सोचो , इन काँच की ऊँची इमारतों से दूर,
डेडलाइन , टारगेटस , फॉलोअपस की बिसातों से दूर ,
कहीं नहर के किनारे , पीपल की एक छतरी है | छितरायी है बेशुमार किताबें , कुछ अखबार हैं , मेरी चाय की एक टपरी है |
शीशे के कुछ मर्तबान हैं |
पापे , मटठी , खस्ता बिस्कुट, कोयले की भट्टी पे चढ़े चायदान हैं |
डामर की एकहरी ,वीरान सड़क, सड़क किनारे यूकेलिप्टीसों की क़तारें |
एक्का दुक्का पैदल , कुछ जंगल के चौपाये , ना बाइक ,ना मोटर कारें |
तुम्हारे बच्चे अब कामयाब हैं | अमरीका, यूरोप में बसते उनके ख्वाब हैं |
बदरंग अपार्टमेंट्स , अपार्टमेंट्स में बने मुर्गी के दड़बे , दड़बो के सीखचे तुम्हे अब भींचते हैं |
शहर के उस पार जहाँ सड़कें छोटी हो जाती है , जिंदिगियाँ बड़ी ,वो बचपन के दिन तुम्हे अब खींचते हैं |
और तुम आये हो |
शहर से कुछ डार्क चॉकलेट के टुकड़े , रात की बची कुछ बासी खीर लाये हो |
हम बस बैठे हैं | चाय आधी पीकर छोड़ दी है |
ना गिले, ना शिकवे , न तारीफें , ना कोई जूनून |
बस पीपल के हिलते पत्तों की पीपनी , मौन का सुकून |
अमराही के पीछे डूबता सूरज, नहर के पानी की तरंगो में सिंदूरी रंग |
और वहाँ बस हम हैं, हम और हमारा बचपन |
सचिन कुमार गुर्जर
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