ये लेख मैं तब लिख रहा हूँ जब भारत ऑपरेशन सिन्दूर से जुड़े अपने पक्ष को रखने के लिए अपने प्रतिनिधिमंडल दुनिया भर में भेज रहा है | यह हर लिहाज से सही कदम है | पहलगाम हमले के बाद से अब तक के घटनाक्रम में सरकार व् एजेंसियों ने बड़े ही नपे तुले ढंग से काम लिया गया है | ऐसे में सवाल ये उठता है कि नैतिक पक्ष मजबूत होने व संयम के दायरे में रहने के बाबजूद हमें ग्लोबल आउटरीच की जरूरत क्यों आन पड़ी है ? हाई स्पीड इंटरनेट और स्वतंत्र मीडिया के युग में जहाँ दुनिया जहान की जानकारी एक क्लिक भर करने पर उपलब्ध है , ऐसे में क्या वाकई पाकिस्तान की प्रोपेगंडा मशीनरी दुनिया में भारत के खिलाफ भ्रम फैलाने में कामयाब रही है ? एक आम नागरिक की नज़र से मैं दुनिया, खासकर पश्चिमी देशों ,की इस मामले पर प्रतिक्रिया को उदासीन ही पाता हूँ |
इस लेख के जरिये मेरा तर्क ये है कि पश्चिम के उदासीन रवैये के बीज तत्कालीन ऑपरेशन सिंदूर से जुड़े घटनाक्रम में हैं ही नहीं | मेरा मानना है कि राष्ट्र छोटे हो या बड़े , उनके व्यवहार में भी वे सब मनोवैज्ञानिक विसंगतियाँ मौजूद होती हैं जो कि किसी एक आम इंसान के व्यवहार में होती हैं | जलन एक ऐसी कुदरती भावना है जो शत्रुपक्ष में ही नहीं विचरती बल्कि तटस्थ व मित्रपक्ष में भी कमोबेश इसके लक्षण आ ही जाते हैं |
हम अपने पौराणिक ग्रंथो में ही झांककर देखें तो पाएंगे कि जब जब मृत्युलोग से उठा कोई सद्पुरुष अपने तप व कर्म से देवतुल्य हो चला , स्वर्गलोक में देवताओं के सिंहासन ईर्ष्या से डोलने लगे | राजा हरिश्चंद्र सदा से ही सत्यनिष्ठ रहे , दानवीर रहे | फिर राजा हरिश्चंद्र को पराकाष्ठा की हद तक परेशान करने की क्या वजह रही होगी | राजपाठ छुड़ाया गया | पत्नी व् पुत्र को बेचना पड़ा | शमशान में काम करना पड़ा | स्वयं के पुत्र को मृत देखना पड़ा | वजह, हरिश्चद्र का मृत्युलोक में रहते देवतुल्य हो जाना ही था |
लेकिन भारत से जलन क्यों ? शायद इसलिए कि आतंकवाद के अनवरत दुष्चक्र के बाबजूद भारत का रवैया जुबानी धमकी से आगे कभी नहीं गया | हमने सदा दुनिया के लम्बरदारों के आगे अपना दुखड़ा रोया , मदद मांगी | भीरु व्यवहार, घर की दहलीज न लाँघने की नीति पर हम सदा कायम रहे | अब अचानक से करवट लेकर दुश्मन के घर में घुसकर मिसाइल मारने की कूबत का जो ये खुलेआम प्रदर्शन हुआ है , यह बहुतों को नागावार गुजरा है | ये एक तरह से परंपरागत वर्ल्ड आर्डर को चैलेंज करने जैसा है |
मैंने दशक भर से ज्यादा दक्षिण पूर्व एशिया में बिताया है | कॉरपोरेट जॉब ने मुझे अलग अलग जियोग्राफी के लोगों के साथ काम करने का मौका दिया है | चीन के साथ हमारा युद्ध का अनुभव है , सीमा विवाद है, सो चीन को संदेही नज़र से देखने व् उसकी चालों से व्यथित होने की हमारे पास वजह हैं | लेकिन मैंने अपने निजी अनुभव में पोलैंड के आईटी प्रोफेशनल्स, जर्मनी के इतिहास के रिसर्च स्कॉलर्स को चीन के बढ़ते रसूख को लेकर खुद से भी ज्यादा चिंतित पाया है | और यह चिंता व्यक्तिगत नहीं है | यह राष्ट्रों की सीमा लांघते हुए पूरे पश्चिम में पसरी है | उभरता हुआ पूरब पश्चिम की चिंता है | पश्चिम के लिए चीन अपने आप में एक बहुत बड़ा टास्क है| ऐसे में अगर भारत भी खुद को नयी वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करता है तो उनकी चिंता दोगुनी हो सकती है |
पश्चिम को कमजोर और गरीब राष्ट्रों को अपनी दया से उपकृत करने की आदत रही है | यही उनके बाकि दुनिया से बेहतर होने के भाव को जीवित रखता है | इसी दृष्टिकोण के चलते उन्हें 'स्लमडॉग मिलेनियर' फिल्म भाती है | भारत आकर झुग्गी झोपडी पर्यटन भी इसी भाव की अभिव्यक्ति है | आप इस पहलु पर भी विचार करें कि आर्थिक, सामाजिक व् सैन्य मापदंडो पर भारत और पाकिस्तान को समतुल्य मानना कहाँ तक तर्कसंगत है ? हर मापदंड के हिसाब से भारत पाकिस्तान से मीलों आगे निकल चुका है | बाबजूद इसके , पश्चिम मीडिया व् लीडरशिप, हमें 'इंडो -पाक' हायफ़न के लेंस से ही देखना चाहते हैं | बदलते परिवेश, उभरते नए शक्ति केंद्रों पर उनकी नज़र है | भारत के मामले में उनकी असहजता अस्वीकृति के रूप में सामने आ रही है | और शायद इसी भावना के चलते पश्चिम के मीडिया ने पाकिस्तान प्रोपेगंडा मशीनरी से उत्पादित कपोल को प्राथमिकता व् तत्परता से छापा है, दिखाया है | सनद रहे कमजोरी से शक्ति की तरफ बढ़ने का सफर अकेले ही तय करना होता है | स्थापित होने के बाद साथी आएंगे लेकिन इस दरमियान का सफर परीक्षा लेता रहेगा | सवाल खड़े किये जायेंगे , शंकाएं पैदा की जाएंगी राष्ट्र को चाहिए कि इस परीक्षा में अडिग रहे - सत्य , संयम और संकल्प के साथ आगे बढ़ता रहे |
सचिन कुमार गुर्जर
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