सोमवार, 21 जून 2021

फ्लोरल मास्क



पता नहीं ये अनुशासन कब तक कायम रहेगा पर आजकल मेरा रूटीन ये है कि जरूरी,  गैर जरूरी, पसंद ना पसंद , हर तरह के काम निपटाते हुए मैं शाम के साढ़े छः बजने का इंतज़ार करता हूँ | साढ़े छः बजते ही मैं अपना मास्क अपनी कलाई में लपेट जॉगिंग के लिए झील के किनारे निकल लेता हूँ | इधर जॉगिंग करते हुए मास्क न लगाने की मोहलत है , पर वापसी में धीमी चाल लौटने पर मुझे मास्क चाहिए होता है | झील की परिधि पर लगभग साढ़े चार किलोमीटर का ग्रेवल ट्रैक है |  ट्रैक के आखिर में झील के ऊपर एक फ्लोटिंग वुडेन ब्रिज बना है ,जहाँ जिंदिगी के ढलते सूरज के बाबजूद कुछ जिंदादिल बूढी , चीनी मूल की महिलाएं मैंडरिन गानो पर नियमित रूप से  सालसा करती हैं | कुछ दंपत्ति अपने बच्चों के साथ कछुओं और मछलियों को  ब्रैड क्रम्स खिलाते रहते है | और वही कहीं खड़ा मैं पसीना सुखाता जिंदगी के तमाम फिलोसॉफिकल सवालों  के जबाब तलाशता रहता हूँ | 

मौसम अच्छा था आज | ना ज्यादा उमस , हलकी हवा थी | टीले पर लगे समन के पेड़ो के झुण्ड के पीछे डूबते सूरज का रंग सुरमई था | कुछ बादळ का टुकड़े यहाँ वहाँ रूई के फाहे से छितराये थे , कुछ ऐसे जैसे किसी मंझे हुए पेंटर ने तस्वीर पूरी करने के बाद ब्रश के दो चार स्ट्रोक यहाँ वहाँ मार दिए हों | एक एयर फाॅर्स का ट्रैनिग प्लेन झील के किनारे लगे पेड़ो की कैनोपी से काफी पीछे , धीमी गति से  उड़ रहा था | एयर फाॅर्स का प्रैक्टिस ग्राउंड है उधर | हर बार में एक के बाद एक आठ पैराट्रूपर्स प्लेन से कूदते | ब्रिज से उनकी बड़ी छतरी में लटके ट्रूपर्स   किसी आधी इस्तेंमाल की हुई पेंसिल से दीखते और महज मिनट भर में उनकी आकृतियाँ पेड़ो की कनोपी की आड़ में आ गायब हो जातीं | ट्रैक पर चलते, ब्रिज पर खड़े  लोग रुक रुक कभी सनसेट तो कभी पैराट्रूपर्स की काली आकृतिओं  को अपने फ़ोन्स में कैद कर रहे थे | 

सड़क  झील से थोड़ा ऊपर की तरफ  है | मास्क चढ़ाये मैं वापसी में सड़क की तरफ चढ़ रहा था |  एक युवक , कोई छब्बीस या सत्ताईस का रहा होगा , जॉगिंग करते से मेरे पास रुका और बोला : हेलो , हाऊ आर यू डूइंग  टुडे ?"

"फाइन फाइन वैरी फाइन , थैंक्स !"

खुशगवार मौसम में आदमी का मूड भी खिल जाता है , वरना आजकल कौन किसका हाल पूछता है , रेड लाइट पर खड़ा मैं यही सोच रहा था |  

दो अपार्टमेंट ब्लॉक्स पार करने के बाद एक पार्क कनेक्टर आता है | एक पतला ग्रीन कॉरिडोर , जहाँ काफी हरियाली है | कुछ झूले और एक्सरसाइज मशीन्स लगीं है | छोटे बच्चों  और उनके पेरेंट्स को ये जगह काफी मुफीद आती है | 

एक युवक , मेरा ख्याल है , तीस का रहा होगा , पार्क कनेक्टर से मेरी तरफ आया | काफी बड़ी मुस्कान लिए था | नस्ल का उल्लेख गैरजरूरी जानकारी है | स्वागत भरी मुस्कान | जैसे वो मेरा परिचित हो और मेरा इंतज़ार करता हो | आज मौसम वाकई खुशगवार था !

ग्रेन कॉरिडोर के बाद एक हाई वे आता है | हाईवे क्रॉस करने को एक फुट ब्रिज है | मैं चढ़ने को ही था | एक आदमी , जो थोड़ा उम्रदराज था , पर काफी वेल ग्रूम्ड , स्लिम ड्रिम , स्पोर्ट्स वियर डाले , वाइट स्नीकर्स में , मुझे देख कर वो ठिठक गया | उसका देखने का तरीक थोड़ा अजीब था | उसकी आँखे किसी जंगली बिल्लौटे जैसी थीं | घूरने की मुद्रा थी उसकी | जैसे पूछ रहा हो तू इधर कैसे ? मुझे समझ नहीं आया | मैं चलता गया | शायद कुछ गलतफहमी हुई हो |  या मेरी शक्ल किसी से मेल  खाती हो | आखिर उसके पास मुझे नफरत करने की कोई वजह तो थी नहीं | मैंने उसका रास्ता तो काटा नहीं | पूरा मास्क चढ़ाये एक दरमियाने से प्राणी से उसकी क्या नफरत | 

फुट ब्रिज सुनसान था | दूसरे कोने से भी कोई आदमी नहीं दीखता था | स्थिति का फायदा उठा मैंने मास्क उतार लिया | 

और मास्क उतारते ही मेरे  दिमाग में जैसे बिजली दौड़ गयी " ओह्ह , ये मास्क "

"ओह्ह्ह , ये मास्क! " 

मैं रुक गया | ये मास्क मैंने अभी दो दिन पहले ही एक माल से खरीदा था | मेरे पास कई सारे काले, नीले मास्क है |  जब मैंने इसे शॉप कार्ट से उठा देखा तो मुझे लगा कि थोड़ा फ्लोरल है , थोड़ा फेमिनिन लगता है | पर काले बेस पर डर्टी वाइट में बने जैस्मीन के फूल के छापे वाला मास्क , मुझे लगा ठीक ही है | कभी कभी लगाया जा सकता है | इसका फ्लैप नाक के जोड़ तक जाता है | कपडा सूती है | कानों के पीछे जाने वाली तनियाँ कानों की नसों को नहीं दबातीं | आरामदायक है | 

पर कहीं ये ही तो कारण नहीं | 'हेलो' , फिर  स्माइल और और वो वो  पैंथर की आँखे लिए वो आदमी | अहह , ये जैस्मीन का फ्लावर मास्क | कुछ रॉंग सिग्नल हो गया क्या ? गलत दुनिया में कदम रख दिया शायद | 

मैंने पैर जमीन पर मारा | धत्त्त | फिर खुद को ही दुत्कारा "सचिन , टू मच फिक्शन , हुह्ह। .. " एक इंडियन शॉप पर रुका , कुछ रस्क के पैकेट लिए , एक सेवई का पैकेट भी | खुश हुआ , काफी अरसे से सेवई खाने का मन था | 

पर मेरा दिमाग अब भागने लगा था | मैट्रिक्स मूवी , जोमंविज जो रात को निकलते हैं , दूसरे गृह के प्राणी जो इंसान बनके हमारे बीच में रहते है और हम उन्हें परख नहीं पाते | ये दुनिया कई सारे आयामों में  चल रही होती है | हम जिस घेरे में रहते है, सोचते है बस उतने में ही सब कुछ है | ये वाइट स्नीकर्स पहने , स्लिम ड्रिम , वेल ग्रूम्ड , लगभग परफेक्ट बॉडी लिए , ऐसे जिन्हे देख मेरे जैसे लोग हीन भावना से भर उठते है, ये सब शायद  अलग घेरे में  रहने वाले लोग हैं | क्या सुन्दर, फैशनअबल  दिखने वाले सभी पुरुष ? नहीं नहीं | 

महज इत्तेफाक भी तो हो सकता है | घर के नजदीक आते आते मैं  सोच रहा था | आखिर किसी ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो वाकई कुछ ठोस साबित करे | 

हाँ ये महज संयोग भी हो सकता है | देखो न , फिर आज मौसम भी कितना अच्छा है | 

घर से ठीक पहले बस स्टॉप पर , मेरे पीछे पीछे एक युवक चल रहा था | काफी सुडोल , जिम का शौक़ीन | 

"हेलो ब्रदर " पीछे से आवाज आयी | वो शायद फ़ोन पर था |  

कुछ देर बाद उसने फिर कहा "हेलो ब्रदर "

अब वो बिलकुल मेरे बगल में आ गया | 

"नाइस मास्क ब्रदर " बड़ी चौड़ी मुस्कान लिए उसने कहा | 

"कहाँ से लिया ?" उसने पूछा | 

अचानक से मुझे याद भी नहीं पड़ा | "यहीं से किसी दुकान से "

फिर मुझे याद आया और मैंने कहा " बेडोक मॉल से |"

"वैरी नाइस ब्रो , वैरी नॉइस "

फिर वो मेरे घर की ओर मुड़ने वाली स्ट्रीट तक  साथ साथ चलता रहा | 

होता है कई बार | इत्तेफाक में इत्तेफाक जुड़ते चले जाते है | आखिर आज मौसम भी तो बड़ा प्यारा है | 

लेकिन ये मास्क ? मुझे लगता है इसे उठा कर रख देना ही मुनासिब रहेगा  !


                                     - सचिन कुमार गुर्जर 

                                      २१ जून २०२१ 

शनिवार, 5 जून 2021

जाने भी दीजिये |



सिंगापुर  में बारिश वैसे ही गिरती है जैसे अचानक बिना खबर, डोरबैल दबाने वाला कोई आगंतुक | नीचे उतरने से पहले कमरे की खिड़की से,  अपार्टमेंट्स की पहाड़ियों के पीछे काला बादल जरूर था, पर था बहुत  दूर |दूर,  वैसे ही जैसे वजूद की हकीकत के बैकड्रॉप में उभरते सपनों  में पलने वाली खुशहाली , सुकून और मनचाहा प्यार | ढाई फर्लांग की दूरी पर 'न्यू रेज़की इंडियन मुस्लिम रेस्टोरेंट' है |  छोटा दुकाननुमा , पांच छः टेबल | इंडियन के साथ मुस्लिम लिखने का यहाँ चलन है | इससे भारतियों के साथ साथ मलय मूल के मुस्लिम भी ग्राहक हो जाते हैं | आजकल डाइनिंग तो बंद ही है | एक मलयाली लड़का काम करता है , मेरे लिए चपाती बना देता है | थोड़ी आत्मीयता रखता है | मैं कुछ दिन उधर नहीं जाता तो शिकायती लहजे में कारण पूछता है|  चीनी मूल की युवती है | आर्डर लेने , परोसने , बिल काटने का काम करती है | शरीर से थोड़ा भारी ,आँखे चीनी मानक के लिहाज से भी छोटी ,चेहरे मोहरे से आकर्षक नहीं | लेकिन उम्र के गुलाबी सालों में है | सबसे बात करती है, तुकी बेतुकी हर बात पर हंस देती है | तोते पालने वाले, आर्थिरिटस से जूझते बूढ़े ,पड़ोस की दूकान का नाई , बेकरी में काम करने वाला कमउम्र लड़का, साइकिलों पर मछली पकड़ने के हुक लटकाये झील को जाते शौक़ीन अधेड़, हर कोई उससे कुछ कहता है और उसकी सुनता है | दर्जनों दिल हलके होकर जाते है |  वो मुझे देखते ही रसोई की तरफ देखकर चिल्लाती है: चपाती , टू चपाती | शायद वहाँ चपाती खाने वाला मैं अकेला हूँ | चपाती मेरी पहचान हो गयी है | 

बारिश का मौसम , घर में बैठकर कौन खाये | यही सोचकर बिल्डिंग के पटिओ कवर में जमी कंक्रीट की बेंच पर आ जमा हूँ | दो चीनी मूल के आदमी पहले से विधमान  हैं | पोक्का जापानी ग्रीन टी पी रहे हैं | एक कोई पचपन छप्पन का होगा | मूछें रखे हुए है ,चूहे जैसी मूछें, बाल गिनने भर लायक है बस | तोतई रंग की मैंडरिन कालर की शर्ट पहने है | इस कदर दुबला कि उसकी कोहनियों के जोड़ उसकी भुजाओं से बड़े है | दूसरा चौतीस पैंतीस का होगा | बाल साइड जीरो कट , मुर्गे की कलगी की तरह बीच से छोड़े है बस | दोनों औसत चेहरे , शायद सामने की सेमीकंडक्टर फैक्ट्री के वर्कर हैं  | जिंदगी की भाग दौड़ में खर्च होने वाले आम इंसान |

पचपन साला कुछ सुना रहा है | शिकायतें हैं कुछ | कुछ नहीं बहुत सारी | होक्कीयन में बात कर रहें है शायद | या फिर केंटोनीज़ में | मैं फर्क नहीं कर सकता |  शिकायतें , उफ्फ कितनी शिकायतें | उसका साथी जब बीच बीच में उसकी शिकायतों को कमतर आंकने की कोशिश करता जान पड़ता है तो वो अपने पिटारे से कोई नयी बात निकाल पेश करता है|  कंक्रीट की मेज पर हाथ मारता हुआ दोगुने दम से फड़फड़ाता है जैसे कहता हो : "क्यों ,पर क्यों , मेरे साथ ही क्यों ? "

अवेनुए के किनारे चौड़े पत्ते की महोगनी के पेड़ों की कतार है |  पेड़ , लैम्पपोस्ट , स्पीडमॉनीटर कैमरे के पोल , रोड सिग्नल, सबके ऊपर जैसे आसमान टूट पड़ा है | लोहे के सरिये जैसे मोटे धार की बारिश है | मैंने चाय आर्डर की थी लेकिन कवर वाले डिस्पोजल कप में पहली सिप ली तो एहसास हुआ कि रेस्टोरेंट वाले लड़के  ने कॉफ़ी डाल दी है | कोई शिकायत नहीं | 

लेकिन इस पचपन  साला आदमी को क्या शिकायत है | बीवी से अनबन ? नापसंदगी अभी तक ? लेकिन क्यों ? क्या उसके पास माँ नहीं रही ,जिसने जब वो पैंतीस का हुआ हो ,  उसके बालों में हाथ फेर कहा हो , अब अपना सोचना छोड़ , बच्चों का सोच | उसकी खुद के लिए जीवनसाथी से जुडी आकांक्षाओं, उम्मीदों को तो उसी दिन मर जाना चाहिए था | है कि नहीं ? 

फिर ? शायद बेटा सही राह न चलता हो ?  पर उसका बेटा तो कॉलेज कर चूका होगा या जो भी राह पकड़नी होगी ,पकड़ चुका होगा | क्या बेटे की मसें भींगने के साथ ही इस आदमी की संतान के भाग्य का विधाता बनने की इच्छा नरम नहीं पड़ जानी चाहिए थी ? संतान तो तरकश के तीर की भांति ही है | बल लगा के छोड़ दीजिये , फिर जो भी ऊंचाई ले | कमान से निकलने के बाद भला क्या इच्छा,  क्या उम्मीद | शायद इस आदमी का बॉस उसे तंग करता हो | या स्वास्थ्य सही न रहता हो | इंसान के पास माथा पटकने के लिए लम्बी फेहरिस्त होती है | 

महोगनी के तने से चिपटी पुरानी छाल बारिश के पानी भर जाने से तना छोड़ गिर रही है और उसकी जगह नयी छाल में तना नया हो गया है | इंसान की उम्मीदों को  , सपनों को उम्र के साल गिरने के साथ गिर जाना चाहिए |  उम्मीदे , सबसे पहले खुद से| फिर  बीवी से, संतान से, समाज से , सरकार से , भगवान से | सबको ढह जाना चाहिए | 

घास पर चलते हुए घुटने दर्द नहीं करते तो मुस्कुरा दीजिये | अच्छा खाइये , अच्छा पहनिए | 

हाँ , जेब इजाजत देती है तो अच्छे लेदर के महंगे जूते पहनिए | महंगा जूता राजा होने जैसा फील देता है | सच्ची !

  पुराने सपनों  को गिर जाने दीजिये |  जाने भी दीजिये |    


                                                                 - सचिन कुमार गुर्जर 

शनिवार, 8 मई 2021

क्या कह दूँ |

खैर ये अच्छा बुरा समय तो सभी के पल्ले आता है | पर पहली दफा जिंदगी में हालात कुछ यूँ हैं कि दिन हफ्ते में, हफ्ते पखबाड़े में तब्दील होते जा रहें है और मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि क्या कह दूँ |   

कई दिनों से बस सोचता ही जा रहा हूँ | कुछ तो कहना बनता है | दूर से ही सही | वो अपना अपना ही क्या जो इन हालातों में भी कुछ न कहे | 
पर क्या कह दूँ , उस बाप से जिसकी वंश वेल में बस एक ही पत्ता था | जड़ जमीन , योजना प्रयोजना , सौंज साधन सब उसी के लिए तो था | और वही चला गया | 
 उस बाप से कैसे कह दूँ कि  सब्र करो | किस ठिठाई से कह दूँ ? बेहयाई नहीं होगी ये ?
और उस माँ से ? उस माँ से जिसके हाथ में नौकरी की पहली तनख्वाह धर वो बोला था "बहू ढूढ़ ले माँ , जिसे तू हाँ कर देगी उसे ही सिर  माथे रखूँगा | "कॉलेज तक पढाई , कॉर्पोरेट की नौकरी , माँ की पसंद से शादी ,बताइये ,मिडिल क्लास के पैमाने के लिहाज से आदर्श बेटा और  क्या होता है ?
उस माँ से क्या कह दूँ जिसे घर द्वारे में रिश्तेदारों का इंतज़ार तो था पर यूँ कर नहीं | 
क्या ये कह दूँ कि जो गया सो गया ,आगे की जिंदगी के जो भी पन्ने बचे हैं ,उन्हें संवारों | उनसे , जिनकी किताब के सारे पन्नों पर काली स्याही उंध पड़ी है |  जाने वाले का दुःख अपनी जगह है पर जो पीछे छूट गए उनकी जो टीस होती है ना , बस वैसे कि जैसे बबूल के गहरे कांटे देह में गहरे घोप बस अंदर ही छोड़ दिए जाएँ | 
उफ्फ ये कोविड, ये काल | और किस पर तोहमत जडूँ ?

छोटे बच्चों  के दिमाग इंटरनेट से जुड़े है | कोई आठ साल का बच्चा यूटुब पर सच्चे झूठे , अधकचरे वीडियो देख अपने बाप से मुखातिब हो पूछ रहा है " पापा , पहली लहर बूढ़ों  के लिए थी ना और दूसरी जवानों  के लिए | तो क्या तीसरी बच्चों के लिए होगी ? क्यों? "
आप बच्चे को डाँट सकते है | लेकिन ये बोल , महज इतने से बोल आपको खौफ और लाचारी से  तरबतर करके ही जायेंगे | पसीना छूटता है | 
क्या कह दूँ ? जब बड़ों को समझाने के लिए बोल नहीं हैं , तो बच्चों  को समझाने का असाइनमेंट किस हौसलें से ले लूँ |


पहली दफा ऐसा हुआ है कि मरीज अस्पताल जाने से डर रहा है | आई सी यू , वेंटीलेटर , ऑक्सीजन इन शब्दों में भय की प्रतिध्वनि क्यों है | आखिर ये सब तो जान बचाने के साधन हैं ना ? आदमी की साँस फूल रही है , उसकी क्या जरूरत है ,जानता है|   पर  उसे क्यों लग रहा कि अस्पताल जायेगा तो वापस नहीं लौटेगा | व्यवस्था , शासन , समानता , न्यायोचित, अवसर, अधिकार इन मूल तत्वों में आदमी का भरोसा क्यों नहीं है  | ट्रैक्टर ट्राली में गन्ने की जगह अपने मरीज की चारपाई जमाये किसान शहरों की तरह जा रहे है | अस्पताल में बेड , ऑक्सीजन , सही इलाज पा जाने की उनकी आस कुछ उतनी ही है जितनी रात भर अपना तेल जला चुके भोर में फड़फड़ाते दीये की | पर अपनों का जी कहाँ मानता हैं | कोशिश ना करने का अपराध बोध समझते हैं ना आप ?

उन कुछ हार कर लौटते तो कुछ आस लिए जाते ट्रैक्टर ट्रॉलियों के रंग लाल हों या हरे ,अमूमन हर किसी के पीछे लिखा होता है :"खेत पर किसान , सीमा पर जवान | "
और इससे भी बड़े , बोल्ड अक्षरों में : "मेरा भारत महान ! "

हम्म , भारत तो महान रहेगा ही ,  पर ये लिख कर इतराने वाले शायद हताहतों की गिनती में भी ना आएं  | 


                                                                               -- सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                                              

 

  

  

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

परिवार की लड़कियाँ

माता के जगराते बोले गए | तीर्थों के बरगदों से डोरे बाँधे गए | पचास पचास कोस के बाबाओं की राख भभूत देह से लपेटी गयी | तब जाकर लल्ला पैदा हुआ | तीन तीन देवियों के पीछे आया घर का वारिस | पूरे गाँव में लड्डू बाटें गए | बड़े जनों को चार और छोटे बच्चों को दो दो लड्डू | और तब से ही हर साल कुलदीप के जन्म के त्यौहार  पर पूरा मोहल्ला दावत न्योता जाता है | और वो तीन लड़कियां भाग भाग खीर पूड़िया परोसती हैं | 'थोड़ा और, थोड़ा और' खुशामंद कर कर सब जनों को इतना खिलाती हैं कि वे  मारे बोझ के कराहते हुए उठते हैं |  उन तीनों का जन्मदिन नहीं होता | पर त्यौहार तो परिवार का होता है ना | पूरे परिवार का | और वो परिवार की लड़कियाँ हैं | वैसे ही जैसे परिवार की गायें , परिवार की जमीन , परिवार की अलमारी में रखी उधारी की पर्चियां, पीढ़ी दर पीढ़ी हाथ बदलते जाते पुराने गहने  |

हाँ इतना ही वजूद है उनका  | वो परिवार की हैं | महज, परिवार की लड़कियाँ |  

 


                                                                                     

शुक्रवार, 26 मार्च 2021

पिचकारी



"ओ देसा , भैंसिया लात मार गयी क्या आज | " लकड़ी के पुराने तख्तों से बने मटमैले दरवाजे की झीरियों से झाँकता दूधिया चिल्ला रहा था | देसा गडरिया बगल में खुरपी दबाये अपने खेत पर निकल गया था  | बांकले की फली की क्यारियों  में गाजर घास उग आयी थी | घर के आँगन में लगे कड़वे बकैन के पेड़ तले टोकरी फेंक उसकी घरवाली दरवाजे पर आई |  

"साल भर का तिभार (त्यौहार ) हैगा | मावा गुँजिया करै है हम | बालक हैं , आये गये मिलने वाले हैं  | तीन दिना की बेच बंद रहे हमारी | "

"ओ भलमानस , ऐसा क्यू कहो हो | अभी तो डिमांड जियादा है दूध की | आधा तो देओ  कम स कम | " 

आँगन के किनारे लगे करोंदे की झाड़ियों पर बकरियाँ आ गयीं थी | आठ साल का राजू , शहतूत की कमची से उन्हें छपरिया की ओर धकेल रहा था | साथ ही सोचता जा रहा था कि बात सेर या सवा सेर अनाज से बन पाती तो माँ की नज़र के नीचे से खींच लेता | पर लाला की दुकान के बाहर खटिया पर गुलाल की थैलियों के पीछे सजी गुलाबी, लाल , पीली पिचकारियाँ इतनी महंगी थी कि कम से कम आधा धड़ी (अढ़ाई किलो ) गेहूँ लगता | फिर माँ के हाथ में हमेशा विधमान लोहे की फुकनी इतनी भारी थी कि उसकी चोट खाल, माँस को भेदती हुई रीढ़ की हड्डी तक जाती थी | खींझ में उसने बकरियों को कई कमचियाँ जड़ दीं थीं | 

"ना ,तम से बताई ना क्या इसके बाबा नें ? " राजू की ओर इशारा कर उसकी माँ ने कहा | हताश दूधिया लौट गया | 

सुबह की आपाधापी से निपट राजू की माँ ने आँगन में एक उठाऊ चूल्हा जमा दिया और राजू को घर की छत पर चढ़ा दिया | छत पर दुनिया जहान का लकड़ काठ जमा था | सरसों की तूर के गठ्ठर , बकैनिया के सूखे कुंदे , मोटे बाँस , यूकेलिप्टिस की टहनियाँ , टूटी खाट के पाए और पिछली साल की अरहर के सूखे झाड़ | चूँकि कढ़ाई लम्बे समय तक आँच पर रहनी थी सो माँ ने राजू से कुछ ठोस और मोटी लकड़ी का ईंधन आँगन में फेंकने को कहा | 

हवाईजहाज के अल्मुनियम की चादर की कढ़ाई थी जिसे राजू की माँ ने अपनी शादी में मिली काँसे की परात और पीतल के लोटे के बदले खरीदा था | कढ़ाई में गोल गोल घूम दूध जब  सूखने लगा और माँ कढ़ाई के किनारे पलटनी से खुरचने लगी तो राजू ने अपनी बटन जैसी गोल और छोटी आँखे माँ के चेहरे पर जमा कहा  "माँ री , सुने है ? लाला की दुकान पे बड़े जोर की पिचकारी हैंगी इस बार | सहर जाने की कोई जरूरत ना है | सब सामान अपने गाम में ही मिलन लगा अब | "

माँ का चेहरा ऐसे बिगड़ा जैसे चूल्हे का सारा कड़बा धुआँ उसकी आँखों में जा घुसा हो | "रकम लुटे हैगा जु बनिया | अभी तीन दिना है होरी के | सबर कर | पीर की बजरिया से मंगा लीजो "|   माँ ने आश्वासन दिया और राजू ने सहर्ष मान भी लिया | 

 बड़े किसानों और बनियों के लड़कों के हाथों में पिचकारियाँ कब की आ चुकी थी और वे सब अपने अपने हथियारों की फेंक नाप रहे थे | किसी के पास मछली के ढाल की गुलाबी पिचकारी थी जो पंप दबाने पर बड़ी ही महीन और लम्बी धार फेंकती थी | किसी के पास तमंचा था जिसका पंप खचर खचर की आवाज़ निकालता था | कुछ के पास स्टील की बड़ी पिचकारियाँ थीं, जिनमे आधा लीटर पानी आता था  | उन बच्चों के बाप जब गलिहारों से गुजरते तो बच्चों को चेताते जाते "बालको ,पहले ही खराब करके मत बैठ जइयो | कदी (कभी ) फिर होरी के दिना टुकर टुकर बैठे देखो | " इन सबसे  अलग राजू अपने घर की चबूतरी से सब देखता | दूसरी की होड़ नहीं किया करते , ये बात उसे हर दूसरे दिन सिखाई जाती थी |उसे पीर की बजरिया का इंतज़ार था | 

ढाई डग भर चौड़ी काले डामर की सड़क थी जिससे कोई फेरी वाला चला आ रहा था | गाँव में घुसते ही उसने साईकिल से उतर ऊँची टेर लगाई "ले लो लीची | टूटे फूटे लोहे प्लास्टिक से लीची बदल लो | ले लो लीची | " 

"ओ जी , रद्दी से भी दे रहे लीची? " पड़ोस के किसी बच्चे के हत्थे कुछ रद्दी ही थी शायद् | 

राजू  का अपना खजाना था | भूसे के कोठड़े में , खेतों की ओर खुलने वाले सीखचे में, सड़क किनारे मिले कुछ बाल बियरिंग ,ट्रक से गिरा प्लास्टिक के पाइप का टुकड़ा , सड़क पर दौड़ते घोड़ों के खुरों से छिटकी लोहे की तनालें , नट बोल्ट, इंजन की पुरानी नोजल  यही सब जमा था  | उसका मन थोड़ा उदास था |  रसीली लीचियों ने उसे खींच लिया | अपना खजाना लुटा और बदले में दो हथेलियाँ भर लीची पा राजू अपने चबूतरे पर आ गया |  खेत से लौटते बापू को देख राजू को फिर से पीर की बजरिया याद आ गयी |  बस एक रात और |   

अगले दिन सुबह से ही देहात के लोग यूरिया के पुराने बोरों से बने थैले लिए बाजार की ओर कदमताल करते जा रहे थे | साईकिलों के पीछे बंधी बकरियाँ मिमियाती चली जा  रहीं थीं | बैलगाड़ी में बैठे अपने बच्चे को सूँघती भैंसे पैर पटकती जा रही थी | अपनी  साईकिलों के पीछे कपड़ो के गठ्ठर बांधे बजाज चले जा रहे थे | बाँझ और बेकार हो चुके मवेशियों के मालिकों को कसाई बजरिया से पहले ही रोक मोल भाव कर रहे थे | तांगे वाले कोस भर की मंजिल का एक रूपया वसूलते थे और बाजार के दिन भूसे की तरह आदमी और जनानियों को जबरिया तांगे में ठूसते जाते थे | पचास का नोट और मवेशियों की खली का पुराना बोरा ले राजू के बापू दोपहर बाद बजरिया को चले |  दरवाजा लांघने को थे तो पीछे से राजू की माँ ने कहा " मिर्चा पिसी हुई मत लईयो | पिछली बार की मिर्चा में ईटा मिला हुआ जान पड़ै हा | साबुत ही लईयो | "तांगे में बैठने से पहले राजू ने याद दिला दिया "बाबा , पिचकारी मति भूल जइयो | "

शाम को बजरिया से लौटते ग्रामीणों के बच्चें तांगे के ठोर पर जमा थे | एक एक कर मर्द और जनानियां ताँगों से उतरते जाते | उनके झोलों की बुकें सामान के बोझ से फटी जा रही थीं | छोटे बच्चे अपनी मांओं की ओढ़नियाँ कुछ ऐसे पकड़ लेते जैसे  घर का रास्ता वे ही दिखाने वाले हों  | बड़े बच्चें अपने बापों के कंधो से  थैले , जिनसे लौकियाँ बाहर झाँक रहीं होती ,अपने कंधो पर ले लेते और बड़े उतावले से घर की ओर निकल जाते |  

लम्बे इंतज़ार के बाद वो तांगा आया जिससे राजू के बापू उतरे | उसने अपने साथियों की तरह लपककर झोला ले लिया और साँस तब लिया जब उसे आँगन में पड़ी चारपाई पर ला पटका | फिर वो एक एक कर सामान निकालने लगा | धनिया , मिर्च , चाय पत्ती , दादा के लिए तम्बाखू , गुड़ , माँ के लिए रिलेक्सो के चप्पल , खरबूजे के बीज , छटाँक भर किशमिश , सूजी , साबुन , यही सब निकला | इससे पहले की राजू कुछ कहता , उसकी माँ ने ही पूछ लिया " पिचकारी ना लाये लल्ला की ?" 

"अरे , अनाप सनाप कीमत मांगे है ससुरे दुकानदार | कुछ जँची ना | "

"कीमत दो तो चीज हो कुछ मजबूत | छुए भर से ही टूटें  हीं प्लास्टिक की पिचकारियाँ |" 

राजू  के मन की कौन जानें | क्या ये सब सुनने को ही वो दिनों से पीर की बजरिया का इंतज़ार करता था | कितना सब्र रखता | 

"अच्छा जी , अच्छा जी | " वो कहता हुआ आँगन में पैर पटकता हुआ बाहर की ओर भागा | कोई मनाने नहीं आया तो वापस लौटा और माँ  के आस पास भिनभिनाने लगा | माँ एक दो बार करहाई "सबर कर लल्ला | आ जाएगी तेरी पिचकारी  | "

"अच्छा जी , अच्छा जी | अब ना चाहिए मुझे | "राजू मारे गुस्से के फड़फड़ा रहा था | नाक चौड़ी किये कुछ कुछ मिनमिनाता चला जा रहा था | माँ ने गुझियाँ और नमक पारे दिए तो उसने खटिया पर दे मारे और बोला "तुम ही खाओ |"

राजू को  झींकते , भिनभिनाते घंटा भर हो चला  तो माँ का माथा गरम हो गया | उसने दांत भींचे और बोली "फूकनी लाइए जरा ठाय  कै  | तेरा पिचकारी का भूत उतारू अभी |" 

और इस तरह बिना पिचकारी के ही होली का दिन आ गया | 

होली की सुबह उठते ही  राजू के पिता ने आल्हे में रखी आरी ली | आँगन में एक ईंट जमा राजू को पास बिठाया | खोखले बाँस की दो बालिश भर की लकड़ी काटी और उसके एक सिरे पर चव्वनी से  भी छोटा छेद बना दिया | फिर पतली दरांती दूसरे सिरे से अंदर घुमा घुमा बांस का पेट साफ़ कर दिया | अब उन्होंने सफेदे की सीधी टहनी क़तर उसके एक सिरे पर कुछ कपड़ा लपेटा | फिर उस कपडे के ऊपर बारीक सुतली की कई लपेटन खींचीं | बाँस के पेट को उन्होंने सरसों के तेल से तर कर चिकना कर दिया | सफेदे की टहनी का कपडे बंधा सिरा बांस के पेट में फंसा दिया और  बैलगाड़ी के टायर  की पुरानी ट्यूब के टुकड़े की कतरन में टहनी के आगे पीछे का निकास ढीला छोड़ बांस का पेट का सील कर दिया | राजू से बाल्टी भर पानी मंगाया और कुछ देर के लिए बाँस को पानी में छोड़ दिया | पानी की गील से कपडे और सुतली फूल गए | सफेदे के लकड़ी की  पिस्टन को बापू ने खींचा तो बाँस को वो पिचकारी एक ही घूँट में आधा बाल्टी पानी पी गयी | राजू की माँ की ओर बाँस का मुँह घूमा उन्होंने पिस्टन को दबा दिया | माँ सराबोर | उसके मुँह से निकला "हाय री मेरी मैया | "  और बापू हँस पड़े " होरी है भई होरी है | "

गली में हल्ला हो रहा था | प्राइमरी स्कूल के मास्टर साब साइकिल से चले जा रहे थे | गोबर के ढेर पर दो जनानियाँ खड़ी थी | बचके ना जाने पाएँ | मुँह जुगत से रगड़ दीजो इनका | हो हो हो।होरी है जी होरी  है |" 

और हल्ले गुल्ले के बीच मास्टर साब हाथ जोड़े खड़े थे " देखियो जी , रहम करियो | गोबर ना रगडियो | रंग लगाओ | गुलाल लगाओ | बस गोबर ना | "

मास्टर साब के ओहदे का ख्याल कर औरतें पीछे हट गयीं | और मोहल्ले के बच्चे अपनी अपनी पिचकारियों से मास्टर साब से स्कूल की पिटाई का बदला लेने लगे | पतली पतली पिच पिच रंग की धारों के बीच से मास्टर साब बड़े लापरवाह हो आराम से जाने लगे | 

अचानक से बिजली की फुर्ती से राजू उनकी साईकिल के सामने आया और सीने के सामने जमा अपनी बांस की पिचकारी खोल दी |एक ही धार में मास्टर साब चोटी से एड़ी तक तरबतर | गाढ़ा काला रंग | अभी एक पल पहले जहाँ मास्टर साब खड़े थे वहाँ अब एक भूत खड़ा था | काला भूत | 

"होरी है जी होरी है | बुरा ना मानो होरी है | " 

"ओ  बेटे की | जू है असली पिचकारी ! " कई आवाजें एक साथ बोल पड़ी | बनिए और किसानों के लड़कों ने राजू को घेर लिया | 

" ओये , हमें दिखा | हमें दिखा| " सारी पिचकारियाँ राजू की पिचकारी के सामने फीकी पड़ गयी थीं  |  

राजू अपने चबूतरे की तरफ मुड़ा तो किसी लड़के ने उसे बाँह पकड़ रोक लिया " आडी, यही रह हमारी संगी | ऊ देख दक्खन के मोहल्ले के बालक हमपे हमला करने आ रए हैं  | " और राजू ने अच्छे सिपाही की तरह पलटन के  बीचोंबीच मोर्चा संभाल लिया | 

शाम को कामधाम से निपट राजू की माँ ने उसके पिता जी से कहा " इस साल बड़ी अच्छी बीची  (बीती ) होरी | राजी खुसी , गाम में कोई झगड़ा नाय हुआ | " 

खाट पर पसरे बापू ने राजू की तरफ देखा " क्यूँ  राजू , कहो कैसी रही ?"

बगल में लेटे राजू ने कहा " अच्छी रही बाबा , बहुते ही अच्छी | " 

 

                                                       - सचिन कुमार गुर्जर 

शनिवार, 13 मार्च 2021

गहरा सब्र


                                       

हर गाँव बस्ती में एक दो आदमी ऐसे हुआ करते  है कि जिन्हें कोई मुँह लगाना पसंद नहीं करता  | यहाँ तक की दिन भर चबूतरों पर बैठ ताश पटकने वाले ,राहगीरों को रोक बीड़ी मांगकर पीने वाले भी नहीं | चतर सिंह उर्फ़ चतरे कुछ इस तरह की शख्सियत का ही आदमी था | लेकिन इस तरह के आदमी से भी समाज की एक उम्मीद होती है| उम्मीद ये  कि फलाना की  हद वहाँ तक है  , उससे नीचे वह कभी नहीं गिरेगा | चतरे ने वह हद तोड़ी थी| तभी उसका चर्चा हो रहा है ,वरना कौन उसका चर्चा करता | 

चतरे को  समाज से कटे  होने का, बेरसूख़ जीवन जीने का एहसास तो था पर अपना जीता था वो आदमी | फिर उसे दरकार भी क्या थी | कच्ची भीत का ही सही , अपना घर था , जिसमें नीम के पेड़ की छांव थी | थोड़ी ही सही खुद की खेती थी , जिसमें साल भर खाने लायक गेहूँ , बाजरा हो जाता था | एक भैंसिया थी जो बरसात में बाल्टी भर तो जाड़ों में चाय सफ़ेद  करने लायक दूध देती ही रहती थी | गाँव  के मोंटेसरी स्कूल में पचास रुपया फीस थी | दो बच्चों पर  तीसरे बच्चे की फीस माफ़ | आठवें  दर्जे तक  पढ़ी ,गन्ने की पोर सी लम्बी, खूबसूरत औरत थी | जो तीन तीन बच्चे जनने के बाबजूद अभी तक नई बिहाता जान पड़ती थी  | उलटे पल्लू की झमकीली साडी पहन वो पाजेब बजाती गलियों से गुजरती तो आँखों में नकली ममीरे का सुरमा लगाए , डोढियों पर बैठी बूढ़ी औरतें पूछतीं  " कौन जावे है ?" तो कोई नई आँख लड़की बताती "ऊ है , चतरे के घर की अंतरा | " कोई चिढ़ती हुई कहती "इसकी जवानी खत्म ना होने की है री बहना !" 

और खुद चतरे ? |  मंजला कद , ज्यादा नमक खाने से ईद के बकरे की मानिद फूली गुदधी लिए |  कच्ची शराब पीने से शक्ल ऐसे उधड़ी हुई जैसे कोई  घरेलु स्त्री अपने बच्चे को मनाने में मशगूल हो और  बाजरे की  रोटी को भभकते तवे पर रख भूल जाये| सफ़ेद बाल , हिना से लाल किये हुए |  हर नयी पुरानी बुशर्ट में बीड़ी के पतंगों से खुले छेद यहाँ वहाँ किसी डिज़ाइन की तरह फैले होते थे | मोटी लेकिन लकीर की तरह सीधी मूछें रखता | नाई से हजामत बनवाने के बाबजूद पंद्रह मिनट खुद शीशे के आगे खड़े हो मूछों के बाल कतरता रहता | आदमी का रूप न देखा जाता , गुणी होना चाहिए | चतरे के गुणगान में यही लिखा जा सकता है कि जब घरवाली धकिया धकिया कर उसके सब्र के कब्जे कुंदे तोड़ने लगती तो वह  साईकिल उठा पास के पीतल कारखानों में जा काम करता | महीना दो महीना करता फिर उतने ही समय आराम |  उसकी सुबह कैसी भी कटी हो , दोपहर बाद उसकी चिंता यही होती कि शाम की दारु का प्रबंध किस तरह हो ?जीभ चटान मांगती थी | नकदी सुलभ ना थी | इधर उधर घूमता | किसी किसान का लोहा काट खेत क्यारी में कहीं दिखता उसे बड़ी सफाई से कबाड़ी को बेच देसी मसालेदार पी लेता | गाँव  के कुछ कच्चे घरों में  पुलिस की चोरी से कच्ची दारु की भट्टियाँ थीं  , उन घरों में चतरे का उधार खाता चलता था |   उसे भनक लग जाए कि जोहड़ के उस पार भंगियों के घरो में मेहमान हैं और आज सुअर पकेगा तो उसके पैरो में जैसे घनचक्कर आ जाता | वो भीत पर बैठा दूर से जानवर को टीकरी पर सुर्ख भुनता देखता रहता , अँधेरा होने का इंतज़ार करता ,फिर थोड़ा छिपता बचता कटोरा भर मांस शोरबा मांग लाता |  

बिरादरी को वो सब्जी तरकारी समझता था | कोई उससे कहता न, ये उचित नहीं , समाज क्या सोचेगा ?  तो वो  कहता "समाज मेरा कद्दू !"  कभी झांझ में होता ,ज्यादा ताव खा जाता तो खड़ंजे पे खड़े हो, अपने पौरुष की तरफ भद्दा सा इशारा कर सबको सुनाता "इहा धरु हूँ मैं बिरादरी कू इहा  , उखाड़ लो जिससे कुछ उखड़े तो | " बड़ा लड़का रिंकू सोलह सत्रह का हो गया था | परती में साथियों के साथ क्रिकेट खेल लौट रहा होता | अपने बाप को  ताने मारता हुआ हुआ घर की तरफ ले जाता | चतरे पैर पटकता , बिना बात किसी से उलझने को होता तो रिंकू उसे कंधो पे धक्का देता और गुस्से में फुंकारता " चल लए हो के ना | हम्बे सई | बहुत देर हो गयी है अब |" मंजलि लड़की थी , नाम था छवि | उम्र चौदह या पंद्रह  | और वाकई वो अपनी माँ की छवि थी | रंग उसका जरूर पीला था | वैसा ,जैसा  कि अभाव में पली, आयरन की कमी से जूझती किशोरियों का होता है | पर वही लम्बा कद , आँख नाक सुथरे |  वो बिना काम  घर के बाहर कदम तक ना रखती | कोई सहेली नहीं | अपनी माँ के साथ साड़ियों में फाल लगाती | पेटीकोट सिलती | सादे काट के सूट सलवार सीं लेती | नमक मिर्च , चाय पत्ती , चीनी ऐसे रोजमर्रा के खर्च का जुगाड़ इससे हो जाता |  पुरुष का समाज में स्थान उसके काम ,  समाज में बर्ताव , उसकी माली हालत से  तय होता है | स्त्री गरीब घर में भले ही हो , रूप और चरित्र की उसकी अपनी निजी पूँजी होती है | और इस पूँजी की बदौलत उसकी बूझ होती है | छवि के पास रूप और चरित्र दोनों ही थे  |बुआएँ , मोहल्ले की शादी शुदा बहनें सब गिनती थी कि बस साल दो साल और गुजर जाये | फिर उनमें  से कोई अपने ननद के लड़के के लिए तो कोई अपने देवर के लिए छवि का रिश्ता मांगने को थीं | चतरे का सबसे छोटा लड़का पम्मी सात या आठ का था , गलिहारों  में  साईकिल का पुराना  टायर दौड़ता , दोस्तों संग आइसपाइस खेलता | कुछ इस तरह वो परिवार चलता जा  रहा था | और ऐसे चलता ही जाता अगर वो बाहरी लोग ना आ गए होते | 

रेत का बोरा बालू से ठसाठस भरा हो और उसमें जबरिया ढूंस ढूंस और भी भरा जाये तो उसकी बूंके फट जाती हैं | कुछ इस तरह ही आबादी के दबाब के चलते जब दिल्ली फटी तो नोएडा और गुडगाँव बसने शुरू हुए | कितने ही गाँवों की जमीन बर्फी के टुकड़ों के  माफिक  छोटी छोटी , चौकोर,  कतली कतली हो बिकी | बिल्डर्स के बड़े बड़े होर्डिंग्स लग गए | अट्टालिकाएं खड़ी हो गयीं | ऐसे किसान जिनके खेतों में अनाज कम , कीकर बबूल ज्यादा उगते थे , रातोरात करोडपति हो गए | बहुतों ने ट्रांसपोर्ट कम्पनियाँ खोल लीं | कई कई मंजिल ऊँचे मकानों के लाखों में किराए आने लगे | उनके लड़के जिम में कसरत कर अपनी भुजाओं को देख फूलते , व्हे प्रोटीन के डिब्बों से प्रोटीन शेक बना पीने लगे और महंगी मोटरसाइकिलों पर घूमने लगे |  कुछ के काम सधे ,तो बहुतों की औलादे बिगड़ गयीं | सुनने में आता कि नोएडा में बसने वाले उन कल के आम किसानों के घरों में इतनी संपत्ति आ गयी थी  कि उनकी भैंसो का गोबर भी स्कार्पियो में भर कर  जाता था ! फिर वो पैसा पूरब की ओर बहने लगा | राष्ट्रीय राजमार्गों से होता हुआ ,छोटे शहर, कस्बों और फिर गाँवों तक पहुंचने लगा | 

ऐसे ही कुछ नवधनाढ्य लोगो ने चतरे के गाँव के पास सस्ते में जमीन खरीद फार्म हाउस बना लिया था |वे 'राम राम जी' को भारी आवाज़ में दम्भ लिए 'रोम रोम जी'  कहने वाले लोग थे | टीनोपाल और स्टार्च में डुबोकर नेताओं जैसे कुर्ते पहनने वाले लोग |'एस यू वी'  कारों में चलने वाले ,खाने पीने के शौक़ीन , जिंदगी खुल कर जीने वाले लोग | 

यूँ तो घर में जवान होती लड़की सुन्दर के  शराबी बाप को शराब पिलाने वालों की कमी कहीं भी नहीं होती , लेकिन इन लोगों से चतरे का मेल होना अचरज तो था ही | और मेल भी इतना गाढ़ा कि पहले खाना दाना फिर उपहार में लत्ते कपड़ो का लेना देना होने लगा  | वे बिरादरी के ही लोग थे | गाँव के लोग समझते रहे कि नए लोग है , अभी आदमी की समझ नहीं , एक बार चतरे के चरित्र से वाकिफ होंगे तो याराना उड़न छू हो जायेगा | लेकिन गर्मी गयी , मेह बरसा , शीत में पेड़ो की पत्तियाँ सिकुड़ गयीं ,नए फार्म हाउस पर चतरे की दावत में मुर्गे भुनते ही रहे और अंग्रेजी बोतलें खुलती ही रहीं  |  गंगा स्नान  के बाद जब बिहा बारातों का सिलसिला शुरू हुआ तो एक दिन एक बस और दस बारह गाड़ियों का काफिला गाँव के सिरहाने पर आ थमा | सफ़ेद लकीर छोड़ते हुए दो गोले आसमान में ठीक गाँव के ऊपर फूटे तो गाँव वालो को पता चला | चतरे की लड़की की बारात आ गयी थी |       

और नोएडा से आयी वो बारात भी क्या बारात थी | ऐसी बारात उस गाँव में कभी नहीं आयी | दिल्ली  का कोई नामचीन बैंड था | बैंड से अलग कुछ भंगड़ा स्पेशल ढोल वाले थे | धाड़ धाड़ धाड़ , दुनालियाँ गरजतीं  तो बच्चे अपनी माओं के आँचल में चुप जाते | पूरे गाँव के आवारा कुत्ते दूर जंगल में भाग गए थे | गायें और भैंसे अपने रस्से तोड़ जोहड़ की तरफ भागी जा रही थीं | सफ़ेद कुर्ते पहने  मेहमानों के चेहरों से रईसी टपक रही थी |  बड़े बड़े डौले लिए और डिज़ाइनर कपडे पहने लड़के नए ढाल का नाच कर रहे थे | काफिले के पीछे पीछे चलती दो स्कॉर्पियो में शराब और बीयर की क्रेट रखी थीं  | कम उम्र और जीन्स ब्लेजर  पहने लड़के दूल्हे की बग्गी , जिसमें चार सफ़ेद झक घोड़े जुटे थे , के आगे गाँव की नालियों की कीचड साफ़ करते जा रहे थे | बुनडी खुली कारों में सोने की मोटी चैन पहन अधेड़ हाथों में बोतल नचा , सिर्फ हाथ नचा ख़ुशी का इजहार कर रहे थे | बारात में एक भी गरीब ना था | वो सब किसी रियासत से आये  दीवान जान पड़ते थे |  जो नाचना नहीं जानते थे वे खुले हाथों से दूल्हे के ऊपर घुमा नोट उड़ा रहे थे , जिन्हे उठाने की होड़ में नीची जातियों के छोटे- बड़े आपस में लडे जा रहे थे | तथाकथित ऊँची जातियों के लोग भी उन बड़ी रकम के  नोटों को उठाना चाहते थे पर उनकी जात उन्हें रोकती  थी ! चूँकि अधिकांश गाँव में दावत का न्योता ना था ,सो बहुत से लोग जंगल में ही थे | घसियारिने अपनी घास की छोटी गठरियाँ ही लिए गाँव ओर लपक चलीं | मुंडेरों पर लटकी लड़कियाँ और औरतों  को देख दूल्हा हर थोड़ी देर में रुमाल उठा नमस्ते ठोकता जाता | उनमें से कई एक दूसरे को कोहनियाँ मार फुसफुसाईं   "अये, सोयना हैगा पहाना तो ! " पुरानी नई सब बैठकों पर हुक्के बज रहे थे | हर नया आने वाला पहले से बैठे लोगों  की ओर हाथ उठा कहता " रोम रोम साब " | जबाब में चबूतरों पर बैठे कई लोग एक सुर में कहते " राम राम साब , आ जाओ | "

चतरे के घर के बगल में खाली खलिहान में छोटा सा पंडाल लगा था | व्यवस्था कोई भव्य ना थी | ऐसा जान पड़ता था जैसे सब कुछ जल्दी में किया गया हो | हलवाई पालक के पकोड़ो के गर्मागर्म घान उतार मेज़ों पर सजा  रहे थे | गुलबजामुनो के बड़े भगोने सीधे मेज के ऊपर जमा दिए गए गए थे जिन पर कुटुंब के कुछ लड़के मुस्तैद हो खड़े थे | पूड़ियाँ , आलू गोभी की सब्जी , पुलाव , उड़द राजमा मिक्स दाल , सब कुछ अपनी जगहों पर आ जमा था | उस गाँव में अभी तक पालथी मार जमीन पर दावत खाने  रिवाज था | नोएडा की बारात के साथ डोंगा सिस्टम भी आ गया था | घर के दरवाज़े पर बग्गी रुकी तो गीत गाती औरतें दूल्हे का आरता उतारने को बढ़ी | दूल्हे को नीचे उतारने की माँग हुई तो दूल्हे के जीजा ने कहा "आंटी , यही से उतार लो आरती , बार बार क्या उतरना चढ़ना , बिना वजह | " लेकिन परिवार की कोई होशियार काकी आगे आई और उसे डपटते हुए बोली " ओ लल्ला , जाने है हम , नोएडा से आये हो तम | पर रीतिरिवाज भी कुछ होया करें  है कि ना ?" दूल्हे ने उठने की कोशिश की ,पर खुद से उठ न सका | दो लड़कों ने बगलों में हाथ लगा उसे नीचे उतारा | उतरते के बाद भी  दूल्हे के दोनों पैर जमीन में घिसट गए | छतों से पूरा गाँव देखता था | "पी रखी है , पी रखी है" किसी ने छत कहा  | जो छतो पर नहीं चढे थे , भीड़ से थोड़ा हट कर खड़े थे , वे सुन कर बोले " बताओ रे बताओ , शादी के दिन भी दूल्हे ने पी रखी है ! "

चतरे का छोटा भाई था नज़र सिंह | भाई से बनती ना थी , ना ही जल्दबाज़ी के इस रिश्ते से खुश था | पर अपने परिवार की बात रखने को और दुल्हन का चाचा होने का फ़र्ज़ निभाने को काम में लगा था |  और वो नाम का ही नजर सिंह ना था | नाश्ता कर चुकने के बाद भी जब दूल्हे ने उठने चलने की कोशिश ना की तो उसने दृष्टि डाली  | "ओह हो , ओह हो , हरामजादे ने जुल्म कर दिया" उसके मुँह से यही निकला , जब उसने देखा कि दूल्हे के दोनों पैर लकवे के मारे हुए हैं | लकवे का असर धड़ तक था | अपराध , अपमान , जगहंसाई ऐसी  कई भावनाओ का बवंडर उसके दिमाग में उठ खड़ा हुआ | महज पंद्रह बरस की फूल सी मासूम भतीजी का चेहरा उसकी आखों के सामने घूम गया और उसे फार्म हाउस में उडी तमाम दावतों का प्रयोजन समझ आ गया | वो डंडा उठा भागा | बुआएँ भागीं , भतीजे भी भागे |  

"ओ घोड़े के मूत पीवा | तू मेरे बाप का बीज है ही नहीं कंजर | है कहाँ तू हरामखोर|  " नजर सिंह घर की दहलीज पर खड़ा चतरे को ललकार रहा था |  किसी ने खींचा तो वो पेट्रोल की लाग पायी आग सा भड़भड़ा उठा "खोपडा दो फाँक करूँगा आज इसका | आज या तो यू ही है या मैं ही हूँ | " उसकी दोनों बहनें काँपती , हाथ जोड़े उसके आगे खड़ी थी "ओ मेरे वीरन , ओ मेरी माँ के जाए , मत कर , मत कर | जमाना देखे है | " फिर उनमे से एक फफक के रो पड़ी "डुबो दी रे मेरी फूल सी बच्ची | दारु ने कैसी मत मारी रे तेरी चतरे| कुछ तो मेल देखता | ओ दोखी , तुझे दोजख में भी जगह न मिलेगी |  "  बाप का गुस्सा देख नजर सिंह का बड़ा लड़का भी रौद्र हो उठा , वो अपने घर की तरफ भागा | लोड तमंचा लिए वापस लौटा और चतरे की दीवार पर खड़ा हो गया और धाय धाय| दो फायर ख़ोल दिए | दहाड़ा " भागो सब , कोई फेरे वेरे ना होंगे | जब तक हम जिन्दा है |किसी माई के लाल में हिम्मत है तो सामना करे |  " सामना कौन करता | भगदड़ मच गयी | और पूरे गाँव में बात फ़ैल गयी कि चतरे ने शराब के नशे में अपनी लड़की नोएडा के जमीदारों को बेच दी |  

लेकिन बिरादरी तो बिरादरी है | बारात खाली हाथ कैसे लौटे | कुछ समझदार लोग जुटे | नजरे और उसके लड़कों को शरबत पिला ठंडा किया गया | कुछ गणमान्य  बोले "न्याव की बात करो नजर सिंह | मेल देखने का और मना करने का अधिकार तुम्हारा था | पर ये सब पहले ही होता ना | पूरी बिरादरी यहाँ इकठ्ठा है , अब अपना ही नाम ख़राब करते हो | "

फूफा , मौसा , मामा सब रिश्तेदार बैठे तो नजर सिंह का पारा नीचे गिरा | उसके कंधे नीचे लटक गए, वो बोला "भलमानसो ,धड़ से नीचे पूरा ही बेकार है लड़का | कहाँ तक सब्र करो | बताओ | किस तरिया धीर धरु ?"  

"कल को वंशबेल ना चली तो? नौकरानी बना भेजना चाहो हो लौडिया ने ? बोलो ?"  और फिर वो फफक के रो पड़ा | "इसे मारना चाहु मैं, लग जान दो मेरे हाथ खून आज | ओ कोढ़िया चतरे,  डूब मर कहीं  | "

"अर अर इसके घर की चतरा कहा है ? कहाँ है महारे ससुर की | बात तो बड़ी 'अगर मगर' से करे है | सूध ना हुई इसे | मिली हुई है ये भी | "

किसी रिश्तेदार ने नजर सिंह की ठोडी में हाथ डाल दिया  "ओ नज़रे , ओ नज़रे | बिरादरी देखे है | सब्र कर | "

अंतरा बेचारी कमरे में घुसी मुँह दबाये रोये जा रही थी | उस बेचारी की दलेल कौन सुनता | कौन मानता उसकी बात कि चतरे ने उसे महल अटारी , गाड़ियों और जंमीन के आगे कुछ देखने समझने का मौका भी कहाँ दिया | वो कुछ ज्यादा कुरेदती तो कहता राज करेगी लड़की अपनी , राज |  " कोई सांखिया ला दो रे मुझे | मैं खाय मरुँ | " उसकी आवाज़ बाहर तक आ रही थी | 

दहाडो , गर्जनाओं और तानों ने बीच छवि पूरे परिवार रिश्तेदारों में आ खड़ी  हुई | रोते रोते थक गयी थी , आँखे सूज आयी थी | हाथ जोड़ बोली "कोई मत मरो , ना कोई किसे मारो | मैं जड़ हूँ , मुझे ही खत्म करो | "

बड़ी बुआ ने उसे अपने आगोश में ले लिया " ना मेरी बच्ची , ना मेरी राजकुमारी | धीरज धर मेरी गुड़िया | "

घंटो ये सब चलता रहा | रोज नशे में रहने वाला चतरे उस दिन नशे में ना था | वो सब की नज़रो से बचता कभी इस रिश्तेदार को घर भेजता कभी उस रिश्तेदार को | शिकायत करता " ये मेरे घर के कोढ़िया, कब चाहे है कि चतरे का कोई कारज सिद्ध हो | जलते है सब मुझसे | बोलो मिलेगी कहीं ऐसी ऊँची रिश्तेदारी ? बताओ ? समझाओ इन्हे , इनकी अकल पे पत्थर पड़े हैं  | उस घर राज करेगी लड़की | "

शाम तक मान मनोव्वल के दौर चलते रहे | दर्जन भर को  छोड़ बाकी  बारात भाग गयी | मोटे न्योछावर की आस में सुबह से द्वारे पे जमी  नाईन , धोबिन , धीमरी और भंगिन बिना न्योछावर लिए ही लौट गयीं  | शाम को छोटे भाई के सहारे खड़े हो दूल्हे ने लड़की संग फेरे लिए और हाथ जोड़ते जोड़ते बारात विदा हुई | 

रिश्तेदारों का मेला ख़त्म हुआ तो अंतरा को अपराधबोध और अवसाद ने आ घेरा |  कैसे सब्र करती | लकवे की झपट  पंजो तक होती  या  एक पैर ही बेकार  होता , तो धीर धरती | लगड़ा के भी चलता तो कोई बात नहीं | लेकिन धड़ से नीचे पूरा ही शरीर निष्प्राण ! फिर नजर सिंह के बोल  उसके दिमाग में चरखी से घूमने लगे | सचमुच छवि की वंशबेल न चली तो ? तो क्या होगा ? आह कैसी फूल सी बेटी और किस्मत ? बिना पूती औरत सोने के महलों में भी रहे तो क्या ? कीमत कौन करता है | छवि का चेहरा उसकी नज़रो में आता  |और वो जल्लाद चतरे, वो तो   विदाई के बाद से ही गायब था | कहाँ जा छुपा था ,  इसकी खबर किसी को ना थी , ना ही किसी ने कोशिश की | 

तीसरे दिन छवि वापस लौटी | नए रिश्तेदारों ने गुजारिश की कि रात को रुकने का कोई प्रयोजन नहीं है  | उसी  दिन वापसी होनी थी | अंतरा ने अकेले जो बन पड़ा वो सेवा सुश्रवा की | भागती भागती जैसे ही थोड़ा  खाली होती तो बैराग में भरी ,जिस वस्तु पर नज़र गढ़ा देती उसे ही देखती जाती | उसे जैसे घुन का कीड़ा लग गया था | रोटी पानी के बाद मेहमान बैठकी में आराम को गए तो छवि ने पीछे से आ अपनी माँ की कोहली भर ली | अपनी गर्दन माँ की गर्दन से मिला बोली "ओ मम्मी औ मम्मी मरी मत जावै  | ओ ठीक हैंगे | मैं कहु हूँ  ओ ठीक हैंगे | बिलकुल ठीक ! " 

अंतरा ने छवि को बाँह से पकड़ अपने आगे खड़ा कर लिया | छवि की आँखे डबाडब थी पर चेहरे पर सब्र था | उसके होंठ मुस्कुरा रहे थे |  कुछ ऐसी मुस्कान जैसी कोई अपनों को खुश करने को ओढ़ता है |  

"सच कहवे है ना तू मेरी गुड़िया , हुह ? सच बता मेरी जायी | बस बस , तेरे सुख के सिवा मैं क्या चाहु हूँ ,मेरे कलेजे का टुकड़ा है तू  | "

"हाँ हाँ ,सच कहूं हूँ मम्मी | सब ठीक हैगा  "

फिर उसने इतराते हुए दायें हाथ का अंगूठा माँ के चेहरे के सामने उठा दिया और चिढ़ाती हुई बोली "औ अंतरा , तू फांकिये जिंदगी भर इस गाँव  की धूल  | मुझे अपने दुमंजिले से नीचे उतरने की जरूरत भी न है | "  

फिर दोनों हिड़की बाँध लिपट लिपट इतना रोई , इतना रोई के यूँ लगा के आसमान , सब दिशाएं , नीम का पेड़ , भैसिया , सिलाई की मशीन , कच्ची भींत ,सब का सब एक  साथ  रो पड़ेगा |                                                   

तमंचे दिखा , एक दूसरे को गालियाँ भकोस ,बिरादरी का ताना मार , अपनी अपनी चाल चल आदमी अपने अपने ढर्रो पर लौट गए थे | और एक दूसरे के सब्र बांधती वे औरतें नए हालातों से तालमेल बिठाने में लग गयी थी | भगवान् ही जाने,  उनकी जिन्दगियों में कभी सब कुछ ठीक हुआ कि भी नहीं |  


                                                               --सचिन कुमार गुर्जर 


शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

दिल तोड़ने वाली बात



शुक्रवार का दिन था | और जैसा मेरे और मेरे ऑफिस के तीन दोस्तों के बीच तय हुआ था , घडी के काँटे  ने जैसे ही छह को छुआ , अपने अपने लैपटॉप पिट्टू बैग्स  में घुसेड़  हम 'बीच' की ओर जाने वाली बस में सवार हो गए | 'चांगी बीच' सिंगापुर सिटी से काफी बाहर की ओर स्थित है | सिटी मेट्रो ट्रैन अभी यहां नहीं पहुंची है | आबादी कम है | जोहर की खाड़ी यहाँ पर एक महीन लकीर जैसी पतली है | 'पुलाओ उबीन ' द्वीप खाड़ी के फांट के बीचोबीच में कुछ यूँ जमा दीखता है जैसे कोई बड़ी व्हेल पानी से आधी अधूरी बाहर आ आसमान की टोह  लेती हो |  घनछत हरियाली का लबादा ओढ़े द्वीप पर सैलानियों को लाने ले जाने के लिए मोटरबोट मिलती हैं  | मोटरबोट जेटी के सहारे सहारे दर्जनों छोटे बड़े  'सी फ़ूड' रेस्टोरेंट है |  एक तो जगह हर तरफ से खुली हुई है , खाड़ी के उस पार मलेशिया तक का नज़ारा दिखता है | दूसरा, यहाँ मिलने वाले  टमाटर और मिर्च की गाढ़ी ग्रेवी में लिपटे , मसालेदार सुर्ख लाल केकड़े, बेहद लजीज होते हैं  | शायद ही पूरे सिंगापुर में इससे बेहतर केकड़े कही मिलते हों  | 

कार्ल्सबर्ग बियर की बाल्टी  और एक बड़ा केकड़ा आर्डर कर हम बड़े इत्मीनान से बैठे थे  | शाम को जो हवा धीमी थी, रात होने के साथ साथ रफ़्तार पकड़ने लगी थी | जेटी के किनारे बंधी दर्जन भर मोटरबॉट्स  हर छोटी बड़ी लहर के साथ ऊपर नीचे उभरती उतरती जा रही थी | खाड़ी में उठने वाले ज्वर से जमीन के किनारों  को महफूज रखने के लिए  बड़े बड़े लाल और सफ़ेद पत्थरों को सीमेंट से जोड़ ढालू तटबंद बना हुआ  था |  तेज लहरों से  रोज रोज पीटे जाने के चलते  तटबंद कई जगह से उधड़ गया था | यहाँ वहाँ  मोखले खुल  गए थे | लहरों  का पानी उन मोखलों  में घुसता और फिर पिचकारी की तरह आवाज करता थोड़े ऊपर खुले छेदो से दबाब के साथ निकलता | संकरे 'बीच' के किनारे किनारे जहाँ तक नज़र जाए वहाँ तक लैंपपोस्ट  लगे थे जिनकी दूधिया  रौशनी में नहाये नारियल,छत्तेदार समन ,पीले गुलमोहर के पेड़ , हवा और समंदर की लहरों के ऑर्केस्ट्रा की धुनों पे झूमते जाते थे |हरियाली और समंदर इस कदर दिलकश कि रेस्टोरेंट्स में बैठे आदमी बीयर कम, नज़ारे ज्यादा पीते थे | 

'चियर्स फॉर हेल्थ एंड हैप्पीनेस ' के साथ हमने एक घूट ले बोतले रखीं  तो मैंने पूछा " आज भीड़ कम क्यों है ? "अभी पिछले हफ्ते चीनी नए साल की छुट्टी गयी है , अभी जनता आराम कर रही है| शायद इसीलिए  " दोस्त ने बताया |  

"तो ये क्या आराम नहीं है ?"  दूसरे दोस्त ने कुर्सी पीछे खिसका , दोनों हाथ सिर  के ऊपर बाँध तंज कसा  | 

हम चारो वाकई आराम में थे लेकिन हमारी बगल की कुर्सियों पर जमे दो चीनी मूल के लोग गैरआऱाम  मालूम होते  थे | उनके आर्डर में देरी  हुई थी शायद |  वेट्रेस ने एक दो बार 'सॉरी सर',  'यस सर' जैसे रटे रटाये जबाब दिए तो उनका पारा चढ़ गया | मैंडरिन में बोलते थे कुछ समझ तो नहीं आया लेकिन उस कमउम्र , सरकंडे  सी पतली चीनी युवती का चेहरा देख ऐसा लगा जैसे उसे अच्छी खासी डाँट पिलाई गयी थी  | मैनेजर आ गया और काफी देर उन्हें समझाता रहा | आर्डर  आने के काफी देर तक भी उनमे से एक  रुक रुक वेट्रेस को सुनाता रहा  | 

"क्या जरूरत थी ? दिल तोड़  दिया बेचारी का |"  एक दोस्त ने कहा , जो थोड़ा संवेदनशील स्वभाव का आदमी है | 

"तेरा दिल तो नहीं तोडा किसी ने,  भाई ?" दूसरा बोला | 

"टूटता ही रहता है | अब ठीठ हो गया हूँ  |आदमी ठीठ  न हो तो दुनिया सुसाइड ही करवा दे |" 

केकड़ा आ गया था | केकड़े की टांग चटका,  गूदा  निकाल , लाल चटनी में डुबो,एक  दोस्त ने कहना शुरू किया |  

" दिल तोड़ने की बात चल रही  है ,और फरवरी प्यार का महीना चल रहा है ,  तो सुनो :

तब मैं पहली बार सिंगापुर आया था | सिंगापुर छोटी जगह है | शुरू के दो चार महीने  मैं खाली समय  में यहाँ वहाँ  घूमता रहा | बर्ड पार्क , बोटैनिकल गार्डन , मरीना बे सैंड्स  ,  यूनिवर्सल स्टूडियो , ये आइलैंड वो आइलैंड  | लेकिन उसके बाद सप्ताहांत में अकेले रह ऐसे विचार आने लगे जो सेहत के लिए अच्छे नहीं होते |  जैसे 'जिंदगी क्या है| ' , 'मैं  इस दुनिया में क्यों हूँ |' मुझे ऊपर वाले ने  कोई भी हुनर  क्यों नहीं दिया | ' वगैरह वैगरह | मुझे इस तरह के विचार हमेशा से ही डराते है | मुझे एक अदद साथी की तलाश थी | ऑफिस के कुछ पुरुष मित्र थे ,लेकिन उनमे  से ज्यादातर की कल्पनाशीलता 'इंडियन पॉलिटिक्स', क्रिकेट   या फिर दूसरे सहकर्मियों की खिचाई  तक ही सीमित होती | फिर मैं पच्चीस  साल का नया लड़का था | मुझे एक प्रेयसी की दरकार  थी | 

एक लड़की थी ऑफिस  में | फ्लोर के दूसरे सिरे पर बैठती , ज्यादातर अकेली तो कभी अपनी टीम के साथ | ज्यादा खूबसूरत तो नहीं लेकिन साफ़ , सुथरी | लम्बी और सुतवा, गेहुँआ रंग लिए  | शरीर खिंचा हुआ, एकदम चौकस, वैसे ही जैसे शावक अवस्था को पार करती नयी जवान बाघिन  | जैसा कि  अब आप लोग जानते ही हैं  मुझे  'एथेलेटिक्'  बनावट  वाली स्त्रियाँ  पसंद आती हैं  | फ्लोरल टॉप और स्किन फिट जीन्स को वो मैचिंग स्नीकर्स  के साथ पहनती थी | स्लीवलेस  में उसके हाथ गन्ने की पोरी  जैसे दीखते थे, एक में वो लेथर स्ट्रैप की चौकोर डायल वाली घडी  बांधती , तो दूसरें में ड्रेस से मैचिंग कोई रिस्ट बैंड  | गले में तीन बारीक लकीरे थी ,वैसी जैसी कम उम्र बच्चो के नरम गलों में होती है |  स्तन या तो थे ही नहीं या फिर बेमालूम से थे | उस तरफ मेरा कभी गौर गया भी नहीं | बाल लेयर्स में कटे हुए, बॉब काट ,कंधों से ऊपर ही खत्म हो जाते थे  | नैन नक्श ठीक  थे किसी दिन अच्छे मूड से थोड़ा मेकअप कर आती तो काफी खिंचाव पैदा करती |  मैं  उसे एलेवेटर  में या कभी पैंट्री हाउस में कॉफ़ी बेन्डिंग मशीन के सामने खड़े देखता तो सोचता " बात बन जाए तो अच्छा रहेगा ! " 

एलेवेटर रोक के रखने , गुड मॉर्निंग बोलने  से शुरुआत हुई | एक दिन मैंने पैंट्री से बाहर  आते हुए उससे शिकायती  लहजे में कहा  "  इस वेंडिंग मशीन की कॉफ़ी  कितनी बाहियात  है न | " उसने कहा "बेशक , बेहद घटिया है |" और उसके बाद हम बाहर की कॉफ़ी  के लिए  साथ जाने लगे |

हमारे आहार विहार , सोच विचार में बहुत कुछ मेल खाता था | सो हमारी दोस्ती बहुत तेजी से परवान चढ़ी | साथ में लंच , ऑफिस से साथ में छूटना | मैंने उससे कहा "मुझे हरियाली में घूमना काफी पसंद है "| और उसके बाद लगभग हर शनिवार हम किसी पार्क में हरियाली के बीच होते | फिलॉसॉपी , भारतीय समाज और नारी , मानव जीवन का धेय क्या है , ऐसे तमाम मुद्दों से हम घंटो जूझते | विकिपीडिया पर पढ़े आधे अधूरे ज्ञान से मैं तर्क में तर्क जोड़ता जाता तो वो आँखो को आँखो से बंध जाने देती और कहती " वाओ , आई ऍम इम्प्रेस्सेड !"वो इस कदर सहज हो गयी थी कि बातचीत करते करते बिलकुल सट कर बैठ जाती | कुछ ऐसे ही भाव से जैसे दो लड़के बैठ जाया करते है | उसकी चिकनी बाजुएँ जब मेरी बाजुओं के संपर्क में आती तो मेरे अंदर एक ज्वर सा उठता | पुरुष मन लालची हो उठता | पर अगले ही पल मुझे उस किसान की याद आती जिसने लालच में आ सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को काट डाला था |   

हमने कई फ़िल्में साथ देखीं  | कैरेमल चॉकलेट में सने  पॉपकॉर्न को उठाने जब पैकेट में हाथ एक साथ जाते तो मन तलबगार हो उठता  |  पर अरमानों को मैं ऐसे ही दाब लेता बड़ी परात के नीचे मुर्गी के चूजे | 

ये सब काफी लम्बा चल रहा था | मुझे एक अदद बोल्ड चाल की जरूरत  थी | 'वीर भोगे वसुंधरा ' के रस  में तर मैं साहस बटोर रहा था |  

फिर वो रात आयी | 'दी टवीलाइट सागा - भाग २ ' का लेट नाइट शो देख हम निकल रहे थे | मैंने प्रस्ताव दिया कि थिएटर से हमारे घर कोई महज दो किलोमीटर के दायरे में ही तो है | क्यों ना , पैदल चला जाए | और फिर हम चल दिए | 

अहह , वो रात क्या रात थी | उससे ज्यादा खूबसूरत रात मैंने अपने पूरे जीवन में कभी नहीं देखी  | एलिवेटेड रेलवे ट्रैक  के किनारे किनारे सुन्दर पुटपाथ बना था , जो किसी ड्राइंग बोर्ड पर खींची लकीर की तरह सीधा और मील भर लम्बा था | कोई इक्का दुक्का आदमी ही दीख पड़ता था | दोनों तरफ कतार में बंधे  अपार्टमेंट्स थे , जो काफी जगह छोड़ गहराई में उतर कर थे |  हर कुछ दूरी पर छोटे छोटे पार्क बने थे | 

रेलवे ट्रैक के पिलर्स के बीच बीच में बोगेनविल्या , जिंजर लिली और जैस्मीन के पौधे फूलो के गुच्छो से लधपध  भरे पड़े थे | चाँद पूरा था |  अपार्टमेंट्स के बीच के फासलों से आती चांदनी में जिंजर लिली के फूल इतने सुर्ख लग रहे थे जैसे किसी में उनपर खून छिड़का हो | खाड़ी से उठने वाली हवा हलकी सर्द थी , वैसी जैसी कि  बारिश के बाद  होती है | और इस सबके बीच वो मेरे साथ थी !

माय फ्रेंड्स ! चाँद और चांदनी की कितनी ही कवितायें हमने सुनी है| सचमुच ,  कुछ जादू सा होता है | रात की दूधिया रोशनी में नहाया उसका चेहरा मुझे ऐसा लगा जैसे वो कोई अजनबी है , पहली बार मुझे मिल रही है | बला सी खूबसूरत |  लगा किस्मत मुझ पर मेहरबानियां बरसाने को थी  | मैं नशे में था | 

हाँ , जब उस प्रोटेस्टैंट चर्च के सामने से हम गुजरे तो उसने मुझे बाजू के ऊपर खींच  रोक लिया | पूरा का पूरा साबुत चाँद , चर्च के ऊँचे सलीब पर लटका हुआ था | ऐसा लगता था जैसे पारदर्शी गोल हांडे में कोई बिजली का बल्ब लगा है और उसे सलीब के किनारे से लटका छोड़ा गया है  | 

हम वहाँ कुछ देर खड़े रहे |  उसने पूछा " ये प्रोटेस्टेंट  क्या होता है ?" मैं अपने खुमार से बाहर नहीं आना चाहता था पर मैंने उसे ईसाइयत के भिन्न भिन्न मतों की थोड़ी बहुत जानकरी दी | उसने एक एक लफ्ज  को ऐसे सुना जैसे कोई  दिव्यज्ञान चूसती हो और फिर उसने कहा " तुम्हे इतना सब कैसे आता है , आई ऍम इम्प्रेस्ड !!"  |  वो दिन किस्मत वाला दिन था !

फुटपाथ के आखिरी सिरे पर , जहाँ से हमे अपने अपने घरो के लिए मुड़  जाना था , एक छोटा सा गार्डन था | चार पांच आम के पेड़ थे जो बड़े सठा के रोपे गए थे | कुछ छोटे सजावटी पौधे थे | इन सबके झुरमुट  में दो लोहे की बैंच जमी  हुई थी , जिन पर गाढ़ा मोटा नीला  इनेमल चढ़ा हुआ था | 

"क्यों ना हम थोड़ी देर यहाँ बैठे " मैंने प्रस्ताव दिया और हम एक बैंच पर जा बैठे | वो कुछ कुछ ऐसी बाते कह रही थी जैसी हम रोज सुनते है और जिन बातों के आखिरी सिरे हमें  पहले से ही पता होते है |  

अचानक मैं उसकी ओर मुड़ा और लैंप पोस्ट  की रौशनी में चमकती उसकी पेशानी को  निगाह भर देख  बोला " सुनो , क्या मैं तुम्हे ' किस ' कर सकता हूँ ?"

"क्या ?" उसने ऐसे  कहा ,जैसे उसे बात समझ ना आयी हो |  लेकिन उसके चेहरे के बदलते भाव को मैं पकड़ गया | 

" क्या मैं तुम्हे 'किस '  कर सकता हूँ ?

उसका चेहरा ,जो अभी तक चांदनी में नहाया दूधिया सफ़ेद था , अचानक से लाल हो गया | 

वो झटके से खड़ी हुई , दो कदम चली और रुक गयी " तुमने  सोच भी कैसे लिया ? मैं और वो भी तुम ? हुह "

मैंने उसे खलील जिब्रान की 'दी प्रोफेट ' किताब दिन में गिफ्ट की थी | उसने बैग से किताब निकाल हवा में उछाल दी, जो बैंच से करीब चार कदम दूर जा गिरी | 

"तुम्हे लगता है कि तुम्हारा वो लेवल है कि मैं तुम्हारे लिए हाँ करुँगी " बोलती हुई वो लम्बे पैरो से पार्क से निकलती , अपार्टमेंट्स के गुच्छे में लापता हो गयी | 

और आत्मग्लानि में गले  तक डूबा मैं अपने बिस्तर में आ सोया | 

दो तीन दिन बाद जब मुझे लगा कि उसका  गुस्सा कम हुआ  होगा तो मैंने ऑफिस मेस्सेंजर पर उससे कहा "देखो , जो भी हुआ एक निवेदन ही तो था  , इस उम्र में इस तरह की गुजारिशों को  अपराध माना जाए तो फिर पुरुष स्त्रिओं को अलग अलग ग्रहों पर बसना होगा | कुछ माहौल था ,मैं बोल गया |  "

और उसने जबाब में इतना भर कहा " सब कुछ ठीक था | पर तुम्हे क्या लगता है कि तुम्हारा वो लेवल है कि मैं तुम्हारे लिए हाँ करुँगी !!"


हमने कॉर्न चिप्स आर्डर किये थे | गाढ़ी क्रीम में चिप्स का कोना डुबो , खाने को मित्र रुका तो दूसरे मित्र ने कहा :" तुम गलत थे मेरे दोस्त | लेवल वेवल कुछ नहीं | 'किस' कभी बोलकर, मांगकर नहीं किया जाता |  एक मूड होता है , एक माहौल होता है | तुम्हे भांपना आना चाहिए कि लोहा गरम है की नही? "

और इस बात से तीसरे दोस्त को ऐसा जोश सा चढ़ा कि उसने  मुठियाँ भींच मेज पर दे मारीं  | बीयर की बोतलें , कॉर्न चिप्स , केकड़े की खाली हो चुकी डेकची, सब खडख़ड़ा उठा , वो बोला "लोहा गरम होता है और चोट कर दी जाती है | बस ! "


कितनी बीयर बची है, ये भांपने के लिए आपबीती सुनाने वाले दोस्त ने बोतल को हवा में उठाया।, एक घूट लिया और फिर बोला

 "हाँ मेरे दोस्त , मैंने कहा ना , तबं मैं महज पच्चीस का था | 

आज मैं बीयर की चुस्की के साथ हंसकर सब बता सकता हूँ | लेकिन उस समय  मैं महीनो अवसादग्रस्त रहा था | उसकी लेवल वाली बात मुझे कुछ ऐसे चुभती थी जैसे कांच की टूटी बोतल से कोई हलक में चीरा  लगा जाए  | ये सब ऐसे हुआ था जैसे सपाट खाली सड़क पर दो कारें  समान रफ्त्तार से एक दूसरे  के समान्तर भागती जा रही हो और फिर एक अचानक से दूसरे के किनारे से रगड़ती हुई एक लम्बी गहरी खरोंच खींच  रास्ता बदल निकल जाए | 

"तो फिर उसके बाद  तुम दोनों नहीं मिले " मैंने पूछा | 

"नहीं, कभी नहीं | मैंने ऑफिस ही बदल लिया |  " गहरी साँस के साथ दोस्त ने अपनी बात ख़त्म की | 

साढ़े ग्यारह बज चुके थे | शहर को जाने वाली आखिरी रुट नंबर २ की बस यार्ड से निकल बस स्टैंड पर आ लगी थी | हम सब उठ चले | रोड पर उतरने को सीढ़ियों से पहले मैं ठिठका | मेज से क्रॉकरी समेटती वेट्रेस के हाथ में दस  दस डॉलर के दो कड़े नोट थमा मैं वापस  मुड़  गया  |  सीढ़ियों के नीचे खड़े  मेरे दोस्त मुस्कुराये तो मैंने एक पैर ऊपर की सीढ़ी तो दूसरा निचली सीढी पर रख राजसी भाव से हथेलियाँ फैला कहा" क्या रखा है जिंदगानी में , खाओ, पीयो और प्यार बाँटते  चलो !"

उन तीनो ने एक आवाज़ में कहा " सही बात दोस्त ,सही बात ! "

और फिर हम भागते हुए शहर की ओर जाती आखिरी बस में सवार हो लिए | 

       

                                                                               - सचिन कुमार गुर्जर 




शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

बदलाव




तकनीक ने दुनिया को सिकोड़ दिया है |  दुर्गम सुगम्य हो  गया है| घंटे मिनटों  में सिमट आये है | जहान भर  की जानकारी  आदमी के अंगूठे के नीचे दबी पड़ी है |  तब्दीली आयी है | और कुछ  इस रफ़्तार से आयी है कि जिन घरों  में एक पीढ़ी पीछे आदमी दिल्ली तक जाने में डरता था , चौपड़ की लकीरो जैसे एक दूसरे को काटती दिल्ली की सड़कों  को  याद रखना 'तेरह के पहाड़े'  को याद  रखने से भी कठिन जान पड़ता  था ,वहाँ  आज लंदन , टोरंटो , दुबई , सिंगापुर , मेलबर्न से होते हुए  होनोलूलू और टिमबकटू तक की बातें होती हैं | कुछ ऐसे  जैसे ये सब घर के पिछवाड़े ही बसे हों  !  लेकिन ज्यों ज्यों दूरियां सिमटी हैं  , जमे जमाये  परिवार कुछ ऐसे बिखरे हैं  जैसे ज्यादा दबाब में मूंगफली के खोल से छिटके छोटे बड़े दाने |  बीवी बच्चे इस पार  तो अकेला आदमी  दूर कही विलायत , शीशे की इमारत में कैद | 'बस ये हो जाए' , 'उतना भर जुट जाए' ,'उसके बाद आराम से इकठ्ठा  जियेंगे' |'देखो, बेटे के लिए मकान हो  गया है , एक जमीन का टुकड़ा बेटी के नाम  हो जाए तो बच्चो की चिंता खत्म' | आगे  , 'कुछ अपने लिए जुट जाए , अपना खुद का कारोबार , बुढ़ापे का कुछ साधन जुट जाये ' | बस , बहुत ज्यादा नहीं | कुछ इसी तरह की आकांक्षाओं की सीढ़ियाँ  चढ़ते, आशा-निराशा  की लहरों में डूबते उतरते  , वीडियो कॉल्स में एक दूसरे  की पेशानियों की सलवटें  पढ़ते  , प्रवासियों के परिवार चलते चले जाते हैं  | डॉलर , डॉलर, डॉलर ! खुशनसीबी , मुकद्दर ! कुछ इस तरह की  खुशामंदे  करते अडोसी-पडोसी , यार-रिश्तेदार , और उस सबके बीच अकेलेपन से जूझते परिवार  तारीखों के कलेण्डर पलटाते जाते हैं  |  
कोरोना का आना कुछ ऐसे हुआ जैसे सुई धागे से रफू किये जख्म हों  और उन्हें नश्तर से खोला दिया जाए  | न इंसानो के कुछ समझ आया न उनके भगवानो को | और सरकारें  ? सरकारों के मथ्थे  नयी शब्दावलियाँ हत्थे चढ़ गयी | 'लॉक डाउन' , 'बायो बबल' , 'ग्रिडलॉक' , 'क्वारंटीन' , 'नो फ्लाई', 'ग्रीन लेन ' ,'आइसोलेशन'  वगैरह वगैरह | जब तक दवाई नहीं , तब तक ढिलाई नहीं !जो जहाँ था वही फंस गया | 

फिल्मो में जिस तरह निष्ठुर बाप घर से बाहर कदम रखते बेटे से कहता रहा है : जा तो रहे हो पर वापस देहलीज पर कदम मत रखना | सरकारों ने  कुछ वैसा ही रूप धर लिया | निशाने पर आये प्रवासी(NRI पढियेगा ) | जाना है तो जाओ वापसी नहीं | अभी तो नहीं | कब तक नहीं ये भी पता नहीं !  

सिंगापुर  के स्पेशल इकनोमिक जोन में बनी दर्जनों ऊँची , काले , नीले शीशे  की इमारतों में से एक में बैठे, मोटे चश्मे में शक्ल दबाये  दीपांकर को कोरोना वोरोना का कोई  डर नहीं  था |  अपने काम की धुन में कंप्यूटर स्क्रीन को वो किसी निशाचर पक्षी की तरह ताकते रहता ,कभी  कीबोर्ड को किसी तबला वादक  की मानिद पीटता जाता | उसकी तबियत वैसी ही थी जैसी सदा से थी |  

दुनिया भर के अखबार पोर्टल कोविड के शिकार लोगों की गिनती क्रिकेट के स्कोर बोर्ड की तरह दिखा रहे थे | चूजे से कमजोर दिल लिए लोगो की पेशानियाँ  मारे डर के भीगी रहतीं  |  शेर सा जबर कलेजा लिए लोगों  के चेहरे भी सिकुड़े रहते| वो देखता कि कैसे मारे भय लोगों  के गलों  के कौए सूखे चले  जा रहे हैं  |  दीपांकर (घर का नाम दीपू ) थोड़ा झुंझलाता , थोड़ा हँसता,  फिर बगल के केबिन  में बैठे अपने सहकर्मी से कहता " कुछ नहीं है ये , एक तरह का सर्दी जुकाम  है बस | गरम पानी पियो , तीन दिन में आदमी चंगा !" फेसमास्क की तंग डोरियों से खिचे  उसके कान रडार उपकरण की भॉंति आगे की ओर झूल आये थे | छोटा  कद , अधेड़ उम्र , गेहुए वर्ण का वो आदमी , मीटर भर दूरी बनाकर बैठे सहकर्मी के  सही गलत हर तर्क को बिना पूरा सुने काट अपनी बात रखता " ये न्यू ऐज वारफेयर है दोस्त , इसे समझो |  चीन ने इसे दुनिया की इकॉनमी डुबोने को फैलाया है | ये इतना खतरनाक है नहीं जितना बड़ा हब्बा मीडिया ने खड़ा कर रखा है !"

 चर्चाएं चलती रहतीं  |  फिक्रमंद लोग अपने ही हाथों  से नफरत करते जाते |  एक हलकी छींक से ट्रेन के कैरिज खाली  हो जाते | इस सबके बीच  दीपू खुद इत्मीनान में  रहता | पुर अमन  , वैसे ही जैसे बिना लहर कोई गहरा सागर | कुछ नहीं है ये !
लेकिन जिस तरह शांत सागर की तलहटी में कोई  केकड़ा विचरता  है  , वैसे ही सुकून में डूबे  दीपू को एक विचार ततैया के  डंक सा छू  जाता  " गया तो वापस नहीं आ पाउँगा !" सख्त पंडेमिक मैनेजमेंट कोड को लागू करती सिंगापुर सरकार ने साफ़ साफ़ कह दिया :अगर आप डॉक्टर हैं  तभी  वापस आइयेगा   , वरना जहां जाते हैं  वही आराम फरमाइयेगा ! " विदेश की नौकरी छोड़ कर जाना , वो भी इस दौर में | उसकी रीड की हड्डी के सिरे से एक सिरहन सी उठती |  बस चंद बरस और | दीपू उतना भर रुकना चाहता था | बीवी लड़ती थी | देश में ,बड़े शहर में रहती थी |सास ससुर से दूर |  इतना दूर  कि वो बेचारे तीज -त्यौहार भी पोता पोती को गोद में उठाने को तरसते | इस लक्ज़री के बाबजूद वो दीपू से लड़ती ! कहती " तुमने मेरी जवानी बर्बाद कर दी | बदकिस्मत हूँ मैं|  बहुत हुआ ,इधर आकर रहो |  " और फिर दोनों फ़ोन की स्क्रीन में  घुस लड़ते जाते ,  लड़ते ही जाते  | जब खरी खोटी सुनते सुनाते दोनों के सिर फटने को होते तो दोनों  तय करते कि बॉर्डर  खुलते ही बच्चे सिंगापुर  आएंगे  | और आगे की व्यवस्था ये रहेगी कि टिकट महंगा हो या सस्ता, हर तीन महीने के अंतराल पर दीपू देश आएगा | 

पत्नी ज्यादा बात बढाती भी तो क्योंकर | हालात से वाकिफ तो वह भी थी , उसके पास बच्चे तो थे , दीपू के पास वो सुकून भी कहाँ |  फिर पूरी जिंदगी रोटी, कपडा और मकान की जुगत में धुंनने से अच्छा है कि चंद साल बाहर कमा लिया जाए | |इधर आदमी की  जिंदगी यूँ ही खर्च हो जाती है | प्रदूषण , ट्रैफिक , 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपय्या' , भीड़भाड़ , धक्का मुक्की , छल कपट और इस सबके बीच साधारण से सपने | मकान , बच्चो की पढाई , माँ बाप की देखभाल , गाढ़े वक्त में काम आ जाये उसके लिए कुछ जमा | ये सब जुटाने में भी आदमी का पसीना चोटी से छूटता है और  शरीर के पूरे भूगोल को नापता ऐड़ी  से निकलता है |  लक्ष्य साधे नहीं सधता | प्रवासियों के सपने कुछ अलग नहीं होते | बस फर्क  इतना है कि विदेश  की चौड़ी सड़कों पर अतिक्रमण नहीं है , हर कोई नियम से चलता है ,  मील के पत्थर  जल्दी जल्दी आते हैं  | 

दीपू के ऑफिस में ही कोई मित्र था , एकलौता था |माँ बाप देश में थे , खुद बीवी बच्चो समेत सिंगापुर  में रहता |  एक दिन शाम को पता चला कि उस मित्र के पिता जी चल बसे| ढांढस देने , जरूरी सहयोग देने मित्र लोग जुटे | पता चला वो इंसान गत चार बरसों  से देश गया ही नहीं ! बाप कहता रहा | देख जाओ , मन है | उसे फुरसत नहीं हुई | 
फिर जब खबर आयी तो वो अपना लेपटॉप बैग पटक  बदहवास हो भागा | इस कांउटर से उस काउंटर | एयरलाइन्स  वालो ने कहा, एम्बेसी | एम्बेसी वालो ने कहा , कोरोना  जांच कराओ |  जांच वालो ने कहा कतार में आओ | वो भागा ,दोस्त भी भागे | लेकिन. उस भागदौड़ का फायदा क्या ?  जाने वाला चला गया , प्यासा मन लिए , डूबती उबरती आस में मिटटी के तेल की ढिबरी सा जलता बुझता , एकलौते सपूत  को देखे बिना चला  गया|  उफ्फ ये डॉलर |  अब वो इंसान 'बी ऍम डब्लू' में घूमे , रियल एस्टेट खड़ा करे  | पिता जी तो नहीं  आने वाले  | जियेगा  , मरने वाले के साथ मरता कौन है | लेकिन उसके  ही वजूद का एक हिस्सा उसे  हमेशा खाता रहेगा | जीवनपर्यन्त  | 

दीपू फिक्रमंद था, उसके दिल में अभी माँ बाप के  लिए जगह बरक़रार थी  | सप्ताहांत में माँ पिता जी को फ़ोन करता तो तमाम आसन, योग की जानकारी देता | अपने चचेरे भाई को कुछ पैसे भेजता | उससे उनकी देखभाल करने की गुजारिश करता |विटामिन सी  , जिंक , मिनरल्स की डिब्बियाँ  भिजवाता | पिता जी से कहता "देखिये , कब तक खुलती है फ्लाइट | "
पिता जी समझदार आदमी थे , कहते " फ़िक्र ना करो , यहाँ सब मजे में है | सब कुसल मंगल "

मौसम बदलता था और जैसा हर बदलते मौसम में होता है , दीपू के पिता जी को हल्का बुखार हो आया | दीपू ने समझाया "तीन दिन ना उतरे तो अस्पताल चले जाना , जांच करा आना |" पिता जी हामी भरते हुए बोले " गंभीर कुछ नहीं , तनिक चिंता ना करो | "
चौथे दिन भाई का फ़ोन आया कि चाचा जी तो आई सी यू में है | कोरोना की पुष्टि हुई है | 
और पांचवे दिन दीपू के पिता जी चले गए | ये सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि खबर सुन उसे यकीन ही नहीं हुआ| दो चार जो घनिष्ठ सहकर्मी थे , वो साथ में निकले | वे सब भागे |  इस काउंटर से उस काउंटर| एयरलाइन्स से एम्बेसी , एम्बेसी से कोरोना जांच केंद्र |  प्रबंध हो गया|   दीपू चला गया | जिन्दा रहते ना  सही , बाप की मिट्टी के आखिरी दर्शन उसे मुयस्सर हो ही गए |  
  
समय के पंख  होते है | तारीखे आगे बढ़ चली | उत्तरी भारत के मैदानों में जाड़ों के दिन बेहद छोटे , सुबह शाम कोहरे की चादर ओढ़े , एक दूसरे को धकेलते हुए निकलते जाने लगे | संस्कार , पितृशोक  और  मलालो के ज्वर से उबरने में दीपू को महीना भर लग गया | और तब जाकर उसकी तबज्जो अपनी नौकरी की तरफ हुई |  वापसी कैसे  हो , सब रास्ते बंद ।पूंजीवाद में सब सम्बन्ध नफे नुकसान पर ही टिके होते  है | काम नहीं तो वेतन नहीं | वापसी नहीं तो नौकरी नहीं | पिता मृत्यु  का दुःख अब झुँझलाहट में तब्दील होने लगा | तमाम दलीले , गुजारिशों के मुलम्मे चढ़ा स्पेशल एंट्री परमिट को अर्जी  दी पर ख़ारिज | एक बार नहीं दर्जनों बार ख़ारिज |
हाय री किस्मत ! एक विपदा से उबरे तो दूसरी आन पड़ी | वह  छटपटाने लगा | कुछ ऐसे ही जैसे किसी खरगोश को बाहर धकेल उसका बिल मूँद दिया जाए | उम्मीदें , सपने , वादे सब कुछ विदेश की नौकरी से ही तो था | 
ऑफिस के मित्र का  फ़ोन आया तो दीपू से रहा नहीं गया " यार मुझे लगता है मैंने इधर आकर सही  नहीं किया|  तूने मुझे क्यों नहीं रोका ? "
मित्र ने समझाया " कैसी बाते करते हो , आ जाओगे वापस | ऐसा सोचा भी कैसे ?"
"नहीं यार , आने का निर्णय प्रैक्टिकल नहीं था !"
"तुम्हे मुझे रोकना चाहिए था | पिता जी तो चले ही गए थे | मैने आकर  क्या किया !"
"अरे यार,शर्म करो ,इतने खुदगर्ज़ मत बनो | एकलौते हो , पिता की अंत्येष्टि  में भी ना जाते तो कब जाते | "
"खुदगर्ज़ ? हुँह ?"
अब वो गुस्से में फड़फड़ाने लगा "पिता जी  कम थे क्या | हर हफ्ते के हफ्ते मैं  तोते सा रट्टा लगाता रहा | घर बैठो, घर बैठो  | 
भाई साब , रिश्तेदारों के रिश्तेदार  तक की दावतों में शामिल हुए ये | हर हफ्ते , कभी ये शहर, कभी वो शहर  | यार दोस्त | दारु पार्टी |  अपनी लापरवाही की वजह से गए है पिता जी | 
और खुदगर्ज़ मैं ??"
अब वो अच्छी जगह हैं , क्या बोलू | यहां सामने होते तो..... "

दोस्त हक्का बक्का रह गया | दीपू ऐसा कुछ भी बोल सकता है , ये उम्मीद  ना थी | इंसान के चरित्र में भी कितनी परतें होती है "कुछ शर्म करो यार , नौकरी आती जाती रहती है | कुछ कम कमाओगे | नौकरियां तो देश में भी है | किसी और से मत कहना | कोई सुने ना | दुनिया क्या कहेगी | "

पर दीपू भांग खाये भंगड़ी जैसा बकता चला जा रहा था " भाड़ में जाए दुनिया 
 क्यों ? सुनने वाला भरेगा मेरी किस्ते , वो देगा मुझे ऐसी नौकरी| 
बोलो | निर्णय  गलत था यार | काश तुमने मुझे रोका होता "

" पिता जी थे यार तुम्हारे "

"तुम नहीं समझोगे  यार "और उसने फ़ोन काट दिया | 
फिर उसके बाद उसने फ़ोन उठाया ही नहीं | कई दोस्तों ने कोशिश की | 
अगले महीने से कंपनी ने उसकी  तनख्वाह रोक दी | 
 

कुदरत की व्यवस्था ऐसी है  कि वक्त बदलता जरूर है | सूखे के बाद सावन , उजड़ के बाद बहार , सब एक चक्र से घुमते जाते है | 
समय लगा ,दीपू का एंट्री पास क्लियर  हो गया | और महीनो बाद वो अपने काम , अपने ऑफिससिंगापुर  लौट आया | रुपयों  में टूटते डॉलर लौट आये | 'बस ये हो जाए' , 'उतना भर और जुट जाए' , दिमाग ने ख्वाबों  की बुनाई जहाँ छोड़ी थी ,वही से फिर से शुरू कर दी |  


 सिंगापुर में सुंगई नदी के किनारे 'क्लार्क की ' में  दर्जनों ओपन एयर रेस्टोरेंट है | 'बार' है , जहाँ कम उम्र वियतनामी , फिलिपिनो लड़कियाँ बेहद कम कपड़ो  में शराब परोसती है | रोस्टेड चिकन , सी फ़ूड से भरी तस्तरियाँ ले सुंदरियाँ ग्राहकों की खातिर में भागी जा रही होती हैं  | नीचे नदी में धीमी गति से लाल पीली बत्त्ती लगी बोटस  पर्यटकों को ढोती जाती हैं  |                                                                       कई मित्र जमा थे | जूसी चिकन विंग्स  और  उम्दा स्कॉच  के असर में तर दीपू का गला भर आया | " पिता जी  देवता थे यार | मन में फांस की तरह चुभन है मेरे | मुझे उन्हें टाइम देना चाहिए था | "
एल्कोहल के  उफान ने दिमाग को जकड़ा  तो उसकी हिड़की बध गयी| चश्मे के मोटे किनारे तोड़ते आंसू बह चले  | " पैसा क्या है यार | हाथ का मैल ही  तो है | कोई  मेरी उम्र भर की  कमाई भी ले ले ना यार , पिता जी  को वापस कर दे | मैं  सोचूंगा तक नहीं ! सच कहता हू ,  सोचूंगा तक नहीं !
"
फ़ोन  वाल पर लगी उसके पिता की तस्वीर  स्क्रीन के बुझते ही गायब हो गयी |और  शोक में डूबे बेटे ने ग्लेंफिडिक  सिंगल माल्ट  का गिलास कुछ इस भाव से हलक में उड़ेल लिया जैसे जहर पीता हो | 


                                                                          -सचिन कुमार गुर्जर 






 

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

दिमाग का कीड़ा



मेरे कॉलेज में एक सहपाठी था | पहलवान टाइप , गंवई लहजा , दिमागी कसरत कम , बदनी कसरत ज्यादा करने वाला | वो अक्सर अपने खांटी देहाती लहजे में कहा करता  " यो आदमी के दिमाग में कीड़ा होया करै है , जो लपालप किया करे है !" बस इस बात का कहना होता था , वहाँ हॉस्टल की सीढ़ियों पर देर तक ठहाके गूंझते  |अजी ,हँसते हॅसते बूके तन जाया  करती |  बताओ भी , 'डाटा स्ट्रक्चर' , 'कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम' ,  'डाटा बेस मैनेजमेंट सिस्टम' , 'डाटा कम्युनिकेशन एंड नेटवर्किंग' ऐसी तमाम भारी भरकम तकनीकी विषयवस्तु से कुश्तमकुश्त  करने वाला नौजवान  ऐसी बाते करता था ! एक तो बात ऐसी बेसिरपैर , ऊपर से उसकी चौड़ी गुद्दी के बीच में फंसे हलक में से  बोल कुछ यूँ फड़फड़ाते हुए फूटते थे जैसे  किसी सस्ती नाटकमंडली का नक्कारची कच्ची बसंती का पाऊच पेट में डाल बेताल नगाड़ा पीटता हो | मजमा सा लग जाता | वो मित्र साथ में हँसता , सोचता कि ठिठोली में खिचाई का नंबर सभी का तो आता है | आज उसका , कल किसी और का | लेकिन कई बार जब मजाक का दौर लम्बा खिचता तो उसकी बर्दाशत के घोड़े बिदकने लगते | अब वो किसी एक को निशाने पे लेता , गिद्ध के डैनो के माफिक अपने हाथ फैलाता  और गुस्से में हुंकारता " ना मानेगा तू ?" बात आई गई हो जाया करती | 

डेढ़ दशक बीत गया | आज सोचता हूँ कि वो दोस्त ठीक ही तो कहता था | आदमी के दिमाग में कीडा होता तो है, जो कुलबुलाए या न कुलबुलाए लेकिन दिमाग के छोटे छोटे खाँचो में घुस वहाँ तह लगी तमाम यादो से छेड़खानी जरूर करता है | सही का गलत , गलत का सही कर देता है | कुछ नीरस था , उसे रोचक बना देता है |और जो वाकई रोचक था ,उसे अलौकिक बना देता है | आदमी के दिमाग और कंप्यूटर में यही फर्क है | कंप्यूटर में जो संग्रहित हुआ सो हुआ , आदमी के दिमाग का कीड़ा यादो से खेलता रहता है , पुनर्लेखन का काम करता रहता है | 

मैं बड़ी छोटी सी उम्र से बोर्डिंग स्कूल में रहा | नवोदय विद्यालय में | शौक से नहीं ,बड़ा ही भारी मन लिए | सच कहूं तो उन दिनों अगर छुट्टियों से स्कूल लौटते , परिवहन निगम की बस की खड़खड़ाती खिड़की की मंजीरी की ताल के साथ भगवान् ने मेरी अरज सुनी होती तो मेरे स्कूल की बिल्डिंग कई बार भूंकप से जमींदोज होती | बिना नदी आयी बाढ़ में स्कूल की एक एक ईंट घुल, गायब हो गई होती   | सिरफिरी सरकार ने स्कूल बंदी का ऐलानिया नोटिस स्कूल के गेट पे चस्पा दिया होता  | गुनाह माफ़ हों, पर बेचारे कई प्रिंसिपल हार्ट अटैक से मरते ! अगर मेरी अरज सुनी गयी होती !

मुझे क्या चीज़ बाँध लेती थी ? एक तो ये कि हर छुट्टी के आखिरी दिन  पिता जी ब्रीफिंग करते थे | दालान के आगे धूल में वे शहतूत की कमची से लम्बी लकीर खींच देते और कहते " देख , ये क्या है ?"

मैं शून्य में ताकता तो वो कहते "देख , ये है रेल की पटरी | "

"और तू है रेलगाड़ी का इंजन |  "

"समझा ?"

"अब ये सोच कि इंजन अगर पटरी पे सीधा न चले तो क्या होगा  ?"

मन होता कि मौनी बाबा बन जाऊ  ,पर शहतूत की पतली कमची हलक में से ना चाहते हुए भी बोल खींच लाती " पलट जायेगा "

"और अगर इंजन पलटा तो डिब्बों का क्या होगा ?" ऐसा कहते हुए वो छोटे भाइयो को मेरे पीछे से, जो अभी तक कतारबद्ध खड़े होते , एक तरफ खींच लेते | कुछ ऐसे ही ,जैसे सचमुच रेलगाड़ी पलटा के दिखाते हों | मामले की गंभीरता को भांपते छोटे भाइयो  के हाथों  से अधखाये कच्चे अमरूदों की कलियाँ , सड़क से खुरेचे कोलतार से अकड़ी बुशर्टों की जेबों में जा दुबकती | माहौल संगीन हो जाया करता | एक तो ये बात | 

दूसरी बात ये कि , कुटुंबदार  और कुछ गैर कुटुंब भी , दो चार काका लोग ऐसे थे जो राह चलते आदमी को रोक देते | थोड़ी  शेखी और कुछ मंगल कामना लिए कहते " यो लौड़ा हमारा ऐसे सरकारी स्कूल में पढ़े है कि वहाँ जो पहुंच गया ,कामयाब होके ही वापस आया करे है !!" ऐसा कह वो तो बीड़ी के कस के साथ जिंदगी धुआँ धुआँ करने निकल पड़ते ,मेरे कंधे उम्मीदों के बोझ तले दब  जाते| 

हुआ क्या ? गिल्ली कभी पूरी तरह मेरी आट पर नहीं आयी | कभी भी मेरे कंचे दौगने नहीं हुए | ऊँची भूड़ की बेरियो के बेर , जिनके बारे में दोस्त कहते थे कि उन पर इत्ते मोटे  मोटे  (अमरुद के बराबर मोटे ) बेर आते थे , मैंने नहीं खाये ! कानपत्ता का बल्ला चूमने को मैं पेड़ से छलांग लगाने की  हिम्मत कभी नहीं जुटा  पाया |  

स्कूल के कुछ दोस्त थे | मुझसे कही  ज्यादा बोल्ड थे| कई  हॉस्टल की दीवार फांद कर भागे | अभिभावक दिवस में माँ की साडी पकड़ दूर तक घिसटते गए | उन्हें भूत आये | पेट में महीनो दर्द के मरोड़ उमड़ते रहे | जिसकी जैसी कल्पनाशीलता उसके वैसे जतन रहे | उनमे से आज कई नोस्टालजिक हो पोस्ट  करते है "अपना स्कूल  हेवन था  यार !!, है ना ?"  

और मैं कहता हूँ "यस इनडीड!! "

 ये मैं वाकई मह्सूस कर कहता हूँ | बाय गॉड | विद्या रानी की कसम ! उन दोस्तों की शिद्दत मेरे से भी भारी होती होगी | 


तो बताइये , यो जो आदमी हुआ करे है , इसके दिमाग में कीड़ा होया करे है , है कि नहीं ? कीड़ा जो लपालप किया करे है ! 

                                                                            - सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                             सिंगापूर द्वीप , ३ फरबरी २०२१  

                                                          


  

 

    

गुरुवार, 21 जनवरी 2021

दादा ऊदल

     


उस पुराने  दालान पर, जिसका चबूतरा एक जबर आदमी के सीने जितना ऊँचा था और जिसके बीचोंबीच एक  बहुत पुराना ,पहाड़ सा बुलंद  लेकिन गंजा होता नीम का दरखत  था , वहाँ मैंने ना जाने कितने जेठ  कितने आसाढ़ बूढ़ों को सुना | हुक्के की नाली को ताज़े ठन्डे पानी से तर कर और फिर लाल अंगारो से चिलम को ठूस ठूस भर , मैं दादा लोगो की चौखडी के बीच में हुक्का जमाता और आज्ञाकारी शिष्य सा किसी खाट की पांयत  पे चिपक जाता |  उनमे से कोई परिवार से रुष्ट हो  कहता "खैर भैय्या , बुढ़ापा बुरापा होया करे है " और बाकि सब एक सुर में कहते "हम्बै , सही कहो हो | " दर्जनों गायें और उतनी ही भैंसे , जिनकी पूछें शाम को तंग करने वाली खून चूसा मक्खियाँ  उड़ाने  को हेलीकॉप्टर के पंखे सी  भाग रही होती , वो 'हम्बै' न कहती पर उनके गलों के छोटे बड़े घंटे अपने ग्वालों  की बात के समर्थन में  देर तक  बजते रहते | 

और वो नीम , वो जैसे उन बूढ़ो में से ही एक था | उसके पीले पत्ते हमेशा गिरते ही रहते , घर परिवार की बहुये , लड़कियाँ  आँगन बुहारती तो कोसती "अये मरजाना , यू पेड़ दिलद्दर हैगा , देखियो जी सुबह ही सकेरा(बुहारा)  , अब देखो , कोई देखेगा तो क्या कहेगा , के के इस कुनबे की औरतें  काम ना करतीं ! " पर कुदरत पे किसका जोर , किसका जबर | उस नीम के पत्ते गिरते ही रहते , बिना हवा , बिना आवाज़ | और वैसे ही गिरते वो बूढ़े | दादा दरियाब थे , बैलगाड़ी में रस्से की बांध को कसते थे , बस पीछे की ढाल ही लुढ़क गए | घर वाले भागे , गंगा जल भी न गटक पाए , पंछी उड़ गया |  दादा कल्लन थे ,कढ़ी चावल खाते थे , पहला गोसा ही लिया था | ऐसा जोर का खांसी का  अटैक सा हुआ कि मिनट भर में ठन्डे | जिन घरो से बूढ़े जाते उन घरो में तीन दिन दाना पानी न होता,  पर ऊँचे दालान का हुक्का अगले दिन भी बजता और मैं पाता  कि बाकि बूढ़ो में से एक के भी अक्स में मौत का  भय नहीं है | वे  अपने नीले नसों के गुच्छो वाले हाथो को माथे पे जोड़ , नीम की छाव में यहाँ वहाँ  में खुले मोखलों  में से भगवान् को ताकते और कहते "हे राम जी ,ऐसी ही मौत दीजो , झटफट , बिना  धड़क बिना फड़क ! "

और फिर सब चले गए|  कुछ ऐसे जैसे खेल खेल में बच्चो ने थोड़ी थोड़ी दूरी पे सतर ईंटें  खड़ी  कर दी हों  और कोई शरारती एक सिरे से लात मार रेला सा चला जाये | ऊँचे दालान का वो रेला चला गया | बड़े बड़े हलंता , पचास पचास  गायों के मालिक ,सवा छह छह फ़ीट के सुर्ख रंग वाले , बब्बर शेर से ललाट और मूछों वाले , घुड़सवारी  के शौक़ीन दादा लोग चले गए |  ऐसे ऐसे जबर गूजर , के जो बुढ़ापे में भी तबियत से दहाड़ मार देते तो हलके फुल्के आदमी की पतलून  गीली हो जाती | सब चले गए | 

रह कौन गया ? दादा ऊदल  | उस फौज के सबसे मरियल आदमी | बाकी बूढ़े उन्हें 'गुरगल' कहते |  गुरगल एक छोटा सा पक्षी , गौरैय्या  जैसा |  ठिगनी रास , परती पड़े खेत जैसा मटेला रंग , तोतई नाक जो बुढ़ापे में आगे से फूल के लटक गयी थी | गालों  के गड्ढ़े इतने गहरे कि मुँह के अंदर एक दुसरे को छूते थे |चाचा चौधरी के जैसी  छज्जेदार मूछें  लिए थे  |  वो उम्मीद से ज्यादा और बहुत ज्यादा ठहर गए थे | शायद इसलिए कि उन्हें नीम के पत्ते की तरह बेआवाज़ नहीं जाना था , देवता होकर जाना था | हाँ देवता होकर ही | उस हाड ज्यादा , मांस कम की गठरी में जीवते वो जो साक्षात्कार कर गए , आप सामानांतर खोजेंगे तो ईशामसीह की जीवन लीला  में ही मिल पायेगा !  इंसानी हदों के पार चले गए थे ऊदल दादा | वरना आज के जमाने में कौन मानता है | दुनिया तेज रफ्तार है, पर  आज भी  गाँव में हर गाय का पहला दूध उनके स्थान पर चढ़ता है | 

                                                            ****  II  ******* 

ये जो मर्द लोग होते है न ,  इनकी सीरत में दोगलापन ऐसे ही होता है जैसे उँगलियाँ चटका चटका के  गूथे गए आटे में नमक | दिखाई नहीं देता ,पर है सर्वव्याप्त | दिन भर यही मर्द विधाता बन ऊँचे टीकरे पर चढ़ हुंकारे मारेगा | पैर के अंगूठे भर से ढेले को धूल धूल उडा देगा | जरा से विवाद में वनमानुष सा सीना पीटेगा , दूसरो के कंधो पे चढ़ मूतने का इरादा रखेगा | और औरत ? बेचारी तर्क की बात कहे  या कुतर्क , आढा तिरछा हो गुर्राएगा  " जा चली जा , काम कर अपना | "                                                                          फिर झुकमुका (dusk ) होगा , रात का सन्नाटा उतरेगा | थके हारे बालक माओं की गरम करवटों में गहरी नींद में उतर जायेंगे  ,तब  वही मर्द जिसने  दिन में 'जा चली जा ' कहा था ,  औरत के घुटनो में बैठा होगा | और औरत ये जानती है |  बड़े अच्छे से , बिना शिक्षा , बस सहज ज्ञान से ही जानती है | यही के जिस तरह अनुकूल मौसम , सही समय, सही ताप पर  धान का पौधा रोपा जाता है , ठीक वैसे ही सही समय , सही तबियत  में  मर्द के दिमाग में विचार रोपा जाता है !

लम्बी बदरंग हवेली में ,जिसके कोठड़े पक्की ईंट और कच्चे गारे के बने थे जिनके बाहर लम्बा फूस का छप्पर बरामदे का काम करता था , उन कोठड़ो में पोत -बहुए , मिट्टी के तेल की ढिमरी बुझा अपने अपने आदमियों से बड़े हौले से कहती " कुछ करो हो बालको के लियो या कटोरा देओगे तम इनके हाथो में | " और गर्माहट के ख्वाहिशमंद उनके आदमी उतने ही धीमे स्वर में कहते "हाँ , हाँ , देखे हैं !" पर जब ये 'देखे हैं  देखे हैं ' का दिलासा लम्बा खिचा तो लम्बी चोटी ,गरम खून की पोत-बहुओं  ने खुद ही बीड़ा उठाया | दालान उनकी पहुंच से दूर था , पर हवेली में पहले सांझे के चूल्हे फूटे , अपनी अपनी थाली कटोरियों पर पहचान के निशान खीचें  गए , लीपने के आंगन बांटे और जब दिल नहीं भरा तो "उत्ती तू ऐसी  , तेरा पीहर ऐसा , तेरा खसम मेरा खसम "  ये सब वाचा जाने लगा | मर्द कुछ दिन दूर रहे , लेकिन फूस का घर और आग से रहम !

एक दिन ऐसा आया कि  छोटी बहु ने बड़ा लम्बा सा घुंघट काढ़े काढ़े आपा खो दिया और चिमटे से अपने जेठ की ओर इशारा कर बोली " उरे कु मुच्छड़ , तेरी ही मूछ उखेड़ुगी सबसे पहलै | "  बस  उसी दिन सब कुछ बँट गया | पूरब का खेत , पश्चिम की जोत , साझे का कुआँ , मुर्रा भैंस , ढेला भैंस , धान, उड़द, मसूर | सब का सब |   

और दादा ऊदल ? अरे उनका हामी कौन होता , जो बेटा पोता  सबसे सीधा था , बिना ऐलान उसकी झोली में आ गिरे | दालान चार फाँक  हुआ  पोतों ने शहर जैसे दड़बे नुमा घर बनाने को फीता डाल दालान बाँट लिया |  दादा के हलक से एक बात भी न निकली | हाँ जब नीम का बँटबारा  हुआ और लकड़हारे बड़े आरे ले चले तब वे बोले  " ओ लल्ला क्यों काटो हो इसे , हम्बे साई ?" किसी ने पूछा "क्यों ना काटें ?"

 पर दादा कुछ न बोले | 

काश उन्होंने बोला होता कि काट लेना , मुझे चले जाने दो | फिर इसे काट ,आरा मशीन पे ले जा तख्तों  में तकसीम कर बाँट लेना | काश उस कभी के जबरदस्त किस्सागो  ने कहा होता कि सुनो अकल के मारो , इस नीम के पत्ते पत्ते पे एक कहानी है | आह कितने किस्से उस नीम की छाँव में कहे गए | भूत ,चुड़ैल , परी , फरिश्ते , नल दमयंती , विक्रम बेताल , राजा हरिश्चंद , इन सबके कितने  किस्से, वो भी मुँहजबानी ! वो मरघटिया के भूतों  के नाच की कहानी , जिसे सुन मेरे और साथ के हमउम्र बालको के मसाने सूख गए थे और कई बड़ी उम्र में भी बिस्तरों में मूतने लगे थे | भूत जिनके पैर पीछे को घूमे होते  थे और जो नंग धडंग हो अंगारों पे कूदते थे | अर अर अर... जो सुरैय्या की तरह नाक में ही बोलते थे "कहाँ कू जावै है , कहाँ कू.. ठहर जा  "

काश वो कह पाते कि  दादा को बर्दाश्त करते हो , तो इसे भी कर लो |  पर वे  कह भी देते तो उन्हें कौन सुनता | हुह्ह  , भला कोई सुनता ? नीम का पेड़ और ऊदल दादा बस जगह भर ही तो घेरते थे | 

और मैं कहाँ था ? मेरी मसे भीग रहीं थीं  | और किसी भी औसत किशोर की तरह मैं बिना बात की अकड़ , कम उम्र के फिजूल के आकर्षण ,  जान बूझ घर वालों  के हुकुम की नाफरमानी में मशगूल था | मैं वैसे ही था जैसे कि मेरे आस पास के लोग | मैं दुनिया में अपनी जगह ढूँढ  रहा था |  नीम और नीम वाले दादा पुराने ढोल जैसे थे , मुझे फ़िल्मी गाने जमने लगे थे | 

                            

                                                                      ****  III ***

रामकृष्ण परमहंस भक्तिमार्ग के बड़े ही पहुंचे हुए संत थे | काली के उपासक | सत्संग करते तो सैकड़ो लोग उनकी जीवट लीला को देखने सुनने इकठ्ठा  होते | लेकिन उनमे एक ऐब था : लजीज खाना  | और भोजन में उनकी आसक्ति कुछ उस दर्जे की थी कि सत्संग पूरे शबाब पर भी हो तब भी वो बीच सत्संग उठ जाते और रसोई में जा अपनी ग्रहणी श्रद्धा से पूछते कि आज खाने में क्या है | कई बार  किसी बालक से खबर भेजते कि खाने में देरी क्यों है | उनकी पत्नी को ये बात चुभती कि बताइये इतने बड़े ज्ञानी , लोक परलोक के ज्ञाता और जिव्हा इंद्री पे तनिक भी संयम नहीं | वो पूछती तो परमहंस हँस देते | आखिर जब पत्नी ने ज्यादा दबाब बनाया तो उन्होंने समझाया कि देखो इस दुनियादारी से मेरा सम्बद्ध खत्म  ही हुआ , इधर जानने को न कोई रहस्य रहा , न बांधने को कोई माया | बस खाने की आसत्ति है जिससे  मैंने अपने आप को इस दुनिया से बांधा है | जिस दिन भोजन से भी लगाव गया  तो समझ लेना | और फिर ऐसा ही हुआ | एक दिन तरह तरह के पकवान सजा जब पत्नी उनके सामने हाज़िर हुई , परमहंस ने मुँह फेर लिया | बस , पत्नी के हाथ से थाली छूट गयी, चीख निकल गयी | परमहंस ब्रह्मलीन हो गए | 

ऊदल दादा की भक्ति में परमहंस जैसा न तेज था, न ही उनके जैसा ज्ञान | अरे वे  ऐसे सरल गऊ मन आदमी थे जिसकी जवानी गाय चराने में बीती और ढलती उम्र  किस्सागोई  और हुक्केबाजी  में | वो घुटनों  में अपना सिर  रखते  और सीधा सा मन्त्र उचारते " हे राम।  तू ही है मेरे मालिक रे | " हाँ परमहंस की तरह उनकी आसत्ति जरूर थी | दो चीज़ें  उन्हें दुनिया से बांधती थी : एक लोटा भर काले गुड़ की चाय और दूसरा बीड़ी का बण्डल | सुबह घर का काम निपटा जब बहुएँ  किसी बालक से चाय का लोटा भिजवाती तो दादा उसे एक बड़े कटोरे पे भरवा लेते | दोनों हाथों से देर तक चाय की तपिश को महसूस करते और फिर सपाटे के साथ एक एक घूँट को रुक कर ऐसे पीते जैसे पेट  को नहीं आत्मा को सींचते  हो | फिर बीड़ी सुलगा लेते | वो साझे का हुक्का लड़कों ने बांध कर टांड पर रख दिया था इस वादे के साथ कि कोई हुक्का-पीवा रिश्तेदार आएगा तो उतार लेंगे | लेकिन दुनिया आई गयी | गायों की बछड़ियों की भी बछड़ियाँ पैदा हो गयी , हुक्का नहीं उतरा |  


दुनिया चाँद में उसकी शीतल चांदनी और उसकी छवि में अपनी प्रेमिका का रूप ढूढ़ती है , उसके अड्ढे गढ्ढ़े , काले पीले दाग नहीं | वैसे ही दुनिया का देहाती जीवन से रोमांस है |  किसान चरित्र में भोलापन, सादगी और मेहनतकशी  के गुण ही तलाशती है |  जबकि देहात के जीवन का एक पहलु ये भी है कि शायद कठोर जीवन के चलते उनकी संवेदनायें  कम होती है और मजाक के तरीके भी कठोर होते हैं |  मौत और बुढ़ापे को लेकर जितने मजाक भारत के ग्रामीण अंचल में मिलेंगे शायद ही दुनिया में कहीं मिलें  |

कई बार ऐसा होता कि सूरज की धीमी तपिश में दादा ऊदल अपनी सूखी टांगो को आंच दे रहे होते तो कोई लफंडर तफरीह में यू ही खामखा अपनी साईकल बैठक के आगे रोकता और कहता " ओ दद्दा , सुनो हो के ना | अब खबा भी दो उड़द चावल | दिखियो , महीनो से गाम में कोई दावत न हुई !" उसका इशारा मृत्युभोज की तरफ होता | उसकी बात में बात जोड़ता कोई इधर उधर के चबूतरे से होंका  लगाता " अभी नाय जाएं ये  , काला कौवा खाय के उतरे हैंगे दादा , देखिये कही तेरे उड़द चावल न खा जाएँ कहीं  " और फिर बेगारी में इधर उधर मस्त सांड से घूमते  कई  जवान ठहाका लगा कर देर तक  हँसते |  

दादा क्या कहते | मैंने कहा ना दुनिया में उनकी आसक्ति ख़तम हो गयी थी , बस उनके लिवनहार फ़रिश्ते सोते थे | कभी वो धीमी आवाज़ में कहते " राजा हो या रंक , जिसका बखत जब आवेगा तभी जावेगा| सात तालों में बंद हो लियो , हुवा से भी खींच लेंगे फ़रस्ते  "

लेकिन फिर वो दिन आया , जिसे मैं क्या पूरा गाँव  नहीं भूलता | 

                                              ****   IV   *** 

वो सेमल-गददे के फूलों का मौसम था | रास्ते के किनारे पसरे खलियान  में,  जहाँ मोहल्ले भर की औरते गोबर के कंडे और लकड़ी के ढेर संजोया  करती थी , उसके बीच में खड़े दो दैत्याकार सेमल के पेड़ो पर खिले फूल ऐसे थे जैसे जवान मुर्गे की लाल  कलगी | दूर तक पीली सरसो पसरी थी | उस रात मैं सही से सो नहीं पाया | एक तो मौसम ऐसा गर्म-सर्द , कि खेस में मुँह ढाँपो तो पसीना  और  न ढाँपो तो मच्छर  पिनपिनाते | उस पर देर रात  तक गांव भर के आवारा कुत्ते छतो पर चढ़ रोते रहे | कुत्तो को आसामन से उतरते फरिश्तों  का भान होता है  |और इस बात का भान मुझे था कि कुत्ते क्यों रोते है !बस इसी के चलते मेरा कलेजा बैठ बैठ जाता | 

सुबह जंगल पानी को निकला तो गलिहारो में किसान अपनी अपनी हवेलियों से रात से पानी में भीगी खली के बालटे लटकाये गोशालाओं  की तरफ जा रहे थे | सुबह सुबह भजन के समय कोई किसान अपनी भैंस से परेशान उसे कोस रहा था " खा ले महारे ससुर की , कसाई से कटवाऊ तुझे , कसाई सै | "दूर डामर की सड़क से कच्ची सड़क पे उतरती दूधिया की साईकिल  से टकराते दूध के खाली गोलटे बेसुरे घंटो से बजते चले आ रहे थे | कोई आध कोस की दूरी  पर एक टटीरी पक्षी  पूरे जोर से चिल्ला रहा था  :   टर टर टटर टटर | शायद नित्यकर्म को जाता कोई इंसान उसके अंडो के नजदीक पहुंच गया था |  सरकंडो के  बाड़ों से घिरी चकरोड के दूर वाले छोर पर,  अमराही के सिरे पर सूरज ने जब आसमान को फोड़ा तो मैंने वापसी का रास्ता पकड़ा  |  

उदल दादा की बैठक के आगे आठ दस लोग जमा थे | जो स्वाभाविक था वही विचार आया और बैठक में पैर रखते ही  विचार सही साबित हुआ | दादा के दोनों पैर एक तरफ घूमे पड़े थे और मुँह खुला पड़ा था |  कोई आशावादी था, आगे खड़े लोगो से बोला "नबज टटोल के देख तो लो , क्या पता साँस बाकी होवै | " आगे खड़े किसी नौजवान ने इसे अपनी पड़ताल की तौहीन माना और ऊँचा हो बोला "नाय  है कुछ भी , ठन्डे पड़ गए | मट्टी ही बची है अब भईया , कुछ नाय बचा | " फिर कुछ लोग ऐसे होते है जो सब कुछ आभास होने पर भी पूछते है , किसी नए ने पूछा " क्या हुआ ?"तो माहौल के हिसाब से किसी ने संजीदा हो कहा " दादा ख़तम हो गए !"

शरीर जमीन पर उतारने की तैयारी होने लगी लेकिन कोई ठीठ पीछे से आके बोला " अरे गर्दन तो घुमा के देख लो , थोड़ा हिला डुला के देख लियो | " कई झुँझलाये  | कई बार ऐसा होता है कि  मृत को देख ऐसा भास होता  है जैसे  सांस लेता हो और अभी तपाक से  बोल पड़ेगा | मुझे तो ऐसा ही लगा|  और फिर मुझे क्या कई को ऐसा ही लगा | किसी ने दादा के मुँह के आगे कान लगा दिया और जोर से चिल्लाया " अबे , चल लइ है दादा की साँस !" और सचमुच  दादा तो लौट आये !  भाग हुई कि चाय लाओ, चाय लाओ | 

गरम चाय पेट में जाते ही दादा का शरीर ऐसे हरकत में आया जैसे सर्द पाले में अकड़ी छिपकली ने सूरज की तपिश पा ली हो |   किसी ने पूछा " ठीक हो?" और फिर बीड़ी सुलगा के दे दी |  दादा ने हाथ जोड़ आसमान की ओर उठा दिए और बोले " बस बालको , चला तो गया हा पर लौट आया | "

फिर वो सुनाते गए |  शायद सालों  बाद इतना बोले होंगे" तीन जने हे | सफ़ेद झक लत्ता में | बोले कि ऊदल , उठो और चलो | मैं नु बोला के थमो तो सई | अपनी लठिया तो उठा लूँ | " 

भीड़ में पीछे कुछ हँसे ,पर अधिकतर गंभीर हो सुनते थे |  बीड़ी का कश ले दादा बोले " मेरे पैर ऐसे उठे जैसे कि कोई फूल | और यूँ आँख मूंदते ही बादल ही बादल | "

"फिर , उसके बाद क्या हुआ दादा ?"

दादा ने अपने सूखे लकड़ी से हाथ को गोलाई में घुमाया और बोले " ऐसे बहुत से नर नार चुप्पी चान बढे चले जा रये | मैं, मेरे संग वो तीन फिरस्ते | बड़ा सोयना सा द्वार बना हुआ हा , एक ने हमे रोक लिया | नाम की बूझ हुई लल्ला "

"नाम बताओ "

"ऊदल सिंह "

"बल्द ?"

"फूल सिंह "

"बस इसपे आयके  वो चारो चुप | पोथी में देर तक पड़ताल हुई | फिर उ जो चौथा हा ना लल्ला | नु बोला के गलत आदमी को ले आये | हलकी सी डांट देई | "

किसी ने पूछा " उनके मुँह दीखे हे क्या दादा ?"

दादा में जैसे नई ऊर्जा आ गयी थी " अरे नाय , उनके सफ़ेद लत्तो में इतनी तेज़ी ही , कि आँख कहाँ  खुली पूरी|  "

"और फिर वो नू बोले के चलो वापस , अरर आरर ..  बस वही से धक्का दे दिया मुझे और बस्स्स|  "

बैठक से कुछ लोग निकलते जा रहे थे कुछ आते जा रहे थे | कुछ दादा की कहानी को दोहरा दूसरों  को सुनाते तो कुछ दोबारा उनके मुँह से सुनने की गुजारिश करते | कुछ विश्वास लिए तो कुछ बूढ़े का कपोल समझ , घंटे भर में भीड़ छट गयी |  

बमुश्किल घंटा भर बीता होगा | पछाय(पश्चिम ) के मोहल्ले के नरपत चले आते थे अपनी 'राजदूत' पे | बनिए की दुकान  से बीड़ी का बण्डल ले नरपत किसी बैठक की ओर मुँह ले बोले " काका , मँड़ैया की नदी में जल तो नाय है आजकल | मोटरसाइकल निकल जाएगी | कही जाना हो ना हो , घर परिवार की लौंडियो को तो खबर देनी ही पड़ेगी  | "

एक काका चबूतरे  पे चले आये " ऐसा क्या हुआ , के खबर देनी पड़ेगी तड़के तड़के ?"

नरपत उदास हो बोले " पते ना चले , अहह , ऊदल ख़तम हो गए ऊदल | "

"क्या ??"

"भल मानसो , अच्छे खासे उठे , जंगल पानी गए , आके चाय पी और अर बस | बड़े लौंडा कू आवाज़ दी जोर से , अर बसस | ठन्डे पड़ गए|  "

आस पास के घरो से जनाने मर्दाने  सब सुन गलिहारे में आ गए | 

"कौन ?अरे कौन, नरपत कौन ??"

"ऊदल  | "

ओहो  , तो फ़रिश्तो ने अपनी भूल सही कर ली थी |  घंटे भर के भीतर ही | और मैंने देखा कि गाँव के गलियारों में भरे लोग " राम तेरी माया , हे प्रभु तू ही है " जपते, हाँफते  ऊदल की मँड़ैया की ओर लपके  चले जा रहे थे | सबकी आँखों में भय था और सबकी आवाजें  काँप रही थी | चबूतरे पे खड़े खड़े मेरी सांस धौंकनी  सी चल रही थी | मृत्यु भय और डर के मारे रीढ़  की हड्डी के ऊपर पसीना छूटना क्या होता है , उस दिन मुझे आभास हुआ था | 

इस घटना के बाद तो गांव का मौसम ही बदल गया | ऊदल दादा छह  महीना और  जीवित रहे | घसियारिनो के झुंड उनकी बैठक के आगे से निकलते तो सब एक सांस  हो गीत सा गातीं " पाऊँ लागु हूँ  बड़े दादा !!"मोहल्ले भर की गुजरियाँ  छोटे बड़े तीज त्यौहार पर कटोरा भर खीर भेज देतीं  जिसमें दिल खोल  मखाने , दाखें  और किशमिश  बुरके होते  | !राह चलता राहगीर रुक जाता और बीड़ी सुलगा दादा को देता | दादा मना करते तो मिन्नत सी करता ,कहता " लो ,पी भी लो भलमानसो , अब सुलगाय  लेई मैंने !" रेलबाई या पुलिस की भर्ती  का परचा देने कोई युवा शहर जाता तो  बस पकड़ने से पहले दादा के चरण लेना न भूलता | सेवा से कुछ के काम सिंद्ध होते ,कुछ के ना होते,  पर ऊदल  दादा में पूरे गांव की आस्था जम गयी  | दादा स्वर्गलोक हो लौट आये थे | 

और फिर जब वे  सही में गए तो गाँव  की सातों जात के आदमी जुटे | ताजा  बारिश में बलबलाती गंगा के किनारे चिता पे लिटा जब काका अग्नि देने को हुए तो भीड़ में बैठे किसी हँसोड़  से रहा न गया " औ काका , अभी रुकियो तनक  , कुछ पता ना , अभी लौट सकें है दादा !" और फिर सब जोर जोर से हँस पड़े | 

लेकिन धुआँ होते ही  मिजाज बदल गया और एक बड़ा रुआंसा हो गा उठा :

"पत्ता टूटा डाल सै  , ले गई पवन उड़ाय | 

अबके बिछड़े नाय मिले  , जाय बसेंगे दूर | 

बोलो तो भाई , हर गंगे, हर गंगे |  "

और फिर जीवन की क्षणभंगुरता और अपनी अपनी आखिरियत के अहसास से बहुत सी आवाजें  एक साथ गा उठीं  " बोलो तो भाई हर गंगे , हर गंगे | "

घी की लाग पा भड़की ज्वाला ज्यों  ही शरीर को लीलने को ऊपर उठी ,  लकड़ी के सुलगते दो कुंदे चिता से लुढ़क  कर बाहर आ गिरे | 

हाँ ये उसी पुराने नीम की लकड़ी के कुंदे थे ! दादा अपने साथ एक पूरा युग समेट कर  ले गए थे | 

                                                            इति | 

                                                      सचिन कुमार गुर्जर 

                                                      २१ जनवरी २०२१ 

  



श्रद्धा भाव

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