शुक्रवार, 29 जून 2012

प्यास

बात जून 2006 की है । गर्मी अपने पूरे शबाब  पर थी । लू के थपेड़े तन बदन को झुलसा रहे थे ।
सूर्यदेव अंगारे बरसा रहे थे ,मानो इंसानों के सारे पापो का बदला समस्त  सृष्टि को जला कर लेना चाहते हो । धरती सुलग रही थी , जनमानस व्याकुल था । दूर दूर तक आसमान में बादल की एक थेकली  तक न थी ।
 
सप्ताहांत की छुट्टियाँ  काट कर मैं  दिल्ली लौट रहा था ।
कंधे पे बैग लटकाए मुरादाबाद के सरकारी बस अड्डे के द्वार पे दिल्ली जाने वाली बस का इन्तेजार कर रहा था ।खैर बस आई । उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बस ।  टूटी फूटी जर्जर अवस्था में । कराहती , हिचकोले खाती आधे अधूरे मन से निकास द्वार पे आकर खड़ी  हो गयी ।
बरसो से बेचारी बिना किसी मरम्मत , बिना किसी आराम  आदम जात की सेवा में लगी थी ।
बेचारी की हालत देखकर दया आती थी , पर फिर सोचा निष्प्राण है सो भावनाओ का क्या मतलब ।

लपककर मैंने खिड़की वाली सीट हथिया ली । इतनी भीड़ को चीरकर बस की सीट हासिल करना किसी ट्राफी से कम नहीं होता ।
सामने की  सीट पे एक एक बुजुर्ग देहाती दम्पति बैठा  था । उनके साथ दो छोटे छोटे बच्चे थे । पोता पोती रहे होंगे । सफ़ेद टेरीकॉट का नील लगा कुरता , दुधिया सफ़ेद फेट वाली  धोती , पैरो में चमड़े के नौकदार जूते पहने दादा को देखकर किसी स्वतंत्रता  सेनानी की याद आती थी , मानो  गाँधी जी के कोई निकट अनुयायी अभी अभी किसी स्वतंत्रा  संग्राम के संभासन से लौट रहे हो ।

अब बच्चो की मनोवृति तो आप जानते ही है । बस अड्डे पर बस खड़ी रही तब तो कुछ न बोले ।
ज्यों  ही बस ने अड्डे से बाहर आकर ट्रैफिक  के साथ रेंगना शुरू किया , पोते ने पानी पीने की जिद पकड़ ली ।
दादा ने समझाया । बस अड्डे पर क्यों नहीं बोला , ऐसा कहकर लताड़ा भी ।
पर बालमन क्या जाने लताड़ । उसका मकसद पूरा होना चाहिए । पानी की जिद पकड़ ली ,बच्चा सुबकने लगा ।
घने ट्रैफिक में फंसी  बस , अड्डे से कुछ दूर आगे खिसककर  थम गयी।
चलता फिरता रोजगार का अवसर देख खीरे , चने ,मूंगफली वाले बस की खिडकियों पे ग्राहकों को रिझाने लगे ।अचानक बुजुर्ग दम्पति की खिड़की पे पानी की ठंडी बोतल लिए एक  इकहरे बदन के युवक ने आवाज दी । उसने बगैर पूछे ही एक पानी की ठंडी बोतल बुजुर्ग के हाथ मे थमा दी ।
प्यास से बिलखते बच्चो को मानो अमृत मिल गया हो । बच्चो की दादी ने पानी पिलाने वाले युवक के लिए दुआओ की झड़ी लगा दी । एक सांस में ही  लम्बी उम्र से लेकर सुखद दाम्पत्य जीवन और संतान सुख तक की दुआए  कर डाली ।

पानी की बोतल थमा युवक अपने नए ग्राहकों की तलाश में बैगर कुछ बोले ही पीछे वाली खिडकियों पे बढ़ गया ।बच्चे जब ठन्डे पानी की अमृतधारा गटक चुके , तो दादी ने पानी की खाली बोतल अपने पास सहेज के रख ली और युवक के वापस खिड़की पे आने का इंतज़ार करने लगी ।
रह रह अपनी पूरी आत्मा से युवक को आशीष देती जाती । देहाती लहजे में अपने पति से बोली ' खैर कुछ भी कहो , अच्छे , समाज सेवी लोग आज भी है । बेचारा कैसी कुपहर दुपहरी में पुण्य का काम कर रहा है "

खैर पिछली खिडकियों पे आमद कर युवक दादा दादी की खिड़की पे लौटा । इससे पहले की कुछ कहता , बुढ़िया ने खाली बोतल खिड़की की ओर बढ़ा  दी ।
 'क्या  करू में इसका , अपने पास रखो , और सात रूपये निकालो जल्दी से ।'
 'सात रुपए , पानी बेच रहा है क्या ?' दादा की आँखे अचरज से फ़ैल गयी ।  पानी बेचने का विचार दादा को हजम न हुआ ।

' भले मानस , पानी भी कोई बेचने की चीज़ है । ऐसे ही पिलाओ लोगो को , शबाब का काम है आशीष मिलेगा ।'
'कुछ और काम करो भैया "

वो पानी बेचने वाला युवक दादा पे बिफर उठा ' ताऊ , पहली बार गाँव से बाहर निकले हो क्या , कौन सी दुनिया में रहते हो, सात रुपये निकालो फटाफट  ,आ जाते है न जाने कहाँ कहाँ से '।

' अरे भैया , पानी बेच रहा है या दूध ? है जी बताओ , कतई कलयुग ही आ गया, राम जी के यहाँ हिसाब देगा कि  नहीं   '  दादा ने मेरी ओर देखते हुए, समर्थन बटोरने की आस में , ऊँची आवाज़ में कहा ।


मैं भला क्या कहता , सचमुच दादा दादी किसी दूसरी दुनिया में जी रहे थे , जो शायद एक दो दशक पहले तक बसती  थी ।
वो दुनिया जहाँ पानी पिलाना व्यवसाय  नहीं हुआ करता था , लोग ये शुभ काम पुण्य पाने को करते थे ।
शहर के रईस अपने नाम से सार्वजनिक प्याऊ  लगवाया करते थे । द्वार पे आये दुश्मन को भी पानी के लिए पूछ लिया करते थे । पानी बेचकर मुनाफा कमाने का विचार तो जन मानस पटल के किसी कोने में भी न था ।

वो  पानी का व्यवसायी युवक सात रुपए  लेकर ही खिड़की से टला ।
 हाय री आधुनिकता की अंधी दौड़ , पानी जैसी मूलभूत चीज़ भी बोतलों में बंद हो गयी ।
रेंगती , खटखटाती  उत्तर प्रदेश परिवहन की हमारी बस शहर के छोर  पे गांगन  नदी के पूल  के ऊपर आ पहुंची ।
खिड़की के बाहर  झाककर देखा , नदी के नाम पर एक काले , बदबूदार पानी की एक पतली रेखा दोनों सिरों
पे बसे आदमजात के  बेहतरतीब घरोंदो के बीच सिसकती हुई दम तोड़ रही थी ।दादा ने जेब से निकाल कर एक  रूपए  का सिक्का अपने पोते पोती के ऊपर से घुमा कर नदी में फेक दिया ।
दम तोडती  गांगन  कुछ न बोली । अब उसमे आशीष देनी की छमता  न थी ।
मानव बलात्कार की पीड़ा लिए , जीवन चक्र से मुक्ति की आस लगाये ईश प्रार्थना में लगी रही ।

जीवन रस पानी को  मानव मूल का निशुल्क अधिकार समझने वाली विचारधारा, परंपरा  ऐसे दादा दादियों  के साथ जीवन के आखिरी पहर में है ।
जनसंख्या दबाब , प्रदूषण , लालच ,पानी के स्वछ ,निशुल्क ,सर्वुप्लाब्ध्य होने  पर प्रश्नचिन्ह  लगा  चुके है ।






 
 





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