गुरुवार, 16 मई 2019

बड़ा सबक


मौसम अनुकूल हो ,जमीन की परतें नरम हों,तो बिना बीज, बिना रखवाल भी कुकुरमुत्तों के गुच्छे यहाँ वहाँ छितरा जाया करते हैं। देखा होगा आपने।  ये सब कुदरत के बंदोबस्त हुआ करते है।
बस कुछ यूं कर ही दिल्ली हापुड़ बाईपास पर दर्जनों छोटे बड़े इंजीनियरिंग कालेज उग आए हैं।
राजधानी और उसके इर्दगिर्द कुर्सी पर बिठा काम कराने वाले कारखाने हैं।कामगारों की फौरन पूर्ति की जा सके, इसी सोच के साथ ही ये इमारतें जमायी गयी हैं।

रोजगार मेला लगा था ऐसे ही एक कॉलेज में। एक बड़ी ही नामचीन कंपनी , जॉब आफर दे रही थी।
हिंदुस्तान है, भीड़ तो होगी ही, लिहाजा इस बारे में लिखना समय और शब्द दोनो की बर्बादी है।
जैसे जैसे टेक्निकल , नॉन टेक्निकल ,मैनेजरियल राउंडस का सिलसिला आगे बढ़ता गया ,  खुशकिस्मतों की सूची सिकुड़ती गयी।

दिन भर आग उगल थका हारा सूरज अपनी आरामगाह  को चला तो एक प्यारी सी ,मुलायम सी एच आर वाली लड़की ने ,यही कोई दो दर्जन भर आफर लेटर बांटे।
भटकने के कुछ सिलसिले थमे तो ज्यादातर नौजवान, नवयोवनाये  पसमांदा ,चलने को मजबूर हुए।उन्हें नए अवसर की तलाश में अगली सुबह फिर जाना था। 
ताड़ की कतारों के समानांतर चलते वो लड़के लड़कियों के गुच्छे कॉलेज गेट से रुखसती कर , बाहर दुनिया की भीड़ में पिघल गए।

मुझे बस एक अदद मौके की दरकार थी सो वो मुझे मिल गया। कॉलेज कैम्पस से बाहर आकर रुका। अपने  नक़ली वाइल्ड क्राफ्ट के नीले बैकपैक में आफर लेटर को सही से जमा के,  कंधे उचका कर  फेफड़ो में बड़ी गहरी सांस भरी। ठहरा रहा काफी देर ।विजेता का भाव लिए गोधूलि के लाल काले आसमान को देखता रहा। उन लम्हो में आपने मुझे देखा होता तो आप मुझमे किसी सिकंदर या नेपोलियन का अक्स पाते!

खैर, विचार टूटा पर जश्न नही।कोई देखें न देखे। अपने दाएं हाथ को ताकत के साथ पीछे खींच मैंने जोरदार पम्प किया। वैसे ही जैसे खिलाड़ी लोग किया करते हैं।
मस्त बछड़े जैसे कुछ तेज डग भरे और फिर अपनी गाढ़ी क्रीज वाली काली पेंट को नाभि की ओर खींचा।
दिन भर की आपाधापी के बाबजूद मेरे पैरों में ताजा खून दौड़ रहा था।
अपने नए गोल्डस्टार के जूते से मैंने यू ही खामखाँ , चुपचाप लेटी कंकड़ को  हवा में उछाल दिया।वो दिन भी क्या दिन था। आंखें खुशी से नाच रहीं थीं। काश उन पलों में कोई मेरा अपना, मेरे साथ होता।

माँ का हक़ पहला था सो पहला फ़ोन माँ को ही किया और बोला" माँ, दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी में मेरी नौकरी लग गयी!"
सच्ची,यही बोल थे मेरे। मां की खुशी का पैमाना छलक पड़े बस इसी ख्वाईश के चलते बातचीत मे थोड़ा सा, हल्का सा छोंक लगा बैठा था।

वापस शहर जाना था। लक्ष्मीनगर-पांडवनगर में अपना ठोर ठिकाना हुआ करता था। बाँट जोहता रहा पर कम्बक्त की मारी बस न मिले।अकेला ना था। पांच छह लड़के लडकियां और भी थे।बड़े इंतेज़ार के बाद सब्जी दूध सप्लाई का जो मिनी ट्रॅक होता है ना, उसका ड्राइवर मेहरबान हुआ। गदापदद.. हम सारे उसी में पीछे। ट्रक की छत खुली थी, रस्सियों का जाल था जो तिरपाल थामने के काम आता होगा। बस, उसे ही पकड़े हम खड़े हुए।
एक तो सफर भी बहुत लंबा न था ऊपर से वो मुफलिसी का दौर , लिहाजा असुविधा का रोना रोना फिजूल की बात होगी।

एक लड़का था। वो जो लड़का था, लंबा दूहरे हाड़ का, जो अपनी मित्र के साथ सटकर ट्रक के अगले हिस्से में चिपका खड़ा था उसका सलेक्शन हो गया था। चेहरे पे सुकून था।
पर उसकी मित्र का चेहरा उदासी ने ढांप रखा था। बहुत ही गहरी उदासी। दिल्ली गाजियाबाद के स्मोग जैसी गहरी। ऐसा लगता था कि दुनिया जहान की सारी आफतों का बड़ा सा गट्ठर भड़भड़ा के उस बेचारी की काख पे आ गिरा हो। सभी रास्ते मूंद गए हो।आत्मा दर्द में कराह रही थी।वो दोनों एक दूसरे को संबल दे खड़े थे।

ताज्जुब न कीजियेगा। अगर आप उस दौर से गुजरें हैं तो इस तरह के हालातों से जरूर रूबरू हुए होंगे।
देखिये, जब तक आपका खुद का कोई आफर लेटर हाथ नही आ जाता, हर दोस्त, हर बैच मेट को मिलने वाला  आफर सीने पे हथोड़े की चोट सा ही होता है।
उस पर गोया कोई कमतर बाजी मार जाए तो हालत ऐसे होती है जैसे कोई महीन छैनी से धीरे धीरे कलेजा खुरेज रहा हो।

चेहरे पे बारीक कतरन की दाढ़ी लिए वो लड़का उस लड़की के कान में बार बार कुछ कहता। निसंदेह वो सांत्वना के शब्द होते होंगे। बेहतर कल की आस जागते शब्द।
और वो लड़की ।
थोड़ी सी सावली, मंझले कद की सुत्वा वो लड़की अपने पीले टॉप को एडजस्ट करती ,पर बोलती कुछ भी नही।
ट्रक की जाली से वो अपनी बड़ी दीवे जैसी आँखों से  पीछे भागते पेड, सड़क किनारे की दुकानें ,गुमटियां और यहां तक कि कूड़े के ढेरों को भी ऐसे देख रही थी जैसे पहली बार इन सबका दीदार करती हो।

अपनी जिम्मेदारी का एहसास कर लड़का हर थोड़ी देर में कोई छोटी सी बात लड़की के कान में कहता।
ऐसा करने के लिए उसे तिरछा हो थोड़ा नीचे आना होता।
वो थोड़ा रुकता और फिर कोई लंबी सी बात से अपनी मित्र का ढांढस बांधता ।
ये दौर चलता रहा। सड़क के गड्ढो, स्पीड ब्रेकरों जैसे ही भावनाओँ की लहरें उछलती, उतरती रहीं।

शब्दो का मरहम जब उस लड़की को सदमे के कुहासे से बाहर न खींच सका तो उस लड़के के अंदर का 'महात्मा बुद्ध' जाग उठा!
जिस भाव से राजकुमार गौतम ने तीर से घायल हंस को आलिंगन कर दुलारा था उसी भाव से उस लड़के ने अपनी मित्र का हल्का सा आलिंगन कर उसके बालो में हाथ फिराया।
फिर यकायक परोपकार का भाव इस कदर हावी हुआ, कि  दयाभाव से वशीभूत वो मानव काफी देर तक हाथ फिराता रहा, दुलारता रहा, पुचकारता रहा!!

शहर ज्यो ज्यो नजदीक आता जाता उस लड़के की व्याकुलता बढ़ती जाती। अपने शरीर का भार वो कभी दाये पैर पर ले जाता तो कभी बाये पैर पर।
एक ही लक्ष्य, एक ही ध्येय।
कैसे भी हो वो अपनी मित्र का दर्द खींच लेना चाहता था।

इसी प्रयास के क्रम में जब दर्द असह हो चला तो उसने अपने होठ अपनी मित्र के माथे के  सिरे पर कुछ इस भाव से टिका दिए जैसे कि वो दर्द के जहर को चूँस फेकना चाहता हो। हमदर्द को कौन नही पहचानता!
लड़की ने अपने मित्र की आँखों मे देखा तो उसने आँखे झपका दी। सब ठीक हो जायेगा। होंसला रख पागल!!

फिर वो किसी हुनरमंद सपेरे की तरह जहर खींचता ही गया  और खींचता ही चला गया। कभी माथे पर ,तो कभी गाल पर तो कभी गर्दन पर।
शहर आया तभी ये सिलसिला रुका।

मैं वापस कमरे पर पहुँचा तो तीन चार साथी इंतेज़ार में थे।
बियर की बोतलें प्लास्टिक की बाल्टियों में डूबी हुई थी। मुर्गे काटे जा चुके थे।
मिंटू से रहा नही गया , वो अभी काम की तलाश में था। तंज कसा" तुझे कैसे ले लिया बे, लगता है इस कंपनी को कुछ ज्यादा ही बड़ा प्रोजेक्ट मिल गया है।"

मैं हंस पड़ा , बोला" पिंटू भाई, जा तेरे लिए एक बियर एक्स्ट्रा। ऐश कर।"
एक तो पिंटू मेरे ही जंगल का लड़का था, मेरठ मुरादाबाद बेल्ट का।
फिर उस पर अभी कोई पौन घंटे के सफर में मैं बड़ा सबक सीखकर आया था।

सबक?
हाँ,  यही की हमे दूसरे के दुख दर्द में शरीक होना चाहिए।
वो भी सही समय पर और पूरी शिद्दत के साथ!!!

         
                                                   -सचिन कुमार गुर्जर
                                                    18 मई 2019

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