रविवार, 17 अप्रैल 2016

एक बूढा आदमी


एक बूढ़ा , बेहद बूढा आदमी । हमेशा व्हीलचेयर से  चिपटा, बोझिल । उसकी जिंदिगी की लौ  इतनी धीमी है कि कोई मरियल सा हवा का झोंका भी खामखाँ  ही बदनाम होगा । बत्ती अब बुझी कि तब बुझी । उसकी जिंदिगी की डोर किसी बेहद महीन धागे से लटकी है ।

दिन भर अकेला , बस एक लापरवाह, फ़ोन पे चिपकी सेविका के सहारे। वो आदमी बालकनी से बाहर ताकता  रहता है और पूरे जोश खरोश में कुछ गाता  रहता है । हमेशा !
  
स्विमिंग पूल के सामने वाले उस घर के सामने से मैँ जब भी गुजरता हूँ वो आदमी और भी जोर से गाने लगता है।

उसका मुँह फोफ्ला है , चेहरा बेहिसाब झुर्रीदार , स्वर उच्चारण कुछ स्पष्ट नहीं , पर वो गाता रहता है कोई मलय गीत , अथक , अनवरत ।

पता नहीं ,  उसके गाने का क्या प्रयोजन है । राम ही जाने । हो सकता है बुझ जाने का भय खाता हो उसको ।
या एकाकीपन ,लाचारी  से उपजी हताशा में जकड़ा घुटता हो।
या हो सकता है वो जश्न मनाता हो लम्बी पारी का ।
निर्भर करता है , वो जीवन संध्या को कैसे लेता है ।

मैँ हमेशा मुस्काता हूँ उसके गीत पे और गर्दन नीची कर अभिवादन करता हूँ ।
वो बूढा आदमी , हाथ उठा मेरा अभिवादन स्वीकार करता है और फिर और भी ऊँचा गाने लगता है ।
उसके जीवन की लौ सचमुच बहुत धीमी है और उसका 'संध्या गीत' बहुत ही प्रबल ।

                                                                                   - सचिन कुमार गुर्जर

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