आसपास के आठ दस गाँवो के लोग जमा हो गए थे| जिसे भी खबर मिली कि अमीन साब खत्म हो गए, वो आखिर बार अमीन साब की मिट्टी को देखने आया।
विधाता का विधान तो देखिये , सातो जात के दुख सुख में काम आने वाले आदमी का अंत कितना दुखद हुआ।
जाड़े की उस ठिठुरती कोहरे वाली सुबह में उत्तर प्रदेश सरकार में संग्रह अमीन जगतपाल सिंह डयूटी जाने की जल्दी में थे ।
गाँव के बाहर पथरीली ,निर्माणाधीन सड़क पे एक सब्जी का ट्रक मिला सो उसी में सवार होने का सोचे। ट्रक के पिछौटे में जैसे ही पाँव उठाये , किसी कील में पैंट फंस गई । बेचारे न चढ़ पाए न उतर पाए। सस्ते बॉलीवुड गानों की झूम में ट्रक ड्राइवर ट्रक को हवा की रफ्तार से ले उडा। तीन किलोमीटर बाद जब पक्की सड़क आयी तब किसी बाइक वाले ने इशारा करके ट्रक रुकवाया।
पत्थर की सड़क पे तीन किलोमीटर घिसटने से अमीन साब का शरीर जगह जगह से फ़ट गया था।बुशर्ट और पैंट की जगह अब चीथड़े ही बचे थे |
पोर पोर से खून ऐसे छूट रहा था जैसे किसी ने सैकड़ो नश्तर एक साथ घोप दिए हो।
अस्पताल तक सांस तो थी पर देह में नुकसान इस कदर था कि स्ट्रेचर पे ही चोला छूट गया।
बेचारे साल भर मे रिटायर होने को थे।
अमीन साब के दो दो मलंग हाथी जैसे बेटे थे | दोनों ही दिशाहीन और बेरुजगार। जमीन थी , बाप धकियाता तो निठल्ले लड़के थोड़ा बहुत उसमे कमाते बाकी 'टैम' गाँव के अड्डे की बड़ी पाखड़ तले ताश पीटते।
अच्छा ये हुआ कि सरकार मेहरबान हुई , वरना रोटियों से मोहताज़ हो जाते। चूँकि अमीन साब ड्यूटी निभाते निभाते खर्च हुए थे,बड़े लडक़े को उनकी एवज नौकरी मिल गयी|
कुछ ही महीनों बाद अमीन साब का बड़ा लड़का , जो नया नया सरकारी नौकर हुआ था, बड़ी हुनक में अपनी नई बुलेट पे सवार , गाँव की बड़ी चौपाल के सामने से गुजरा।
हुक्के का गहरा कस मार ताऊ ने बड़े गंभीर हो कहा" खैर अमीन तो जैसा था , था ही । अब वो अच्छी जगह है, हम बुरी जगह। पर भैया ,इस सारे (साले) कलुवा के भाग जग गए बाप मरे से। नही तो ,यो ससुर चपरासी बनने लायक भी नाय हा।"
हुक्का सभा मे सब लोग ताऊ की बात से मुतमईन थे | पर छंगा ने हद कर दी, हुक्के के नाल दूसरे की तरफ फेरते हुए बोला , " इन ससुरो ने मारा है अमीन | अपनी मौत नहीं मरा | "
चौपाल में सबके माथे ठनक गये | कुछ खाँसे तो कुछ ने बेचैन हो बैठने की मुद्रा बदली | सब एक आवाज़ बोले" अरे हाँ, कलयुग है , पर इतना ना है छंगा, जबान कु लगाम दे ले, इतनी रंजिश न खा ।"
पर छंगा का इल्जाम बेबुनियाद न था, उसने सुनाया," अमीन साब का इलाज़ चल रहा था कई साल से| टीबी बेकाबू थी| फेफड़े खत्म से ही हो लिए थे | दिल्ली तक के डाक्टर ने नू कहि कि ये अब बचेंगे नहीं | "
"हाँ , जू बात तो है,साल भर न पकड़ पाते अमीन साब| " सितम सिंह खाट की सिरहाने से बोल पड़े थे।
सितम सिंह की बात में बात जोड़ छंगा बोला" रिटायरमेंट कु साल भर भी न था| रिटायर होके निपटते तो जे लल्ला का क्या होता। इस सारे कु कोई पानी पिवाने लाये बहिन रखता। मानो हो मेरी बात या ना ।"
सब मौन थे पर छंगा अपनी बात बढ़ाता चला जा रहा था"इन्होंने निपटाया है अपना बाप। देख लीजियो ।कभी न कभी तो छन के बाहर आयेगी बात।"
बड़े ताऊ जो सरकंडो के बने ऊंचे मूढ़े पे बिराजमान थे , उन्होंने बिना कश मारे ही हुक्का आगे बढ़ा दिया।
दोनो हाथ ठोड़ी में लगा के आगे की ओर झुक के ध्यान लीन से हो गए, फिर एकाएक तिरछी गर्दन कर बोले" मुझे यू लगे है कि अमीन खुद मरा है , औलाद की खातिर। उसे एहसास था कि ज्यादा वो जियेगा नही, सो इनका भला कर गया।"
खाट की पायत पे जमा नया लड़का ताव खा गया " क्या बूझो हो। तुम बूढ़ो की निराली बातें । मरना होता तो ट्रक के पीछे घिसट के मरता।हुह, चुपचाप सैल्फास के, या भूसा के कोठरे में फांसी का फंदा न लगाय सके हा। ऐसी दर्दनाक मौत मरना जरूरी था। तुम बुढऊ लोगों के दिमाग भी। हुह।"
बहस कोई नही कर रहा था, क्योकि पक्का कुछ भी न था।बस सब अपनी अपनी रायसुमारी कर रहे थे।
पोस्टमैन साहब जो गांव के मान्य लोगो मे से थे , कुर्सी एडजस्ट कर धीमे से बोले, " सैलफास खाने में, या फांसी लगाने में डयूटी पे मरना नही माना जाता। कलवा को नौकरी न मिलती| "
सब मौन थे , ज्यादा बोलकर पाप नही कमाना चाहते थे।
छंगा अब शांत था ,जो भी था उसकी बात को बल मिला था, हुक्के का कश ले आराम से बोला " तुम्हारे अंगूठे के क्या हुआ पोस्टमॉस्टर साब। तुम भीरिटायरमेंट के आते आते अंगूठा गँवा बैठे| "
" पोस्ट आफिस में ही रद्दी काटते हुए सरोते के नीचे आ गया।"
" तो हो सके है कुछ?"
पोस्टमॉस्टर साब के चेहरे के भाव मिश्रित थे, वैसे ही जैसे आशा और निराशा के बीच झूलते किसी भी आदमी के होते है।
गहरी सांस लेकर पोस्टमॉस्टर साब बोले "देखो , हेड आफिस इलाहाबाद में अर्जी दी तो है। पर ससुरे बाबू बोलें है कि अंगूठा भर कटने को डयूटी जनित अपंगता नही माना जा सकता। हाँ , दो तीन उंगलियां भी साथ चली गयी होती तो | "
पोस्टमॉस्टर साब के चेहरे पे मलाल के भाव थे , जैसे वो कहना चाहते हो "काश अंगूठे के साथ उँगलियाँ भी उड़ गई होती!"
जो भी हो , पित्र बोध तो पोस्टमॉस्टर साहब का भी जोर मारता होगा | आखिर उनका स्वास्थ्य भी ठीक नही रहता था और उनका लड़का जीतू भी मस्त सांड सा गांव भर में कुत्ते भोकाने में ही मशगूल रहा करता था |
-सचिन कुमार गुर्जर
20 अप्रैल 20189
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