ऐसा महीने दो महीने में एक बार होता, जब किनारे के क्यूबिकल में बैठा वो लड़का अपना बैकपैक साफ करता।
जरूरी डाक्यूमेंट्स के प्रिंटआउट जो अब गैर जरूरी हो गए होते, टैक्सी बिल जो कभी क्लेम नही किये गए होते, आफिस के आस पास के ईटिंग आउटलेट्स के पैम्पलेट, और एक दो 'घातक' किताबें। अमूमन ये सब ही निकला करता।
'हाऊ टू विन फ्रेंड्स...', 'थिंक एंड ग्रो रिच', 'अलकेमिस्ट' कु छ इस तरह की किताबें।
ऐसा जखीरा जो इंसान को अपनी औकात भूलकर कुछ बड़ा, कुछ अदभुत करने की हवा भर देता है।
कुछ ऐसी ही चरस के नशे में धुत्त वो शर्मीला, दब्बू सा लड़का , पहले चार क्यूबिकल और उसके बाद बीच का गलियारा लाँघ कर चला गया था।
सीने तक उठी क्यूबिकल की दीबार पर कोहनी तक दोनों हाथ सपाट लिटा कर बोला" चाय पीने चलोगी?"
पहला संवाद था और बस ये तीन शब्द!
और जबाब?
उस चश्मिश ने कम्प्यूटर स्क्रीन से नज़र हटाई। चश्मे को गोरी, पतली नाक पर पीछे धकेला।
पल भर को ऐसे सोचा जैसे पेशकश पर बड़ी संजीदगी से विचार करती हो।
और फिर बड़ा सपाट सा जबाब" अहह.. सॉरी। मैं चाय नही पीती।"
राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 48 से चिपककर खड़ी सात मंजिला इमारत।
शाम के 4 बजे के आस पास फ्लोर पे हालात ऐसे होते जैसे अघोषित कर्फ्यू लगा हो।
तीन ,चार, पाँच.. कुछ ऐसी ही संख्या में कर्मचारियों के गुट उतरते जाते। चाय , समोसा, सिगरेट , बस यही सब चूसने, फ़ूखने।
और वो लड़का। वो सातवी मंजिल पर लगे नीले शीशों के सीखचों से बाहर की दुनिया को टुक टुकाता रहता।
शंकर चौक, इफको चौक, राजीव चौक....।
एक के बाद एक , हाइवे में फ्लाईओवर के उतार चढ़ाव यू आते जैसे बड़े रेगिस्तान में रेत के ऊंचे नीचे टीले।
और उन टीलों के इर्द गिर्द काले नीले काँच के कुछ ऊंचे तो कुछ बहुत ऊंचे कैक्टस जमे होते।
चींटियों की कतारों से मोटर कार, ट्रक, बस बाइक , टेम्पो एक दूसरे को धकियाते जाते। बदहवास, अजीब सी आपाधापी।
कभी रेंगते, कभी भागते उन आदमीयों के ग़लों के कौवे सूखे होते, आंखे चिरमिराती। पर मीठे शर्बत की तलाश में वो घिसटते जाते।
पर अंदर का नजारा कुछ इतर होता। खुशपुश होती जो कभी नोंक झोंक में तब्दील हो जाती।
कोई फॉर्मल , कोई कैज़ुअल, कोई प्रौढ़ तो अधिकतर जवादिल। कुछ इस तरह के जीवों के कहकहे , ऐ सी की ठंडी हवा के साथ साथ तैरते रहते।
इस सबके बीच वो लड़का अदृश्य रहता। कभी कोई विरला गौर करता तो कहता" तू चोर जैसा क्यो रहता है, हुह!"
हाँ, वो एक अदृश्य आदमी ही तो था। 'मिस्टर इंडिया' वाला नही!
हांसिये पर लटका गुमनाम आदमी।
ऐसा इंसान जो रंग रूप, भेषभूषा, बोलचाल, कद काठी, बुद्धिमत्ता , हर लिहाज से मामूली होता है। और वो इस कदर मामूली होता है कि सामने वाले का दिमाग इसकी मौजूदगी गैरमौजूदगी को रजिस्टर ही नही करता।
उसका वजूद हल्का होता है। चरित्र के लिहाज से नही, प्रस्तुति के हिसाब से।
मैं आपको ज्यादा मशक्कत नही करवाऊंगा। पर जरा सा पेशानी पर बल देंगे तो आप ऐसे किरदार पा लेंगे।
इस तरह का प्राणी अगर कतार में लगा हो तो बाद में आया आदमी इसके आगे लग जाता है, बिना किसी अपराध बोध।
ट्रैन में ,बस में बैठा हो तो नया आदमी इस भाव से चढ़ बैठता है जैसे सीट खाली ही हो।
जरूरी मीटिंग में ये जीव कितना भी महत्वपूर्ण सुझाव दे दे, वार्ता आगे बढ़ जाती है , बिना गौर।
और सबसे बड़ा दर्द। अपनी जवानी के चढ़ते दिनों में जब ऐसे शखस ने किन्ही आँखों से गुजारिश की नज़र से , बड़ी उम्मीद लिए देखा होता है, तो सामने की पथ्थर आंखों ने आरपार पेड़ पौधे, सड़क, बस, रिक्शा, कंकड़ पत्थर, यहां तक की गुटखों के लावारिश रैपरों को भी देखा होता है, पर इस आदमी का वजूद नज़र नही आता।
चलो, कोशिश तो की.. बस इस होंसले का झुनझुना थामे , हमारा नायक सात्विक , कैफेटेरिया की घटिया कॉफी लिए अपनी सीट पर आ जमा था।
रोबर्ट कियोसकी की मुस्कुराती तस्वीर कुछ यूं भाव लिए सांत्वना दे रही थी :शाबाश , ये पहल मील का पत्थर साबित होगी। देखना।
आप सोचते होंगे कि जब इंसान इस कदर शर्मीला है, किरदार सीधा, सपाट है, तो फिर वर्णीय क्या है।
ज़नाब, यकीन कीजिये, जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूँ।
ये जो बेहद शर्मीले और सीधे इंसान हुआ करते है ना,इनके सीने में तमाम किस्से, शरारते, और और ...
कई कई औरतें एक साथ दफन हुआ करती हैं।
घंटे भर बाद उस चश्मिश का मैसेज आया था" सात्विक, प्लीज डोंट टेक इट अदर वाइज। थोड़ा बिजी हूँ। चल लेंगे।फिर कभी..:)।"
क्रमशः.......
सचिन कुमार गुर्जर
31 मई 2019
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