गुरुवार, 3 नवंबर 2016

समर्पित प्रेम


प्यार की तासीर उतावलेपन की होती है । नतीजन, वो नया प्रेमी गैरआराम था । उसकी उँगलियाँ  उसके  वाइड स्क्रीन फ़ोन पर बेचैन सी नाच रहीं थी ।  आँखे  कुछ टोह रही थी , इंतज़ार था उन्हें किसी का शायद !

 अच्छे खासे अरसे उल्लू की तरह स्क्रीन को घूरने के बाद प्रेमी की आँखे चमकी और उसने बड़ी वाली स्माइल देकर बोला  " सुनो  जानू , आई लव यू , आई मिस यू . "

जबाब आया " ह्म्म्म "
नपा तुला ह्म्म्म , हाँ  बस इतना ही !
प्रेमी  का चेहरा मुस्कान से  दर्द में कुछ ऐसी फुर्ती से बदला जैसे  खिलते लहलहाते हुए छुईमुई के  पौधे को कोई झंकझोर  गया  हो।
उदास मन शांत हो गया । निशब्द, अवसादग्रस्त वाला शांत ।
 
 किसी भी गंभीर प्रेमिका की तरह वो प्रेयसी भी सब कुछ सह सकती थी पर सन्नाटा नहीं !
सो उससे रहा ना गया और उसने बोला " बोलो भी कुछ "

प्रेमी बहुत कुछ कहना चाहता था , पर ये जो प्रेम होता है ना , इसकी विधा नाटक माँगती है , सो उसने कहा " कुछ नहीं , बस ऐसे ही , मूड थोड़ा उखड़ा हुआ है आज । "

सर्वज्ञात है पर फिर भी बताने योग्य है कि स्त्री पुरुष प्रेम में स्त्री की भावनाएं ज्यादा सूक्ष्म होती है , वो अपने प्रेमी के 'हेलो ' कहने के आधार पर ही उसका मूड भांप सकती है !
सो उम्मीद के मुताबिक प्रेयसी  ने प्रेमी को  कुरेदा " क्यों बेबी , क्यों ? हुआ  क्या है ?

बोलो , क्या चल रहा है दिमाग में ? जल्दी बोलो "


प्रेमी मानसून के बादल सा  फटने  के इंतेज़ार में ही था " सुनो , रात तुम पूरे 25 मिनट तक व्हाट्सएप्प पर ऑनलाइन थी ? पर एक भी मैसेज किया ?"

"ओह्हो ,बात की तो थी ?"

"हाँ , पर वो  तब , जब मैंने मैसेज किया ।" 

प्रेमी  यही नहीं रुका  " तुम सुबह 6 बजे भी पूरे 8 मिनट ऑनलाइन थी , पर एक भी मैसेज नहीं किया । "

प्रेयसी  को अपनी बारी  का इंतज़ार था और उसका जबाब तैयार था  " यार , तुम्हे मैं  कैसे यकीन दिलाऊ कि बस एक तुम  ही हो , और कोई   नहीं । दूर दूर तक भी नहीं ।
क्या  करूँ मैं ऐसा यार , दिल चीर के दिखाऊ अब । तब मानोगे ? "

प्रेयसी  समस्या का त्वरित समाधान चाहती थी " सुनो , मैं सच कह रही हूँ  , मैं व्हाट्सएप्प डिलीट किये देती हूँ । ठीक है?   तब तो तुम आराम से , बेफिक्र रह सकोगे ना ? बोलो ? "
 बोलो ना माय सोना , क्या मैं आपके लिए इतना सैक्रिफाइस नहीं सकती ?
बोलो तो एक बार।  " 

प्रेमी का गुस्सा और उसकी शिकायत दोनों  उथले ही थे । पल भर  में भाप हो गए । पेशकश ने उसे कसमकश  में डाल दिया ।
दिल पिंघल  गया । क्षण  भर में उसके चेहरे पे प्यार और पछतावा उभर आया ।
" नहीं नहीं , व्हाट्सएप्प डिलीट मत करना पागल ।
मैं.... मैं तो बस  ऐसे ही । बहुत चाहता हूँ तुम्हे यार ।
समझता हूँ ।  पर यू नो , होता है प्यार कभी कभी पोसेसिव  हो जाता है ।सॉरी बेबी , सॉरी मेरी कुच्ची पुच्ची !"

प्रेमी अब आराम में था, प्यार बेफिक्र था । वो  मज़बूत दिल था पर प्रेयसी के समर्पण और व्हाट्सएप्प तक उड़ा डालने की पेशकश से उसकी आँख में छोटा सा आँसू उतर आया था !


                                                                                                ---सचिन कुमार  गुर्जर




गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

एक था पिन्टू


उसके पैरो में इस्पात की  स्प्रिंग लगीं  थीं शायद ,जिनकी मदद से वो दौड़ता नहीं  ,बल्कि उड़ता था ।
मौहल्ला क्या ,पूरे गाँव में उसकी टक्कर का धावक ना था ।
चोर सिपाही के खेल मे वो हमेशा सिपाहियों का नायक माने दरोगा बना करता। नाम होता दरोगा 'जालिम  सिंह' !  तगड़े से तगड़े चोर को वो फर्लांग भर में धर दबोचता और सचमुच जालिमो जैसे धुलाई करता ।
लकड़ी  के तख्ते  वाले स्वनिर्मित  बैट से उसने जो छक्के मारे , आज तक उस गूजर टोले में कोई धुरंधर उसका रिकॉर्ड ना तोड़ पाया ।
उसका सीना फौलाद का था ,जिसका मुजायरा वो कई बार साथ  के लड़को से अपने सीने पे पुरजोर मुक्के बरसवा कर किया करता था ।
पिंटू  ने अपने खडूस बापू से कई बार मार खाई थी पर उसे अपनी शर्ट के ऊपरी बटन लगाने मंज़ूर ना थे ।
वो कुछ भी पहनता , इस  बात का जरूर ख़याल रखता कि उसका नंगा सीना नुमाया होता रहे !

उस चांडाल चौकड़ी में हालाँकि  वो सबसे बड़ा था , पर इत्ता बड़ा भी नहीं । हमउम्र ही माना जायेगा ।  हाँ  शरीर  उसका ड्योढ़ा था  और जैसा वर्णित है ' जिगर से भी जबर'  था । सही मायनो में वो उस  चांडाल चौकड़ी का 'अल्फ़ा मेल ' यानी ' सबसे जबर मर्द' था ।
एक बार लाला की दुकान की आधा दर्जन  संतरे वाली टॉफियाँ खिला कर झुंड  के सबसे पिद्दी लड़के ने बड़ी लगन से पूछा था "यार पिंटू ,आड़ी ! ,  सच सच बता, तेरे फौलादीपन का राज क्या है ?"

गहरी साँस ले और सच्चे दिलदार की भाँति पिंटू ने दिल खोल के राज उगला था " यार मैं सुबह खाली पेट ,अपनी काली  गाय का कच्चा दूध निपनिया (बिना पानी की मिलाबट  ) मिश्री की डली के साथ पिया करूँ हूँ। वो भी नाक बंद कर , एक साँस में !  "

पिद्दी लड़के ने जब ये वृतांत अपने दादा को  उबाचा वो दादा ख़ुशी ख़ुशी अपने प्यारे पोते को  सेर भर निपनिया , कच्चा दूध ,मिश्री की डली डाल  पिलाने लगे । हफ़्तों गए  ,फिर महीने चले गए , काली गाय  का कच्चा दूध गटकने के बाबजूद भी पिद्दी  पिद्दी ही रहा ! पिन्टू  की परछाई जितना फौलाद भी ना बन पाया ।मरियल शरीर और कमजोर फेफड़ो के चलते चोर सिपाही के खेल में पिद्दी का किरदार हमेशा छोटे चोर या फिसड्डी हवलदार का  ही रहा । लकड़ी के तख्ते के बैट से वो इकड़ी दुकडी  ही ले पाया या उसे बाउंड्री  पे इस उम्मीद साथ लगाया गया कि उधर विरले ही कोई शॉट  जायेगा !

 उस उम्र में जब बाकि लड़के इंजेक्शन के डर से रोने के बजाय मुँह फेर ऊँगली मुँह में दबाना सीख रहे थे ,पिन्टू   अपने सीने  पे बड़ा बड़ा , स्पष्ट अक्षरो में 'मर्द' गुदवा के आया था ।

हाँ  जी , उस उम्र में! किसी मेले में गुदवा के आया था ।

मोहल्ले  के फौजी काका ने बड़ी जांच पड़ताल  के बाद ये ऐलान किया था कि गाँव  तो क्या  सात गाँवो  में भी पिंटू जैसा धावक नहीं हो सकता । ऐसा  उनके अनुसार , उसके पैरो की ख़ास बनाबट की वजह से था । पिंटू  के पैर  के पंजे और ऐड़ी  के बीच में इत्ती  ज्यादा खाली जगह थी कि मोटे से मोटा नाग भी आराम से निकल सके था ।और ये ख़ास बनावट उसे ख़ास बनाती थी ।

फिर क्या हुआ ? वही जो होता आया है , लड़के ज्यो ज्यो समझदारी की ओर कदम रख रहे थे , जिंदगी की जद्दोजहद उनपे पकड़ बना रही थी । जो पढाई में थोड़े बेहतर थे उनपर किताबे रटने का दबाब , बाकि पे काश्तकारी में गंभीरता से हाथ बटाँने का दबाब । पर हिचकोले खाती जिंदगियों में यारियाँ कायम रही ।

पिंटू बड़ा था , तेजी से गवरू हो चला था । ऊपर से उसके हिस्से छः एकड़ मोटी उपजाऊ जमीन थी , उस पर पढ़ने का दबाब ना था । सो उसका बिहा सबसे जल्दी हुआ ।कम उम्र ही थी बेचारे की । मसे भीगी ही थी , शौकिया ही वो नाई से उस्तरा लगवा  दाढ़ी मूछे  साफ़ कराने लगा था ।

हाँ , बिखरती यारियों का पहला लक्षण पिंटू की शादी के तुरन्त बाद ही परिलक्षित हो गया था,  जब  तमाम वादों को जुठलाते हुए उसने अपने खासम ख़ास दोस्तों को सुहागरात की कहानी सुनाने से साफ़ साफ़ इनकार कर दिया था । पिंटू अब सिकुड़ रहा था उसकी जगह प्रभास नाम का व्यक्ति उदित हो चला था ।

बाकि के दोस्त उसका उपहास करते । टीस भरा  उपहास । दोस्त को खो देने का उपहास ।
पर बदल तो वो भी रहे ही थे । उनके व्यक्तिव  भी आकार ले रहे थे । पिद्दी अब अपने को पिद्दी ना समझता था ।
उसे लगता था कि उसका शरीर भले ही दुर्बल हो , उसका दिमाग मित्र मण्डली में सबसे बड़ा है ।  वो सबसे बेहतर स्कूल में जाता था ।
जिन्दिगियाँ और भी तेज़ रफ़्तार  से भागने लगीं , चौकड़ी  तितर बितर  होने को विवश हुई, तो पिद्दी को मुहल्ले  की रिपोर्टिंग के लिए अपनी माँ  का सहारा लेना पड़ा ।
माँ की  कहानियों में रंग बिरंगे , छोटे बड़े वृतांत  होते ।

पिंटू अब दो ही जगह दिखाई पड़ता था , खेत के मेंड़ पर या अपनी पत्नी के दुप्पटे के सिरे पर ।
बिहाता ऐसी तेज कि साल भर में ही घर के बर्तन खटकने लगे । और दूसरा साल पकड़ते पकड़ते पिंटू के बापू को जमीन आनाज सब अलग करना पड़ा ।     

एक दिन खरसाह ( गर्मी के दिन) की शाम को पिद्दी को पिंटू खेत से लौटता  दिखा । धूल धूसरित , कंधे लटके हुए , चाल सुस्त ।
बचपन के आड़ी को देख उसने निगाह  बचा ली  । किसी अपराध बोध वश नहीं , किसी शर्म की वजह से नहीं ।  उसकी जिंदगी  की व्यस्तता ही इतनी थी शायद ।

'इसे क्या हुआ ? " पिद्दी के मुँह से निकला था ।
' गृहस्थी  में पड़ गया पिंटू ' किसी ने बताया था ।  फिर उस शाम को उस नुक्कड़ वाले चबूतरे पर पिंटू  और उसकी बीवी का चर्चा चला ।
परते खुली कि किस तरह उसकी बिहाता ने सास ससुर के लिए खाना दाना करने से इनकार कर दिया और पिंटू चुप रहा ।
कि किस तरह उसकी बिहाता ने सारे जेवर अपने मायके में रख छोड़े और पिंटू चुप रहा ।
कि किस तरह पिंटू की पिता की मन्नतो के बाबजूद उसने अन्नागार का दरवाजा खोल सारा आनाज आँगन में ला उड़ेला  और अपने हाथों ही बटबाँरा करने बैठ गयी ।
किस तरह घर रिश्तेदारो के समझाने के बाबजूद उसने घर के आँगन को दो फाख  कर दीवार खड़ी कर दी ।

' बुजदिल साला, कम दिमाग ' पिद्दी ने मुँह भीच इतना भर कहा ।
उसका मन पिंटू के रूपांतरण से दुखी हुआ , झुंझलाया ।

'अरे , पिंटू बुरा नहीं है भईया , इसकी बिहाता राड रखा करे है ' एक काकी ने समझाया था ।
पर  पिद्दी अपने बचपन के यार को माफ़ करने के मूड में ना था ।
' काकी  , मर्द अपनी जमीन पे मजबूती से रहे तो औरत उसे डिगा सके है भला ? क्यों ? '
' गुलाम साला , सीने पे मर्द लिखाये घूमता है '
' मज़बूर हो जाता है आदमी लल्ला , जो भुगते वो ही जाने " ताऊ बोले थे धीमे से पर बड़े अनुभव से ।
पर पिद्दी अपनी बात पे अड़ा था , उसकी मुट्ठियाँ जकड़ी थी , वो अपने पुरषार्थ से दिशाएँ बदलने का माद्दा रखने वाला जान पड़ता था ।
और पिंटू , हवा में तिनके सा  कमजोर जान पड़ता था ।

समय का चक्का और भी घुमा । कल के बन्दर  से छोकरे अब कमाते  आदमी थे ।
सब की गृहस्थियाँ  , जिम्मेदारियाँ , अपनी अपनी जिंदगियाँ ।


महीनो से भी ज्यादा चलती दिन रात की महाभारत से तंग पिद्दी ने अपनी बीवी से गहरी साँस ले  बोला " ठीक है , आगे से जो भी जमा पूँजी होगी उससे हम अलग का अपना , शहर में १००  गज भर का प्लाट ले  लेंगे । बच्चो की इंग्लिश मीडियम की पढाई खातिर ! "
" पर सुनो , मैं  पिता जी से कुछ नहीं लूँगा , अपनी कमाई से ही । "

" हम्म , जैसा सही समझो " पत्नी इतना भर बोली ।
पत्नी  की जद्दोजहद में ये एक पड़ाव भर था शायद  ,मंजिल अभी दूर थी ।  उसे गृहस्थी को और पति को सही दिशा  में निर्ममता से धकेलते जाना था ।  ममता  और निर्ममता में कितना फर्क होता है । ज्यादा नही शायद । शायद माँ और पत्नी होने भर का ।
पुराने घरो की उजड़ी नींव पर नए मकान बनते आये है । पुराने नीड के तिनके नए घरोंदो की तुरपन में लगते आये है ।
पिद्दी बहुत कुछ सोच रहा था । इंसान बुरा होता है या उसका किरदार कराता है सब । पता नहीं ।  सवाल है , जबाब सबका अपना अपना होता है । अपने अपने अनुभव के हिसाब से ।


पता  नहीं क्यों , सालो बाद उस दिन उसका मन पिंटू के साथ संतरे वाली टॉफियाँ खाने का था ।
 दिमाग में सालो से पिंटू के लिए भरा द्वेष धीरे  धीरे पिंघल रहा था ।
उसने माँ से पूछा था " ये प्रभास नहीं दिखता आजकल गाँव में ?"
माँ ने बतलाया था " वो तो पिछले साल ही चला गया शहर । वही मकान बना लिया । आधी जमीन बेच दी , आधी बटाईदार पे रख छोड़ी है ।  अपने बच्चो को इंग्लिश मीडियम स्कूल  में पढ़ाने की खातिर  वो  शहर में जा बसा है !"

उसारे से सब सुनते हुए उसकी बीवी ने बोला " चाय पियोगे क्या ?"

                                                                                -- सचिन कुमार गुर्जर                  



मंगलवार, 6 सितंबर 2016

वर्क फ्रॉम होम


" एक बात बता लल्ला, और सच्ची सच्ची बतइयो।तीन महीने हुए ,आये दिन घर पर ही दीख पड़े है। नौकरी चल रही है या कुछ अड़चन ?" काका ने कुर्सी पे टिकते ही सवाल दाग मारा | सूती तौलिया जिसे उन्होंने अपने सिर से लपेटा था , उसे उतार घुटनों पर रख लिया | चाइनीज सनमाईका की चिकनी मेज पर काका ने अपनी कोहनियां चौड़ी कर बड़े इत्मीनान से टिका दीं। उनके हाव भाव से साफ़ था कि वे बड़ी फुरसत में थे और विस्तार से कुछ बात कहने सुनने की तबियत में थे ।

इंजीनियर लड़का बस हँस भर दिया । इंजीनियर जो  इसलिए इंजीनियर था क्योंकि वो सरकारी पटवारी ना हो सका !
हँसने का मूड न होने पर भी वो हँस दिया । अंदर से ख़ीज से भरा था उसका मन । वो यूँ कि जब से उसने पिछले कुछ महीनों से उम्मीद से ज्यादा गाँव में रुकना शुरू किया , ये सवाल सैंकड़ों बार दागा जा चुका था । और फिर उसने कोशिश भी तो बहुत की थी हर बार । कोशिश ये समझाने की  कि प्राइवेट कम्पनियों में 'वर्क फ्रॉम होम ' माने ' चलो , आज घर से ही लॉगिन कर लो'  नाम की भी कुछ कार्य प्रणाली होया करे है । पर हर बार असफल रहा बेचारा | 

सात  जातों की  मिली जुली आबादी वाले उस गाँव में जितने भी चतुर दिमाग थे किसी को भी ये बात गले नहीं उतर पा रही थी कि भला कोई घर बैठ कैसे कंप्यूटर में ताक ताक आफिस का काम कर सके है !
अजी !  नौकरी सरकारी हो जैसे  मास्टरी , पटवारी  , अमीन , क्लर्क, चपरासी , तब तो कोई संयोग बन सके है |   पर भला कोई प्राइवेट फर्म क्यों दिए बैठी घर बिठाये तनख्वाह!
हैं जी !प्राइवेट नौकरी में मालिक आँख के सामने काम लेता है , तेल निचोड़ मेहनत लेता है! तब तनख्वाह देता है ।
ये सहज ज्ञान की बात है ,सबको पता होती है ।

पर इंजीनियर लड़का जानता था कि काका के सामने उनके सवाल से खिसिया जाना घातक होगा ।बेहद घातक ! वैसे ही जैसे सामने से आते थानेदार से घबराकर कोई चोर गली काट कर भागने का सोचे | कुछ वैसे ही  गुच्छेदार मूँछों  और  लंबी रोमन नाक के ऊपर अंगारों सी सजी काका की बड़ी आँखें पत्थर फोड़ कर मामले की तह तक जाने की कूबत रखती है | ज़रा सी भी बेचैनी दिखाई होती या बात काटने की कोशिश की होती तो काका ने पूरे मामले का निष्कर्ष अपने सहज ज्ञान से कर दिया होता और फिर वो निष्कर्ष गाँव की हर गली , हर नुक्क्ड़ ,हर बैठक दालान पे कथा सा बाँचा जाता!

लिहाजा लड़के ने ठण्डी साँस लेकर कहा " नहीं काका , नौकरी बराबर चल रही है ।मैं 'वर्क फ्रॉम होम' कर रहा इन दिनों!
 मतलब कुछ दिनों के लिए घर से ही काम ।  इधर पिछले दिनों से काम कुछ कम है । फिर अभी हाल में मेरा तबादला भी हुआ है सो कंपनी ने घर से ही काम करने की छूट दे रखी है । "

"अच्छा , हाँ तेरा काम तो कंप्यूटर का ही है । ऐसा हो जाया करे है लल्ला ? मतलब घर बैठे ही काम ? " काका ने स्थिति समझने को पुरजोर प्रयास किया था ।

" हाँ काका ,सब काम इन्टरनेट पर  हो जाता है ऑनलाइन । " लड़के ने समझाते हुए बोला।
" हाँ हाँ , मैं समझूँ हूँ । जमीन की खसरा खतौनी भी तो निकल रही आजकल कंप्यूटर पे। तहसील का तो आधा काम कंप्यूटर ही कर रहे । है के नहीं ? सब प्रमाण पत्र इसी पे निकल रहे। " काका के मगज में दुनिया भर का ज्ञान भरा हुआ है , पहली बार लड़के को ऐसा अहसास हुआ ।उसे इस बात का सुकून आया कि चलो कोई तो है जो मामले को समझा । 

"यो ससुरा बनवारी" काका ने धीमे से बड़बड़ाया ,पल भर को भृकुटियाँ तानी , मुठ्ठी भींची और फिर तुरंत ही ढीली छोड़ दीं ।
फिर अपनी बड़ी बड़ी आँखें लड़के के चौखटे पे टिका बोले " अच्छा ,एक बात बता लल्ला। ये प्राइवेट कंपनियों में भी रिश्वतबाजी चला करे है क्या? मतलब उधर भी ऊपर की आमद , लेन देन चला करे है क्या?"  बड़ा ही मासूम सा सवाल दागा था काका ने | 

" ना काका ना ,ये कोई सरकारी नौकरी थोड़े ना है । कंपनियों में बड़ी सख्ताई होती है । घूसखोरी का कोई गणित नहीं बनता उधर ।होता होगा कही,  पर मेरे इधर तो इत्ता सा भी ना है , नाखून बराबर भी नहीं| "
अभी तक लैपटॉप के पीछे छिपे लड़के ने लैपटॉप किनारे खिसकाते हुए सफाई दी। लड़के की आवाज़ में गर्व था , मेहनत और ईमानदारी से रोटी कमाने का गुमान !
" प्राइवेट फर्म की नौकरी मेहनत और ईमानदारी की होती है काका" बात पुरानी थी , सुनी सुनाई थी, पर लड़के ने इसे जोड़ना जरूरी समझा।

" ह्म्म्म, समझू हूँ ।.... यो ससुरा बनवारी!" काका ने फिर बड़बड़ाया।

"मौसम में बदलाव है रघुआ, आधी रात बाद मुझे खेस ओढ़ना पड़ा । हल्का सर्द हुआ है मौसम"  रघवर सिंह आ गए थे | रघवर सिंह यानि इंजीनियर लड़के के पिता | रघवर सिंह जिनके दिल ने हमेशा ये चाहा कि लड़का पटवारी हो या दरोगा | लेकिन लड़के ने जब ये कहा कि पैकेज चक्रवृद्धि ब्याज सा बढ़ेगा, और मेहर हुई तो विदेश का डॉलर भी बरसेगा  तो उन्होंने धीर पकड़ ली ।
उन्होंने नए बीड़ी के बण्डल का कवर कागज़ फाड़ा | बण्डल में पचास पैसे के इनाम का कूपन था |  कूपन को कुर्ते की जेब में संजो दो बीड़ियाँ सुलगा लीं और एक बीड़ी काका की ओर बढ़ा दी ।
" अरे अभी अभी तो बीड़ी पी मैनें  भैय्या | " काका ने बीड़ी थामते हुए बस ऐसे ही बोल दिया था ।

" तो तुमने चर्चा सुनी रघवर  " पहला कश खींचते ही काका कुर्सी घुमा बोले।
" हाँ , जिक्र आया एक दो जगह से। सुना है मैंने भी।" पिता  का सुर निरुत्साही था। बात उन्हें पता थी ।

" ये हरामखोर बनवारी और उसके लड़के , हर चौपाल पर बकते फिर रहे  कि लल्ला की नौकरी चली गयी। निकाल दिया । के  लल्ला ने कंपनी में रिश्वत ले ली और बड़े मैनेजर ने रंगे हाथों धर दबोचा ! इसी लाने  आजकल आये दिन गाँव में डोलता फिरे है । " काका ने साँस तब लिया जब पूरी की पूरी कथा उवाच गए ।

"क्या?????"  अभी तक उदासीन , बेमन से बात करते लड़के को मानो चार सौ चालीस वाल्ट का करंट सा छू गया । उसे लगा वो उछल के छत से जा टकरायेगा।

"हाँ , कई दिनों से , कई चौपालों से ऐसी चर्चा सुनने में आई है। " रघवर सिंह  ने ठंडी सांस ले बात की पुष्टि की ।

बनवारी और उसके लड़कों  की रचनाशीलता से लड़का हतप्रभ तो था ही | मन हुआ कि हँसे भी।

रघवर  झुंझलाये  । परिवार पे कोई छोटा सा भी लांछन लगाए उन्हें ये गवारा नहीं । और हो भी क्यों , उन्होंने उम्र भर पैसा कम इज़्ज़त नाम ज्यादा कमाया है ।
" देख पीतम  , जिस दिन सरपंची का चुनाव ख़तम  हुआ , हमने गाँव की राजनीत से हाथ जोड़ लिए । है कि नहीं ?
पर ये साले, हमे खींचना छोड़ेंगे नहीं ।कुछ  काम धंधा है नहीं इनके पास ,हम पर कीचड़ उछालने के अलावा।" इंजीनियर के पिता उबाल पर थे ।

" मतलब ये सोचो भैया , के इन लोगन के दिमाग चलते किस कदर तेज़ है ।" 

"कहन दो भैय्या , तुम अपने काम से लगे रहो , जे राजनीत का खेल कतई अच्छा ना है । कीचड का जबाब देना चाहोगे तो खुद भी तो कीचड में उतरना पड़ेगा । है कि नहीं | "  काका ने बुझती बीड़ी को अपने चमड़े के जूते से रगड़ मेज तले खिसका दिया और उठ चले | 


अब जब खबर पूरे गाँव में हो तो पत्नी  से कैसे छिपे । शाम को मैनेजर के ऑफिस मेसेंजर से ऑफलाइन होते ही लड़के ने लैपटॉप समेट खाने की फरमाइश की |  
" पता है सुनोगे नहीं , पर फिर भी बताती हूँ । सुनो हो भैय्या का फोन आया था। १२०  गज में अच्छे प्लॉट कट रहे है , नए मुरादाबाद शहर में । अच्छा लगा अपनी चर्चा सुन के , क्यों ? जिंदिगी भर यही देहाती उठापटक सुनोगे या इंसानो की तरह भी जियोगे ?"  पत्नी ने खाने की प्लेट सामने रखते हुए उबाचा ।
" कितनी बार बोला है ,नमक कम रखा करो सब्जी में " लड़के ने खीजते हुए कहा।
और पत्नी मुस्कुराई भर । गाँव का मोह भंग कर लड़के को शहर खींच ले जाने का जो उसका सपना है , उसे साकार करने में 'बनबारी की अफवाह' जैसी घटनाओं  का घटना बेहद जरूरी है ।

                                                           --- सचिन कुमार गुर्जर

मंगलवार, 14 जून 2016

चतरा और उसका दिलदार

 नाम उसका शशिकला था वैसे । पर उसकी सास और उसका पति रघवंशा उसे ससिया कहते । 'शशिया' नहीं 'ससिया' !  उत्तर प्रदेश के इस इलाके में   'श ' बोलने के लिए जीभ की प्रत्यंचा चढाने की मशक्कत नहीं की जाती , सारा काम छोटे  'स' से ही चलाया जाता है । छोटे 'स ' से सरोता !

और हाँ , अगड पड़ोस की जनियाँ  उसे ससिया भी ना कहती , वो उसे चतरा कहतीं  । 'चतरा' माने चतुर औरत ।  उनके उसे चतरा कहने में  उनका कोई प्यार ना था । शायद  हीन भावना थी , कमतर होने की चिड़ थी ,जो उनके बोलों से कटाक्ष बनकर फूटा करती ।

पर लम्बी सुतवा नाक , बड़े नैनो वाली वो गोरी औरत थी भी चतरा !   
खेत किसान, हलवाहे , मजदूरों की उस बस्ती में वो शायद अकेली पढ़ी लिखी औरत थी । पाँचवे दर्जे तक पढ़ी लिखी थी । हर लिहाज़ से निपुण ! उसका  घर हमेशा साफ़ सुथरा होता , चबूतरा हर हफ्ते गाय के ताजे गोबर से लीपा होता ।
दो बच्चे थे जो हमेशा साफ़ सुथरे रहते , कड़ाके से कड़ाके की सर्दी में भी बच्चों की नाक बहती किसी ने ना पाई । बच्चे बड़े सम्बधियों को 'जी ' लगा के सम्बोधित करते,बच्चों में माँ के सद्गुणों की छाप साफ़ साफ़ झलकती थी । दो दो बच्चे जनने के बाद भी उसका जोबन अभी तरुणाई में ही जान पड़ता था । लम्बी पोर थी , कतई सुगढ़, एक एक अंग साँचे में ढला हुआ ।


मंझले  कद का मजबूत हाड रघवंशा जिंदादिल इंसान था । बड़ा ही दिलदार  और अपनी बीवी का सच्चा आशिक । वो मूड में होता और घर में बूढी माँ ना होती तो कभी कभी सरसों के तेल से ससिया के बालों में चम्पी भी कर देता ।सम्मोहन से बंधा कहता ' ससिये तुझे बुढ़ापा ना चढ़ेगा कम्बक्त , रोज रोज नई नवेली सी लगै है !'
फिर कहता ' भगवान् , बुद्धिया काका कू स्वर्ग में जगह दीजो , जिन्होंने ससिया से मेरा मेल मिलाया !'
ससिया अपने दिलदार की बातों पे बड़ी देर तक खिलखिलाती रहती । बिना त्यौहार के ही खीर पूड़ी बना डालती । बक्से  में रखी नयी ओढ़नी निकाल पहनती , मटकती । छम छम करने वाली पाजेब पहनती ।मौहल्ले की औरतो को बिना बात टोक रोक लेती , उनसे बतियाती ।

एक चांदनी रात को छत पर लेटा रघवंशा जब दिलदारी के मूड में था तो ससिया ने उसके सीने में हल्का सा मुक्का मार कहा था "सुनो जी , सुनो हो क्या । अपने कुंडल बदल नए ढाल(डिज़ाइन)के कुंडल लेने का मन है मेरा। "
और दिलदार ने बीड़ी का जोरदार कश मार, दिल खोल वादा किया था कि उस साल की फसल का गेहूँ बेच सबसे पहले अगर कोई काम होगा तो वो होगा ससिया के नए , भारी सोने के कुण्डलों की खरीददारी!
वादा कर दिलदार ने अधजली बीड़ी जबरन ससिया के होठो से लगा दी थी । ससिया नखरे करती थी , बीड़ी के धुंए भर से भी उसे एलर्जी थी पर अपने आदमी का मन रखने को वो एक दो दम खींच लेती थी !
 
 वो साल किसानो की आजमाइश का साल बनकर आया था  । दो दो जेठ मास  वाला साल था उस बरस । मतलब दोगुनी लंबी तपत , लम्बा सूखा । लम्बी गर्मी में ज्वार, बाजरा,मूंग दलहन सब फसल सूख चले थे । दुधारू गाय जो एक महीने  पहले बाल्टी भर दूध देती थी अब एक लोटा भर देती थी ।

किसान का प्यार , उसका व्यवहार बहुत कुछ मौसम , पानी और फसल पर निर्भर हुआ करता है । ज्यों ज्यों सूखा लम्बा खिचता गया  , रघवंशा का मूड भी उखड़ा उखड़ा रहने लगा । अब वो खाने पीने में नुक्स  निकाल देता । बच्चों को छोटी छोटी बातों पे झिड़क देता । प्यार की रों  में बहकर कही कुण्डलों वाली बात पर उसका ध्यान भी ना रहा । ऐसे में ससिया रघवंशा को उसका वादा याद दिलाये भी तो कैसे ? परिस्थितियाँ अनुकूल ना बैठती थी ।
फिर ऐसा हुआ कि दूसरे जेठ की एक भरी दुपहरी में दो सुनार आ गए कही से । पोटली वाले सुनार!
कुछ अजीब से ही थे वो सुनार । भला कोई फेरी लगा के भी सोने के गहने बेचता है क्या ? पर वे सोने के नए गहने बेचते भी ना थे । बेचते तो खरीदता कौन? सोने के  लेनदेन में भरोसेमंद आदमीं का होना जरूरी होता है ,जिसका अपन टिकाऊ स्थान हो । चलते फिरते से कौन करेगा सोने का लेन देन ।  
वो सुनार इस बात को जानते थे । उनका काम बड़ा साफ़ और सीधा था । वो तो बस घर में रखे पुराने गहनों को पिंघला कर हाथोहाथ नए आभूषण ढालने वाले सुनार थे । पूरा काम गहनों के मालिक के सामने करते थे , सो हेरा फेरी की कोई गुंजाईश ही ना थी । उन्हें तो बस अपनी मेहनत के पैसे या अनाज की दरकार होती थी , वो भी काम पूरा होने के बाद । 

ससिया कुछ झिझकी तो , पर खुद को रोक ना सकी । फिर वो मुए ज्यादा कुछ मांग भी कहाँ  रहे थे । बस धड़ी भर (5 किलो ) गेहूँ मेहनत मज़दूरी के!
बात तय हो गयी और नीम के पेड़ तले पैर पसार वो सुनार ससिया के कुंडल ढालने लगे ।  मुँह से साँस फूखने की नली , छोटी सी धातु पिंघलाने की ढिबरी  और महीन हथोडियों के सहारे ससिया के पुराने कुण्डलों के ढाल बदले जाने लगे । ससिया बहुत खुश थी , रघवंशा जिस काम के लिए शहर जान चाहता था , ससिया उस काम को बड़े ही सस्ते में निपटाने को थी ।

घंटे बीत गए । सुनार बड़ी तन्मयता से अपना काम करते रहे , डिज़ाइन बनते , फिर बनते बनते बिगड़ जाते ।
कभी सोने के तार का बड़ा सजीला सा पीपल के पत्ते जैसा ढाल बन जाता फिर एक दो गलत चोट के चलते तिरछी नाव सा हो जाता । सोने का काम बड़ा बारीकी का होता है , उसमे सब्र  चाहिए होता है ।
घंटो बीत गए , झुकमुका सा होने को आया पर काम पूरा ना हो सका ।
आखिर चेहरे पे संकोच लिए एक सुनार बोला " सुनो चौधरन , काम तुम्हारा थोड़ा टेढ़ा है , माफ़ करना , आज पूरा ना हो पाएगा । कल आके करते है बाकी । "
ससिया झुंझलाई तो बहुत पर करे तो क्या करे । उसने खुद अपनी आँखों से सुनारों को लगातार , बेहिसाब मेहनत करते पाया था । उसने कागज़ के एक पर्चे पर उन दोनों सुनारों के नाम पते लिखाए । बिगड़े सोने के कुण्डलों को सही भार के लिए तुलवाया । और बिना कोई मेहनताना दिए दोनों को सुबह आने की हिदायत दी ।

सुबह हुई , सूरज चढ़ आया । इंतज़ार करते करते दुपहरी ढलने को हुई पर सुनार वापस ना आये । ससिया बदहवाश , करे तो क्या करे ।
उसे रघवंशा को पूरी बात बतानी पड़ी । रघवंशा तो सुनके अवाक रह गया , उसे कुछ अनहोनी का आभास हुआ । कुंडल लिए, साईकिल उठाई और कसबे के जाने पहचाने सुनार के यहाँ भागा । शाम होते होते पूरे गाँव में खबर फ़ैल गयी कि दो ठगिए आये थे और चतरा से सोना ठग के चम्पत हो गए ।
उन जालिमों ने काम भी बड़ी सफाई से किया था , पूरे समय ससिया सामने ही बैठी रही । उसकी आँखो में धूल झोंक वे सोना गला के उसकी जगह पीतल भर गए । शोर हो गया, घनी होशियार , रघवंशा की चतरा लुट गयी  !


रपट दाबे हुए , आस पास के इलाके में ठगियों की ढुंढवार  हुई पर सब बेकार गया ।
रघवंशा आग बबूला सा फनफनाता फिरता और उसकी माँ की जीभ ऐसे चलने लगी जैसे गर्मी में बिलबिलाती सर्पिणी ।शामत आ गयी ससिया की । रघवंशा रोज रात को उसे गालियाँ भकोसता, पूरी भड़ास निकालता । पूरे  दो तोला  सोना लुटवाने का उसे जिम्मेदार ठहराता । वो बेचारी माफ़ी मांगती तो और भी ज्यादा गाली देता ।
ससिया  बेचारी ना खाती न पीती बस दिन भर अनसन पाटी लिए पड़ी रहती , अपनी किस्मत को कोसती ।
आग कभी बुझने को होती तो सास कोई न कोई पतंगा जरूर छोड़ बैठती । महीना भर होने को चला , घर का कलेश काम न हुआ ।

ससिया को सोना लूट जाने का दर्द तो था ही पर उससे भी ज्यादा दर्द था अपने दिलदार के रूठ जाने का । दिन रात आसूँ बहाने पे भी जालिम का दिल न पसीजता था । कभी अपनी बिहाता आगे पीछे चक्कर काटने वाले रघवंशा ने कैसा पत्थर रूप धर लिया था ।

पर स्थाई कुछ भी तो नहीं है इस दुनिया में , दुःख की अँधेरी भी आखिर कभी तो छंटती ही है ।
जेठ उतरे एक दिन पूरब की ओर से जोर का बादल उठा  और बड़ी ही घनघोर बारिश लाया । पूरा दिन मोटे मोटे रस्सों सा जल बरसा । जंगल हरा भरा हो गया । किसानों की बाछें खिल गयी ।
रात को हलकी मल्हारें चलने लगी , बड़ा ही सुहाना मौसम था  ।

रघवंशा ने बरामदे में लेटे लेटे टेर लगाई " अरी ओ माँ , बीड़ी पीना चाहवे है क्या ? लगाऊ बीड़ी तेरी खातिर। "
बुढ़िया खर्राटे मार सोती रही ।

बारिश की उस रात में रघवंशा से रहा न गया । थोड़ा हिचक के बोला
" जगै है क्या ससिया , बालक सो लिए  हो तो  बरामदे में आजा , देख तो क्या अच्छी मल्हार बरसा रहे राम जी ।बड़ी अच्छी पुरवाई  चलै है आज !"

मौसम की पहली बारिश ने धरती का कलेजा तो सींचा ही था , किसान का कलेजा भी खोल दिया था ।
अपने महबूब के सीने पे सिर रखकर देर तक सिसकती रही ससिया ।
 महीनो बाद चैन की  नींद सोने की रात आई थी । पर उस रात  सोना कौन कम्बक्त चाहता था ।  रघवंशा ने अपने चिर परिचित अंदाज में बीड़ी का जोरदार कश खींचा तो ससिया ने उसके थूक में सनी अधजली बीड़ी को छीन अपने होठों से लगा लिया ! कुण्डल भले ही ना वापस मिले हों ,पर ससिया का दिलदार वापस लौट आया था !


                                                                                                -- सचिन कुमार गुर्जर



बुधवार, 8 जून 2016

मेरे यहाँ आदमी 'आदमी ' से डरता है ।

"अरे भाई , जागे हो या सो गए " बस इतनी सी आवाज़ हुई, मरियल सी । उसके बाद वो आकृति  गुप्प अंधियारे में लुप्त हो गयी । गाँव से थोडा सा छिटक कर बसे उस घर में रोशनी  हुई। थोड़ी देर बाद मकान मालिक ने दीवार मे बने मोखले से बाहर झाँक कर देखा ।  पडोसी भी छत पर चढ़ आया  । दोनों  इधर उधर टॉर्च लगा कर टोह लेने लगे  । कोई आदम बच्चा नज़र ना आया  दूर दूर तक ।
उसके बाद उस रात उन दोनों घरों में पूरी रात रतजगा रहा । दोनों पडोसी खुली छत पर खटिया डाल बतलाते रहे , बीड़ियाँ फूँकते  रहे , जोर जोर खाँसते रहे ।

इधर  मरियल से मरियल भैंस भी पचास हज़ार की आती है आजकल । ऐसे में अगर किसी किसान की पाँच पाँच मुर्रा भैंसे खूंटे से बंधी हो तो नींद कम ही आती है । 
किसान के पास दो विकल्प होते है । या तो अपने घर द्वार , पशुशाला को किले जैसी मजबूत दीवारों से अभेध बना लें और दोमंजिली पर चढ़ सोये  । या फिर कुकर नींद सोये, हर आहट को सूंघे, हर हलचल पे जोर जोर से खाँसे , बीड़ियाँ फूँकता रहे ।

 पशु तस्कर आसपास  के इलाके के कसाई ही होते है अक्सर । उनकी राजनैतिक पकड़ मज़बूत होती है , पुलिस पे भी सिक्का चलता है और वे किसी न किसी सफेदपोश की छत्रछाया में फलफूल रहे होते है । 
उनकी अपनी रूलबुक होती है और वे उसी के हिसाब से काम करते है । 
अमूमन ऐसा होता है कि वे अपने लोकल नेटवर्क के जरिये गाँव में किसी कमजोर शिकार की निशानदेही करते है । फिर रात के समय उनका टोही जाता है और पता करता है कि किसान और उसका परिवार किस हद तक बेफिक्र सोता है ।
सब कुछ सही लगा तो चुपके से मवेशी खींच लिए जाते है । एक दो नकाबपोश तमंचा लोड किये तैयार रहते है कि अगर जागत हुई या पीछा किया गया तो फायर झोंक रास्ता साफ़ किया जा सके । तस्करों की नज़र में इंसान और कददू में कोई ज्यादा फर्क नहीं होता । काम करते वक़्त एक आध किसान मज़दूर ढेर जाए तो परवाह नहीं ।
ट्रक में मवेशियों को सवार करते ही काँट छांट शुरू हो जाती है । तस्करों के पास आजकल बैटरी से चलने वाली गिलोटिन मशीन आ गयी है । पाँच मिनट में ही सिर धड़ सब अलग कर माल तैयार हो जाता है ।
सेफ जोन में पहुँचते ही मीट एक दूसरे ट्रक में बर्फ लगा कर एक्सपोर्ट रेडी कर दिया जाता है । खाल की तह बना गोदाम में धूप दिखाने और टैनिंग के लिए भेज दी जाती है ।
दो से तीन घंटे में में ये प्रक्रिया पूरी हो जाती है । कुल  मिला के किसान को जब तक अपने मवेशियों के चोरी होने का पता चलता है , सारी प्रोसेसिंग हो माल बिक्री के लिए तैयार हो चुका होता है ।

 आबादी से थोड़े से हटे उन दो घरों में काफी मवेशी है और दीवारें कच्ची है । लिहाज़ा ,उस रात अंजान आवाज़ के डर से उन घरों का रतजगा माल की हिफाज़त के लिए लाज़मी हो गया था ।
अगली सुबह मैंने गाँव के मेन चौराहे पे जिक्र पाया । "चौकस रहो , टोहिए कई दिना से गाँव में टटोलते डोल रहे , कल रात को पहाड़ के मौहल्ले में 'आदमी' लगा हुआ था । "  मेरे गाँव वाले तस्करों को 'आदमी' ही बोलते है, 'रात के आदमी' !
मैंने चौराहे पे खड़े आदमियों के चेहरों पे  'आदमी' का खौफ देखा । फिर किसी ने जोड़ा कि गाँव के पूरब की गौशाला पे भी चार रातों  से 'आदमी ' देखे जा रहे है ।

मैंने हरकेश को बाँह पकड़ अलग खींचा और धीमे से बोला " भैय्या , रात को तुम्हारे मकान पर जो 'आदमी' आया रहा जिसने धीमी हाँक मारी थी , वो तो मैँ ही था । और तब रात के बमुश्किल दस ही बजे  थे । "

"अरे तुम , पर तुम ठहरे क्यों नहीं भईया , नाम पहचान बताये बिना ही खिसक लिए । " हरकेश थोड़ा झुंझलाया, थोड़ा शर्माया ।

" भाई , तुम कई दिनों से शिकायत करते थे कि भईया गाँव में हो , थोड़ा उठ बैठ भी लिया करो । सो रात के खाने के बाद मैंने सोचा तुम से बतलाया जाए । पर जब मैँ तुम्हारे मकान पहुँचा तो पाया बत्ती बढ़ा दी गयी है । मैंने एक आवाज़ दी तो, पर फिर ठिठक गया । सोचा कि थक हार सोये होगे सो दबे कदमो लौट आया ।" मैंने विस्तार से हरकेश को समझाया ।

रात के 'आदमी' का भेद खुलते ही चौराहे पे ठहाके लग गए । कुछ ने हरकेश और उसके पडोसी बलराम को डरपोक करार दिया । कुछ ने फिर भी चौकस रहने को सलाह दी ।

पिता जी को पता चला तो वो मुझ पर  झल्लाए " लल्ला , ये अब पुराना देहात ना है । रात को पहली बात किसी के यहाँ जाओ ही मत और जाओ भी तो बिना नाम पता बताये दबे पैर मत लौटो । गफलियत में कोई तुम पर तमंचा दाग  बैठता तो क्या होता लल्ला ? "
"बेटा , इधर 'आदमी'  का डर होता है आजकल , जान माल सबका कीमती है और कारतूस काफी सस्ता ! "

 मन  में बड़ी झुंझलाहट  हुई।  क्या ये वही गाँव है जहाँ आधी आधी रात हमने चोर सिपाही खेल अपना बचपन जिया । आज मेरे गाँव का आदमी अँधेरा होते ही  ' आदमी ' से डरता है । 
और ये मेरे गाँव का ही नहीं कमोबेश पश्चिमी यू पी के पूरे देहात का यही हाल है ।

                                                                                     -- सचिन कुमार गुर्जर

बुधवार, 1 जून 2016

जून शादीशुदा लोगो की ज़िन्दगी में कविताई का मौसम है !

मिश्रा जी बड़े हैरान हुए ।जब उन्होंने पाया कि उनके ऑफिस बैग में सारा सामान बड़े करीने से सजाया गया है । मनपसंद नाश्ता बनाया गया है । वो भी बिना किसी गुहार के!
फिर कुत्ते की  दुम से  , आदतन वो जुराबों  को लेकर झुंझलाए ।
तो उन्होंने पाया कि श्रीमती जी एक जोड़ा जुराबे हाथ में लेकर तैयार खड़ी हैं। मुस्कान के साथ !
कोई वाद विवाद नहीं , जैसा की होता आया है ।

शक हुआ कि सारी सुविधा के पीछे जरूर कोई न कोई प्रयोजन है ।
 मिश्रा जी के दिमाग ने दो चाल आगे जाकर सोचा और ज़बाब तैयार किया  " देखो  अभी बजट नहीं है और ये अत्यावश्यक भी नहीं है , सो थोड़ा रुक जाओ । "

फिर वो हतप्रभ रह गए , जब श्रीमती ने केवल सूचनार्थ कहा " सुनो , आज भईया आ रहे है और हम एक महीने के लिए जा रहे है । अपना प्रबंध स्वयं कर लेना । "

मिश्रा जी का उल्लास हलक से बाहर छलकने को हुआ । पर ग्रहस्थ  ने उन्हें एक चीज़ बेपनाह दी है , वो है संयम , समंदर से भी गहरा संयम । सो वो उछाल को पी गए।

फिर अंदर का कलाकार जी उठा और उनकी शिकन पे चिंता की लकीर आ गयी । बोले " एक महीना ? तुम्हे क्या लगता है बिटटू और गुड़िया रुक पाएंगे नानी के यहाँ । वो भी एक महीना ? "

  श्रीमती जी मन बना चुकीं , ढृढ़ता से बोलीं " यहाँ से भी ज्यादा रमता है बच्चों का मन वहाँ , ये जान लो तुम । "

मिश्रा जी बोले " असुविधाएँ तो होंगी मुझे बेहिसाब , पर हक़ बनता है तुम्हारा । जून है सो हवा पानी बदलने का मौसम है , निसंकोच चली जाओ । "

शाम को अकेले मिश्रा जी बालकॉनी में खड़े हुए और मुँह की भांप लगा ऐनक साफ़ की तो पाया कि
वो जो उनके  घर के सामने पीपल है जो हमेशा से ही बदरंग ,धूल धूसरित , बुढ़ाता पीपल है , उसमें  बेमौसम बारिश के बाद नयी, ताज़ा, मुलायम कोपलें फूट आई है । पत्तियाँ झक हरी हो गयी है । और उस पीपल के ऊपर ऊपर कौवे का नहीं एक कोयल का घोसला हुआ करता है ।

कोई कनेक्शन नहीं है  पर उन्हें यूँ ही खड़े खड़े ख्याल आया कि अभी से कनपटियों को सफ़ेद छोड़ देना महज आलस ही तो है ।  याद आया गोदरेज की हर्बल डाई के पत्ते हैं तो घर में,  खोजने पड़ेंगे  बस थोड़े बहुत ही ।
फिर नाइके के जूते , जो अरसे पहले ताव में  आके खरीदे थे, उनके जाले हटाने का  विचार भी आया, जॉगिंग करने का ख्याल आया ।  यूँ ही बेबजह । 

फिर उन्होंने अपने जिगरी को फोन मिलाया  तो जबाब मिला " क्यों बे साले मतलबी इंसान , खुद के लिए जीने वाले खुदगर्ज़ इंसान । बोल किस मतलब  से  याद किया ।  "

मिश्रा जी बड़ी आत्मीयता लिए बोले " सुन यार, तू बोलता था ना , एक नया आहाता है जहाँ चखना जरूर महँगा है पर बियर काफी सस्ती है । जहाँ महफ़िल खुले में सजती है । पुरवाई चले या पछवा सीधे सीने से लगती है ।बोल चलेगा ! "

दोस्त के साथ आहाते पर मिश्रा जी ने पाया कि चार चार पाँच पाँच के  झुण्ड में लोग बैठे है । उनके गलों पर  निशान तो है वैसे ही जैसा मिश्रा जी के गले पे है , बंधे रहने का  निशान । पर पट्टे नहीं है । जाम उठ रहे है 'चियर्स फॉर हेल्थ, हैप्पीनेस एंड प्रोस्पेरिटी ' के नाम ।
वो सब कविताएँ पढ़ रहे है " साले , बेन**, कमीने , मतलबी , डरपोक , गुलाम " कुछ कुछ इस प्रकार की कविताएँ!
 जून  की खुश्क शाम में मिश्रा जी ने पाया कि मौसम गरम है पर बियर बेहद ठंडी है । लगा, असल में शादीशुदा लोगो की ज़िन्दगी में यही तो मौसम है जो कविताई का मौसम है ।  श्रृंगार रस, प्रेम रस ,वियोग रस, वीर रस में डूबी कविताएँ कहने का  ,लिखने का , जीने का मौसम !
                                                                                                     -- सचिन कुमार गुर्जर
            

सोमवार, 30 मई 2016

जतावा




दिल्ली लखनऊ राजमार्ग से  जुडी वो पतली, नई सड़क रामगंगा के खादर के गाँवो की ओर निकल जाती है  । 
हिन्दुस्तान में जहाँ  कहीं भी छोटी सड़कें बड़ी सड़कों को चूमती है , अमूमन वहाँ दुकानों का अड्डा  बन जाया करता है । रामपुर की ये जगह फिलहाल  'नया मोड ' के नाम से है |  आबादी  का विस्तार हुआ तो शायद  कोई स्थायी नाम पा जाए ।  एक पुरानी पाखड़, जिसकी छाँव में सरकारी नलका लगा है , उसके इर्दगिर्द चार पाँच पक्की दुकानें हैं | कुछ फलों के ठेले भी हैं जिनसे रिश्तेदारियों को जाते लोग केले , सेब , अंगूर आदि खरीद ले जाते हैं | 
   'गुप्ता मिष्ठान भण्डार ' पुरानी टिन की छत वाली दुकान है । लोहे के जंग खाते बोर्ड पर काले पेंट से घटिया लिखावट में बाद में  जोड़ा गया है " नोट : हमारे यहाँ शादी पार्टी के आर्डर भी बुक  किये जाते है । "
दुकान के अंदर की दीवारें भट्टी के धुंए के संपर्क में रह रह कहीं गहरी काली तो कहीं धुंधली हो गयीं  हैं । एक धनलक्ष्मी की मूर्ति है जो लकड़ी के छोटे बक्से में टंगी है | लाला जी की श्रद्धा ने लक्ष्मी जी पे धुआँ जमने से रोक रखा है | 

दुकान के बाहर लकड़ी की छोटी छोटी खप्पचियों से बनी बैंच पर बैठा मैँ दही समोसा खा रहा था | तभी पुलिस की एक जिप्सी  दुकान से थोड़े से फाँसले पर आकर ठहर गयी । एक दरोगा , दो हमराह सिपाही और एक ड्राइवर । देहात में कहीं कोई दबिश दे लौट रहे थे शायद । सिपाही जिप्सी से उतर नलके तक गए | पेप्सी की पुरानी बोतल के बासी पानी को नल की चबूतरी पर बहाया और ताज़े पानी से बोतल को नाक तक भर लिया  | मुँह हाथ धो और अपने अपने रूमालों को पानी से तर कर वे गाडी के पिछले हिस्से की तरफ जा खड़े हुए | दरोगा जी अपनी सीट को पीछे कर आराम की स्थिति में लेट गए । उन्होंने माचिस की तीली  निकाली,  उसे चबा चबा के एक महीन सा ब्रश तैयार किया और बड़े ही आराम से दाँत कुरेदने लगे ।उनके फुरसतिया अंदाज को देख मालूम होता था कि उनके हलके में बहुत ही सुख शांति थी ।  

दरोगा जी ने हाथ के इशारे से दुकान पे काम करने वाले लड़के को बुलाया । थोड़ी देर में लड़का जिसे लाला जी 'दिलददर ' कहकर पुकार रहे थे , बाँस की थैली में समोसे और सफ़ेद पिन्नी में रसगुल्ले भर कर पहुँचा आया ।

वापस आया तो लाला जी ने बड़े हलके से पूछा  " पैसे दिए हैं क्या ?"
" ऊ हूं , ना | " लड़के ने जबाब दिया ।

लाला जी बिना कुछ बोले अपनी जलेबियों का घांन उतारने में लगे रहे ।पतले किनारे वाली काली कढ़ाई में वे जलेबियों के लच्छों को पलटते जाते | 

मैंने कहा " लाला जी , काम मेहनत और ईमानदारी का है ।पैसे हक़ के साथ माँगने चाहिए ।
                 भई ,जिसका काम दो नंबर का हो वो डरे , क्यों ? "

लाला जी बोले  "हाँ , सही कहो हो | काम हमारा पाक साफ़ है ।  डर की क्या बात । कोई लंगर थोड़े खोला है हमने । "
वे सोचते रहे , अपने काम निपटाते रहे | थोड़ी देर बाद मुँह दूसरी ओर घुमा बड़े हौले  से बोले  " जा रे दिलददर , पैसे माँग ला जाके |  "

लड़का पहुँच गया और दरोगा जी से पैसे जा मांगे । मैंने पाया आराम की स्थिति में सीट पीछे किये लेटे दरोगा जी हलकी सी करवट ली और  सौ का नोट लड़के की ओर बढ़ा दिया ।बहुत ही सहज भाव से ।
कई बार हम बिना कुछ जाँचे परखे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो जाते है|  
लेकिन ज्यों  ही लड़का नोट  थामने को हुआ , लाला जी पीछे से चिल्लाये "अरे ओ दिलददर  , कम्बख्त पैसे ना लीजो दरोगा जी से!" लाला जी के बोल सुनते ही लड़का बिदक के अलग खड़ा हो गया |  

दरोगा जी ने आगे की ओर झुक लाला जी की ओर मुँह कर ऊँची आवाज़ में कहा    " अरे अरे नहीं।  ले लो |   लागत मेहनत के तो ले ही लो कम से कम लाला । " 

"क्या बात कर रहे  हो दरोगा जी । नाराज़ चल रहे हो क्या सरकार  ?" दुकान से उतर लाला जी जिप्सी के पास तक चले गए  थे ।
"दुकान  आपकी अपनी है । जब भी इधर से निकलो  , पानी पत्ता यही कर लिया करो।" लाला जी के बोल ऐसे फूट रहे थे जैसे नरम नरम बताशे ।

वापस दुकान पर लौट लाला जी जलेबियों को घांन से उतार चासनी में डुबोने के काम में तल्लीन हो गए । पुलिस की जिप्सी चली गयी तो लाला जी बोले "खिला पिला चाए कितना भी दो , पर जतावा होना बहुते ही जरूरी है | वर्ना अहसान कौन मानता है इस दुनिया में | "
लाला जी की पलटी का मैंने कोई  स्पष्टीकरण नहीं  माँगा था , उन्हें खुद ही हाज़त हुई थी बात साफ़ करने की !

                                                                                                                   --सचिन कुमार गुर्जर


मंगलवार, 24 मई 2016

पहाड़ की चिंता


कॉलेज की छुट्टियों में मैँ गाँव लौट रहा था ।
पौड़ी कस्बे से मैदान की ओर निकलने वाली रोड के जीप अड्डे पर ड्राइवर हाँक मार रहा था " देहरादून , देवप्रयाग , देहरादून "
 मुझे देख बोला " आओ , भाई जी , गाडी लगभग फुल है । बस पाँच मिनट में निकल लेंगे । "
 उसकी जीप की छत सामान से लधपध् भरी हुई थी , बस आगे में लिखा हुआ ही दीख पड़ता था । लिखा था "जय डांडा नागराजा " । शायद ड्राइवर का कुलदेवता रहा होगा, कृपा बनी रहे , ऐसी इच्छा लिए ड्राइवर ने लिखाया होगा  ।

"नहीं  भैय्या , मुझे फ्रंट सीट ही चाहिए , जो आपकी गाडी में फुल है " मैंने जबाब दिया । पहाड़ की घुमावदार सड़कों पे घिन्नी से बचने को मैं हमेशा आगे की सीट पर सफर करता था  , चाहे गाडी पकड़ने में कितनी भी देर क्यों ना हो जाए ।
बिजली सी फुर्ती दिखाते हुए ड्राईवर ने मेरे लिए आगे की सीट खाली करवा दी थी ।

"चम चमकी , चम चमकी घाम काण्ठि मा । हिमाली काठी चांदी की बनी गैनी । "
" आहा , नरेंद्र सिंह नेगी !" जीप के सस्ते म्यूजिक प्लेयर में बजते गढ़वाली गाने को सुन मैंने बोला था ।
"हाँ , सही पहचाना भाई जी ।" ड्राइवर ने मोड़ पे जीप घुमाने के बाद बोला था ।

"नरेंद्र सिंह नेगी तो मोहम्मद रफ़ी हुए पहाड़ के ! पहाड़ के लिए बड़ा योगदान है इनका । है कि नहीं ? " अपने कच्चे ज्ञान के बाबजूद मैँ बोल पड़ा था ।

" पहाड़ में बचा  ही क्या है , बस ऐसे  ही  कुछ जनूनी लोग है जो अपना पहाड़ बचाने की जद्दोजहद में है । "बगल में बैठे मास्टर साब चिंतित से बोले थे ।

"हम्म " इतना भर कहा था मैंने , जो वार्तालाप को जारी रखने को काफी था ।

"पहाड़ का कल्चर तो खत्म ही हो चला है जी । पहाड़ में अब वो ही रुका है जो मज़बूर है , या बूढा है, या कतई नकारा है । " अपने अनुभव से बोले थे मास्टर साहब ।

" या फिर जो सरकारी मास्टर है , क्यों मैथानी साहब ? " ड्राइवर ने परिचित मास्टर साब पे तंज कसते हुए बोला  ।
"आपके देहरादून वाले मकान का क्या हुआ मास्टर साब ? अब तक तो  पूरा हो जाना चाहिए था । " ड्राइवर ने बात को आगे बढ़ाया ।

" हाँ भुला(छोटा भाई ) , तैयार ही समझो , बड़े बेटे की नौकरी दिल्ली में है । दिवाली पे छुट्टी आएगा , गृह प्रवेश तभी होगा !" मास्टर साब उत्साहित से बोले । उनकी आँखे बेहतर, सुविधाजनक और रुतबे वाले जीवन की शुरुआत को लेकर चमक उठी थी ।

"मतलब आप सपरिवार दिवाली  बाद देहरादून शिफ्ट हो लेंगे ।"
"बहुत सही मैथानी साब ! आप बड़ी किस्मत वाले ठैहरे । बच्चे आपके बहुत ही होनहार निकले  ! " ड्राइवर लगभग कायल हो गया था ।  

मास्टर साब रास्ते में अपने स्कूल के सामने जीप से उतर गए तो पिछली सीट पर बैठा एक अधेड़ सा , कम पढ़ा लिखा ठेठ पहाड़ी व्यक्ति , जो पिछले तीन  घंटे के सफर में एक लफ्ज़ ना बोला था , बोल पड़ा "चिंता सबको है पहाड़ की , पर बसना सबने देहरादून  ही है !"

देहरादून जीप अड्डे पर  गाना बज रहा था "मेरी  जन्मभूमि मेरो पहाड़, गंगा जमुना अखि , बद्री केदार।  "

 मैंने पाया कि बड़े बड़े झुंड़ो में लोग पहाड़ से अपना सब लोहा कांठ समेटे  जीपों , छोटी बसों से उतर रहे थे ।  उनमे हर किसी का दिल पहाड़ के लिए धड़क रहा  था , उनमे हर कोई पहाड़ के लिए चिंतित था ! 
पहाड़ की चिंता लिए उन लोगो में से शायद ही कोई वापस पहाड़ लौटे ।स्वेच्छा से भी नहीं ! 
                                                                                         ---सचिन कुमार गुर्जर



सोमवार, 23 मई 2016

रेलवे की नौकरी

भंगी बस्ती से बुलवाए गए ढोल वाले थाप लगाते हुए सजीली सी घोड़ी के आगे आगे चले जा रहे थे ।जयदेव का बड़ा लड़का जित्तू घोड़ी पे सवार चला जा रहा था, पीछे पीछे उसका पूरा कुनबा , अगड पडोसी ।  पतली नाक, पिचके गालों वाला जित्तू यूँ तो हमेशा गाँव की गलियों में आसमान की ओर ताककर चला करता था , पर उस दिन घोड़ी की पीठ पे डरा डरा सा सवार जित्तू गाँव के हर छोटे बड़े को दुआ सलाम ठोकता चल रहा था ।सफलता थोड़े समय  के लिए ही सही,  आदमी को विनयशील , मृदुल और सबका धन्यवादी बनाती है । 

देसी मसालेदार बसंती के पउवे की हुनक ज्यों ज्यों ढोल वाले भंगियों पे सवार होती वो उतनी ही जोर से ढोल पे भंगड़े की थाप लगाते ।  पूरा गाँव खुश था । उस पट्टी में कुल तेरह गाँव थे , मास्टर थे , सरकारी चपरासी थे कुछ प्राइवेट फर्मो में काम करने वाले थे पर रेलबाई की शाही नौकरी पहल पहल जयदेव  के लड़के के नसीब ही आई थी ।

सिर्फ  दो आत्माएं दुखी थी एक लखपत और उसका बेटा धनपाल ,जो कई साल से रेलबाई की नौकरी को कोचिंग कर रहा था । लखपत जश्न का जुलुस देखने घर के बाहर तक भी ना आया था । भैंस के आगे से रात के चारे को साफ़ करता हुआ झुंझलाता हुआ बडबडाया " गू खाने है ससुरे , किस्मत की चार बूंदे क्या बरस पड़ी , छोटी तलैया से उफन पड़े । अरे लौंडा , रेलबाई में क्लर्क ही हुआ है ना , कौन सा जज कलक्टर बन गया , जो ढोल मंजीरे पीटे जा रहे ससुर के नाती !"


धनपाल और जित्तू बहुत अच्छे दोस्त तो ना थे पर  ठीक ठाक सा मेलजोल तो था  ही । दोनों एक दूसरे से अपनी सरकारी नौकरी पाने की जद्दोजहद साँझा किया करते । धनपाल जित्तू  से पढाई लिखाई में थोड़ा सा सवाया तो था ही और धनपाल का बापू लखपत जित्तू के बापू जयदेव  से कही ज्यादा अकलमंद था । ऐसा सब जानते थे और सब मानते थे । 

जयदेव कोई बुरा आदमी ना था , सबका भला ही चाहता था । उसे जैसे ही पता चला कि रेलबाई के इलाहाबाद  बोर्ड में क्लर्की में जुगाड़ की धाँस फँस सकती है उसने लखपत से बात की थी । दस लाख में ठेका छूट रहा था उस साल ! बिचौलिया लिखित परीक्षा से लेकर इंटरव्यू तक की गारंटी दे रहा था , सिर्फ १० लाख में !
पाँच लाख  काम होने से पहले और पाँच काम होने के बाद !

" काम होगा इसकी क्या गारंटी है जयदेव , हम किसान लोग है , पाँच लाख की चपत लगी तो कमर जनम भर सीधी ना हो सकेगी । " अपनी परचून की दुकान के चबूतरे पे बैठे लखपत ने बड़े सोच विचार के बाद ये बात कही थी । फिर अपनी छज्जेदार मूछों को अपने अंगूठे और ऊँगली से चौडाते हुए बोला " अपनी बस्ती या आस पास का कोई आदमी हो तो जरूरत पड़ने पे हम हलक फाड़ पैसा खींच लेते , पर ये इलाहाबाद में कौन जान पहचान है भैय्या  , वहाँ का तो कुत्ता भी हमे रपटाय धरेगा । कोई और मौका तलाशेंगे , जरा धीरज धारो । "

उस दिन के बाद से जयदेव और लखपत के बीच रामा किसना तो कई बार हुई, इस बात को लेकर कोई चर्चा ना हुआ । आज ढोल की थाप सुनके ही लखपत के कान बजे , जयदेव का लगाया दाँव सही पड़ गया था ।


ऐसा नहीं था कि लखपत ने कुछ कोशिश ही ना की हो । लड़के की काबिलियत पे उसे तिल बराबर भी भरोसा ना था , जो की सही था ।उसके हिसाब से लम्बे कद के जित्तू के दिमाग में भूसा भरा था निखालिस , थोड़ी बहुत अकल उसके घुटनो में ही थी जो उसने बचपन में ही साईकिल सीखने के दौरान पक्की सड़क पर घिस दी थी ।

एक सफ़ेद कुर्ताधरी के साथ लखपत कई बार पैसो का झोला ले लखनऊ में शिवपालगंज तक गया था । शिवपालगंज के बारे में ये मशहूर था कि अगर आप वहाँ गए और वहाँ आपका चढ़ावा मंजूर हो गया तो काम होके ही रहता था ।पर धनपाल नाम का ही धनपाल था बस , उसकी किस्मत खोटे सिक्के जितनी भी ना चलती थी , हर दाँव फेल हो जाता था ।
समय बीतता गया , जितुआ ने  रिश्ते की नयी मारुति स्विफ्ट पे बड़ा बड़ा  'रेलवे विभाग ' लिखा लिया था ।  बिना कुछ कहे ही वो लखपत धनपत के कलेजो में जलन का चौंक लगा जाता ।

फिर एक दिन शाम के चूल्हा चौका के वक़्त लखपत के कच्चे दुमंजिले के ऊपर जोर की धमाकेदार आवाज़ हुई "धायँ धायँ !"चबूतरे पर  बैठे इधर उधर की चुगलबाज़ी कर यूँ ही टाइम फोड़ रहे गाँव वाले चौककर उछल पड़े , कोई बोला " तमंचे  का फायर  हुआ है  ये तो , लगता है लखपत  ने अपने लड़के का रिश्ता ले लिया आज!"
कोई दूसरा बीच में ही काट बोला " कौन करेगा उस निकम्मे का रिश्ता , वजह कुछ और है । "

खबर पछैदी  हवा की आग की तरह पूरे गाँव में फैल गयी  थी । लखपत का लौंडा धनपत रेलबाई में टी टी ई हो गया था वो भी बिना कोई रिश्वत!
परिवार के लौंडो ने  ख़ुशी के जश्न में डी. जे. बजवाने की कोशिश की थी तो लखपत ने डाँट दिया " खबरदार जो किसी ने भी कुछ शोर शराबा , रौला किया तो । दिखावे के काम औछे इंसानो का हुआ करै है । चुपचाप लड्डू खाओ और अपने काम धंधे से लगो । "

पन्द्रह दिन के  भीतर ही धनपत अपना सामान बाँध नौकरी की ट्रेनिंग पे इलाहाबाद  निकल गया था । उसके बाद वो कभी कभार ही गाँव आता । छुट्टी ही कहाँ मिल पाती होगी बेचआरे को !

जित्तू जब कभी गाँव आता तो धनपत की टोह जरूर लेता । बरेली के स्टेशन पे उसकी ड्यूटी हुआ करती थी ।
धनपत को उसकी बातों में कोई रूचि न होती पर जित्तू उसके सामने रेलवे विभाग की छोटी बड़ी बातें जरूर बांचता ।एक बार उसे रास्ते में  टोक बोला  "  सुना है दो नकली टी टी ई धरे  गए है , शाहजहांपुर स्टेशन के पास से । दोनों लम्बे समय से ट्रेनों में अवैध वसूली करते आ रहे थे । "

" अच्छा , दुनिया है इसका नाम भैय्या । रोजी रोटी को कुछ ढोंग भी रचते है " इतना कह धनपत निकल लिया था ।


एक बड़े धनाढ्य परिवार से रिश्ता आया तो लखपत ने बिना वक़्त गवाएं हामी भर ली । लड़की वाले  ने चेताया भी " भाई साहब , एक बार लड़के की भी रजामंदी हो जाती तो हमारा मन तसल्ली पकड़ लेता ।
फिर हम ऐसे कोई पुरातन पंथी भी ना है , लड़का लड़की को देखने की चाह रखता हो तो हमे कोई गुरेज़ नहीं।  "
सुनते ही लखपत ताव में आ गया " भाईसाब , लड़का टी.टी. ई  हो जाए या कलक्टर , आज भी जहाँ लकीर खींच दूँ , पार करने की हिमाकत न करेगा । संस्कार भी कोई चीज हैं , मानों हो या ना ?"

दहेज़ में लोहा प्लास्टिक लेने से लखपत ने साफ़ इंकार कर दिया था । उसके उसूलो के हिसाब से ये सब औछा दिखावा करने वाले करते है । जब रिश्ता चढ़ा था तब धनपत को गोद में रखी सफ़ेद स्टील की बड़ी परात में इतना रुपया रखा था कि गाँव वालों  की आँखों के गुल्ले बाहर आने को हुए ।
" नगद आये है जी पच्चीस लाख रुपए ।  सोने की चैन लड़के के लिए और उसकी माँ के लिए भी !" गाँव के पंडित के घोषणा की थी ।बहुतों के मुँह में पिंघलते लड्डूओं का स्वाद कड़वा हो गया था एकदम से , इतनी बड़ी रकम सुनकर !लड़की वालो ने लखपत का घर लाखों से भर दिया था ।

'चट मंगनी पट बिहा' के पैरोकार लखपत ने एक माह के अंदर अंदर बिहा का सारा काम निपटा दिया । उसके बाद लखपत के घर काम इस कदर फैला जैसे बरसों से अटकी कोई सरकारी परियोजना का होता है किसी नए योग्य मंत्री या अधिकारी के आने से। मकान पर पक्की दुमंजिली चढ़ गयी ।  हैंडपंप की जगह समरसेबिल का पंप लग गया । चबूतरे को काट बीचो बीच भविष्य में आने गाडी के लिए स्लोप बन गया ।
परचून की फुटकर दुकान अब थोक की बड़ी दुकान बन गयी । अंग्रेजी सीट वाली लैट्रिन लग गयी । 

फिर ऐसा हुआ कि शादी के यही कोई दो महीने बाद धनपत के पैर में  बाय का बड़े जोर का दर्द उभर आया  इतना जोर दर्द कि उसने खाट पकड़ ली , जंगल पानी को डंडा ले उठता था ।
बीमारी के चलते धनपत को लम्बी छुट्टी लेनी पड़ी , जो महीने दर महीने आगे खिसकने लगीं ।

 ऊँची चौपाल  के सामने से लंगड़ाते हुए गुजरते धनपत को झुण्ड में बैठे एक काका ने रोक लिया एक दिन " क्यों बेटा धन्ना , हकीम के काढ़े का कुछ असर हुआ कि नहीं । अभी भी टांग में लंग दिखता है । "
" हाँ काका , सुधार तो है , पर तुम जानो ही हो ,टी टी ई के काम में घंटो ट्रेन में खड़ा होना पड़ता है , उस लिहाज़ से टांग में अभी बल नहीं दिखता । " फिर गहरी साँस ले फिक्रमंद हो बोला  "भगवान् ही जाने, ये टाँग कब तक ठीक होगी । "

उसके आगे बढ़ते ही जयदेव ने बीड़ी का कश बड़ी जोर से खींचा और भविष्यवाणी करते हुए बोला " तेरे पैर का दर्द कभी सही ना होगा लल्ला , ये बात हमको जँच गयी है "

धनपत वल्द लखपत सिंह नाम का कोई भी नया, पुराना टी टी ई इलाहाबाद खण्ड तो क्या पूरे उत्तर रेलवे में ना था ! ये बात बड़ी खोजबीन के बाद जित्तू ने अपने बापू को बताई थी ।

                                                                                     --- सचिन कुमार गुर्जर

सोमवार, 16 मई 2016

गिरगिट के शिकारी

अभी परसों की ही तो बात है ।चार पांच बच्चे थे। बड़े ही छोटे छोटे , मासूम से ।
सबसे बड़ा  यही कोई नौ या दस साल का होगा। पतला था  , लंबी निक्कर पहने, आधी बाजू शर्ट थी पुरानी सी , सिकुड़ी हुई । और सबसे छोटा तो बमुश्किल पांच साल का ही हुआ  होगा , बड़ा ही मासूम , शर्मीला सा।
उन सभी के हाथो में ताज़े कटे यूकेलिप्टिस के डंडे थे , कोई दो दो हाथ भर के डंडे ।
भरी दुपहरी में उन्हें खेतों  के कोरे  छूती काले डामर की सड़क के किनारे  झुण्ड सा बना जमीन को घूरते पाया तो जिज्ञासावश पूछा " बालको क्या कर रहे हो, भरी दुपहरी अपना बदन क्यों फूँके जाते हो । कोई छाव तले जा खेलो।"
बड़े लड़के ने नज़र ऊपर उठाये बगैर ही जबाब दे दिया " कुछ नहीं , बस ऐसे ही ।  "
पास जाके के देखा तो हक्का बक्का रह गया " दो गिरगिट लहूलुहान डामर की सड़क के किनारे पड़े थे । दोनों मजबूत सरकंडों से बिंधे हुए । एक के प्राण उड़ चुके थे और दूसरा सरकंडे में बिंधा आखरी साँसे लिए पैर पटक रहा था । 
मैंने  बच्चों  की आँखों में बारी बारी से देखा । वो सब इतने छोटे थे कि खोज के भी मैं उन आँखों में मासूमियत के सिवा कुछ और न खोज पाया । नफरत का मुलम्मा चढ़ने में  अभी सालों लगेंगे वहाँ।
" क्यों  रे बालको, ये किस तरह का खेल है । छी छी । इतना घिनौना काम !  
बताओ क्यों मारा इन बेचारो को , हम्म?" आहत मन पूछा ।

बड़ा ही बोला इस बार भी " कुछ नहीं , बस ऐसे ही ।"

थोड़ी झुंझलाहट हुई अबकी बार " ऐसे ही कैसे ? खाओगे इन्हें भूनकर ? गीधीया जात हो ? "
" अंह  हुं  , ना ना " उनमे से एक बोला ।
" गिरगिट हमारे दुश्मन है! "

"दुश्मन ? किसने बोला । किसी बड़े ने बोला ऐसा?" मैंने टटोलना चाहा ।
" हाँ , नहीं तो हम फ़िज़ूल क्यों मारते इन्हें । " जबाब हाज़िर था ।
बच्चे ज्यादा साक्षात्कार के मूड में ना थे सो निकल लिए और मैँ  तजती दुपहरी में खेत किनारे लगे युकेलिप्तिसों के बाड़े की छाँव में बैठ गया ।

नया तो नहीं है ये व्यवहार वैसे  , याद आ पड़ा  । आज जहाँ से ये पक्की डामर की सफ़ेद धारी  वाली सड़क गुजर रही है ना , कभी ऊँचे,  रेत के टीले उगे थे वहाँ  । इतने ऊँचे टीले कि गाँव के जमींदार की  हवेली की  दुमंजिली भी नाटी जान  पड़ती थी । बंजर था सब , रास्ता संकरा था किसी सर्प की पूँछ जैसा , रेतीले टीलों टीलों के बीच से रेंगता हुआ  । 
रास्ते के किनारे बबूल के झाड़ो के झुरमुट हुआ करते थे । बंजर में कांटे ही उग पाते थे बस । 
तब स्कूल से लौटते हुए कई बार कुछ बच्चों के झुण्ड दिख जाते थे  , जो उन बबूल के  झाड़ों पे  बेहताशा पत्थर  बरसाया करते थे ।  हमारी बच्चा टोली उन्हें कई बार रोकती भी थी , पर वो बोलते थे कि गिरगिट गुस्ताख होते है , मुसलमानो के दुश्मन होते है !
 हमारा हत्या विरोध आधा अधूरा होता था तब , चूँकि गिरगिट की मुसलमान बच्चों से दुश्मनी तो जाहिर थी लेकिन गिरगिट के हिन्दू मित्र होने का कोई किस्सा हमारे बालमन के संज्ञान में नहीं था!
लिहाज़ा गिरगिट का क़त्ल हो जाना लाजमी थी , लगभग निर्विरोध । संवेदनशील होने की कोई वजह नहीं !

किसी बड़े समझदार आदमी से पूछा भी था एक बार " ये गिरगिट की हत्या का सिलसिला क्यों है ?"
जबाब मिला था " किसी गिरगिट ने गुस्ताखी की थी।  "
बस इतना ही । इससे ज्यादा ना बताया गया , ना ही आगे पूछा गया । 
वैसे भी धर्म पे मौन बेहतर है , मामला संवेदनशील हो जाता है ।


इलाके के एक छोटे नेता की स्कार्पियो आकर रुकी खेत के कोने पे । जान पहचान के है , सत्तारूढ़ पार्टी से है , अच्छा खासा  रुतबा है आस पास के इलाके में । 
रुक गए , हाथ उठा अभिवादन हुआ , छाँव से उठ सड़क तक जाना पड़ा । 
" पिता जी कहाँ  है आपके आजकल । बोलो उनसे , घर के काम के साथ साथ थोड़ा समय संगठन , सम्बन्धो के लिए भी रखें । " नेता जी ने बड़ी आत्मीयता  के साथ बोला । 
फिर बोले "खुशनसीब हो , सड़क चौड़ी हो गयी है , बदलाव की हवा बह चली है , अपना इलाका तरक्की की ओर  है , है कि नहीं ? "
" सो तो है । " जबाब सूक्ष्म ही रख मैंने । 
" ये सरकंडे का बाड़ा फूंक डालो अब । और ये  जेई,  बाजरा  छोड़ो । सड़क किनारे का खेत है , दुकाने चिनवा दो , देखना मार्कीट बन जाएगी जल्दी ही । बदलाव बहुत तेज़ी पे है मियाँ , जमाने  की नब्ज समझो , रफ़्तार पकड़ो । " हितैषी हो उठे नेता जी बोले  !
उनकी हर बात का समर्थन ही किया मैंने ।नेता जी निकल गए छोटा सा उपदेश दे , अपनी हिमायत का सीमेंट जमा के !

 सोचा , बदलाव  तो बहुत तीव्र है सचमुच । पर बहुत कुछ है जो बदल जाना चाहिए पर जम जूं सा चिपका बैठा है । झाड़ में छुपे गिरगिट अब  भी मारे जा रहे है ।  इक्कीसवी सदी के सन २०१६ में भी !

                                                                                                       -- सचिन कुमार गुर्जर  




शुक्रवार, 6 मई 2016

फल खाना है यार !


"बहुत दिन हो गए यार , फल नहीं खाया फल । फल खाना  है यार कैसे भी ।"  अलकनंदा हॉस्टल के बाहर चाय के खोखे पे सिगरेट का धुंआ उड़ाते हुए उस्ताद  ऐसा बोलेते  । उनके बोलने के अंदाज़ से ही लगता था कि उन्हें फल खाने की जोर की तलब लगी होती थी । उनकी  आँखे किसी पुराने अनुभव को याद कर आसमान की ओर तिरछी होती । निकोटीन को पूरा पेट तक धकियाते हुए बोलते  " दिल्ली जाता हूँ इस वीकेंड ! "

"कितनी छोटी सी बात कर दी उस्ताद ।   कॉलेज के गेट के बाहर की दुकान पर ताज़ी खुमानियाँ , चीकू , सेब, लीचियाँ  लधे पड़े है । अभी लाके देता हूँ अपने उस्ताद को ' वो लड़का चलने को होता ।

उस्ताद ठहाका लगा के हँसते । बड़ी देर तक हँसते ही रहते , उनकी आँखों से शरारत टपकती । वो उस लड़के के बालों में हाथ फिरा बोलते ' छोटे , तू बन्दा कमाल है । सीधा है यार ,बड़ा ही नेक बन्दा है । दोस्त है तू अपना पक्का वाला ।  '

लड़के का दिल ख़ुशी से बाहर आने को होता । कोई ज्ञानी महापुरुष किसी जड़बुद्धि मूर्ख  को अपना सखा बोल दे तो ऐसी फीलिंग आती ही है ।

कुछ देर बाद लड़का ताज़े फलों से भरी पिन्नियां लेकर लौटता तो उस्ताद को अभी भी खोखे पे जमा पाता ।
शिष्य गुरु को नतमस्तक हो फल भेंट करता तो जबाब मिलता
"तू ही खा यार , मेरे को फ्रूट्स हज़म नहीं होते । खाके अपच हो जाती है । "
फिर मन रखने को नाशपाती में एक दो मुँह मार उसे फेंक देते उस्ताद ।

उस्ताद खोखे वाले को धकियाते  " क्या हुआ भै जी ,एक ऑमलेट के लिए कितना इंतज़ार कराओगे ?
और हाँ दो की तीन चाय भी कर देना । चीनी रोक के ,पत्ती झोंक के !"

पहाड़ की सुबह की नरम धूप में अलसाते लौंडो की ओर हांक मार उस्ताद बोलते " सुना है बड़ा ही जोरदार बकरे की आंतों का भुटुवा मिलता है पौड़ी की बूचड़ गली में , कोई चलना चाहेगा क्या , आज दोपहर ?"

वो गंवई लड़का असमंजस में ही रहता  "उस्ताद का भोजन हमेशा राक्षसी ही होता है , पता नहीं फिर फलों का जिक्र ही क्यों करते है ?"

                                                                                                                           -- सचिन कुमार गुर्जर

मंगलवार, 3 मई 2016

बिहा की मोटरसाईकिल

तब स्कूटर, मोटरसाइकिल इक्का दुक्का दिखाई पड़ते थे , उँगलियों पर गिनने भर के । उस समय बड़े मुकददम  ने अपनी छोटी लड़की की शादी में 'राजदूत' दी थी , बड़ा नाम हुआ था उनका काले कोसो तक तूती बाजी थी  !
बारात जब विदा हुई थी तो भरी बारात में एक भी बाराती ऐसा ना था जो मोटर साइकिल चला के ले जाए ।  मुकद्दम ने अपने बहनोई के छोटे भाई को भेज विदा कराई थी मोटर साइकिल ! अनुरोध कर भेजा था कि एक दो रोज़ छुटकी की ससुराल में रुक दामाद को थोड़ी ट्रेनिंग भी दे आएं । 

तेजा बस नाम का ही तेजा था । नौवें दर्जे का आखिरी परचा देने के बाद अपना बस्ता ऊँची खूंटी पे टाँग दिया था उसने । पिता जी हेड मास्टर थे और  इच्छा रखते थे कि  इकलौता पूत तेजा ग्रेजुएट हो जाए , नौकरी खातिर नहीं नाम  इज़्ज़त के लिए  । 

पर तेजा मन बना चुका था । मास्टर थोड़ा बहुत प्रोत्साहित करना चाहते तो बोलता " क्या चाहते हो पिता जी , हम भी गिरधारी काका के सतीश की तरह खूब पढ़ लिख जाये और बम्बई में जा जहाजरानी में नौकरी करे और फिर घर वालो की दवा दारु का  भी न देखे । फिर बलकतरी बहु लाके धरेंगे , देखते रहियो टुकर टुकर ।"

मास्टर कुछ बोलते न बोलते , पर मास्टरनी का  गुर्दा हिल जाता था तेजा की बात सुनकर " ना मेरे वीर , मत पढ़ तू , पर बाहर जाने का सोचियो भी मत मेरे लाल । संखिया खाय मर जाएगी तेरी माँ जो तू परदेसी हुआ तो । "
जमीन जायदाद तेजा के दिमाग में घुस गयी थी । रही सही कसर गाँव वाले पूरी कर देते। वो बस्ता लेकर स्कूल जाता तो कोई न कोई टोक ही देता " तुम किस लिए माथा मार रहे लल्ला, सोने जैसी  जमीन बटाईदार के हवाले कर शहर में चंद सिक्कों खातिर जी हज़ूरी करोगे  पढ़ लिख, क्यों?"

फिर कमी भी तो किसी बात की न थी । हेड मास्टरी की तनख्वाह  थी और ऊपर से पूरी सौ बीघा सिंचित जमीन । जमीन भी ऐसी उपजाऊ कि गन्ना बांस जैसा मोटा मोटा उगता था । तीन तीन  बिहारी मज़दूर दिन रात गन्ना खींचते  थे पर गन्ना समेटे न सिमटता था । 

अब जब औलाद  बस्ता खूंटी पर टांग छोड़े , तो माँ बाप का अगला कर्म उसकी शादी का ही होता है। बेटी वाले तो तेजा पे कबसे  गिद्ध सी निगाह  गढ़ाए बैठे थे।कोई टटोलता तो मास्टर कह देते " अजी दहेज़ मांगने का काम ओछे आदमी किया करै है । घर हमारे कोई कमी नहीं , माल दहेज़ की कोई इच्छा नाही ।  लड़की साफ़ सुथरी हो , लंबी पोई हो और घर परिवार की इज़्ज़त को पहचाने , बस ।"
पर मन ही मन जानते थे और वही क्या बाकि सब भी जानते थे कि तेजा की शादी में मोटरसाईकिल तो मिल के रहेगी।

एक दिन लखमीचंद आ जमे मास्टर साब के दालान पर । बड़े ही हठीले ठहरे लख्मी , बिरादरी में बात थी उनकी । ऐसा खूंटा गाड़ के बैठे दालान पर कि मास्टर साहब से हामी भरा के ही उठे ।
'"हम कहेंगे कुछ न लखमी , पर हमारी इज़्ज़त बाँधियो। तुम समझदार हो, भरोसा है तुम पर। " मास्टर साहब ने चलते वक़्त लख्मी चंद से इतना भर कहा था ।
"निश्चिन्त रहो मास्टर , दूर दूर तक आवाज़ होगी तेजा के बिहा की। धनाढ्य परिवार ढूढ़ा है , किसी बात की कसर न होगी।धन माल इतना होगा कि तुम्हारा मकान छोटा पड़ जायेगा । सवारी भी मिलेगी । "

उधर तेजा की अपनी उमंग थी । उसका सपना था कि बिहा के वक़्त वो मोटरसाईकिल सवार हो ना हो , गौने के वक़्त तक उसका हाथ इतना साफ़ हो जायेगा कि अपनी बिहाता को अकेले ही ससुराल से लाएगा ।  तेजा के दिन रात  मंगा हलवाई के लौंडे , उसके खासम ख़ास यार  की पुरानी यजदी पे बीत रहे थे । पढाई में भले ही कमतर रहा तेजा पर था बड़ा उस्ताद दिमाग । मंगा के लौंडे ने एक दो बार ही कलच और साध बताई थी , तेजा बहुत ही तेजी से नयी विधा सीख रहा था । उसके सपनो में 'राजदूत ' आती थी , काली बॉडी में , चमचमाते स्टील फ्यूल टैंक वाली !

लगन वाले दिन पूरे टोले में बड़ा उत्साह था । बड़ा इंतज़ार हुआ पर 'राजदूत ' ना आई ।
तेजा थोड़ा सकपकाया भी , पर लख्मी चंद स्तिथि भाँप गए " घबराओ न बेटा , धीरज धरो , मोटर साइकिल  विदाई के समय मिल जाएगी । "
"जितना देर मिले उतना सही लख्मी , ये लोहे का घोडा भूसा नहीं , पैसा खाके ही हिलता  डोलता  है " मास्टर साब ने बड़े पते की बात कह दी थी ।

खैर , बिहा का दिन भी आया । बारात नियत समय , नियत स्थान पहुंची । पुरजोर स्वागत हुआ । लड़की के बाप ने मास्टर साब के गले में दस दस के खरे नोटों की माला डाल , पलक बिछा स्वागत किया । तेजा के यार दोस्तों ने घुटनो के बल बैठ बैठ ऐसा जबर नागिन डांस किया कि छतों पे लटकी कुआरी लड़कियों के दिल उछल उछल रास्ते में गिरने को हुए । रसगुल्लों , लड्डुओं , पालक पकोड़ों को बारातियो ने ऐसे ऐठा  जैसे सात जन्मों के भूखे जिन्नों को किसी ने बोतल से निकाल बाहर किया हो ।

सब कुछ सही , पर  मोटरसाईकल  न दिखती थी । निगाहों से छुपा के रखा था ससुराल वालो ने लोहे का घोडा !
तेजा ने एक दो बार पूछा भी " पिता जी , लख्मी मौसा से पूछ भी लो , कही कुछ झोल न हो । "
मास्टर साब डाँट देते " तुम चुपचाप रस्मों पे ध्यानो, ज्यादा उतावलापन काहे ?"
खाना हो गया , फेरे हुए पर मोटर साइकल का पता नहीं । लड़की वाले विदा की रस्म से पहले पत्ते खोलने को तैयार न थे ।

" हाँ जी , दहेज़ की सूची इस प्रकार है , इक्कीस जोड़े लत्ता  , लड़के के लिए सफारी सूट, ग्यारह सोने की चीज़े , लड़के के लिए एक एच अम टी घडी , इक्यावन पीतल के बर्तन , एक दीवान पलंग , दो बक्से एक बड़ा एक छोटा , मर्फी ओरिजिनल ट्रांजिस्टर और..."
" और एक एटलस साईकल मय स्टैंड !" नयी उम्र का वो लड़का दहेज़ की सूची पढ़ हाथ जोड़ लड़की पक्ष के लोगो के झुरमुट में छिप गया ।

बस इस आखिरी आइटम का सुनना था कि मास्टर साब के सीने पे साँप लौट गया । पसीने की लहर माथा भिगो गयी । हलक सूख गया । पूरी बारात में मातम सा सन्नाटा । तेजा की हालत ऐसी कि प्राण अब छूटे कि तब छूटे । उसे लगा कि बस कुछ ऐसा हो कि जमीन फट जाए और वो उसमे समां जाए ।
लख्मी खुद अविश्वास की नज़र से लड़की के बाप को एक टकी  बांध देखे जा रहे थे ।
धोखा हो गया था धोखा !
किसी समझदार बूढ़े ने सन्नाटा तोड़ा " बहुत दिया जी , बहुत दिया । राम जी सबके काज बनाए । "

मास्टर साब की उम्र का अनुभव  तो सदमा दबा गया पर तेजा हुआ नयी उम्र लड़का । बौरा सा गया कतई । सेहरा उतार दर्री पे रख दिया और दोनों हाथ पीछे टिका दिए । उसके कंधे निराशा में नीचे ढलक गए ।
फिर इससे पहले कोई कुछ समझ पाता वो बिजली सा उठा और सीने भर ऊँची चार दीवारी को ऐसे फाँद गया जैसे कोई नया सुतीला, अरबी  घोडा ।
तेजा भाग गया था । हाँ जी , दूल्हा भाग गया था । वो आबादी से पीछे की ओर भागा था । उस ओर जिस ओर उपले बिटोड़ों के खदान थे ।

लड़की पक्ष के दो लड़को ने हाथ में राइफल थामे जगह के निकास पे मोर्चा ले लिया । दो चार बगल की छत पे चढ़ गए । ऐलान हो गया " खबरदार , जो कोई बाराती हिला भर भी । पहले लड़की विदा होगी , फिर बाकी बारातियों की निकासी होगी ।  होश रखोगे तो रिश्तेदारी , जोश दिखाओगे तो लाल खोपड़े लेकर जाओगे सब के सब । "

मास्टर साब ने समधी के हाथ थाम लिए " क्या करो हो हुकुम सिंह , फेरे हुए लड़की हमारी हुई । रिश्तेदारी लठ्ठों से , दुनलियों की बटों से निभाओगे क्या , समधि ? " आँखे छलक आई मास्टर साब की । मास्टर साब के सधे बोलों का सुनना था ,  दुनालियाँ  नीचे झुक गयी , लड़के छतों से नीचे उतर आये ।

फिर शुरू हुई तेजा की ढुंढवार । खेत खलियान , जोहड़ क्यारी , सब टटोले गए , पर तेजा ना मिले ।
बारात , घरात का बड़ा बच्चा सब खोजा , पर दूल्हा ना मिले ।

बालक की नब्ज माँ बाप से अच्छी कोई परख सकता है क्या ? मास्टर साब के कान कुछ टोह ले रहे थे ।
फिर बीच बिटोड़ों के खलियान मास्टर साब ने चेतावनी दी " तेजा बाहर आओ हो , या लगा दे तीली बिटोड़ों में "
मास्टर टोह लेते बिलकुल उसी बिटोड़े तक पहुंच गए थे जहाँ तेजा छुपा बैठा था ।
फिर उपलों के ढेर में जोर की ठोकर मार बोले " बोलो आते हो या लगा दे आग । "

"देर न करो मास्टर साब  , खींच दो तीली और कर दो सब स्वाहा अभी  । तेजा की कहानी इसी बिटोड़े में खत्म हो जाए तो भला ।  दुनिया को मुँह दिखाने से बेहतर मै  स्वाहा ही हो जाऊ ।  ' फिर हिडकी बाँध रो पड़ा तेजा । और ऐसा जोर रोया , ऐसा रोया कि लगा की चारो दिशा रो पड़ेंगी ।

"होश कर रे पूत , तेरा बाप अभी जिन्दा है , आजा मेरे शेर "  मास्टर का गला रूँद गया । हथेलियों से आँखे ढक ली । सात पुश्तो की कमाई इज़्ज़त , बिन अपराध लुटती जान पड़ी ।

किराए की अम्बेसडर में बैठ तेजा अपनी बिहाता  को ले चला आया । बाराती भी अपने अपने साधनों से चल निकले ।
मास्टर साब रुके रहे । एक गिलास पानी मंगाया और लख्मीचंद के सामने खड़े हो गए ।  
"किसी पुराने जनम का बैर रहा होगा हमारा तुम्हारा लख्मी , हम जीते जी अपमान भूल न पाएंगे , हम सीधेपन में रहे और तुम हमारी बगल में घुस हमारे ही पर क़तर गए ।
सुन लो , एक मर्द बच्चा हो तो हमारे खेड़े पाँव न रखियो कभी , सम्बन्ध खत्म हुआ हमारा तुम्हारा "
इतना कह मास्टर साब ने पानी मुँह में ले लख्मी के सामने पानी का कुल्ला किया और गांधी टोपी को साध किराए की जीप में चढ़ गए ।

मौसम आये गए हुए , वक़्त जख्म भर गया ,मास्टर साब का घर परिवार घणी विपदा से उभर फिर से वैभव का जीवन बसर करने लगा । दोनों घर परिवारो का आना जाना तो हो गया पर लख्मी चंद विलेन ही बने रहे ताउम्र। मास्टर साब उन्हें उनकी गैरजिम्मेदारी के लिए माफ़ न कर पाये।

तेजा का लड़का जुआन हो गया है अब । इकलौता है , इंटरमीडिएट कर चुका है और सौ बीघा जमीन है! सुनने में आता है कि तेजा के लड़के के बिहा में 'बोलेरो' मिल के रहेगी ।
बस उसके ऊँची खूँटी पे बस्ता टाँगने की देरी भर है !

                                                                                                 - सचिन कुमार गुर्जर

रविवार, 1 मई 2016

जब जाना ही पड़ा स्कूल

चार दिनों से मेह बरस रहा था । रस्सी के जैसी मोटी मोटी धार बरस रहे थे बादल ।  दादी कई बार राम जी को खरी खोटी सुना चुकी थी ।
गाँव की सबसे बूढी, विधवा  दादी अपने हाथों से गोबर का उलटे पैरों वाला भूत दीवार पे उकेर उकेर थक गयी थी । सब टोटके फेल , मेह ना थमता था ।
ऐसी घनघोर मेघा हुई थी उस बरस कि जमींदार बनियों की पक्की छतों को छोड़ सारे गाँव की कच्ची छतें टपाटप रोई थीं  ।
पिता जी कई बार आशावादी होकर बोलते थे " पूरब की ओर से बादल ऊँचा होता दीखता तो है , राम जी गाय भैंस के लिए घास फूस करने का मौका तो देगा ही । "

पर बारिश न थमी । पांचवे दिन मेह हल्का हुआ तो स्कूल के मास्टर तड़के तड़के मुहल्ले में धमक घोषणा कर गए " अजी ,राम जी न थमे अपनी बला से , आज स्कूल खुल के रहेगा । "
रास्ते कीचड से लबालब , खड़ंजे की ईंटे कई कई इंच मिट्टी गोबर के अंदर धँसी थीं   । बड़े भी इधर उधर पड़ी ईंट पत्थरों  पर पैर जमा निकल रहे थे ।

मेरी नियम की पक्की माँ ! मास्टर की घोषणा के तुंरन्त बाद उसने बिजली की फुर्ती से तैयार कर बस्ता लाद  दिया अपने कुलदीप की नाज़ुक पीठ पर  ।
और वो असहाय बालक महेश बनिए की परचून की दुकान की चौखट के  ठीक सामने धड़ाम से गिर गया । शिखा से नख तक पूरा कीचड ही कीचड !

रोते हुए घर पहुंचा , तो माँ ने कपडे बदल दोबारा भेज दिया । फिर से उसी स्थान,  महेश बनिए के घर के सामने  कीचड में फिर से धड़ाम हो गया अबोध । पूरा कीचड़ में लथपथ ।
इस बार रोता सुबकता वापस लौटा तो माँ को षड़यंत्र जान पड़ा " ढोंग न कर मुन्ना  , जान बूझ फिसला ना इस बार तू , जाना तो पड़ेगा तुझे लल्ला ।  "

कोमल हृदया दादी बीच में कूद पड़ी थी " एक दिन न जायेगा तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा , आज के ही दिन लाट साब बना देंगे क्या मास्टर। "
फिर दोनों में खूब नोक झोंक हुई थी । और माँ तीसरी बार खुद गोद में उठा स्कूल के दरवाज़े तक छोड़ कर आई थी । हलकी हलकी बुंदिया बरस रही थी तब तक भी ।

दादी बीच में न कूदती तो शायद माँ तीसरी बार स्कूल न भेजती । पर दादी पोते के प्यार में अपने आप को थाम  ना  पायी और माँ के अहम् के लिए अपना निर्णय थोपना जरूरी हो गया था ।

शाम होते होते राम जी के बादल तो छितरा के ऊँचे हो गए थे , पर माँ और दादी की नोकझोंक के घनघोर बादल कई दिनों तक टकराते रहे थे रुक रूककर !
                                                                                     --सचिन कुमार गुर्जर

ओए_देहाती _बुड़बक  , आह _बचपन

शनिवार, 30 अप्रैल 2016

एक मासूम की क्रांति

माँ छोटे लड़कों को सजा रही थी । उनके सिरों में सरसों का बहुत सारा तेल चिपुड , उनकी आँखों में काले काजल की डोर बाँध रही थी ।
पर तीनों लड़को में सबसे बड़े लड़के का मुँह गुस्से से तमतमाया हुआ था ।
" अब तुझे क्या हुआ  , तेरी शकल क्यों सूजी हुई है , जल्दी से तैयार क्यों नहीं होता ।" माँ ने पूछा ।

लड़के ने माँ को त्योरियाँ चढ़ा देखा । उसकी नाक के सुर फूले हुए थे , होठ गुस्से से फड़फड़ा रहे थे , बस रोने को ही था  " जैसे तुम्हे पता ही ना हो , ज्यादा नासमझ बनती हो । "

माँ टाल गई "चल जल्दी तैयार हो जा, घोडा तांगा लिए छंगा आता ही होगा । "

"तुम सचमुच बेरहम , पत्थर दिल हो , दादी तुम्हारे बारे में सही ही तो बोलती है । "  मटियाली दीवार पे पैर लटकाए वो लड़का फूट फूट के रोने लगा ।

"दिमाग ख़राब न कर मुन्ना , शगुन ख़राब न कर तड़के तड़के , चल तैयार हो जा । "  माँ ने गुस्से में भर बोला ।
लड़के की माँ को जब गुस्सा आता था तो वो मुँह दूसरी ओर फेर बात करती थी । ये उसका अपने बच्चों से गुस्सा इजहार करने का एक तरीका हुआ करता था ।  जतावा देने का तरीका , माने वो नाराज़ है लिहाजा बालक तुरंत कहना मान ले ।

पर उस दिन वो बालक आर पार के मूड में था । दीवार से फाँद , पैर पटकता माँ के सामने आ खड़ा हुआ " तुम्हे बोला था मैंने कि नहीं , के इस बार पुराने बक्से के रखे थान के एक मेल  कपडे पहन ननिहाल नहीं जाऊंगा । भाइयों के मेल के कपडे कतई न पहनूंगा । "
" बोलो , बोल था कि नहीं । तुमने बोला बाबा को ?  बोला क्यों नहीं , तुम्हे बोला था ना ।  "

पर माँ , माँ निष्ठुर सी हो गयी , झुंझला के बोली " अभी दो धमुक्को में उतर जायेगा तेरा फैशन का बुखार  । "

"ठीक है , तुम जाओ छोटे पूतो के साथ अपने पीहर , खीर पूड़ी उड़ाओ , मैँ यही दादी से मांग रोटी खा लिया करूँगा । "
लड़के का सुर इंकलाबी हो उठा । पर रोना चालू रहा , अनवरत , सदानीरा गंगा जैसा ।
वो इंतज़ार में रोता  रहा , पर माँ की तरफ से कोई माफीनामा या समझौता प्रस्ताव नहीं आता जान पड़ा ।

"कौन बला आन पड़ी जाते जाते , सुनाई नहीं देता , तांगा लिए छंगा कबसे हाँक मार रहा । " पिता जी गुस्साते हुए आँगन तक चले आये ।

"पूछो , अपने नखरीले कुँवर से । फैशन का भूत सवार है लाट साब पे । इन्हे भाइयो के मेल के थान के कपडे पहनने में शर्म आने लगी है । बोलते है , रेडीमेड चाहिए , जिनपे अंग्रेजी में अलाय बलाय लिखा होता है । जाने से मना कर रहा है छबीला । " माँ तो चाह ही रही थी कि पिता जी मामले का त्वरित निपटारा कर दें ।

"ठीक है , तू मत जा इस बार । यही ठहर । वैसे भी एक बालक तो चाहिए यहाँ , गाय भैंस का खल पानी करने वास्ते। " पिता जी ने बड़ी ही जबरदस्त , अकाट्य चाल चल दी थी । घंटे भर का जमा जमाया स्वांग एक ही मिनट में धुंआ धुंआ हुआ जाता था । बालक पिता जी से प्रतिवाद न करता था । अमूमन यही होता है बच्चों का माँ के ऊपर तो खूब सिक्का चलता है , पर पिता जी के सामने पतलून ढीली । है कि नहीं ?

पर वो बालक सफ़ेद देसी गाय का ताज़ा दूध पीता था , इतना बुद्धू भी ना था । बिजली की फुर्ती सा मटियाली भीत से कूदा और घोषणा कर दी " मैँ जाऊंगा तो जरूर , पर ये एक मेल थान के कपडे कतई ना पहनूं । " फिर फटाफट खुद ही पुरानी 'बुसकैट' और मिटटी मिटटी हुई पैंट पहन घोड़े ताँगे में सवार हो लिया ।  मतलब जे कि भरपूर विरोध भी दर्ज़ भी हो जाए और ननिहाल का सपाटा भी ना छूटे !
 रास्ते भर वो बालमन सोचता रहा कि पता नहीं नानी क्या सोचेगी कि मुन्ना पुराने कपडे पहन ही चला आया । दोस्त आडी क्या सोचेंगे ।  उस बालक का 'मैँ ' विकसित हो रहा था तब ।

ननिहाल पहुंचते ही नानी ने बालक को बड़े लाड से गले लगाया , माथे का पसीना हथेली से पोंछ माथे पे चुम्बन अंकित किया | फिर बड़ी उमहाती सी , खुश हो बोली " सुबह से नीम पे कागा बोलै था , मैँ जानु थी मेरा मुन्ना आता होगा आज ! "
नाना को नमस्ते किया तो उन्होंने हँस कर तंज किया " आओ कुंवर साहब , घर का आनाज खत्म हुआ , तो ननिहाल का रुख कर दिया , क्यों ? "

नींबू और चीनी की गाढ़ी शिकंजी पी वो बालक अपनी मित्र मंडली की तलाश में निकल लिया ।

पता नहीं , नानी और माँ का कुछ चर्चा हुआ या महज संयोग हुआ , उस बार की गर्मी की छुट्टियों से लौटते नानी ने उस बालक को बड़े ही जोरदार टी शर्ट और फैंसी निक्कर का जोड़ा गिफ्ट किया ।
हाँ , उस बार की गर्मियों के बाद  घर वालो को भी ये बात समझ आ गयी कि  मुन्ना बड़ा हो रहा है , एक ही थान   एक मेल कपड़ो के दिन लध गए ,आगे से रेडीमेड , फैंसी ड्रेस का इंतज़ाम करना हुआ करेगा !

मासूम की क्रांति सफल रही थी !

                                                                                           --सचिन कुमार गुर्जर






शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

मेरी छतरी के नीचे आजा!


वो इकहरे हाड की जवान औरत थी।जब भी हमारे मोहल्ले से गुजरती , उसके  सिर पर पानी का घड़ा होता या हाथ में  हँसिया होता ।  हमेशा किसी न किसी काम की हड़बड़ी में होती । उसे देखते ही हम जोर जोर से गाते  "मेरी छतरी के नीचे आजा , क्यों भीगे रे कमला खड़ी खड़ी! "

बड़े हमारे गाने पे हँसते तो हमारा हौसला और भी बढ़ जाता , हम एक सुर हो और भी जोर से गाते " अरे आजा दिल में समां जा , क्या सोचे है तू घडी घडी  ।"

वो औरत नागिन सी फनफनाती । दो चार कदम जोर से पटकती , मानो हमे पकड़ना चाहती हो । पर हम, तब हमारे पैर फूलो से भी हलके उठते थे और हवा के माफिक भागता था हमारा पुराना साइकिल का टायर!

वो औरत चिढ़ती , झुंझलाती और कहती " मैं जानू हुँ तुम किस किसके पूत हो, तुम्हारी  मेहतारियों से तुम्हारी खाल न उतरवाई ना, तो मेरा नाम कमला नहीं । "

चबूतरे पे नीम की छाँव  में खुरदरी  खटिया पे पैर पसार बीड़ी का सुट्टा लगा रहे काका सही मौका भांप  कहते " री कमला , जाने भी दे री भलामानस , नासमझ बालक ही तो हैं । "

फिर अपनी बात आगे बढ़ा बोलते  " कभी सुस्ता भी लिया कर कमेरी।"
हाथ में बीड़ी का बण्डल और माचिस ले उसकी ओर बढ़ा आग्रह करते " ले बीड़ी सुलगा ले, तनिक सुस्ता  ले, फिर  निकल जइयो खेतों  की ओर। "
 कमला का गुस्सा एक मिनट में छू मंतर हो जाता और हम बालक काका की चपलता, त्वरित बुद्धि  के कायल हो जाते।

लट्ठे का  पायजामा  और सैंडो बनियान पहने बच्चों की फ़ौज़ अपने टायरों की रैली के साथ घंटो  बाद गाँव का पूरा फेर लगा वापस  नीम के पेड़ तले लौटती।
काका की आँखे तब तक भी प्यार भरी शरारत से तर-ब-तर  होती !
                                                                                       -सचिन कुमार गुर्जर


बुधवार, 27 अप्रैल 2016

आप खुद एक नुमाइश है !


आप ट्रैन पकड़ने की भागदौड़ में है । प्लेटफार्म के लिए लगे एस्केलेटर पर चढ़े जा रहे है । आपके ठीक दो सीढ़ियों ऊपर एक युवती खड़ी है ,बेहद छोटी पोशाक में !
कितनी छोटी ? आपकी कल्पनाओं के चरम स्तर से  बस थोड़ी सी बड़ी !
माने , नितम्ब के नीचे जो अर्ध चंद्राकार गोलाई बनती है ना , वो भी दर्शनीय है ।
और हाँ दर्शन भूलवश या वार्डरोब मालफंक्शन के चलते नहीं ।  अजी , ट्रेंड चल रहा है इधर ।
स्वागत है आपका, एशिया के गौरव सिंगापुर में !

 चिंताओं के पाताल लोक में  भी लिप्त क्यों न हो दिमाग , फिर भी पूछता ही है " अब इससे आगे क्या ?"

क्या कहा ? आपका नहीं पूछता । सही है , कोई विवाद नहीं , आपकी  संत आत्मा को हमारा साष्टाँग प्रणाम पहुंचे ।

भौतिक वाद , वस्तुवाद जब निर्जीव खिलौनों से निकल व्यक्तिगत स्तर तक उतरता  है न तो यही होता  है ।

वैसे इसमें थोड़ा कल्चर का पहलु  भी देखा जा सकता है । साउथ ईस्ट एशियाई देशो में पहनावे को लेकर अपने घर के यहाँ से ज्यादा उदारता तो है ही । काफी ज्यादा ।
चूँकि मैंने पाया है , देश से निकल ऑनसाइट आने वाली युवतियाँ खुले आसमान में उडारी मारने के हौसले का प्रदर्शन करती तो जान पड़ती है , पर स्कर्ट नी लेंथ से  ऊपर ले जाने की हिम्मत कम ही होती है ।
कल्चर , यु नो ! ;)

बात पोशाक और पहनावे की चल ही रही है तो एक वाकया और ।
चीनी परुषों का मिज़ाज़ भी अलग होता है अपने यहाँ से । जिम ज्वाइन करने के पहले दिन चेंजिंग रूम में गया तो पाया वहाँ का दर्शन कुछ अलग ही था । कोई भेद नहीं , सब निपट नंगे , एकदम खुली नुमाइश !  और हाँ किसी के चेहरे पे कोई भाव नहीं ।  कोई अचम्भा  नहीं । सब अपने में बिजी । चीनी और अँगरेज़ निपट नंगे इधर उधर चहलकदमी करते दिखाई पड़े ।  केवल भारतीय और मलय मूल के पुरुष ही लज्जा निवारण को बड़ी सफ़ेद तौलियों के पीछे छुपते नज़र आये ।

हाँ एक देसी अंकल दिख रहे है पिछले दिनों से , जिन्होंने अपने पिछड़ेपन को छोड़ आधुनिकता  को अपना लिया है । कई दिनों से ये जनाब भी रौ में बह अपनी दूकान खुली छोड़ आराम में  नज़र आते है । इण्टर रेशियल हारमनी के लिए अच्छा है , मिल जुल के रहना चाहिए, सबके जैसा दिखना चाहिए  ।

बात नुमाइश की है तो जनाब आप कौन सा कम है ।
आप पचासों फोटो में से छांट छूट ऐसी फोटो फेसबुक पे डालते है जिसमे आपने सांस खींच पेट अंदर दबाया हो , एडिट कर ब्राइट कर डालने में भी गुरेज़ नहीं करते । आप हमेशा 'चिलिंग आउट ' मोड में होने का प्रदर्शन करते है ,चाहे अभी थोड़ी देर पहले मैनेजर ने आपका तबला बजाया  हो  ।
आप इधर उधर की पंचलाइन चुरा अपनी बना सोशल मीडिया पे पोस्ट करते है । इंटेलेक्चुअल वाद विवाद लाइक डिस्लाइक मारते है , चाहे मामले की जड़ पूछ पता हो या न पता हो ।
नया मोबाइल हो या नयी कार या नयी बीवी, छोटी से छोटी ट्रिप , लंच-डिनर  सबका प्रदर्शन फेसबुक पर , एकदम फुकाउ मोड  में होते है आप ।

स्वागत है आपका भौतिकवाद , वस्तुवाद के नए युग में !
अपनी पैकेजिंग , एडवरटाइजिंग सही से , करीने से कीजियेगा , आप एक  वस्तु है !
माने , जनाब आप खुद एक नुमाइश है !

बुरा न मानियेगा वैसे , छोटी पोशाकों को देख फील गुड हार्मोन्स एंडोर्फिन, सेरोटोनिन तो रिलीज़ होते है  कम से कम ।  आपकी नुमाइश तो अमूमन हमारा मूड ख़राब कर जाती है , आप बेबजह , बेहिसाब  खुश नज़र जो आते है !
                                                                    --सचिन कुमार गुर्जर




श्रद्धा भाव

  सिंगापुर सुविधाओं , व्यवस्थाओं का शहर है | सरकार आमजन की छोटी छोटी जरूरतों का ख्याल रखती है | फेरिस्त लम्बी है , हम और आप महीनो जिक्र कर स...