शनिवार, 4 मई 2019

एक परकार से

वो आदमी नाउम्मीद था। पढ़ा लिखा जरूर था पर संपत्ति , ओहदा , हुनर , डिग्री , खूबसूरती ऐसे जो तमाम पैमानें है , जिनके आधार पर दुनिया आदमी का पायदान तय करती है , उन सबमें उसका स्कोर काफी कम था | मेरे कालेज  के गेट के बाहर जो मोड़ पड़ता था, बस ठीक उसी ठोर पे, उसकी चाय-मैगी की टपरी हुआ करती थी। सलेटी पत्थरों की कच्ची भींत, टीन के टुकड़ों  की छत और पुराने टाट के अजीबोगरीब से गठबंधन से बनी थी डिमरी भाई की टपरी।
ऐसा बिना चूक होता था कि जब भी मैं उधर से गुजरता , मैं जरूर पूछता  " सुनाओ , डिमरी भाई  क्या हाल चाल।"
और जबाब में वो चौंतीस पैंतीस साल का दुबला , पीतवर्ण आदमी , पहले अपनी पेंसिल मूछों को सहलाता , कुछ सोचता सा मालूम होता फिर  ठेठ गढ़वाली  लहजे में हर बार इतना भर कहता" बस भय जी , ठीक छै | कट रही है।"
वाकई में उसकी जिंदगी बस कट ही तो रही थी। बहुत कुछ पा लेने , भोग लेने के जो इंसानी मूल तत्व होते हैं, इन सबके कतरों से उसकी तबियत महरूम थी | असल मे उसका किरदार किसी पुरानी  , सूखी लकड़ी के लंबे ,सपाट लटठे जैसा था, बेरंग और रूखा | जो बिना इस्तेमाल यूँ ही पड़ा हुआ था और समय का कठफोडवा उस लठ्ठे को एक सिरे से कुतर रहा था। 

टपरी के बाहर  ढाई डग भर की  डामर की सड़क थी ,जिस पर मुख्य सड़क को आते जाते कॉलेज के लड़के लड़कियों के कुछ झुण्ड , ठिगनी नस्ल की कुछ गायें, एक दो भोटिया कुत्तों के अलावा शायद ही कोई गुजरता था | सड़क के पार सलेटी पत्थरों की कोई दो फ़ीट ऊँची दीवार थी | दीवार से उतरते ही नीचे की तरफ ढलान में दूर तक सीढ़ीदार क्यारियाँ उतरती चली जाती थीं , जिनमें गहत की दाल के पौधे छितराये होते | क्यारियों को थामे मिटटी के पुस्तों पर कंडेली घास(बिच्छू घास) का साम्राज्य पसरा होता था जो बिना पानी ,बिना खाद , गहत और लोभिया की पैदावार से भी घनी उगती थी | इसी दीवार से सटा कुर्सी डाल, वो आदमी दिन भर पहाड़ की मीठी धूप सेंकता था ।चट्टान पर पसरे किसी अजगर की मानिंद वो घंटो बिना हड़क बिना फड़क यूँ ही जमा रहता |अखबार के विज्ञापन तक चाट डालता | 
कोई विरला ग्राहक पहुचता तो कुछ समय के लिए उसके अंदर का दुकानदार जागता।

फिर ऐसा हुआ, कि उस आदमी की शादी हो गयी|  संयोगवश।
मेरी तो राय ये है कि उस आदमी से किसी ने पसंद न पसंद का कुछ पूछा भी न होगा।
और अगर पूछा भी होता तो वो शायद कहता कि लड़की होनी चाहिए बस और क्या।बस एक अदद लड़की। यही उसका पैमाना होता।

रात भर मोटा पानी बरसने के बाद आसमान एक दम साफ़ था | छुट्टी का दिन था | पिछले कई दिनों से हमारा एक मित्र बकरे की आंत से बने  भुटवा की तारीफ के कसीदे पढ़े  जा रहा था | और उसकी तलब में हम भी तलबगार हो पौड़ी शहर को जा रहे थे | हालाँकि ज़िब्हा चटान के लिए जो जगह तय हुई थी वो हाइजीन और गुणवत्ता के लिहाज से उत्साह भरने वाली नहीं थी, लेकिन उम्र के उस दौर में तबज्जो स्वास्थ्य को कम , नए अनुभवों को ज्यादा दी जाती है | एक तो दो दिनों से बारिश के चलते हॉस्टल में कैद होने की ऊब , ऊपर से ये खबर कि पहाड़ से नीचे देहरादून के सभी छोटे बड़े टेक्निकल कॉलेजेस में जमकर प्लेसमेंट हुआ है , कम्पनियाँ दर्जनों के हिसाब से मोटे पैकेज के ऑफर लेटर देकर लौट रही हैं  , दबाब हल्का करने हम चार पाँच पौड़ी शहर के लिए चल पड़े | गंतव्य :  शहर की बूचड़ गली !  

कॉलेज के बाहर मौसम इतना साफ़ और खुशगवार कि डिमरी भाई की टपरी पर तो नज़र भी नहीं पड़ी |  हवा की गर्त जमीन पर टपक नदी नालों में बह गयी थी | दूर तक क्षितिज इस कदर धुल गया था कि चन्द्रबदनी मंदिर का शिखर ,  जिसकी कॉलेज से सड़क यात्रा में अमूमन दो से तीन घंटे का समय लगता है , उस शिखर पर लगी लाल पताकाएँ साफ़ साफ़ दर्शनमय थीं | चौखंबा , त्रिशूल , दूनागिरी, वासुकि सब की सब हिमाच्छादित चोटियाँ इतने नजदीक जान पड़ती थीं कि मानों घण्टे दो घण्टे में पैदल चल दूरी नाप लेंगे | खैन्ट पर्वत जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ परियों का निवास है , और पसंद आ जाने पर जहाँ परियाँ  नौजवानो का अपहरण तक कर लेती हैं , बेहद नजदीक खिसक आया था | सीढ़ीदार खेतों के नीचे अलकनंदा नदी का रंग गहरा हरा प्रतीत होता था | बाँझ और बुरांश के घने जंगल से उठने वाली सर्द तर हवा कुछ ऐसे लग रही थी जैसे बेहद नजदीक से कोई पिपरमिंट के फब्बारे से शरीर को भिगो  रहा हो | चीड़ की सूखी पत्तियों के नीचे बारिश में भीगी मिटटी की खुशबू से नथुने तर थे | मांद से निकले बाघ के शावकों की तरह हम कुछ दूर चलते फिर कुदरत की छटा से तबियत को जी भर सींच लेने को  ठिठक जाते |  


खैर, बकरे की आंत के भुटुये , उसके बाद होने वाली फ़ूड पोइसीनिंग , घर वालों की फटकार अपने आप में एक अलग कथा है | पर फीके अनुभव के साथ हम शहर से वापस लौट आये | डिमरी भाई की टपरी में हम बैठे | पतली गरम मैगी , स्टील की पुरानी ,उथली प्लेटों में हमें परोसी गयी । सस्ते प्लास्टिक के पतले , डिस्पोजल गिलासों में मिरिंडा उड़ेली गयी।  

अचानक हमारा एक मित्र उचका " भाई लोग ,भाई लोग, डिमरी भाई को बधाई तो दे दो। शादी कर ली इन्होंने!!"
चार पाँच आवाजें एक साथ फूटीं" क्या बात, क्या बात। डिमरी भाई । बताया नही। पार्टी तो दे दो ।"
फिर जैसा होता है हर ग्रुप में एक मसखरा , एक मित्र उछला, उसने टेबल में हाथ मार कर कहा" मैं दावे के साथ कह सकता हूँ , डिमरी भाई ने लव मैरिज की है। लिखवा लो मुझसे!"
व्यंगों के तीर उड़ रहे थे" क्या बात , क्या बात , लव मैरिज हुह। छुपे रुस्तम निकले भई जी!" वगैराह वगैराह।

और वो आदमी । पुराने ,उखड़े काउंटर के पीछे खड़ा वो आदमी मारे शर्म के सिकुड़ा जा रहा था।
मैं भी मौज में था ,फिर उस ठिठोली में मुझे भी किरदार अदा करना  था। मैंने डिमरी को कुरेदा" सच बताओ भय  जी, लव मैरिज है ना, अहू हु। ये देखो, शर्म आ गयी ,क्यों खिलाड़ी | "

वो आदमी सरल मन जरूर  था, लव मैरिज के बड़े रुतबे को भली भांति समझता था, काउंटर को दसवीं बार साफ करता हुआ धीमे से बोला" लव मैरिज ही समझो, ..एक परकार से | "

ये जो उसने धीमे से ' एक परकार से ' जोड़ा था, बस उसी में उसकी सारी भावनाओ का निचोड़ था।
उसके पीले गाल मारे लाज के टमाटर जैसे लाल हुए जा रहे थे।
उसकी तबियत से खुशी इस कदर टपक रही थी जैसे रुई के सूखे फाहे को देर तक, बहुत देर तक ,शहद के गहरे बर्तन में डुबो ककर  ताजा ताज़ा निकाला जाए ।
वो आदमी एक तरह से स्वर्ग में था। उसकी अनुभूति को मैं कभी भूल नही सकता। जिंदिगी भर नही।
पुराने जार में ,लंबे अरसे से बर्फी के जो पीस यतीम से पड़े थे, उस आदमी ने बड़े गदगद हो, अखबार के टुकड़े पर हमारे सामने परोस दिए।

अट्टाहस के बीच मुझे कुछ सनक सी हुई और मैंने बिना किसी खयाल , यूँ ही डिस्पोजल गिलास को, जो कि आधा भरा था , अपने अंगूठे और दो उँगलियों से जोर से सिकोड़ दिया। किनारे तोड़ती हुई कोल्ड ड्रिंक मेज पर फैल गयी। और मित्र मंडली ने बिना देर किए सारे रिश्ते याद दिला दिए!

तब नहीं सोचता था अब सोचता हूँ | यही के खुश होना इतना असाध्य भी तो नही है, पैमाना थोड़ा सिकोड़ लिया जाए, उम्मीदों के दामन छोटे कर लिए जाए , जो मिले स्वीकार किया जाए  तो कई बार खुशियां यूँ ही उन्ध पड़ती हैं। है कि नही?

दशक भर से  ज्यादा अरसा बीत गया। जिस जद्दोजहद में आप जीते है उसी में मैं जीता हूँ |  सफल कहाने को , खांचे में फिट होने को अपने किनारे घिस रहा हूँ ।  दूसरों की शर्तों पे जीता दिल कई बार बेज़ार हो जाता है। लक्ष्य असाध्य, अभेद लगते हैं तो कभी कभी  डिमरी भाई का शर्माता, आंनद के सागर में गोते लगाता चेहरा याद आ जाता है।

और मन कह उठता है कि ये जो होड़ की दुनिया है ना दुनिया , सच पूछो तो ये  **यापा ही है , एक परकार से ..!

                                           -सचिन कुमार गुर्जर
                                              04   मई   2019  

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