एक बूढ़ा , बेहद बूढा आदमी । हमेशा व्हीलचेयर से चिपटा, बोझिल । उसकी जिंदिगी की लौ इतनी धीमी है कि कोई मरियल सा हवा का झोंका भी खामखाँ ही बदनाम होगा । बत्ती अब बुझी कि तब बुझी । उसकी जिंदिगी की डोर किसी बेहद महीन धागे से लटकी है ।
दिन भर अकेला , बस एक लापरवाह, फ़ोन पे चिपकी सेविका के सहारे। वो आदमी बालकनी से बाहर ताकता रहता है और पूरे जोश खरोश में कुछ गाता रहता है । हमेशा !
स्विमिंग पूल के सामने वाले उस घर के सामने से मैँ जब भी गुजरता हूँ वो आदमी और भी जोर से गाने लगता है।
उसका मुँह फोफ्ला है , चेहरा बेहिसाब झुर्रीदार , स्वर उच्चारण कुछ स्पष्ट नहीं , पर वो गाता रहता है कोई मलय गीत , अथक , अनवरत ।
पता नहीं , उसके गाने का क्या प्रयोजन है । राम ही जाने । हो सकता है बुझ जाने का भय खाता हो उसको ।
या एकाकीपन ,लाचारी से उपजी हताशा में जकड़ा घुटता हो।
या हो सकता है वो जश्न मनाता हो लम्बी पारी का ।
निर्भर करता है , वो जीवन संध्या को कैसे लेता है ।
मैँ हमेशा मुस्काता हूँ उसके गीत पे और गर्दन नीची कर अभिवादन करता हूँ ।
वो बूढा आदमी , हाथ उठा मेरा अभिवादन स्वीकार करता है और फिर और भी ऊँचा गाने लगता है ।
उसके जीवन की लौ सचमुच बहुत धीमी है और उसका 'संध्या गीत' बहुत ही प्रबल ।
- सचिन कुमार गुर्जर
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