सोमवार, 16 मई 2016

गिरगिट के शिकारी

अभी परसों की ही तो बात है ।चार पांच बच्चे थे। बड़े ही छोटे छोटे , मासूम से ।
सबसे बड़ा  यही कोई नौ या दस साल का होगा। पतला था  , लंबी निक्कर पहने, आधी बाजू शर्ट थी पुरानी सी , सिकुड़ी हुई । और सबसे छोटा तो बमुश्किल पांच साल का ही हुआ  होगा , बड़ा ही मासूम , शर्मीला सा।
उन सभी के हाथो में ताज़े कटे यूकेलिप्टिस के डंडे थे , कोई दो दो हाथ भर के डंडे ।
भरी दुपहरी में उन्हें खेतों  के कोरे  छूती काले डामर की सड़क के किनारे  झुण्ड सा बना जमीन को घूरते पाया तो जिज्ञासावश पूछा " बालको क्या कर रहे हो, भरी दुपहरी अपना बदन क्यों फूँके जाते हो । कोई छाव तले जा खेलो।"
बड़े लड़के ने नज़र ऊपर उठाये बगैर ही जबाब दे दिया " कुछ नहीं , बस ऐसे ही ।  "
पास जाके के देखा तो हक्का बक्का रह गया " दो गिरगिट लहूलुहान डामर की सड़क के किनारे पड़े थे । दोनों मजबूत सरकंडों से बिंधे हुए । एक के प्राण उड़ चुके थे और दूसरा सरकंडे में बिंधा आखरी साँसे लिए पैर पटक रहा था । 
मैंने  बच्चों  की आँखों में बारी बारी से देखा । वो सब इतने छोटे थे कि खोज के भी मैं उन आँखों में मासूमियत के सिवा कुछ और न खोज पाया । नफरत का मुलम्मा चढ़ने में  अभी सालों लगेंगे वहाँ।
" क्यों  रे बालको, ये किस तरह का खेल है । छी छी । इतना घिनौना काम !  
बताओ क्यों मारा इन बेचारो को , हम्म?" आहत मन पूछा ।

बड़ा ही बोला इस बार भी " कुछ नहीं , बस ऐसे ही ।"

थोड़ी झुंझलाहट हुई अबकी बार " ऐसे ही कैसे ? खाओगे इन्हें भूनकर ? गीधीया जात हो ? "
" अंह  हुं  , ना ना " उनमे से एक बोला ।
" गिरगिट हमारे दुश्मन है! "

"दुश्मन ? किसने बोला । किसी बड़े ने बोला ऐसा?" मैंने टटोलना चाहा ।
" हाँ , नहीं तो हम फ़िज़ूल क्यों मारते इन्हें । " जबाब हाज़िर था ।
बच्चे ज्यादा साक्षात्कार के मूड में ना थे सो निकल लिए और मैँ  तजती दुपहरी में खेत किनारे लगे युकेलिप्तिसों के बाड़े की छाँव में बैठ गया ।

नया तो नहीं है ये व्यवहार वैसे  , याद आ पड़ा  । आज जहाँ से ये पक्की डामर की सफ़ेद धारी  वाली सड़क गुजर रही है ना , कभी ऊँचे,  रेत के टीले उगे थे वहाँ  । इतने ऊँचे टीले कि गाँव के जमींदार की  हवेली की  दुमंजिली भी नाटी जान  पड़ती थी । बंजर था सब , रास्ता संकरा था किसी सर्प की पूँछ जैसा , रेतीले टीलों टीलों के बीच से रेंगता हुआ  । 
रास्ते के किनारे बबूल के झाड़ो के झुरमुट हुआ करते थे । बंजर में कांटे ही उग पाते थे बस । 
तब स्कूल से लौटते हुए कई बार कुछ बच्चों के झुण्ड दिख जाते थे  , जो उन बबूल के  झाड़ों पे  बेहताशा पत्थर  बरसाया करते थे ।  हमारी बच्चा टोली उन्हें कई बार रोकती भी थी , पर वो बोलते थे कि गिरगिट गुस्ताख होते है , मुसलमानो के दुश्मन होते है !
 हमारा हत्या विरोध आधा अधूरा होता था तब , चूँकि गिरगिट की मुसलमान बच्चों से दुश्मनी तो जाहिर थी लेकिन गिरगिट के हिन्दू मित्र होने का कोई किस्सा हमारे बालमन के संज्ञान में नहीं था!
लिहाज़ा गिरगिट का क़त्ल हो जाना लाजमी थी , लगभग निर्विरोध । संवेदनशील होने की कोई वजह नहीं !

किसी बड़े समझदार आदमी से पूछा भी था एक बार " ये गिरगिट की हत्या का सिलसिला क्यों है ?"
जबाब मिला था " किसी गिरगिट ने गुस्ताखी की थी।  "
बस इतना ही । इससे ज्यादा ना बताया गया , ना ही आगे पूछा गया । 
वैसे भी धर्म पे मौन बेहतर है , मामला संवेदनशील हो जाता है ।


इलाके के एक छोटे नेता की स्कार्पियो आकर रुकी खेत के कोने पे । जान पहचान के है , सत्तारूढ़ पार्टी से है , अच्छा खासा  रुतबा है आस पास के इलाके में । 
रुक गए , हाथ उठा अभिवादन हुआ , छाँव से उठ सड़क तक जाना पड़ा । 
" पिता जी कहाँ  है आपके आजकल । बोलो उनसे , घर के काम के साथ साथ थोड़ा समय संगठन , सम्बन्धो के लिए भी रखें । " नेता जी ने बड़ी आत्मीयता  के साथ बोला । 
फिर बोले "खुशनसीब हो , सड़क चौड़ी हो गयी है , बदलाव की हवा बह चली है , अपना इलाका तरक्की की ओर  है , है कि नहीं ? "
" सो तो है । " जबाब सूक्ष्म ही रख मैंने । 
" ये सरकंडे का बाड़ा फूंक डालो अब । और ये  जेई,  बाजरा  छोड़ो । सड़क किनारे का खेत है , दुकाने चिनवा दो , देखना मार्कीट बन जाएगी जल्दी ही । बदलाव बहुत तेज़ी पे है मियाँ , जमाने  की नब्ज समझो , रफ़्तार पकड़ो । " हितैषी हो उठे नेता जी बोले  !
उनकी हर बात का समर्थन ही किया मैंने ।नेता जी निकल गए छोटा सा उपदेश दे , अपनी हिमायत का सीमेंट जमा के !

 सोचा , बदलाव  तो बहुत तीव्र है सचमुच । पर बहुत कुछ है जो बदल जाना चाहिए पर जम जूं सा चिपका बैठा है । झाड़ में छुपे गिरगिट अब  भी मारे जा रहे है ।  इक्कीसवी सदी के सन २०१६ में भी !

                                                                                                       -- सचिन कुमार गुर्जर  




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