मंगलवार, 6 सितंबर 2016

वर्क फ्रॉम होम


" एक बात बता लल्ला, और सच्ची सच्ची बतइयो।तीन महीने हुए ,आये दिन घर पर ही दीख पड़े है। नौकरी चल रही है या कुछ अड़चन ?" काका ने कुर्सी पे टिकते ही सवाल दाग मारा | सूती तौलिया जिसे उन्होंने अपने सिर से लपेटा था , उसे उतार घुटनों पर रख लिया | चाइनीज सनमाईका की चिकनी मेज पर काका ने अपनी कोहनियां चौड़ी कर बड़े इत्मीनान से टिका दीं। उनके हाव भाव से साफ़ था कि वे बड़ी फुरसत में थे और विस्तार से कुछ बात कहने सुनने की तबियत में थे ।

इंजीनियर लड़का बस हँस भर दिया । इंजीनियर जो  इसलिए इंजीनियर था क्योंकि वो सरकारी पटवारी ना हो सका !
हँसने का मूड न होने पर भी वो हँस दिया । अंदर से ख़ीज से भरा था उसका मन । वो यूँ कि जब से उसने पिछले कुछ महीनों से उम्मीद से ज्यादा गाँव में रुकना शुरू किया , ये सवाल सैंकड़ों बार दागा जा चुका था । और फिर उसने कोशिश भी तो बहुत की थी हर बार । कोशिश ये समझाने की  कि प्राइवेट कम्पनियों में 'वर्क फ्रॉम होम ' माने ' चलो , आज घर से ही लॉगिन कर लो'  नाम की भी कुछ कार्य प्रणाली होया करे है । पर हर बार असफल रहा बेचारा | 

सात  जातों की  मिली जुली आबादी वाले उस गाँव में जितने भी चतुर दिमाग थे किसी को भी ये बात गले नहीं उतर पा रही थी कि भला कोई घर बैठ कैसे कंप्यूटर में ताक ताक आफिस का काम कर सके है !
अजी !  नौकरी सरकारी हो जैसे  मास्टरी , पटवारी  , अमीन , क्लर्क, चपरासी , तब तो कोई संयोग बन सके है |   पर भला कोई प्राइवेट फर्म क्यों दिए बैठी घर बिठाये तनख्वाह!
हैं जी !प्राइवेट नौकरी में मालिक आँख के सामने काम लेता है , तेल निचोड़ मेहनत लेता है! तब तनख्वाह देता है ।
ये सहज ज्ञान की बात है ,सबको पता होती है ।

पर इंजीनियर लड़का जानता था कि काका के सामने उनके सवाल से खिसिया जाना घातक होगा ।बेहद घातक ! वैसे ही जैसे सामने से आते थानेदार से घबराकर कोई चोर गली काट कर भागने का सोचे | कुछ वैसे ही  गुच्छेदार मूँछों  और  लंबी रोमन नाक के ऊपर अंगारों सी सजी काका की बड़ी आँखें पत्थर फोड़ कर मामले की तह तक जाने की कूबत रखती है | ज़रा सी भी बेचैनी दिखाई होती या बात काटने की कोशिश की होती तो काका ने पूरे मामले का निष्कर्ष अपने सहज ज्ञान से कर दिया होता और फिर वो निष्कर्ष गाँव की हर गली , हर नुक्क्ड़ ,हर बैठक दालान पे कथा सा बाँचा जाता!

लिहाजा लड़के ने ठण्डी साँस लेकर कहा " नहीं काका , नौकरी बराबर चल रही है ।मैं 'वर्क फ्रॉम होम' कर रहा इन दिनों!
 मतलब कुछ दिनों के लिए घर से ही काम ।  इधर पिछले दिनों से काम कुछ कम है । फिर अभी हाल में मेरा तबादला भी हुआ है सो कंपनी ने घर से ही काम करने की छूट दे रखी है । "

"अच्छा , हाँ तेरा काम तो कंप्यूटर का ही है । ऐसा हो जाया करे है लल्ला ? मतलब घर बैठे ही काम ? " काका ने स्थिति समझने को पुरजोर प्रयास किया था ।

" हाँ काका ,सब काम इन्टरनेट पर  हो जाता है ऑनलाइन । " लड़के ने समझाते हुए बोला।
" हाँ हाँ , मैं समझूँ हूँ । जमीन की खसरा खतौनी भी तो निकल रही आजकल कंप्यूटर पे। तहसील का तो आधा काम कंप्यूटर ही कर रहे । है के नहीं ? सब प्रमाण पत्र इसी पे निकल रहे। " काका के मगज में दुनिया भर का ज्ञान भरा हुआ है , पहली बार लड़के को ऐसा अहसास हुआ ।उसे इस बात का सुकून आया कि चलो कोई तो है जो मामले को समझा । 

"यो ससुरा बनवारी" काका ने धीमे से बड़बड़ाया ,पल भर को भृकुटियाँ तानी , मुठ्ठी भींची और फिर तुरंत ही ढीली छोड़ दीं ।
फिर अपनी बड़ी बड़ी आँखें लड़के के चौखटे पे टिका बोले " अच्छा ,एक बात बता लल्ला। ये प्राइवेट कंपनियों में भी रिश्वतबाजी चला करे है क्या? मतलब उधर भी ऊपर की आमद , लेन देन चला करे है क्या?"  बड़ा ही मासूम सा सवाल दागा था काका ने | 

" ना काका ना ,ये कोई सरकारी नौकरी थोड़े ना है । कंपनियों में बड़ी सख्ताई होती है । घूसखोरी का कोई गणित नहीं बनता उधर ।होता होगा कही,  पर मेरे इधर तो इत्ता सा भी ना है , नाखून बराबर भी नहीं| "
अभी तक लैपटॉप के पीछे छिपे लड़के ने लैपटॉप किनारे खिसकाते हुए सफाई दी। लड़के की आवाज़ में गर्व था , मेहनत और ईमानदारी से रोटी कमाने का गुमान !
" प्राइवेट फर्म की नौकरी मेहनत और ईमानदारी की होती है काका" बात पुरानी थी , सुनी सुनाई थी, पर लड़के ने इसे जोड़ना जरूरी समझा।

" ह्म्म्म, समझू हूँ ।.... यो ससुरा बनवारी!" काका ने फिर बड़बड़ाया।

"मौसम में बदलाव है रघुआ, आधी रात बाद मुझे खेस ओढ़ना पड़ा । हल्का सर्द हुआ है मौसम"  रघवर सिंह आ गए थे | रघवर सिंह यानि इंजीनियर लड़के के पिता | रघवर सिंह जिनके दिल ने हमेशा ये चाहा कि लड़का पटवारी हो या दरोगा | लेकिन लड़के ने जब ये कहा कि पैकेज चक्रवृद्धि ब्याज सा बढ़ेगा, और मेहर हुई तो विदेश का डॉलर भी बरसेगा  तो उन्होंने धीर पकड़ ली ।
उन्होंने नए बीड़ी के बण्डल का कवर कागज़ फाड़ा | बण्डल में पचास पैसे के इनाम का कूपन था |  कूपन को कुर्ते की जेब में संजो दो बीड़ियाँ सुलगा लीं और एक बीड़ी काका की ओर बढ़ा दी ।
" अरे अभी अभी तो बीड़ी पी मैनें  भैय्या | " काका ने बीड़ी थामते हुए बस ऐसे ही बोल दिया था ।

" तो तुमने चर्चा सुनी रघवर  " पहला कश खींचते ही काका कुर्सी घुमा बोले।
" हाँ , जिक्र आया एक दो जगह से। सुना है मैंने भी।" पिता  का सुर निरुत्साही था। बात उन्हें पता थी ।

" ये हरामखोर बनवारी और उसके लड़के , हर चौपाल पर बकते फिर रहे  कि लल्ला की नौकरी चली गयी। निकाल दिया । के  लल्ला ने कंपनी में रिश्वत ले ली और बड़े मैनेजर ने रंगे हाथों धर दबोचा ! इसी लाने  आजकल आये दिन गाँव में डोलता फिरे है । " काका ने साँस तब लिया जब पूरी की पूरी कथा उवाच गए ।

"क्या?????"  अभी तक उदासीन , बेमन से बात करते लड़के को मानो चार सौ चालीस वाल्ट का करंट सा छू गया । उसे लगा वो उछल के छत से जा टकरायेगा।

"हाँ , कई दिनों से , कई चौपालों से ऐसी चर्चा सुनने में आई है। " रघवर सिंह  ने ठंडी सांस ले बात की पुष्टि की ।

बनवारी और उसके लड़कों  की रचनाशीलता से लड़का हतप्रभ तो था ही | मन हुआ कि हँसे भी।

रघवर  झुंझलाये  । परिवार पे कोई छोटा सा भी लांछन लगाए उन्हें ये गवारा नहीं । और हो भी क्यों , उन्होंने उम्र भर पैसा कम इज़्ज़त नाम ज्यादा कमाया है ।
" देख पीतम  , जिस दिन सरपंची का चुनाव ख़तम  हुआ , हमने गाँव की राजनीत से हाथ जोड़ लिए । है कि नहीं ?
पर ये साले, हमे खींचना छोड़ेंगे नहीं ।कुछ  काम धंधा है नहीं इनके पास ,हम पर कीचड़ उछालने के अलावा।" इंजीनियर के पिता उबाल पर थे ।

" मतलब ये सोचो भैया , के इन लोगन के दिमाग चलते किस कदर तेज़ है ।" 

"कहन दो भैय्या , तुम अपने काम से लगे रहो , जे राजनीत का खेल कतई अच्छा ना है । कीचड का जबाब देना चाहोगे तो खुद भी तो कीचड में उतरना पड़ेगा । है कि नहीं | "  काका ने बुझती बीड़ी को अपने चमड़े के जूते से रगड़ मेज तले खिसका दिया और उठ चले | 


अब जब खबर पूरे गाँव में हो तो पत्नी  से कैसे छिपे । शाम को मैनेजर के ऑफिस मेसेंजर से ऑफलाइन होते ही लड़के ने लैपटॉप समेट खाने की फरमाइश की |  
" पता है सुनोगे नहीं , पर फिर भी बताती हूँ । सुनो हो भैय्या का फोन आया था। १२०  गज में अच्छे प्लॉट कट रहे है , नए मुरादाबाद शहर में । अच्छा लगा अपनी चर्चा सुन के , क्यों ? जिंदिगी भर यही देहाती उठापटक सुनोगे या इंसानो की तरह भी जियोगे ?"  पत्नी ने खाने की प्लेट सामने रखते हुए उबाचा ।
" कितनी बार बोला है ,नमक कम रखा करो सब्जी में " लड़के ने खीजते हुए कहा।
और पत्नी मुस्कुराई भर । गाँव का मोह भंग कर लड़के को शहर खींच ले जाने का जो उसका सपना है , उसे साकार करने में 'बनबारी की अफवाह' जैसी घटनाओं  का घटना बेहद जरूरी है ।

                                                           --- सचिन कुमार गुर्जर

श्रद्धा भाव

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