मंगलवार, 14 जून 2016

चतरा और उसका दिलदार

 नाम उसका शशिकला था वैसे । पर उसकी सास और उसका पति रघवंशा उसे ससिया कहते । 'शशिया' नहीं 'ससिया' !  उत्तर प्रदेश के इस इलाके में   'श ' बोलने के लिए जीभ की प्रत्यंचा चढाने की मशक्कत नहीं की जाती , सारा काम छोटे  'स' से ही चलाया जाता है । छोटे 'स ' से सरोता !

और हाँ , अगड पड़ोस की जनियाँ  उसे ससिया भी ना कहती , वो उसे चतरा कहतीं  । 'चतरा' माने चतुर औरत ।  उनके उसे चतरा कहने में  उनका कोई प्यार ना था । शायद  हीन भावना थी , कमतर होने की चिड़ थी ,जो उनके बोलों से कटाक्ष बनकर फूटा करती ।

पर लम्बी सुतवा नाक , बड़े नैनो वाली वो गोरी औरत थी भी चतरा !   
खेत किसान, हलवाहे , मजदूरों की उस बस्ती में वो शायद अकेली पढ़ी लिखी औरत थी । पाँचवे दर्जे तक पढ़ी लिखी थी । हर लिहाज़ से निपुण ! उसका  घर हमेशा साफ़ सुथरा होता , चबूतरा हर हफ्ते गाय के ताजे गोबर से लीपा होता ।
दो बच्चे थे जो हमेशा साफ़ सुथरे रहते , कड़ाके से कड़ाके की सर्दी में भी बच्चों की नाक बहती किसी ने ना पाई । बच्चे बड़े सम्बधियों को 'जी ' लगा के सम्बोधित करते,बच्चों में माँ के सद्गुणों की छाप साफ़ साफ़ झलकती थी । दो दो बच्चे जनने के बाद भी उसका जोबन अभी तरुणाई में ही जान पड़ता था । लम्बी पोर थी , कतई सुगढ़, एक एक अंग साँचे में ढला हुआ ।


मंझले  कद का मजबूत हाड रघवंशा जिंदादिल इंसान था । बड़ा ही दिलदार  और अपनी बीवी का सच्चा आशिक । वो मूड में होता और घर में बूढी माँ ना होती तो कभी कभी सरसों के तेल से ससिया के बालों में चम्पी भी कर देता ।सम्मोहन से बंधा कहता ' ससिये तुझे बुढ़ापा ना चढ़ेगा कम्बक्त , रोज रोज नई नवेली सी लगै है !'
फिर कहता ' भगवान् , बुद्धिया काका कू स्वर्ग में जगह दीजो , जिन्होंने ससिया से मेरा मेल मिलाया !'
ससिया अपने दिलदार की बातों पे बड़ी देर तक खिलखिलाती रहती । बिना त्यौहार के ही खीर पूड़ी बना डालती । बक्से  में रखी नयी ओढ़नी निकाल पहनती , मटकती । छम छम करने वाली पाजेब पहनती ।मौहल्ले की औरतो को बिना बात टोक रोक लेती , उनसे बतियाती ।

एक चांदनी रात को छत पर लेटा रघवंशा जब दिलदारी के मूड में था तो ससिया ने उसके सीने में हल्का सा मुक्का मार कहा था "सुनो जी , सुनो हो क्या । अपने कुंडल बदल नए ढाल(डिज़ाइन)के कुंडल लेने का मन है मेरा। "
और दिलदार ने बीड़ी का जोरदार कश मार, दिल खोल वादा किया था कि उस साल की फसल का गेहूँ बेच सबसे पहले अगर कोई काम होगा तो वो होगा ससिया के नए , भारी सोने के कुण्डलों की खरीददारी!
वादा कर दिलदार ने अधजली बीड़ी जबरन ससिया के होठो से लगा दी थी । ससिया नखरे करती थी , बीड़ी के धुंए भर से भी उसे एलर्जी थी पर अपने आदमी का मन रखने को वो एक दो दम खींच लेती थी !
 
 वो साल किसानो की आजमाइश का साल बनकर आया था  । दो दो जेठ मास  वाला साल था उस बरस । मतलब दोगुनी लंबी तपत , लम्बा सूखा । लम्बी गर्मी में ज्वार, बाजरा,मूंग दलहन सब फसल सूख चले थे । दुधारू गाय जो एक महीने  पहले बाल्टी भर दूध देती थी अब एक लोटा भर देती थी ।

किसान का प्यार , उसका व्यवहार बहुत कुछ मौसम , पानी और फसल पर निर्भर हुआ करता है । ज्यों ज्यों सूखा लम्बा खिचता गया  , रघवंशा का मूड भी उखड़ा उखड़ा रहने लगा । अब वो खाने पीने में नुक्स  निकाल देता । बच्चों को छोटी छोटी बातों पे झिड़क देता । प्यार की रों  में बहकर कही कुण्डलों वाली बात पर उसका ध्यान भी ना रहा । ऐसे में ससिया रघवंशा को उसका वादा याद दिलाये भी तो कैसे ? परिस्थितियाँ अनुकूल ना बैठती थी ।
फिर ऐसा हुआ कि दूसरे जेठ की एक भरी दुपहरी में दो सुनार आ गए कही से । पोटली वाले सुनार!
कुछ अजीब से ही थे वो सुनार । भला कोई फेरी लगा के भी सोने के गहने बेचता है क्या ? पर वे सोने के नए गहने बेचते भी ना थे । बेचते तो खरीदता कौन? सोने के  लेनदेन में भरोसेमंद आदमीं का होना जरूरी होता है ,जिसका अपन टिकाऊ स्थान हो । चलते फिरते से कौन करेगा सोने का लेन देन ।  
वो सुनार इस बात को जानते थे । उनका काम बड़ा साफ़ और सीधा था । वो तो बस घर में रखे पुराने गहनों को पिंघला कर हाथोहाथ नए आभूषण ढालने वाले सुनार थे । पूरा काम गहनों के मालिक के सामने करते थे , सो हेरा फेरी की कोई गुंजाईश ही ना थी । उन्हें तो बस अपनी मेहनत के पैसे या अनाज की दरकार होती थी , वो भी काम पूरा होने के बाद । 

ससिया कुछ झिझकी तो , पर खुद को रोक ना सकी । फिर वो मुए ज्यादा कुछ मांग भी कहाँ  रहे थे । बस धड़ी भर (5 किलो ) गेहूँ मेहनत मज़दूरी के!
बात तय हो गयी और नीम के पेड़ तले पैर पसार वो सुनार ससिया के कुंडल ढालने लगे ।  मुँह से साँस फूखने की नली , छोटी सी धातु पिंघलाने की ढिबरी  और महीन हथोडियों के सहारे ससिया के पुराने कुण्डलों के ढाल बदले जाने लगे । ससिया बहुत खुश थी , रघवंशा जिस काम के लिए शहर जान चाहता था , ससिया उस काम को बड़े ही सस्ते में निपटाने को थी ।

घंटे बीत गए । सुनार बड़ी तन्मयता से अपना काम करते रहे , डिज़ाइन बनते , फिर बनते बनते बिगड़ जाते ।
कभी सोने के तार का बड़ा सजीला सा पीपल के पत्ते जैसा ढाल बन जाता फिर एक दो गलत चोट के चलते तिरछी नाव सा हो जाता । सोने का काम बड़ा बारीकी का होता है , उसमे सब्र  चाहिए होता है ।
घंटो बीत गए , झुकमुका सा होने को आया पर काम पूरा ना हो सका ।
आखिर चेहरे पे संकोच लिए एक सुनार बोला " सुनो चौधरन , काम तुम्हारा थोड़ा टेढ़ा है , माफ़ करना , आज पूरा ना हो पाएगा । कल आके करते है बाकी । "
ससिया झुंझलाई तो बहुत पर करे तो क्या करे । उसने खुद अपनी आँखों से सुनारों को लगातार , बेहिसाब मेहनत करते पाया था । उसने कागज़ के एक पर्चे पर उन दोनों सुनारों के नाम पते लिखाए । बिगड़े सोने के कुण्डलों को सही भार के लिए तुलवाया । और बिना कोई मेहनताना दिए दोनों को सुबह आने की हिदायत दी ।

सुबह हुई , सूरज चढ़ आया । इंतज़ार करते करते दुपहरी ढलने को हुई पर सुनार वापस ना आये । ससिया बदहवाश , करे तो क्या करे ।
उसे रघवंशा को पूरी बात बतानी पड़ी । रघवंशा तो सुनके अवाक रह गया , उसे कुछ अनहोनी का आभास हुआ । कुंडल लिए, साईकिल उठाई और कसबे के जाने पहचाने सुनार के यहाँ भागा । शाम होते होते पूरे गाँव में खबर फ़ैल गयी कि दो ठगिए आये थे और चतरा से सोना ठग के चम्पत हो गए ।
उन जालिमों ने काम भी बड़ी सफाई से किया था , पूरे समय ससिया सामने ही बैठी रही । उसकी आँखो में धूल झोंक वे सोना गला के उसकी जगह पीतल भर गए । शोर हो गया, घनी होशियार , रघवंशा की चतरा लुट गयी  !


रपट दाबे हुए , आस पास के इलाके में ठगियों की ढुंढवार  हुई पर सब बेकार गया ।
रघवंशा आग बबूला सा फनफनाता फिरता और उसकी माँ की जीभ ऐसे चलने लगी जैसे गर्मी में बिलबिलाती सर्पिणी ।शामत आ गयी ससिया की । रघवंशा रोज रात को उसे गालियाँ भकोसता, पूरी भड़ास निकालता । पूरे  दो तोला  सोना लुटवाने का उसे जिम्मेदार ठहराता । वो बेचारी माफ़ी मांगती तो और भी ज्यादा गाली देता ।
ससिया  बेचारी ना खाती न पीती बस दिन भर अनसन पाटी लिए पड़ी रहती , अपनी किस्मत को कोसती ।
आग कभी बुझने को होती तो सास कोई न कोई पतंगा जरूर छोड़ बैठती । महीना भर होने को चला , घर का कलेश काम न हुआ ।

ससिया को सोना लूट जाने का दर्द तो था ही पर उससे भी ज्यादा दर्द था अपने दिलदार के रूठ जाने का । दिन रात आसूँ बहाने पे भी जालिम का दिल न पसीजता था । कभी अपनी बिहाता आगे पीछे चक्कर काटने वाले रघवंशा ने कैसा पत्थर रूप धर लिया था ।

पर स्थाई कुछ भी तो नहीं है इस दुनिया में , दुःख की अँधेरी भी आखिर कभी तो छंटती ही है ।
जेठ उतरे एक दिन पूरब की ओर से जोर का बादल उठा  और बड़ी ही घनघोर बारिश लाया । पूरा दिन मोटे मोटे रस्सों सा जल बरसा । जंगल हरा भरा हो गया । किसानों की बाछें खिल गयी ।
रात को हलकी मल्हारें चलने लगी , बड़ा ही सुहाना मौसम था  ।

रघवंशा ने बरामदे में लेटे लेटे टेर लगाई " अरी ओ माँ , बीड़ी पीना चाहवे है क्या ? लगाऊ बीड़ी तेरी खातिर। "
बुढ़िया खर्राटे मार सोती रही ।

बारिश की उस रात में रघवंशा से रहा न गया । थोड़ा हिचक के बोला
" जगै है क्या ससिया , बालक सो लिए  हो तो  बरामदे में आजा , देख तो क्या अच्छी मल्हार बरसा रहे राम जी ।बड़ी अच्छी पुरवाई  चलै है आज !"

मौसम की पहली बारिश ने धरती का कलेजा तो सींचा ही था , किसान का कलेजा भी खोल दिया था ।
अपने महबूब के सीने पे सिर रखकर देर तक सिसकती रही ससिया ।
 महीनो बाद चैन की  नींद सोने की रात आई थी । पर उस रात  सोना कौन कम्बक्त चाहता था ।  रघवंशा ने अपने चिर परिचित अंदाज में बीड़ी का जोरदार कश खींचा तो ससिया ने उसके थूक में सनी अधजली बीड़ी को छीन अपने होठों से लगा लिया ! कुण्डल भले ही ना वापस मिले हों ,पर ससिया का दिलदार वापस लौट आया था !


                                                                                                -- सचिन कुमार गुर्जर



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