सोमवार, 23 मई 2016

रेलवे की नौकरी

भंगी बस्ती से बुलवाए गए ढोल वाले थाप लगाते हुए सजीली सी घोड़ी के आगे आगे चले जा रहे थे ।जयदेव का बड़ा लड़का जित्तू घोड़ी पे सवार चला जा रहा था, पीछे पीछे उसका पूरा कुनबा , अगड पडोसी ।  पतली नाक, पिचके गालों वाला जित्तू यूँ तो हमेशा गाँव की गलियों में आसमान की ओर ताककर चला करता था , पर उस दिन घोड़ी की पीठ पे डरा डरा सा सवार जित्तू गाँव के हर छोटे बड़े को दुआ सलाम ठोकता चल रहा था ।सफलता थोड़े समय  के लिए ही सही,  आदमी को विनयशील , मृदुल और सबका धन्यवादी बनाती है । 

देसी मसालेदार बसंती के पउवे की हुनक ज्यों ज्यों ढोल वाले भंगियों पे सवार होती वो उतनी ही जोर से ढोल पे भंगड़े की थाप लगाते ।  पूरा गाँव खुश था । उस पट्टी में कुल तेरह गाँव थे , मास्टर थे , सरकारी चपरासी थे कुछ प्राइवेट फर्मो में काम करने वाले थे पर रेलबाई की शाही नौकरी पहल पहल जयदेव  के लड़के के नसीब ही आई थी ।

सिर्फ  दो आत्माएं दुखी थी एक लखपत और उसका बेटा धनपाल ,जो कई साल से रेलबाई की नौकरी को कोचिंग कर रहा था । लखपत जश्न का जुलुस देखने घर के बाहर तक भी ना आया था । भैंस के आगे से रात के चारे को साफ़ करता हुआ झुंझलाता हुआ बडबडाया " गू खाने है ससुरे , किस्मत की चार बूंदे क्या बरस पड़ी , छोटी तलैया से उफन पड़े । अरे लौंडा , रेलबाई में क्लर्क ही हुआ है ना , कौन सा जज कलक्टर बन गया , जो ढोल मंजीरे पीटे जा रहे ससुर के नाती !"


धनपाल और जित्तू बहुत अच्छे दोस्त तो ना थे पर  ठीक ठाक सा मेलजोल तो था  ही । दोनों एक दूसरे से अपनी सरकारी नौकरी पाने की जद्दोजहद साँझा किया करते । धनपाल जित्तू  से पढाई लिखाई में थोड़ा सा सवाया तो था ही और धनपाल का बापू लखपत जित्तू के बापू जयदेव  से कही ज्यादा अकलमंद था । ऐसा सब जानते थे और सब मानते थे । 

जयदेव कोई बुरा आदमी ना था , सबका भला ही चाहता था । उसे जैसे ही पता चला कि रेलबाई के इलाहाबाद  बोर्ड में क्लर्की में जुगाड़ की धाँस फँस सकती है उसने लखपत से बात की थी । दस लाख में ठेका छूट रहा था उस साल ! बिचौलिया लिखित परीक्षा से लेकर इंटरव्यू तक की गारंटी दे रहा था , सिर्फ १० लाख में !
पाँच लाख  काम होने से पहले और पाँच काम होने के बाद !

" काम होगा इसकी क्या गारंटी है जयदेव , हम किसान लोग है , पाँच लाख की चपत लगी तो कमर जनम भर सीधी ना हो सकेगी । " अपनी परचून की दुकान के चबूतरे पे बैठे लखपत ने बड़े सोच विचार के बाद ये बात कही थी । फिर अपनी छज्जेदार मूछों को अपने अंगूठे और ऊँगली से चौडाते हुए बोला " अपनी बस्ती या आस पास का कोई आदमी हो तो जरूरत पड़ने पे हम हलक फाड़ पैसा खींच लेते , पर ये इलाहाबाद में कौन जान पहचान है भैय्या  , वहाँ का तो कुत्ता भी हमे रपटाय धरेगा । कोई और मौका तलाशेंगे , जरा धीरज धारो । "

उस दिन के बाद से जयदेव और लखपत के बीच रामा किसना तो कई बार हुई, इस बात को लेकर कोई चर्चा ना हुआ । आज ढोल की थाप सुनके ही लखपत के कान बजे , जयदेव का लगाया दाँव सही पड़ गया था ।


ऐसा नहीं था कि लखपत ने कुछ कोशिश ही ना की हो । लड़के की काबिलियत पे उसे तिल बराबर भी भरोसा ना था , जो की सही था ।उसके हिसाब से लम्बे कद के जित्तू के दिमाग में भूसा भरा था निखालिस , थोड़ी बहुत अकल उसके घुटनो में ही थी जो उसने बचपन में ही साईकिल सीखने के दौरान पक्की सड़क पर घिस दी थी ।

एक सफ़ेद कुर्ताधरी के साथ लखपत कई बार पैसो का झोला ले लखनऊ में शिवपालगंज तक गया था । शिवपालगंज के बारे में ये मशहूर था कि अगर आप वहाँ गए और वहाँ आपका चढ़ावा मंजूर हो गया तो काम होके ही रहता था ।पर धनपाल नाम का ही धनपाल था बस , उसकी किस्मत खोटे सिक्के जितनी भी ना चलती थी , हर दाँव फेल हो जाता था ।
समय बीतता गया , जितुआ ने  रिश्ते की नयी मारुति स्विफ्ट पे बड़ा बड़ा  'रेलवे विभाग ' लिखा लिया था ।  बिना कुछ कहे ही वो लखपत धनपत के कलेजो में जलन का चौंक लगा जाता ।

फिर एक दिन शाम के चूल्हा चौका के वक़्त लखपत के कच्चे दुमंजिले के ऊपर जोर की धमाकेदार आवाज़ हुई "धायँ धायँ !"चबूतरे पर  बैठे इधर उधर की चुगलबाज़ी कर यूँ ही टाइम फोड़ रहे गाँव वाले चौककर उछल पड़े , कोई बोला " तमंचे  का फायर  हुआ है  ये तो , लगता है लखपत  ने अपने लड़के का रिश्ता ले लिया आज!"
कोई दूसरा बीच में ही काट बोला " कौन करेगा उस निकम्मे का रिश्ता , वजह कुछ और है । "

खबर पछैदी  हवा की आग की तरह पूरे गाँव में फैल गयी  थी । लखपत का लौंडा धनपत रेलबाई में टी टी ई हो गया था वो भी बिना कोई रिश्वत!
परिवार के लौंडो ने  ख़ुशी के जश्न में डी. जे. बजवाने की कोशिश की थी तो लखपत ने डाँट दिया " खबरदार जो किसी ने भी कुछ शोर शराबा , रौला किया तो । दिखावे के काम औछे इंसानो का हुआ करै है । चुपचाप लड्डू खाओ और अपने काम धंधे से लगो । "

पन्द्रह दिन के  भीतर ही धनपत अपना सामान बाँध नौकरी की ट्रेनिंग पे इलाहाबाद  निकल गया था । उसके बाद वो कभी कभार ही गाँव आता । छुट्टी ही कहाँ मिल पाती होगी बेचआरे को !

जित्तू जब कभी गाँव आता तो धनपत की टोह जरूर लेता । बरेली के स्टेशन पे उसकी ड्यूटी हुआ करती थी ।
धनपत को उसकी बातों में कोई रूचि न होती पर जित्तू उसके सामने रेलवे विभाग की छोटी बड़ी बातें जरूर बांचता ।एक बार उसे रास्ते में  टोक बोला  "  सुना है दो नकली टी टी ई धरे  गए है , शाहजहांपुर स्टेशन के पास से । दोनों लम्बे समय से ट्रेनों में अवैध वसूली करते आ रहे थे । "

" अच्छा , दुनिया है इसका नाम भैय्या । रोजी रोटी को कुछ ढोंग भी रचते है " इतना कह धनपत निकल लिया था ।


एक बड़े धनाढ्य परिवार से रिश्ता आया तो लखपत ने बिना वक़्त गवाएं हामी भर ली । लड़की वाले  ने चेताया भी " भाई साहब , एक बार लड़के की भी रजामंदी हो जाती तो हमारा मन तसल्ली पकड़ लेता ।
फिर हम ऐसे कोई पुरातन पंथी भी ना है , लड़का लड़की को देखने की चाह रखता हो तो हमे कोई गुरेज़ नहीं।  "
सुनते ही लखपत ताव में आ गया " भाईसाब , लड़का टी.टी. ई  हो जाए या कलक्टर , आज भी जहाँ लकीर खींच दूँ , पार करने की हिमाकत न करेगा । संस्कार भी कोई चीज हैं , मानों हो या ना ?"

दहेज़ में लोहा प्लास्टिक लेने से लखपत ने साफ़ इंकार कर दिया था । उसके उसूलो के हिसाब से ये सब औछा दिखावा करने वाले करते है । जब रिश्ता चढ़ा था तब धनपत को गोद में रखी सफ़ेद स्टील की बड़ी परात में इतना रुपया रखा था कि गाँव वालों  की आँखों के गुल्ले बाहर आने को हुए ।
" नगद आये है जी पच्चीस लाख रुपए ।  सोने की चैन लड़के के लिए और उसकी माँ के लिए भी !" गाँव के पंडित के घोषणा की थी ।बहुतों के मुँह में पिंघलते लड्डूओं का स्वाद कड़वा हो गया था एकदम से , इतनी बड़ी रकम सुनकर !लड़की वालो ने लखपत का घर लाखों से भर दिया था ।

'चट मंगनी पट बिहा' के पैरोकार लखपत ने एक माह के अंदर अंदर बिहा का सारा काम निपटा दिया । उसके बाद लखपत के घर काम इस कदर फैला जैसे बरसों से अटकी कोई सरकारी परियोजना का होता है किसी नए योग्य मंत्री या अधिकारी के आने से। मकान पर पक्की दुमंजिली चढ़ गयी ।  हैंडपंप की जगह समरसेबिल का पंप लग गया । चबूतरे को काट बीचो बीच भविष्य में आने गाडी के लिए स्लोप बन गया ।
परचून की फुटकर दुकान अब थोक की बड़ी दुकान बन गयी । अंग्रेजी सीट वाली लैट्रिन लग गयी । 

फिर ऐसा हुआ कि शादी के यही कोई दो महीने बाद धनपत के पैर में  बाय का बड़े जोर का दर्द उभर आया  इतना जोर दर्द कि उसने खाट पकड़ ली , जंगल पानी को डंडा ले उठता था ।
बीमारी के चलते धनपत को लम्बी छुट्टी लेनी पड़ी , जो महीने दर महीने आगे खिसकने लगीं ।

 ऊँची चौपाल  के सामने से लंगड़ाते हुए गुजरते धनपत को झुण्ड में बैठे एक काका ने रोक लिया एक दिन " क्यों बेटा धन्ना , हकीम के काढ़े का कुछ असर हुआ कि नहीं । अभी भी टांग में लंग दिखता है । "
" हाँ काका , सुधार तो है , पर तुम जानो ही हो ,टी टी ई के काम में घंटो ट्रेन में खड़ा होना पड़ता है , उस लिहाज़ से टांग में अभी बल नहीं दिखता । " फिर गहरी साँस ले फिक्रमंद हो बोला  "भगवान् ही जाने, ये टाँग कब तक ठीक होगी । "

उसके आगे बढ़ते ही जयदेव ने बीड़ी का कश बड़ी जोर से खींचा और भविष्यवाणी करते हुए बोला " तेरे पैर का दर्द कभी सही ना होगा लल्ला , ये बात हमको जँच गयी है "

धनपत वल्द लखपत सिंह नाम का कोई भी नया, पुराना टी टी ई इलाहाबाद खण्ड तो क्या पूरे उत्तर रेलवे में ना था ! ये बात बड़ी खोजबीन के बाद जित्तू ने अपने बापू को बताई थी ।

                                                                                     --- सचिन कुमार गुर्जर

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