मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

दिमाग का कीड़ा



मेरे कॉलेज में एक सहपाठी था | पहलवान टाइप , गंवई लहजा , दिमागी कसरत कम , बदनी कसरत ज्यादा करने वाला | वो अक्सर अपने खांटी देहाती लहजे में कहा करता  " यो आदमी के दिमाग में कीड़ा होया करै है , जो लपालप किया करे है !" बस इस बात का कहना होता था , वहाँ हॉस्टल की सीढ़ियों पर देर तक ठहाके गूंझते  |अजी ,हँसते हॅसते बूके तन जाया  करती |  बताओ भी , 'डाटा स्ट्रक्चर' , 'कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम' ,  'डाटा बेस मैनेजमेंट सिस्टम' , 'डाटा कम्युनिकेशन एंड नेटवर्किंग' ऐसी तमाम भारी भरकम तकनीकी विषयवस्तु से कुश्तमकुश्त  करने वाला नौजवान  ऐसी बाते करता था ! एक तो बात ऐसी बेसिरपैर , ऊपर से उसकी चौड़ी गुद्दी के बीच में फंसे हलक में से  बोल कुछ यूँ फड़फड़ाते हुए फूटते थे जैसे  किसी सस्ती नाटकमंडली का नक्कारची कच्ची बसंती का पाऊच पेट में डाल बेताल नगाड़ा पीटता हो | मजमा सा लग जाता | वो मित्र साथ में हँसता , सोचता कि ठिठोली में खिचाई का नंबर सभी का तो आता है | आज उसका , कल किसी और का | लेकिन कई बार जब मजाक का दौर लम्बा खिचता तो उसकी बर्दाशत के घोड़े बिदकने लगते | अब वो किसी एक को निशाने पे लेता , गिद्ध के डैनो के माफिक अपने हाथ फैलाता  और गुस्से में हुंकारता " ना मानेगा तू ?" बात आई गई हो जाया करती | 

डेढ़ दशक बीत गया | आज सोचता हूँ कि वो दोस्त ठीक ही तो कहता था | आदमी के दिमाग में कीडा होता तो है, जो कुलबुलाए या न कुलबुलाए लेकिन दिमाग के छोटे छोटे खाँचो में घुस वहाँ तह लगी तमाम यादो से छेड़खानी जरूर करता है | सही का गलत , गलत का सही कर देता है | कुछ नीरस था , उसे रोचक बना देता है |और जो वाकई रोचक था ,उसे अलौकिक बना देता है | आदमी के दिमाग और कंप्यूटर में यही फर्क है | कंप्यूटर में जो संग्रहित हुआ सो हुआ , आदमी के दिमाग का कीड़ा यादो से खेलता रहता है , पुनर्लेखन का काम करता रहता है | 

मैं बड़ी छोटी सी उम्र से बोर्डिंग स्कूल में रहा | नवोदय विद्यालय में | शौक से नहीं ,बड़ा ही भारी मन लिए | सच कहूं तो उन दिनों अगर छुट्टियों से स्कूल लौटते , परिवहन निगम की बस की खड़खड़ाती खिड़की की मंजीरी की ताल के साथ भगवान् ने मेरी अरज सुनी होती तो मेरे स्कूल की बिल्डिंग कई बार भूंकप से जमींदोज होती | बिना नदी आयी बाढ़ में स्कूल की एक एक ईंट घुल, गायब हो गई होती   | सिरफिरी सरकार ने स्कूल बंदी का ऐलानिया नोटिस स्कूल के गेट पे चस्पा दिया होता  | गुनाह माफ़ हों, पर बेचारे कई प्रिंसिपल हार्ट अटैक से मरते ! अगर मेरी अरज सुनी गयी होती !

मुझे क्या चीज़ बाँध लेती थी ? एक तो ये कि हर छुट्टी के आखिरी दिन  पिता जी ब्रीफिंग करते थे | दालान के आगे धूल में वे शहतूत की कमची से लम्बी लकीर खींच देते और कहते " देख , ये क्या है ?"

मैं शून्य में ताकता तो वो कहते "देख , ये है रेल की पटरी | "

"और तू है रेलगाड़ी का इंजन |  "

"समझा ?"

"अब ये सोच कि इंजन अगर पटरी पे सीधा न चले तो क्या होगा  ?"

मन होता कि मौनी बाबा बन जाऊ  ,पर शहतूत की पतली कमची हलक में से ना चाहते हुए भी बोल खींच लाती " पलट जायेगा "

"और अगर इंजन पलटा तो डिब्बों का क्या होगा ?" ऐसा कहते हुए वो छोटे भाइयो को मेरे पीछे से, जो अभी तक कतारबद्ध खड़े होते , एक तरफ खींच लेते | कुछ ऐसे ही ,जैसे सचमुच रेलगाड़ी पलटा के दिखाते हों | मामले की गंभीरता को भांपते छोटे भाइयो  के हाथों  से अधखाये कच्चे अमरूदों की कलियाँ , सड़क से खुरेचे कोलतार से अकड़ी बुशर्टों की जेबों में जा दुबकती | माहौल संगीन हो जाया करता | एक तो ये बात | 

दूसरी बात ये कि , कुटुंबदार  और कुछ गैर कुटुंब भी , दो चार काका लोग ऐसे थे जो राह चलते आदमी को रोक देते | थोड़ी  शेखी और कुछ मंगल कामना लिए कहते " यो लौड़ा हमारा ऐसे सरकारी स्कूल में पढ़े है कि वहाँ जो पहुंच गया ,कामयाब होके ही वापस आया करे है !!" ऐसा कह वो तो बीड़ी के कस के साथ जिंदगी धुआँ धुआँ करने निकल पड़ते ,मेरे कंधे उम्मीदों के बोझ तले दब  जाते| 

हुआ क्या ? गिल्ली कभी पूरी तरह मेरी आट पर नहीं आयी | कभी भी मेरे कंचे दौगने नहीं हुए | ऊँची भूड़ की बेरियो के बेर , जिनके बारे में दोस्त कहते थे कि उन पर इत्ते मोटे  मोटे  (अमरुद के बराबर मोटे ) बेर आते थे , मैंने नहीं खाये ! कानपत्ता का बल्ला चूमने को मैं पेड़ से छलांग लगाने की  हिम्मत कभी नहीं जुटा  पाया |  

स्कूल के कुछ दोस्त थे | मुझसे कही  ज्यादा बोल्ड थे| कई  हॉस्टल की दीवार फांद कर भागे | अभिभावक दिवस में माँ की साडी पकड़ दूर तक घिसटते गए | उन्हें भूत आये | पेट में महीनो दर्द के मरोड़ उमड़ते रहे | जिसकी जैसी कल्पनाशीलता उसके वैसे जतन रहे | उनमे से आज कई नोस्टालजिक हो पोस्ट  करते है "अपना स्कूल  हेवन था  यार !!, है ना ?"  

और मैं कहता हूँ "यस इनडीड!! "

 ये मैं वाकई मह्सूस कर कहता हूँ | बाय गॉड | विद्या रानी की कसम ! उन दोस्तों की शिद्दत मेरे से भी भारी होती होगी | 


तो बताइये , यो जो आदमी हुआ करे है , इसके दिमाग में कीड़ा होया करे है , है कि नहीं ? कीड़ा जो लपालप किया करे है ! 

                                                                            - सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                             सिंगापूर द्वीप , ३ फरबरी २०२१  

                                                          


  

 

    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी करें -

श्रद्धा भाव

  सिंगापुर सुविधाओं , व्यवस्थाओं का शहर है | सरकार आमजन की छोटी छोटी जरूरतों का ख्याल रखती है | फेरिस्त लम्बी है , हम और आप महीनो जिक्र कर स...