शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

जनसँख्या पर चुप्पी क्यों ?



हर साल की तरह इस बार भी ११ जुलाई  को विश्व जनसँख्या दिवस आया और चला गया |
अखबारों के पिछले पन्नो पर कुछ छोटे मोटे लेख छपे , कुछ खबरे छपी , कुछ तस्वीरे प्रकाशित हुई | पर कोई बड़ी हलचल ना हुई |
दूसरी  बड़ी खबरे, जिनसे आदमजात रूबरू है , सुर्खियों में छाई रही |

मन व्यथित होता है अपने देश के कर्ताधर्ताओ , बुद्धिजीवियों , समाज सेवी संगठनो  के दोगले व्यवहार पर |
इतनी बड़ी समस्या से इतनी ज्यादा बेरुखी | क्योंकर  सब के सब आखे मूँद दूसरी उधेड्बुनो  को सुलझाने में लगे है , जबकि सभी विकराल रूप धारण करती समस्याओं के मूल में कही ना कही  बेहताशा बढती आबादी का सीधा हाथ  है, योगदान है |

मैं पूरी दुनिया की बात नहीं करता | दुनिया बहुत बड़ी है , दूसरे देशो की अपनी अपनी प्राथमिकताएं  है , भिन्न समस्याएँ  है |
भारतीय होने के नाते मुझे फ़िक्र है , अपनी धरती से जुडी समस्याओं की और मेरी नज़र में बेलगाम , सुरसा के मुहं की तरह बढती आबादी विकटतम समस्या है |
जरा सोचो , पूरी दुनिया के भूभाग का  ढाई फीसद से भी कम भूभाग है हमारे पास और आबादी है  दुनिया की कुल आबादी का १७ फीसद |
ये सीधा साधा आंकड़ा अपने आप में बहुत कुछ कहता है |  गरीबी , भुखमरी ,कुपोषण , बिजली पानी की  किल्लत ,प्रदुषण ,  जलवायु परिवर्तन  और  ना जाने ने कितनी समस्याए सीधे या घूमफिर कर
इस आबादी के दानव से जुडी है |

पर कौन सा ऐसा शिक्षित , थोडा सा भी जानकार नागरिक है  जो नहीं जानता कि जनसँख्या का ये दानव कही ना कही उसकी रोजमर्रा  की तकलीफों से जुड़ा है |
सवाल ये उठता है कि सब जानकार है तो समस्या निवारण, रोकथाम के कोई भी कारगर कदम क्यों नहीं उठाये जा रहे |

अपने पडोसी चीन का उदहारण ले लीजिये | ५० के दशक में  ही वहां  के दूरदर्शी नेतृत्व ने भाप लिया था कि सम्रद्ध , संपन्न होना है तो इस आबादी के दानव को रोकना पड़ेगा |
नतीजा सामने है , चीन दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जिसने इतने बड़े  स्तर पे परिवार नियोजन प्रोग्राम को मजबूती से लागू किया | चीन की 'वन चाइल्ड पॉलिसी  ' सफल रही |
दिक्कते आई | विरोध भी हुआ | परियोजना में कुछ फेरबदल भी करने पड़े ,पर चीन ने मूल मुद्दे से नज़र नहीं हटाई |

योजना बनाने वालो की कमी भारत में भी नहीं है | ना जाने कब से ' हम दो हमारे दो ' , 'लड़की हो या लड़का , बच्चे दो ही अच्छे ' जैसे नारे  प्राथमिक  चिकित्सालयों  , स्कूलों , सरकारी दफ्तरों की दीवारों की शोभा बढ़ा रहे है |
पर नतीजा , वही ढ़ाक के तीन पात | दूसरी योजनाओ की  तरह ये योजना  भी सरकारी फाइलों में दौड़ती रही , हम अपने राष्ट्रीय मनोरंजन में  मुग्ध आबादी का पहाड़ खड़ा करते चले गये |

अब हम रोना रोते है मुहँ   फाड़ती महंगाई का , सूखते पानी के नलकों का , गर्मी की रातो में गायब बिजली का , महंगे पेट्रोल का | कहां से और कब तक आयेंगे संसाधन |
आखिर क्यों  इस समस्या से लड़ने , जीतने की  इच्छा शक्ति  नहीं दिखाई पड़ती | इसके बहुत से कारण है |

पूंजीवादी व्यवस्था :
आजादी से अब तक के समय में देश की दिशा में जो एक बड़ा बदलाव आया है वो है समाजवाद से पूँजीवाद की तरफ रुझान |यहाँ मैं  समाजवाद की प्रशंसा  नहीं कर  रहा है , किन्तु ये सत्य है कि पूँजीवाद उपभोगताओ की भीड़ पे उपजता , फलता फूलता है |
पूँजी की बढ़ोतरी के लिए चाहिए तैयार माल की ज्यादा  खपत | ज्यादा खपत के लिए चाहिए ज्यादा से ज्यादा उपभोक्ता | और ज्यादा उपभोगताओ का सीधा साधा मतलब है ज्यादा भीड़  |
मतलब जितनी ज्यादा भीड़ , उतना ज्यादा  पूँजी लाभ |
अब भला सोचे , बड़े बड़े पूंजीपति, बड़े बड़े पूंजीवादी संस्थान क्यों चाहेंगे कि इस उपभोगताओ के हुजूम में कोई कमी आये या कोई ठहराव आये |
नतीजन देश के सशक्त, समृद्ध  लोगो की तरफ से कभी  कोई ठोस पहल नहीं की  गयी |

 वोट बैंक की राजनीति :
सही मायनो में अगर लोकतंत्र हो तो उसे तो जनसंख्या रोकथाम से कुछ हानि ना हो , पर जिस तरह की राजनीतिक व्यवस्था भारत में उभर के आई है , उसके लिए तो भीड़ चाहिए  |
जिसके पीछे जितनी ज्यादा भीड़ , उतनी ही मजबूत उसकी पार्टी, उतनी ही मजबूत उसकी गद्दी की उम्मीदवारी |
अब भला नेता लोग क्यों चाहेंगे कि भीड़ कम हो | उन्हें चाहिए भीड़ के हुजूम ,गरीब  , अशिक्षा के अँधेरे में डूबे, जाति धर्मं के आधार पे बटे लोगो के  हुजूम |
जिसका हुजूम जितना बड़ा वो उतना ही मज़बूत |
अब भला कोई सिर फिरा नेता ही होगा जो चाहेगा कि उसके पीछे चलने वाला हुजूम कम हो |
दशको से ये ही सोच है और नतीजा सामने है |

धार्मिक आस्थाएं  , रिवाज ,लिंगभेद,अशिक्षा   :

हम धार्मिक लोग है | धर्म ग्रंथो में लिखी बातें और सदियों से चले आ रहे रीति रिवाजो में हमारी बड़ी आस्था है |
बच्चे ईश्वर की देन है , ईश्वर का आशीर्वाद है | अब भला एक धर्म भीरु इंसान क्यों चाहेगा कि आशीर्वाद में कुछ कमी हो  |
सो लिहाजा लगे है लोग-बाग दोनों हाथो से आशीर्वाद बटोरने में|
उस पर धर्म के ठेकेदार परिवार नियोजन के साधनों के इस्तेमाल को पाप करार देते है |
लिंगभेद भी जनसंख्या बढोतरी का एक बड़ा कारण है | जरा अपने आस पास देखिये , आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो जब तक कन्याये पैदा करते रहते है जब तक उन्हें
घर का कुलदीपक लड़का ना मिल जाये  |
शिक्षा का अभाव आदमी को अन्धानुयायी  बनाये रखता है । ऐसा इंसान परम्पराओं , रिवाजों , कुरीतियों की जंजीरे कभी तोड़ ही नहीं पता ।

धार्मिक आधिपत्य की होड़ :
अलग अलग धर्म , सम्प्रदायों का घालमेल है भारत  |
धार्मिक आधिपत्य ज़माने की एक होड़ सी मची हुई है | धर्म कोई भी  हो , अनुनायियों की भीड़ पे ही फलता फूलता है |
जिस धर्म के अनुयायी  जहाँ ज्यादा तादात में होंगे , उस धर्म के लंबरदारो का उस भूभाग पर  उतना ही ज्यादा वर्चस्व होगा , आधिपत्य होगा |
 अब धर्मं वृधि  के दो ही तरीके हो सकते है धर्म परिवर्तन या फिर जनसँख्या वृधि   |
एक मौन युद्ध सा चल रहा है | अगर आप में जरा सी भी विश्लेषण अवलोकन  क्षमता  है तो आप इस मौन युद्ध के किरदारों और अखाड़ो  को साफ़ साफ़ देख सकते है |
धर्म के पहरेदार कभी नहीं चाहेंगे कि कोई ऐसी नीति बने या जनमानस में कोई  ऐसी चेतना आये जिससे जनसँख्या विस्फोट थमे  |
रीढ़  विहीन  सरकार से इस दिशा में कोई ठोस पहल की उम्मीद  पाली नहीं जा सकती |
चीन समान 'एक बच्चा पॉलिसी '  का परिपालन करना सरकार की बस से बाहर है |
वोट बैंक और वर्ग विशेष के तुष्टिकरण  की नीति के चलते  आती जाती सरकारों ने कभी जनसँख्या नियंत्रण को ठोस कदम नहीं  उठाये  |

नेतृत्व का अभाव , चेतना की कमी:

भारत कभी पूर्णता भ्रष्टाचार  से मुक्त हो पायेगा या नहीं , ये  बहस का मुद्दा है |
पर इसमें कोई दो राय  नहीं कि अन्ना हजारे के आन्दोलन से समाज में एक चेतना आई है | लोगो ने सरकार को कटघरे में खड़ा किया है |
जन साधारण तक पहुंचा है ये मुद्दा |चलो भ्रष्टाचार को अन्ना  जी मिल गये  | 
सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ सैकड़ो समाजसेवी संस्थाएं  काम कर रही है | पर्यावरण बचाने को बड़े बड़े नाम वाले लोग जुटे है |मीडिया सक्रिय भूमिका निभा रहा है | सुधार हो रहे है | धीमे ही सही , इन मुद्दों को लेके समाज में एक चेतना आ रही है |
पर जनसँख्या विस्फोट जैसे गंभीर मुद्दे से  लडती हुई एक भी आवाज़ नहीं सुनाई देती | समाज में इसे लेकर एक स्वीकार्यता सी है |

सरकारे आएँगी , सरकारे जायेंगी | जब तक हम इस मुद्दे से नज़र चुराते रहेंगे , समस्यों के अम्बार लगते ही रहेंगे |आन्दोलन होंगे , धरने होंगे | संसद में हंगामे होंगे |
पेट्रोल के दाम यूँ ही बढते रहेंगे | बिजली यूँ ही रुलाती रहेगी | महंगाई आसमान की ओर जाती रहेगी | लोग गला फाड़ फाड़ टीवी चैनलों पर पानी की किल्लत की शिकायत करते रहेंगे |
समस्याएँ जस की तस बनी रहेंगी , बल्कि विकराल होती जाएँगी  |

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