खैर ये अच्छा बुरा समय तो सभी के पल्ले आता है | पर पहली दफा जिंदगी में हालात कुछ यूँ हैं कि दिन हफ्ते में, हफ्ते पखबाड़े में तब्दील होते जा रहें है और मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि क्या कह दूँ |
कई दिनों से बस सोचता ही जा रहा हूँ | कुछ तो कहना बनता है | दूर से ही सही | वो अपना अपना ही क्या जो इन हालातों में भी कुछ न कहे |पर क्या कह दूँ , उस बाप से जिसकी वंश वेल में बस एक ही पत्ता था | जड़ जमीन , योजना प्रयोजना , सौंज साधन सब उसी के लिए तो था | और वही चला गया |
उस बाप से कैसे कह दूँ कि सब्र करो | किस ठिठाई से कह दूँ ? बेहयाई नहीं होगी ये ?
और उस माँ से ? उस माँ से जिसके हाथ में नौकरी की पहली तनख्वाह धर वो बोला था "बहू ढूढ़ ले माँ , जिसे तू हाँ कर देगी उसे ही सिर माथे रखूँगा | "कॉलेज तक पढाई , कॉर्पोरेट की नौकरी , माँ की पसंद से शादी ,बताइये ,मिडिल क्लास के पैमाने के लिहाज से आदर्श बेटा और क्या होता है ?
उस माँ से क्या कह दूँ जिसे घर द्वारे में रिश्तेदारों का इंतज़ार तो था पर यूँ कर नहीं |
क्या ये कह दूँ कि जो गया सो गया ,आगे की जिंदगी के जो भी पन्ने बचे हैं ,उन्हें संवारों | उनसे , जिनकी किताब के सारे पन्नों पर काली स्याही उंध पड़ी है | जाने वाले का दुःख अपनी जगह है पर जो पीछे छूट गए उनकी जो टीस होती है ना , बस वैसे कि जैसे बबूल के गहरे कांटे देह में गहरे घोप बस अंदर ही छोड़ दिए जाएँ |
उफ्फ ये कोविड, ये काल | और किस पर तोहमत जडूँ ?
छोटे बच्चों के दिमाग इंटरनेट से जुड़े है | कोई आठ साल का बच्चा यूटुब पर सच्चे झूठे , अधकचरे वीडियो देख अपने बाप से मुखातिब हो पूछ रहा है " पापा , पहली लहर बूढ़ों के लिए थी ना और दूसरी जवानों के लिए | तो क्या तीसरी बच्चों के लिए होगी ? क्यों? "
आप बच्चे को डाँट सकते है | लेकिन ये बोल , महज इतने से बोल आपको खौफ और लाचारी से तरबतर करके ही जायेंगे | पसीना छूटता है |
क्या कह दूँ ? जब बड़ों को समझाने के लिए बोल नहीं हैं , तो बच्चों को समझाने का असाइनमेंट किस हौसलें से ले लूँ |
पहली दफा ऐसा हुआ है कि मरीज अस्पताल जाने से डर रहा है | आई सी यू , वेंटीलेटर , ऑक्सीजन इन शब्दों में भय की प्रतिध्वनि क्यों है | आखिर ये सब तो जान बचाने के साधन हैं ना ? आदमी की साँस फूल रही है , उसकी क्या जरूरत है ,जानता है| पर उसे क्यों लग रहा कि अस्पताल जायेगा तो वापस नहीं लौटेगा | व्यवस्था , शासन , समानता , न्यायोचित, अवसर, अधिकार इन मूल तत्वों में आदमी का भरोसा क्यों नहीं है | ट्रैक्टर ट्राली में गन्ने की जगह अपने मरीज की चारपाई जमाये किसान शहरों की तरह जा रहे है | अस्पताल में बेड , ऑक्सीजन , सही इलाज पा जाने की उनकी आस कुछ उतनी ही है जितनी रात भर अपना तेल जला चुके भोर में फड़फड़ाते दीये की | पर अपनों का जी कहाँ मानता हैं | कोशिश ना करने का अपराध बोध समझते हैं ना आप ?
उन कुछ हार कर लौटते तो कुछ आस लिए जाते ट्रैक्टर ट्रॉलियों के रंग लाल हों या हरे ,अमूमन हर किसी के पीछे लिखा होता है :"खेत पर किसान , सीमा पर जवान | "
और इससे भी बड़े , बोल्ड अक्षरों में : "मेरा भारत महान ! "
हम्म , भारत तो महान रहेगा ही , पर ये लिख कर इतराने वाले शायद हताहतों की गिनती में भी ना आएं |
-- सचिन कुमार गुर्जर
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