शनिवार, 30 अप्रैल 2016

एक मासूम की क्रांति

माँ छोटे लड़कों को सजा रही थी । उनके सिरों में सरसों का बहुत सारा तेल चिपुड , उनकी आँखों में काले काजल की डोर बाँध रही थी ।
पर तीनों लड़को में सबसे बड़े लड़के का मुँह गुस्से से तमतमाया हुआ था ।
" अब तुझे क्या हुआ  , तेरी शकल क्यों सूजी हुई है , जल्दी से तैयार क्यों नहीं होता ।" माँ ने पूछा ।

लड़के ने माँ को त्योरियाँ चढ़ा देखा । उसकी नाक के सुर फूले हुए थे , होठ गुस्से से फड़फड़ा रहे थे , बस रोने को ही था  " जैसे तुम्हे पता ही ना हो , ज्यादा नासमझ बनती हो । "

माँ टाल गई "चल जल्दी तैयार हो जा, घोडा तांगा लिए छंगा आता ही होगा । "

"तुम सचमुच बेरहम , पत्थर दिल हो , दादी तुम्हारे बारे में सही ही तो बोलती है । "  मटियाली दीवार पे पैर लटकाए वो लड़का फूट फूट के रोने लगा ।

"दिमाग ख़राब न कर मुन्ना , शगुन ख़राब न कर तड़के तड़के , चल तैयार हो जा । "  माँ ने गुस्से में भर बोला ।
लड़के की माँ को जब गुस्सा आता था तो वो मुँह दूसरी ओर फेर बात करती थी । ये उसका अपने बच्चों से गुस्सा इजहार करने का एक तरीका हुआ करता था ।  जतावा देने का तरीका , माने वो नाराज़ है लिहाजा बालक तुरंत कहना मान ले ।

पर उस दिन वो बालक आर पार के मूड में था । दीवार से फाँद , पैर पटकता माँ के सामने आ खड़ा हुआ " तुम्हे बोला था मैंने कि नहीं , के इस बार पुराने बक्से के रखे थान के एक मेल  कपडे पहन ननिहाल नहीं जाऊंगा । भाइयों के मेल के कपडे कतई न पहनूंगा । "
" बोलो , बोल था कि नहीं । तुमने बोला बाबा को ?  बोला क्यों नहीं , तुम्हे बोला था ना ।  "

पर माँ , माँ निष्ठुर सी हो गयी , झुंझला के बोली " अभी दो धमुक्को में उतर जायेगा तेरा फैशन का बुखार  । "

"ठीक है , तुम जाओ छोटे पूतो के साथ अपने पीहर , खीर पूड़ी उड़ाओ , मैँ यही दादी से मांग रोटी खा लिया करूँगा । "
लड़के का सुर इंकलाबी हो उठा । पर रोना चालू रहा , अनवरत , सदानीरा गंगा जैसा ।
वो इंतज़ार में रोता  रहा , पर माँ की तरफ से कोई माफीनामा या समझौता प्रस्ताव नहीं आता जान पड़ा ।

"कौन बला आन पड़ी जाते जाते , सुनाई नहीं देता , तांगा लिए छंगा कबसे हाँक मार रहा । " पिता जी गुस्साते हुए आँगन तक चले आये ।

"पूछो , अपने नखरीले कुँवर से । फैशन का भूत सवार है लाट साब पे । इन्हे भाइयो के मेल के थान के कपडे पहनने में शर्म आने लगी है । बोलते है , रेडीमेड चाहिए , जिनपे अंग्रेजी में अलाय बलाय लिखा होता है । जाने से मना कर रहा है छबीला । " माँ तो चाह ही रही थी कि पिता जी मामले का त्वरित निपटारा कर दें ।

"ठीक है , तू मत जा इस बार । यही ठहर । वैसे भी एक बालक तो चाहिए यहाँ , गाय भैंस का खल पानी करने वास्ते। " पिता जी ने बड़ी ही जबरदस्त , अकाट्य चाल चल दी थी । घंटे भर का जमा जमाया स्वांग एक ही मिनट में धुंआ धुंआ हुआ जाता था । बालक पिता जी से प्रतिवाद न करता था । अमूमन यही होता है बच्चों का माँ के ऊपर तो खूब सिक्का चलता है , पर पिता जी के सामने पतलून ढीली । है कि नहीं ?

पर वो बालक सफ़ेद देसी गाय का ताज़ा दूध पीता था , इतना बुद्धू भी ना था । बिजली की फुर्ती सा मटियाली भीत से कूदा और घोषणा कर दी " मैँ जाऊंगा तो जरूर , पर ये एक मेल थान के कपडे कतई ना पहनूं । " फिर फटाफट खुद ही पुरानी 'बुसकैट' और मिटटी मिटटी हुई पैंट पहन घोड़े ताँगे में सवार हो लिया ।  मतलब जे कि भरपूर विरोध भी दर्ज़ भी हो जाए और ननिहाल का सपाटा भी ना छूटे !
 रास्ते भर वो बालमन सोचता रहा कि पता नहीं नानी क्या सोचेगी कि मुन्ना पुराने कपडे पहन ही चला आया । दोस्त आडी क्या सोचेंगे ।  उस बालक का 'मैँ ' विकसित हो रहा था तब ।

ननिहाल पहुंचते ही नानी ने बालक को बड़े लाड से गले लगाया , माथे का पसीना हथेली से पोंछ माथे पे चुम्बन अंकित किया | फिर बड़ी उमहाती सी , खुश हो बोली " सुबह से नीम पे कागा बोलै था , मैँ जानु थी मेरा मुन्ना आता होगा आज ! "
नाना को नमस्ते किया तो उन्होंने हँस कर तंज किया " आओ कुंवर साहब , घर का आनाज खत्म हुआ , तो ननिहाल का रुख कर दिया , क्यों ? "

नींबू और चीनी की गाढ़ी शिकंजी पी वो बालक अपनी मित्र मंडली की तलाश में निकल लिया ।

पता नहीं , नानी और माँ का कुछ चर्चा हुआ या महज संयोग हुआ , उस बार की गर्मी की छुट्टियों से लौटते नानी ने उस बालक को बड़े ही जोरदार टी शर्ट और फैंसी निक्कर का जोड़ा गिफ्ट किया ।
हाँ , उस बार की गर्मियों के बाद  घर वालो को भी ये बात समझ आ गयी कि  मुन्ना बड़ा हो रहा है , एक ही थान   एक मेल कपड़ो के दिन लध गए ,आगे से रेडीमेड , फैंसी ड्रेस का इंतज़ाम करना हुआ करेगा !

मासूम की क्रांति सफल रही थी !

                                                                                           --सचिन कुमार गुर्जर






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