जब नहीं चला गृहस्थ , तो वह हो गयी वापस |
वैसे ही , जैसे ग्राहक लौटा दे ,कोई नापसन्द आया सामान |
फिर उलझ गयी बड़ों की मूछें , बिगड़ गयीं जुबान |
दिखा देंगे , दिखा दो , माँ बहन के रिश्ते हुए तार तार |
खड़े हो गए वकील , चले मुदकदमे चार , दहेज़ , अप्राकृत सम्बन्ध , फौजदारी व् व्याभिचार |
वकीलो के चैम्बर में , जहाँ आदमी से आदमी पिसता हैं
वह जिसका गृहस्थ था जेरे नज़र , कोने में खड़ी होती थी |
वहाँ जहाँ होता था एक रद्दी का टोकरा , दूसरा एक पीकदान |
शतरंज की बिसातों की मूक गवाह वह , जीवन अपना खोती थी |
मर्दो के उस हुजूम को चीरकर आती थी एक कमदिमाग भंगन|
बदलने को रद्दी का टोकरा , उठाने को कानून के रखवालों की जूठन |
उसने ना जाने कितने मुक़दमे देखे थे , दाँव पेंच , टूटती कटती पतंगे |
रोता था उसका दिल जब वह देखती थी सूखते स्त्री गात ,भाव शुन्य मुखड़े , हाथ नंगे |
और वह हर बार समझाती थी , देख बहन यहाँ से कोई जीत कर नहीं जाता |
लीपो उस पर जो बिगड़ गया , छोड़ो उसे जो छूट जाना चाहता |
बसाओ कोई नया नीड , लीपो नया आँगन , सजाओ कोई नया उसारा |
मिट्टी डालो इन तारीखों पर, मत बनो मगरमच्छों का चारा |
और वह मुद्दई अबला , उसकी आँख के कुएँ से चला आँसू ,गाल का सिरा छूने से पहले ही सूख जाता |
क्योकि 'देख लेने' , 'दिखा देने' के द्वन्द में , साहस दिखाया जाता है , आंसू नहीं दिखाया जाता |
Sachin Kumar Gurjar
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