गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

नानी ले चली ननिहाल





उस दिन जब लम्बे अर्से बाद मामा से बात हुई तो वो फ़ोन पे ही डांटने लगे।  क्यों रे , कुछ  ज्यादा ही बड़ा आदमी हो गया है , अब ननिहाल की  याद नहीं आती । घिसा पिटा  सा व्यस्तता का तर्क दे बात सम्भाली थी मैंने । कौन बताता उन्हें कि अब मन नहीं लगता उधर । दो  साल से ऊपर हो गए नानी को गए हुए । नानी ही न गयी एक पूरी दुनिया चली गयी किस्से कहानियो की  दुनिया , लाड दुलार की  दुनिया । 

अलग ही था वो जमाना ।  साल भर इंतज़ार होता था गर्मियों की छुट्टियों का । गर्मियां आएँगी और हम जायेंगे नानी के गाँव ।ना  फ़ोन,ना  चिट्टी पत्री का तकल्लुफ , फिर भी पता नहीं माँ और नानी में  कैसे संवाद हो जाता था कि हम  ज्येठ के फ़ला दिन पधारेंगे  । 
घोड़े तांगे में बैठ हम जाते तो मन कुलांचे मारता । तीनो भाइयो के कपडे एक से , एक ही थान  से बने । 
भाइयो में मैं सबसे बड़ा था सो माँ के कपड़ो की कंडिया (जालीदार झोला) मैं  ही सम्भालता । कपड़ो के बीच में एक दो नंदन या चम्पक या नन्हे सम्राट भी ढूंस लेता  और बाद में आराम से नीम के पेड़ तले बड़े चाव से एक एक कहानी पढता  ।

नानी पलकें  बिछा द्वारे पे बाँट जोहती मिलती , पूरा घर गौ माता के ताज़े गोबर से लीपा होता , मानो कोई त्यौहार हो । ताँगे  से हमारे उतारते ही  देर  तक पुचकारती , लम्बी उम्र की दुआए देती जाती ।
खीर पूड़ी खिलाती । उस दुनिया में हमारी सारी  गलतियाँ , सारी  शरारते माफ़ थी । नानी के सामने माँ की एक भी ना चलती थी ।


 कच्चे रास्ते पर दूर तक अमराही  थी,जामुन के दरख़त थे । पूरी दोपहर ट्यूबवेल  में डुबकी लगाने में या कानपत्ता(पेड़ से लटकने का एक देहाती खेल) खेलने में जाती ।  वैसे ननिहाल तो नानी के स्वर्गवास से पहले ही सिमटने लगी थी । सड़क किनारे के पेड़ काट लाला ने अपनी पक्की दुकाने बनवा दी ,  परचून की , टायर पंचर की , चाट पकोड़ी की । 
अब तो मामा ने भी दूकान चला ली है , खेती करना अब रसूख़ का धंधा नहीं ,हाड़तोड़ ज्यादा है और आमद कम ।  फिर धीरे धीरे दुमंजिले मकानो की कतार खड़ी  हो चली । छोटा मोटा कस्बाई अड्डा सा बन चली अपनी स्वप्निहाल  । 

नानी हमारी उस  दुनिया की  आखिरी कड़ी थी ।
नानी तुम क्यों चली गयी, क्या जल्दी थी । बाहर का मर्द तो सांसारिक ,व्यवाहरिक ज्ञान का लवादा औढ़े स्थिर प्रतीत होता है पर क्या तुम्हे पता है अंदर का बालक आज भी सुबकता है। किस हक़ से छीन चली वो दुनिया ,जिस पे हमारा अख्तियार होना चाहिए था ,आखिर उस दुनिया के राजकुमार हम थे । नानी तुम अकेली न गयी , ननिहाल भी  ले चली ।




बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

चाय के बहाने





बोझिल है मन , सूखी आँखे ।
                                बाहर हरियाली जब खिड़की झाँके
मौसम  खोकर क्या पायेगा तू ?चल आँख सेककर आना है ।
 चाय तो एक बहाना है!

बिगड़ रहे सारे इकुएशन ।
                             ना  पी. बी. सी.*, ना  प्रमोशन ।
जले कलेजा क्यों अपना ही फिर? अब बड़को का भी खून जलाना है ।
चाय तो एक बहाना है!

थोड़ी खुशियाँ ,थोडा सा गम ।
                              पत्ती ज्यादा , चीनी थोडा कम ।
व्यर्थ इतना गम्भीर बाबरे ,अरे सब यही तो रह जाना है ।
 चाय तो एक बहाना है !

उठा पटक संसद के अंदर ।
                            गधे, घोड़े ,खच्चर  और बन्दर। 
तर्क तराजू  तोलो , साधो ,किसको इस बार जिताना है ।
 चाय तो एक बहाना है !



शब्दावली -
पी. बी. सी. : आधुनिक कारखानो में मजदूरों की कार्यकुशलता मापने की  एक गूठ मापक विधि है , जिसे साधने का गुण विरलों में ही होता है ।
        
 

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

ऐसी भी क्या हड़बड़ी थी भैय्या



दिया प्रज्वलित होने के साथ ही भभक  उठे , भड़भड़ा उठे तो समझो दीर्घायु नहीं । 
ज्योत स्थिर जले ,धैर्य के साथ , तभी लम्बी जलती है और लम्बे अँधियारे को काटने के लिए दीर्घता ,अनवरत संघर्ष क्षमता अनिवार्य है । 

सर्दी गयी और मफलरधारी भी निकल लिए । क्या जल्दी थी केजरीवाल जी । बुराई के बड़े झाड़ न उखड़ते थे तो छोटी छोटी  समस्याएँ क्या कम थी । छक्के मारना ही बल्लेबाजी नहीं ,एक एक रन जमा कर भी रनो का अम्बार लगाया जा सकता है । आम आदमी होने का दम्भ भरते हो फिर सुपरमैन बनने का भूत क्यों कर सवार हुआ ।

स्वराज की लड़ाई लम्बी है , महीने दो महीने में चमत्कार की उम्मीद चाटुकारो को ही रही होगी या वो जिनके सिर बादलों में है । जमीनी सच्चाइयाँ भिन्न हैं , भ्रष्टाचार ,कुशासन से बंजर देश की माटी की सीरत बदलने को बरसों हाड़तोड़ मेहनत का कोई विकल्प नहीं है । 
निराश किया है आपने । ऐसी भी क्या हड़बड़ी थी भैय्या ।  








गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

सूरजकुंड मेला भ्रमण

 पिछले हफ्ते यूँ ही सोच रहा था कि क्यों न गुडगाँव के आसपास कही भ्रमण कर लिया जाये ।गूगल महाशय का सहारा लिया , सुझाव आया कि दमदमा झील घूम आओ या सुल्तानपुर पक्षी विहार घूम आओ । फिर कही कोने में सूरजकुंड मेले का भी सुझाव दिख पड़ा । बचपन से सुन रखा था सूरजकुंड के मेले के बारे में ।अरे हाँ , सुबह के अखबार में भी तो सूरजकुंड मेले की रंग बिरंगी तस्वीरे देखी थी,विदेशी नर्तकियों की । हर साल एक फरबरी से पंद्रह फरबरी तक लगता है । ज्यादा सोचा नहीं बस बैग उठाया और निकल पड़ा ।सप्ताहांत में जाता तो शायद ज्यादा भीड़ से दो चार होना पड़ता । कार्य दिवस था सो भीड़ कम ही थी ।

मेले परिसर के गेट पर पहुँचा । मुँह में सुर्ती दबाएँ गार्ड ने बोलने तक की जेहमत ना उठाई , सीधे टिकट काउंटर की ओर ऊँगली उठा दी । सत्तर रुपये ढ़ीले किये तब जाकर प्रवेश की अनुमति मिली ।
भीतर मेले में रंग बिखरे पड़े थे । भांति भांति के देश विदेश से आये लोग ,युवाओं के ठिठोली करते झुण्ड , तरह तरह के हस्त शिल्प।  मानों दुनिया जहान की कलाकारी सिमट आयी हो ।   इस बार के मेले की थीम गोवा हैं सो सारा मेला गोवामय  जान पड़ता है ।

पेश है मेले की कुछ तस्वीरें :








अगर आप सोचते है कि मेला अव्यवस्था और गन्दगी का साम्राज्य होता है तो ये मेला आपको अपने तथ्यों पर पुनर्विचार के लिए मजबूर करेगा ।
साफ़ सफाई चौकस है ,जगह जगह दीर्घशंका और लघुशंका से निपटनें का जबरदस्त प्रबंध किया गया है । सफाई कर्मचारी और सुरक्षा कर्मचारी मुस्तैद है । पक्के ईंट , सीमेंट से बनी संरचनाओं के ऊपर गोबर की लिपाई आपको  दशको पहले ओझल हो चुके मटियाले गाँव की याद दिला जाते है ।




कीकर के पेड़ तले कच्चे चबूतरे पर बैठे लोक कलाकार अपनी बातों में मशगूल थे ।बस अनुरोध भर की देरी थी , फिर तो ऐसा रंग जमा कि दर्शक दीर्घा लाँघ युवतियाँ भी नाच उठीं ।अतुल्य अनुभव , धरोहर बची रहे ऐसी आकांक्षा है ।



फिर कुछ जानी पहचानी सी  एक चीज पे जाकर  नज़र ठहर गयी । अरे ये तो वही बॉयोस्कोप है जो हम अपने गाँव के मेले  में देखा करते थे । बालमन ने चाहा कि फिर से झाँकू एक बार , पर प्रौढ़ मन ने डपट दिया , जैसे बचपन में ताऊ डाँट दिया करते थे । अरे क्या होगा  वही हीरो हीरोइन के चित्र  या फिर ऐतिहासिक इमारतों के चित्र । कभी सबका चेहता आज तिरस्कारित है ।मन कराहता है पर बदलाव की आँधी में सब उखड़े हैं , पुराने पेड़ो की जड़े नये पेड़ो की  खाद होती आयी है । आजकल के बच्चों को ये सब नहीं भाता ।केबल , इंटरनेट ,एक्स-बॉक्स …… सब मिलकर लील गए मेरे बॉयोस्कोप की  दुनिया।बॉयोस्कोप अपने अस्तित्व की लड़ाई हार चूका है । नमूना बन के रह गया है हम जैसे बुढाते  हृदयों में एक टीस पैदा करने के लिए । आह !निर्मोही बचपन , तूने वापस  लौटना क्यों न सीखा ।






कठपुतली नृत्य देखने के लिए ठहरा । मनोरंजन के पुराने साधन कितने सरल से थे ना और कितने शिक्षाप्रद भी । जोगी जोगिन के नाच के साथ माई ने गवई जीवन का सार गाके सुना दिया ।कठपुतली नृत्य के आखिरी भाग में जोगी को जहरी नाग डस लेता है । तम्बू में छिपा कलाकार चिल्लाता है 'डस लिया रे..... जहरी ने मस्तक पे डस खाया। '
जोगन परेशान हो पूछती है ' अब कैसे ठीक होवैगा 'आवाज़ आती है ' दो सेर दूध पीवेगा , तो आपे ठीक हो जावैगा ' …

काश ....दुनिया के सब जहरियों का इलाज़ सेर दो सेर दूध में होता ।

समझने वाले इशारा समझ गए ।  हम भी दस रुपए कला के नाम छोटे कलंदर को थमा आगे बढ़ गए ।



अगर आप शिल्प कला , लोक कला के शौक़ीन है तो सूरजकुंड आपको खूब भायेगा । देश विदेश के नृत्य आपके दिल को झूमने पे मजबूर देंगे ।
हाँ , महिला सम्बन्धियों को साथ ले जाना आपकी जेब पर भारी पड़ सकता है , महिला सम्बंधी साजोसामान का एक समंदर सा है ,बिना जेब हल्की किये लौटना मुश्किल ही  नहीं , नामुमकिन है ।कुल मिला के मेला अपनी प्रसिद्धि पे खरा उतरता है ।
 मेला संयोजको को उम्दा प्रबंध की बधाई !


 

अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...