिट पर और मेट्रो स्टेशन के बाहर स्टील के बेलनाकार स्टैंड लगे है , जिन पर लोगबाग अक्सर अपने शॉपिंग बैग्स रख सांस ले लेते है , या कई बार जूते की लेसेस बाँधने के लिए टिककर खड़े हो जाते है |<br />
मै एग्जिट से निकला, तो मैंने उसे एक स्टैंड के सहारे खड़े हुए पाया | बड़ी ही चौड़ी मुस्कान बिखेरते हुए | इतनी चौड़ी कि उसके होंठ एक कान से दुसरे कान तक कमानी की तरह खिंचे हुए थे !<br />
वो मुझे देख कर भला क्यों मुस्कुराएगा , आखिर मैं उसे उतना ही जानता था जितना कि रेड लाइट पर लगे लैम्पपोस्ट को !<br />
और मेरा अनुमान गलत नहीं था | मेरे ठीक पीछे वो तीन युवतियां भी चली आ रही थी |<br />
उन्होंने भाँप लिया और थोड़ी असहज होती वो ठिठक गयीं |<br />
"शायद ये पिए हुए है , अल्कोहल ने इसके न्यूरल सर्किट को कुछ अस्थ्याई नुक्सान पहुंचाया है "हाँ यही लगा मुझे |<br />
मैंने अपनी चाल धीमी कर दी | वो धीमे से मेट्रो स्टेशन के एस्केलेटर पर उतरने लगा , किसी टिपिकल टपोरी की तरह सीटी बजाता हुआ | उससे थोड़ी दूरी पर वो तीन युवतियाँ भी सीढ़ियां उतरने लगी |<br />
तीनो लड़कियों की आकृतियाँ अलग ही थी | एक लम्बी , दूसरी औसत लम्बाई तो तीसरी कम विकसित छोटी बच्ची जैसी |<br />
उम्र के हिसाब से वो तीनो बीस बाइस की ही रही होंगी |<br />
लम्बी लड़की सुन्दर , सुतवा , सुराही सी गर्दन लिए | वो किसी कोरियन पॉप स्टार जैसी ड्रेस पहने थी | चीनी जीन पूल से आने के बाबजूद उसकी नाक रोमन थी | मंझली थोड़ी कमतर , लेकिन आकर्षक , कलर बाल , स्टाइलिश हैंडबैग , डिसेंट |<br />
तीसरी किसी भी टिपिकल स्कूल गोइंग किशोरी जैसी |<br />
<br />
उस सनकी आदमी को एस्कलेटर पर न जाने क्या हुआ वो पीछे मुड़ा और बड़ी भोंडी सी हंसी हंसा | उसकी आँखों में , उसके लहजे में इच्छा थी |<br />
'इच्छा' मानव मूल का स्वभाव है , लेकिन ये रिझाने का तरीका ही तो होता है जो परवर्ट और डिसेंट होने का फर्क पैदा करता है | एक तरीका होता है शालीन और मर्यादित | एक होता है फूहड़ , जंगली |<br />
एक तरीका होता है जो सौंदर्य के आगे नतमस्तक हो गुजारिश करता है , तारीफों की झड़ी लगा अपना मुकदमा पेश करता है , सुनवाई होती है , बात जंचती है तो निगाहे करम !<br />
फूहड़ता के हिस्से में क्या आता है : थप्पड़ , धमकी या फिर नजरंअदाजी !<br />
<br />
<br />
मुझे अभी तक ये समझ नहीं आ रहा था कि वो आदमी किस बात को लेकर इस कदर कॉन्फिडेंस से लबरेज था | प्लेटफार्म पर वो कुछ यूँ मुँह फेर कर खड़ा हो गया जैसे कोई कन्हैया हो और अदृश्य डोर से बंधी गोपियों का उसकी गोद मेम गिरना ही नियति हो |<br />
फिर वैसा ही हुआ जैसा मुझे आभास था | उस सिरफिरे को पूरी तरह इग्नोर मार उन नवयौवनाओ की टोली प्लेटफार्म पर दूसरी तरफ चली गयी |<br />
ट्रैन आने में अभी पूरे छ मिनट थे | स्टेशन पर लगे डिस्प्ले स्क्रीन पर कुछ नामशहूर एक्टर्स दिखा रहे थे कि किसी संदिग्ध की पहचान कैसे करें , अनजान वस्तु दिखे तो कैसे रिपोर्ट करें |<br />
ट्रैन जब प्लेटफार्म के एक सिरे से दाखिल हुई तो मैंने पाया कि लड़कियों के समूह में हलचल थी | दूसरी दो लड़कियां लम्बी और खूबसूरत लड़की को कोहनियो से धकेल रही थी |<br />
और ये क्या , ट्रैन के दरवाजे खुलने तक वो उस सिरफिरे युवक के पास आ खड़ी हुई थी |<br />
नहीं मालूम उसने क्या कहा , पर जोर का एक अट्टहास गूंजा | बातचीत की शुरुआत में असजहता को तोड़ने के लिए इस तरह की ठिठोली होती ही है |<br />
"ओह , वाओ , पेनांग " वो युवक अब ऊर्जा से लवरेज था | वो लड़किया मलेसिआ के पेनांग द्वीप की रहने वाली थी |<br />
उसने उस सुन्दर लड़की से पेनांग के बारे में कुछ घिसे पिटे सवाल किये , जैसा खाना कैसा है , घूमने को क्या क्या है ?<br />
फिर.. अगर वो वहाँ आये तो क्या वो उसके साथ घूमेगी ? जबाब बड़ा ही मंत्र मुग्ध सा हाँ था |<br />
वो तीनो लड़कियाँ और वो सिरफिरा भी उसने पीछे ही अगले स्टेशन पर उतर गए थे और बंद होते दरवाजो के बीच मैं देख सकता था कि उस सुन्दर , सुराही सी गर्दन वाली लड़की और उस युवक के बीच फ़ोन नंबर्स का आदान प्रदान हो चूका था |<br />
<br />
मैं मेट्रो के शीशे से बाहर ताक रहा था | ऊँचे अपार्टमेंट्स के बीच में पेड़ो का एक छोटा सा झुण्ड था | उसके सिरे पर किसी बिल्डर ने ऊँची सी क्रेन पर लाल झंडा टांग दिया था | सुन्दर ,सदाबहार पेड़ो का वो जंगल बस इंसान की हवस में धुआँ धुआँ होने को ही था |<br />
मुझे चिढ़ क्यों हो रही थी ? क्या मैं रेस में था ? अधेड़ आदमी जिसकी रेलगाड़ी कब की प्लेटफार्म छोड़ चुकी हो , उसे भला क्यों कर चिढ़ या जलन हो ?<br />
उसे तो अब तक नियति , उम्र , बायोलॉजी , परिस्थितियाँ जैसे तमाम कारको के आगे घुटने तक जिंदगी से सामंजस्य बना लेना चाहिए | फिर भी मैं द्वन्द में था |<br />
<br />
फिर मुझे लगा मेरी चिढ़ मुझे लेकर नहीं थी | मेरी जगह कोई भी ऐसा आदमी होता जिसकी "मरिटोक्रेसी " में अथाह आस्था हो , उसे उन पंद्रह बीस मिनटों में खीज जरूर हुई होती | बिना किसी प्रतिभा प्रदर्शन, सिर्फ और सिर्फ सफ़ेद चमड़ी और कॉकेशियन लुक्स की बदौलत वो गोरा प्रेम के मैदान में सफलता के झंडे गाढ़ता चला गया था !<br />
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Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-9677766702903040262020-07-12T05:14:00.008-07:002021-03-25T04:30:46.206-07:00बोझ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpto6Mh56jvXriv0Nw5cquOGjn2rVQvZliK1tRz-XO0Y9gqQvMOVNx7EzHG6O0jYV0Xc_3E_sKHSEi7RZrnVOLL4Iv7b5VbQYaJ1QrqaNDKnSaywGgWKCP3SZUyNnsmMNYiQ4geyYSWE8/s1600/beeda0b5f12a234a208baac590d68a52.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="692" data-original-width="474" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpto6Mh56jvXriv0Nw5cquOGjn2rVQvZliK1tRz-XO0Y9gqQvMOVNx7EzHG6O0jYV0Xc_3E_sKHSEi7RZrnVOLL4Iv7b5VbQYaJ1QrqaNDKnSaywGgWKCP3SZUyNnsmMNYiQ4geyYSWE8/s640/beeda0b5f12a234a208baac590d68a52.jpg" width="438" /></a></div>
<br />
हाँ ,वह चली गयी थी | उसे जाना ही था |<br />
और वह इतनी सफाई के साथ गयी थी कि चींटी को भी पता ना चलता |<br />
पर मोहल्ले के एक साँसिये बूढ़े ने, जिसे दमा रत भर सोने न देता था , उसने अहले सुबह , सूरज की लाली फूटने से भी घंटा भर पहले , उसे किसी अनजान नौजवान के साथ मोटर साइकिल पर पीछे चिपक कर जाते देखा था | जीन्स पहने , लड़कों की तरह टांग फैलाकर बैठे, पीठ पर बड़ा ट्रैकर बैग लाधे और एक हाथ में पॉलीथिन लटकाये , वो फरफराती हुई निकल गयी थी | रीति रिवाज , इज्जत , लाज ,सबको ढेंगा दिखाती| कम्बख्त , अकल की मारी |<br />
<br />
बमुश्किल अठरह बीस साल की ही तो हुई होगी | कद की थोड़ी छोटी , गौरवर्ण ,तोते जैसी नाक , बड़ी बड़ी कटार जैसी आँखें और वाचाल | चाल चलन लड़को जैसा था उसका | इंदिरा कट बाल रखती | डंडे वाली ऊँची मर्दानी साइकिल दौड़ाती | मोहल्ले में लड़कियों में जीन्स टॉप पहनने का चलन उसी ने तो शुरू किया !<br />
वो आँखे मटका के बातें करती तो गांव की बड़ी बूढ़ियाँ उसे टोक देती " ऐ लल्ली , ऐसे आँखो में आँखे डाल के बाते न किया कर | बहु बेटी लजाती हुयी ही अच्छी लगा करें हैं |"<br />
और वो कहती " क्यों काकी , लजाय वो जो चोर हो , जिसमें कोई खोट हो | मैं क्यों लजाऊ | "<br />
उससे कौन जीतता भला | मुँहजोर थी वो लड़की |<br />
<br />
पर इतना बड़ा दाग | उफ्फ !<br />
जेठ की दुपहरी में सूरज अंगारे बरसाता हो , उसी की हाँ में हाँ मिला पछवा लू थपेड़े लगाती हो और ऐसे में गाँव के एक सिरे पर आग लग जाये | बस कुछ इसी रफ़्तार से उस लड़की के भाग जाने की खबर गाँव भर में फैल गयी |<br />
गाँव की होशियार , तेज तर्राट , हर घर के चूल्हे चौके की खबर रखने वाली जनानियों ने एक सुर में कहा " हमे पता था कि वो भागेगी , उसके लक्षण कहते थे | "<br />
गाँव की सीधी सुदल्ली औरतें , जिन्हें घर की दहलीज के बाहर की कुछ भी खबर नहीं होती , उन्होंने भी कहा " हमें तो पहले से ही पता था वो भागेगी , उसके लक्षण कहते थे ! "<br />
<br />
खैर , उस नवयौवना के इस तरह प्यार में अंधे हो भाग जाने की खबर की सनसनाहट जब कम हुई तो गाँव वालों की तबज्जो उसके परिवार की तरफ मुड़ हुई |<br />
बड़े बूढ़े , औरत ,मर्द सबको गुस्सा आया कि इन ससुरो को दिखते ना थे उसके लक्षण| वो पूरे दिन कान में फ़ोन की लीड फंसाये छत पर खड़ी रहती थी| जाने किस किस से बतलाती थी | महतारी की आँखें फूट गयी थी क्या | दो दो जवान हलंता भईया घर में पड़े डकारते रहे , इन जानवरों को कैसे खबर न हुई | भेड़ के फूफा हैं ये सब के सब | अहह , सबकी ही मत मारी गयी | <br />
<br />
गाँव वालों का गुस्सा जायज था | वो यूँ , कि सबके घरों में जवान होती बेटियाँ थीं , नई बहुए थीं | इस तरह के कुकृत्यों का असर सबके कच्चे दिमागों पर पड़ता है | वो सब अपने परिवारों को लेकर फिक्रमंद थे | <br />
<br />फिर ऐसा हुआ कि दो तीन दिन बाद चेतराम ने अपनी जनानी को खूब जम कर पीटा | और इस कदर पीटा कि उस बेचारी को पड़ोस के घर में छिप कर जान बचानी पड़ी | और पीट पीट जब उसका शरीर हाँफने लगा तो वो मरियल हाड का आदमी चबूतरे पर आ खड़ा हुआ और खूब ऊँचे सुर में फड़फड़ाया " मेरे ससुर की जनि , मैं दिन रात खेती कमावै था | औलाद पे नज़र रखने का काम तेरा था | बता तेरा था कि नहीं |ओ हरामन , नीच कमीन खानदान की पैदाइश , बता तेरा फ़र्ज़ था कि नहीं ?"<br />चौराहों पर , बीड़ी गुटखों की गुमटियों पर खड़े हर आदमी ने कहा " सही बात है | आदमी दिन रात खेत में कमावै था | धी बेटी पे नज़र रखने का काम मां का हुआ करे है !"<br />
चबूतरे पर झुण्ड में बैठे लोगो को सुना एक बुजुर्ग ताऊ ने धीरे से पर ताल के साथ कहा<br />
"नार नहीं नौरंगी है , नौरंगी नहीं रसरंगी है |<br />
रसरंगी नहीं , दशरंगी है |<br />
ढक ले तो ढक ले सारे कुल को , नहीं तो नंगी की नंगी है | "<br />
<br />
और फिर झुण्ड में से कई मर्द एक साथ बोले " नहीं तो नंगी की नंगी है | "<br />
उन सबका पर्याय नारी द्वारा परिवार की इज़्ज़त तार तार करने से था |<br />
<br />
चेतराम के तीन बच्चे थे | बड़ा लड़का मंगेश , उससे छोटी ये मुंहफट निम्मी और छोटा लड़का गुड्डू |<br />
<br />
मंगेश बी ए पास था | दिल्ली में नौकरी के लिए कोचिंग तक कर आया था, पर घर ही पड़ा था | उम्र निकल रही थी पर आस में था | बहुतों ने समझाया "बेटा उम्र निकल रही है | सरकारी नौकरियाँ तो दिन ब दिन कम ही होती जा रहीं हैं | कुछ प्राइवेट काम ही कर लो | पैसा तो प्राइवेट में भी अच्छा खासा है| "<br />
पर कुल जमा सत्ताईस सावन देख चुका और बहुत ही ज्ञानी मंगेश एक हथेली से दूसरी हथेली को पीटता ,कहता " ना कक्का , होना तो पटवारी ही है ! "<br />
फिर वह तिरछी निगाह कर दाएं हाथ से चुटकी बजाता और कहता " पांच साल में औसत निकल आएगा कक्का , पांच साल में| "<br />
फिर अपने अनवरत संघर्ष और कोशिशों की कहानी को आगे खींचता मंगेश कहता " बात तो हमारी हो गयी थी कक्का , सीधे लखनऊ सचिवालय में | दस लाख में | रकम उधर और लेखपाल का नियुक्ति पत्र हमारे हाथ | "<br />
और ऐसा कहते हुए वो हाथ की मुठियाँ भींच लिया करता |<br />
फिर निराश हो कहता " क्या करें , निम्मी का भी देखना है | इसके बिहा का काम सबसे अर्जेंट है| "<br />
<br />
पता नहीं कितनी दिवाली आयीं गयीं , उनके घर में रंगाई पुताई तक न हुई | चेतराम को रोज रात को जोर की खांसी का दमदमा उठता , पर शहर तक दवाई तक लेने न जाते | गांव में ही कुछ अलाय बलाय , जड़ी बूटी खाते | रोता झींकते जीते जाते |<br />
<br />पर बीमारी ने उस आदमी को नहीं तोडा , बेटी के इस अपमान ने जरूर तोड़ दिया |<br />
मर्द ने खाट पकड़ ली , कई दिन अन्न पानी नहीं किया | पूरे घर में ऐसी मुरदाई छाई रही जैसे कोई जवान आदमी मर गया हो | <br />लड़कों ने कहा भी कि कुछ भाग दौड़ करते हैं , तो चेतराम बोले " जाने दो | अब अपमान हो ही गया | जख्म को कुरेदते रहने से क्या फायदा | "<br />
चेहरे पर घृणा लिए कहते" जिए या मरे , हमारी लिए तो उसी दिन मर गयी जिस दिन उसने घर की दहलीज से बाहर कदम रखा |"<br />
लड़के क्या कहते , वे बेचारे अपने बिस्तरों पर पड़े , लाज के मारे, अपने मोबाइलों में ताकते रहते |<br />
अजी परिवार को संभलने में महीनो लग गए | पर वो संभल गए |<br />
चेतराम जंगल पानी को निकलने लगे | आखिर कब तक खटिया पर पड़े पड़े औलाद के करम को रोते | लड़के भी मोटरसाइकिलों से इधर उधर जाने लगे !<br />
<br />
<br />
<br />
वक्त का क्या है , सूखी रेत है ,यूँ ही फिसलता निकल जाता है | साल बीता , दो साल बीत गए | गाँव वाले अपनी अपनी जिंदगियों में उलझ गए | चेतराम और उसका परिवार पुराने ढर्रे पर आ गया |<br />
मोहल्ले की कोई काकी शहर गयी थी दवा लेने | अस्पताल के बाहर संयोग से निम्मी उससे टकरा गयी |<br />
काकी ने देखा अनदेखा किया पर निम्मी का मन ऐसा उखड़ा, ऐसा उखड़ा कि वो काकी से लिपट गयी और खूब रोई |<br />
औरत का चरित्र जो होता है , भावनाओ का ढेर होता है , निम्मी ने हिड़की बाँधी तो काकी का वात्सल्य भी बह चला |<br />रो धो जी हलके हुए तो दोनों चुप हुई | काकी ने अपने दोनों हाथ निम्मी के गालों पर रख दिए और बोली" ठीक है मेरी बच्ची ?"<br />
" बस काकी अच्छी हूँ | "<br />
"जीती रह मेरी बच्ची |"</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> काकी थोड़ा रुकी , जैसे ये तोलती हो की कुछ कहा जाए या नहीं | "ये निमिया , तुझे ऐसा करना न था मेरी बच्ची| " काकी ने कह दी , जो उसके दिल में थी | </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
निम्मी का जो चेहरा अभी तक किसी छोटे बच्चे जैसा नरम , रुआंसा था, अचानक से सख्त हो गया |<br />
"बस काकी , जो होना था , हो गया | "<br />
फिर खीज और गुस्से के मिश्रित भाव लिए वो बोली" अब तो सब दिलद्दर निकल गया होगा उस घर का , है न काकी ?"<br />
"उनके सारे काम मेरी वजह से ही तो रुके पड़े थे |<br />
मंगेश की नौकरी लग गयी होगी | पिता जी की दवाई हो गयी होगी | क्यों ?"<br />
"घर भीत लिप पुत गए होंगे | "<br />
" नई भैसिया आ गयी होगी , बाल्टी दो बाल्टी दूध होता होगा| "<br />
"नया टूबवैल लग गया होगा | "<br />
<br />
काकी ने उसे रोका " औ मेरी बच्ची , मेरी मुनिया वो सब वैसे के वैसे हैंगे , जैसा तू छोड़ के आयी | करमजले , एक लम्बर के निकम्मे | "<br />
<br />
"क्यों , क्यों ? उन्होंने जो सारी संपत्ति मेरे लिए जोड़ कर रखी थी, अब तो सब काम बन जाने चाहिए थे | "<br />
<br />
फिर निम्मी बहती चली गयी |<br />
"काकी, जब से मैंने उस घर में होश संभाला , सिवाए तानो के कुछ न सुना | उनके हर काम में मैं रोड़ा थी |<br />
बोझ ऐसा भारी , जिसके तले पूरा परिवार दबा चला जा रहा था |<br />
मुझे भी लगता था उनके दुखों का कारण मैं ही थी | <br />
साल दर साल , गाहे बेगाहे वो मुझे ऐसे दलदल में धकेलते चले गए जहाँ मुझे अपने वजूद से ही घिन हो चली थी |<br />
मैं वहाँ रहती तो मर ही जाती , काकी | मर ही जाती मैं | <br />
बस ये समझ लो , कि मौत और अपमान में से मैंने अपमान को चुना | "<br />
<br />
"और सुनो | जिस दिन मैं आई काकी , मैं कोई दुबक छिपक के ना आई | मैं जब निकल रही थी तो मेरी महतारी ने जान बूझ मेरी तरफ से मुँह फेर लिया | उस माँ ने जिसने मुझे अपनी कोख में पाला | उस माँ ने ! "<br />
निम्मी का गला फिर से रुंध आया था " वो मुझसे छुटकारा चाहते थे काकी | वो सब के सब मेरा जाना चाहते थे | सच्ची मानियो काकी | मेरा जाना उनकी सबकी मर्ज़ी था | "<br />
<br />
काफी देर हो गयी थी | निम्मी का पति मोटरसाईकिल पर खड़े खड़े आवाज़ लगा रहा था | काकी को नमस्ते कर निम्मी आगे बढ़ गयी थी |<br />
<br />
<br />
सचिन कुमार गुर्जर<br />
रविवार , १२ जुलाई २०२० </div>
Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-63109386290739950982020-06-20T02:20:00.001-07:002020-06-20T02:48:26.639-07:00स्टार कौन ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzwg8caSXgOFd4jqEhg03BwvNjf2y9M1GfNxkFfqAqGvF4KosgMl7UxxVqRYg7ys1Yg98B60cH9KYJegVcs-PsUvL0eY2w5cqz3wyUqe5ObGZhrzGGHjky1_5TnQRyrpdK07PGV0ypGlI/s1600/2paths.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1065" data-original-width="1600" height="424" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzwg8caSXgOFd4jqEhg03BwvNjf2y9M1GfNxkFfqAqGvF4KosgMl7UxxVqRYg7ys1Yg98B60cH9KYJegVcs-PsUvL0eY2w5cqz3wyUqe5ObGZhrzGGHjky1_5TnQRyrpdK07PGV0ypGlI/s640/2paths.jpg" width="640" /></a></div>
<br />
"मरे हुए लोगो के हिस्से ,जिन्दा लोगो से ज्यादा फूल आते है | पछतावे और मलाल के भाव आभारी और कृतज्ञ होने से भारी होते है | " वो द्वितीय विश्वयुद्ध का दौर था, पर यहूदी किशोरी एनी फ्रैंक की ये पंक्तियाँ आज भी उतनी ही सार्थक हैं |<br />
और किसी किसी कल्चर विशेष में नहीं, बल्क पूरी आदमजात में ये दकियानूसी यहाँ वहाँ नुमायाँ होती ही रहती है |<br />
<br />
पिछले दिनों में मैंने ऐसे लोगो को भी सुशांत सिंह राजपूत के बारे में बोलते ,सुनते सुना है जिन्हे बॉलीवुड में कोई इंटरेस्ट नहीं है | मैंने खुद उसकी कोई फिल्म नहीं देखी | लेकिन एक युवा , होनहार कलाकार का यूँ हार के चले जाना , देश के जनमानस को झंझोर के गया है | आखिर कुछ ऐसी सफलता की कहानियाँ तो होती है जिनसे मध्यम , निम्न मध्यम वर्ग का युवा इंस्पायर होता है |<br />
<br />
संवेदना स्वाभाविक है लेकिन सुशांत के यूँ हार जाने को जस्टिफाई करना , सही या गलत , कथित बॉलीवुड माफिया का भूत खड़े कर देना , मेरी राय में एक गलत दिशा है |<br />
पिछली आर्थिक मंदी में एक घटना हुई थी | अमेरिका में सेटल एक युवा इंजीनियर ने आत्महत्या कर ली थी | वजह, नौकरी चले जाना | पढाई में हमेशा अब्बल , किसी बड़े कॉलेज से इंजीनियरिंग की डिग्री लिए उस इंजीनियर ने जिंदगी में हमेशा जीत ही देखी थी | पहली हार हुई , बौखला गया , समझ ही नहीं पाया | हार झेल जाने की कोई रणनीति उसके पास थी ही नहीं | खुद के मानक इतने ऊँचे थे कि नौकरी चले जाने तक को नाकाबिले बर्दाश्त अपमान समझा |<br />
भारत के मध्यम वर्गः में एक पूरी ऐसी पीढ़ी तैयार हो गयी है , जो इस कदर एस्पिरेशनल है कि 'हार' जैसा शब्द उनकी डिक्शनरी में होते ही नहीं | और जो जितना ज्यादा होनहार , उतना ही ज्यादा फ़्रस्ट्रेट | सुशांत सिंह राजपूत जैसे युवा उस पीढ़ी को रिप्रेजेंट करते हैं |<br />
<br />
किसी को याद करना , संवेदनाएं व्यक्त करना या फैन होने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है |<br />
लेकिन सुशांत जैसे लोगो को मरने के बाद जिन्दा होने से भी बड़ा स्टार बना देना , ये मुझे असहज करता है |<br />
आप खुद ही सोचिये | बड़ा कौन है , जो हार गया या जो बेइज्जती , अपमान का विष पीता , परिवार ,संपत्ति सब कुछ लुट जाने के बाबजूद जिंदिगी जीने में आस्था रखता है |<br />
बताइये , कौन है बड़ा??<br />
<br />
रुकिए , आगे मत पढ़िए | थोड़ा पेशानी पे बल डालिये , आपको अपनी जान पहचान में भी ऐसे लोग दिख जायेंगे |<br />
<br />
<br />
मैं नाम नहीं ले सकता लेकिन मेरी नज़र में भी ऐसे लोग हैं |<br />
बताइये आप , आदर्श परिवार क्या होता है ? नौकरी , घर , स्वास्थय | प्यार करने वाली, कभी कभार लड़ भी ले पर मन को भाने वाली , घर को बाँध के चलने वाली बीवी |<br />
सुन्दर और पढाई में मन लगाने वाले दो बच्चे | एक लड़का , एक लड़की | बस्स | यही ना ?<br />
<br />
अतिश्योक्ति बिलकुल नहीं , एक एक मानक पर वो परिवार खरा उतरता था |<br />
हुआ यूँ , कि लड़की ने ज्यों ही किशोरावस्था से निकल यौवन की ड्योढ़ी पर कदम रखा , प्रेम प्रसंग हो गया ,गाँव के ही किसी युवक के साथ | वो भी विजातीय | आप पश्चिमी उत्तररप्रदेश के हिंटरलैंड के परिपेक्ष में इसे समझिये , तभी आप मुद्दे की इंटेंसिटी को पकड़ पाएंगे |<br />
प्रेम प्रसंग क्या ठग प्रसंग कहिये | युवक पहले से शादी शुदा , लती , प्रसनी था | पहली बीवी जान छुड़ा के भाग गयी |<br />
मान मनब्बल के दौर हुए , समझायी, पर लड़की समझने की उम्र में नहीं थी , चली गयी |<br />
रपट दावे हुए , पर चूकि दूसरी जाति का पक्ष बड़ा था और ये पीड़ित परिवार अकेला , थक हार के घर बैठना पड़ा |<br />
<br />
काश बात यही थम गयी होती | सामने वाला पक्ष इस कदर हावी हुआ कि प्रेमी , लड़की के साथ इस परिवार के सामने वाले घर में ही रहने लगा | कुछ ने परिवार का दर्द समझा , प्रेमी पक्ष को समझाया कि जिए ये दोनों अपनी जिंदगी , पर इन बेचारो की छाती पर चढ़ कर तो न रहे | कही और जा बसे |<br />
फिर हार | रोज रोज की जलालत , ताने , गली मोहल्ले के अट्टाहस | जिंदगी नर्क हो गयी |<br />
इन परिस्थितियों में कमजोर को पलायन ही सूझता है | वही हुआ , जमीन घर सस्ते में बेच पीड़ित परिवार दूर कही दुसरे गाँव के सिमाने पर जा बसा |<br />
<br />
अपमान ने उनकी मनोदशा पर इस कदर प्रहार किया कि नए गांव में भी उन्होंने आबादी से कोई किलोमीटर भर दूर डेरा बनाया |<br />
लड़का सुन्दर होनहार , लम्बा , गौरवर्ण , पढाई में अब्बल ,फौज में अफसर बनना चाहता था | वो उस दिशा में प्रयासरत था और शायद मंजिल पा भी लेता |<br />
पास के कसबे से कुछ सामान खरीदने गया था , सड़क पर लापरवाह ट्रक वाले ने बाइक में ऐसी टक्कर मारी कि अस्पताल तक ले जाने का समय भी न दिया , मौके पे ही दम तोड़ गया |<br />
आप नाप सकते है उस बूढ़े होते दंपत्ति का दर्द ? बेटी गयी | बेटा गया | घर गया , स्थान गया , समाज में अपमान हुआ |<br />
<br />
अजी छोड़िये ,दुनिया दर्द भरे किस्सों से भरी पड़ी है | पर आप उनकी जीवटता को तो देखिये | जिंदगी में उनका भरोसा देखिये |<br />
कुछ साल पहले मैं जब उनसे मिला था तो उत्साह भर उन्होंने बताया था कि गाँव के कुछ बच्चो को वो खाली समय में ट्यूशन देते है | उनका इरादा बिहार के सुपर ३० की तरह कुछ बच्चे छांट एन डी ए की तैयारी कराना था |<br />
उन्होंने जीने का मकसद ढूढ़ लिया था | जिंदगी बीहट हो गयी थी पर उन्होंने सपने पाल लिए थे |<br />
हाँ , हाँ उन्होंने जीना सीख लिया था |<br />
चाय पीने के बाद, और बहुत देर दूसरों की बातें कर जब मैं चलने को हुआ तो मैंने कहा , "सब ठीक है पर आप अपनी सेहत का ख्याल रखा कीजिये | "<br />
<br />
ये एक आम सी बात है जो रिवायतन सभी बोलते है , पर मैंने पाया कि स्त्रीमन की आँखों के कोरे भीग गए थे | शायद मुझमे वो अपने बेटे का अक्स ढूढ़ रही थी |<br />
और पुरुष ? पुरुष ने आसमान की ओर हाथ उठा कहाँ " बस लल्ला , जैसे वो नीली छतरी वाला रखना चाहे , हमे मंजूर है | "<br />
जब मैं उनके स्थान से निकल रहा था , तब मेरे मन में एक हूँक सी उठ रही थी | उन लम्हो में मैं भगवान् होना चाहता था |<br />
अह्ह्ह , उनकी जिंदगी में जो कुछ भी गलत हुआ था , मैं वो सब अनडू कर देना चाहता था |<br />
<br />
<br />
बताइये आप मुझे , सुशांत सिंह राजपूत बड़ा स्टार है या ऐसे लोग???<br />
<br />
-सचिन कुमार गुर्जर<br />
<br />
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Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3545545260883237623.post-63395765213208193742020-06-17T08:23:00.000-07:002020-06-17T08:23:14.036-07:00मन तरंग <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqDw5i2-cwIrUebGN5l9mh14mDAuxcsgqqjgWAg36vYHmoL3_oEnefkRh7BIHLXBjVbFDFpZ9c3WcwBJkqhfLY_WRZNv0bhPlRf9JgBasEx80-Jk8-JYB92Fjg2v79a-a9k4JY6ZBD8J0/s1600/dragon-and-elephant-can-peacefully-co-exist-china.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="225" data-original-width="300" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqDw5i2-cwIrUebGN5l9mh14mDAuxcsgqqjgWAg36vYHmoL3_oEnefkRh7BIHLXBjVbFDFpZ9c3WcwBJkqhfLY_WRZNv0bhPlRf9JgBasEx80-Jk8-JYB92Fjg2v79a-a9k4JY6ZBD8J0/s640/dragon-and-elephant-can-peacefully-co-exist-china.jpg" width="640" /></a></div>
<br />
भारत एक हाथी है और चीन ड्रैगन है|<br />
जिसने भी ये रूपक गढ़े है , बड़े ही सटीक गढ़े है , दोनों की सीरत और नीयत को सही से नापते -भांपते | <br />
दैत्य की फितरत है फुंकारना , दहशत फैलाना और बड़ा साम्राज्य खड़ा करना |<br />
इधर हाथी के साथ दिक्कत ये है कि वो सुस्त रफ़्तार है |<br />
उसके शरीर पर शिखा से धरा तक जोंक लिपटी हैं जो सुबह से शाम उसे चूसती हैं | और उसमे उतना भर खून छोड़ती हैं कि प्राणी जीवित रहे बस , ताकि अगले दिन फिर से चूसा जा सके | परजीवियों का आंकलन आपके विवेक पर छोड़ता हूँ |<br />
<br />
रात काफी देर से सोया | झुंझलाहट , निराशा , गुस्सा , इन्ही में उतरता डूबता रहा |<br />
सोचता रहा , मुझे क्या दिक्कत है और जितनी सूक्ष्म मेरी हस्ती है , उसमे मैं क्या बना बिगाड़ सकता हूँ | <br />
बेहतर लोग , बड़े काबिल लोग जिम्मेदारियां संभाले है , जो उनका मुतक़बिल , वही मेरामुस्तकबिल |<br />
लगा मनोविकार है ये शायद , एक ही बात को बार बार घुमाते जाना , लाचार महसूस करना |<br />
सोचा कि उम्र का वो पड़ाव आ चूका है जहाँ मन में आनंद कम , चिंता की गर्द ही ज्यादा उड़ती है |<br />
<br />
फिर एक विचार ये भी आया कि मैं ही नहीं हूँ | औसत भारतीय के कलेक्टिव कॉन्ससियसनेस्स में ये बात है कि महान न सही पर ये देश रसूख के उस पायदान पर खड़े होने का हकदार जरूर है कि कोई भी यूँ ही बाँह मरोड़ के चलता न बने |<br />
"बलिदान बेकार नहीं जाएगा ", "अखंडता पर आंच नहीं आने देंगे" , "हम सक्षम है " वगैहरा वगैहरा |<br />
पता नहीं क्यों मुझे ये सब खोखला जिनगोइज़म लगता है | मुआफ कीजियेगा , मेरी फितरत का झुकाव नकारात्मक रहता है शायद |<br />
<br />
<br />
चीन ने , जिनका सोशल मीडिया पर कुछ दीवाने 'डेढ़ फुटिया ' या नकली सामान के सौदागर कह मज़ाक उड़ाते है , बड़े डिफ्रेंशिअल खड़े कर दिए हैं | बड़े मतलब बहुत बड़े |<br />
इतने बड़े कि बीस जवानों के शहीद हो जाने पर जहाँ हमारे जनमानस में , मीडिया में , सत्ता के गलियारों में गुस्सा , चिंता, ढृढ़ता , 'हम एक है ' , हर तरह की भावनाओ का स्वाभाविक सैलाव है , हमारे अखबार , न्यूज़ पोर्टल बड़े बड़े आर्टिकल्स से भरे पड़े है , वही चीनी मीडिया में कही दूसरी तो कहीं चौथी वरीयता की खबर बनी है | <br />
आप कह सकते है कि प्रोपेगंडा है , जान बूझ कर हमे कम आंकने का , खुद को बड़ा समझने का | लेकिन जब इतने बड़े टकराव को भी कोई देश 'अमरीका में प्रेस फ्रीडम ' और 'चीन की अफ्रीका को ऐड' जैसी खबरों के समतुल्य रखे तो आप मानिये सामने वालो के दाँव खेल बड़े हैं |<br />
<br />
हाँ , आपकी तरह मुझे भी भरोसा है कि जो होगा सर्वहित में होगा | परिस्थितियाँ जितनी गुंजाइश देंगी , हमारा नेतृत्व उस हद तक देश हित में एकजुट हो प्रदर्शन करेगा |<br />
पर मायोपिआ से बचिए | हमारे नवरत्न HAL द्वारा सालों की मशक्कत के बाद विकसित 'तेजस' की तुलना चीनी J -15 या J -२० से कर क्षमताओ का आंकलन कीजिये !<br />
डिफ्रेंशिअल कम कीजिये , आज नहीं , अगले 10 साल में , २० साल में |<br />
जोंक हटाइये और हाथी को मदमस्त हो आगे बढ़ने की परिस्थतियाँ पैदा कीजिये | हमारे लिए न सही, बच्चो के बेहतर भविष्य के लिए | कुछ ठोस कीजिए सरकार , कुछ ठोस कीजिये |<br />
<br />
शहीदों को श्रद्धांजलि , उनका कर्जमंद<br />
सचिन कुमार गुर्जर <br />
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<br />
<br />
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Sachin Kumar Gurjarhttp://www.blogger.com/profile/08147353441555213058noreply@blogger.com0