शनिवार, 23 अप्रैल 2016

एक चटोरी औरत


एक थी चटोरी औरत । चांट पकौड़ी , रस मलाई खाने के लिए घर से बाहर सैर सपाटे करने वाली औरत !
घर में जवान होती , ताड़ सी बढ़ती तीन तीन बेटियाँ ,  पर उस निर्लज त्रिया का पैर कही थमता ही न था । उसके पाँवो में फेर था फिरकी सी नाचती फिरती थी । घर में कम, पिकनिक पे ज्यादा !
लड़कियों की माँ होने की जिम्मेदारी क्या होती है , इसका उस कमअक्ल को कुछ इल्म ही ना  था । नाखून भर भी नहीं !

 कुनबे पड़ोस की औरते कहतीं   " हे राम जी, इस लापरवाह औरत को क्यों दे दीं तीन तीन बेटियां , पता ना क्या होगा बेचारियों का आगे चल। "

पर वो औरत बस हर रोज चमक चांदनी बन घूमती , जवानी की भांग के नशे में चूर मस्तानी बन डोलती ।

बड़की लड़की  का विवाह जैसे तैसे कर दिया था जोड़ गांठ कर ।  मंझली लंबी पोर थी  और छुटकी भी जंगल बेल सी बढ़ रही थी । पर उस कमबख्त  औरत की खुद की निगोड़ी जवानी सिमटने का नाम ही न लेती थी !
उसे कई समझदार लोगो ने अपने कानों  गुनगुनाते हुए सुना था " चार दिन की है ये जवानी , खुल के जी लो ओ दिल जानी !"

रोज सुबह गाँव के बस अड्डे पे खड़ी दिख जाती, शहर जाने वाली बस के इंतज़ार में । पल्लू सर पे रखना उसे कतई भी गँवारा न था । बूढ़े , समझदार बुजुर्ग खुद अपनी निगाह बचा निकल जाते थे ।

उसका पति बूढा था , उससे उम्र में कम से कम एक दहाई बड़ा । लाचार, किसी अज्ञात बीमारी का शिकार रहता था  । बेचारा मेहनत का काम न कर पाता था ।एक एकड़ भर जमीन थी  पुश्तैनी ,उसी में कुछ आनाज हो जाता था ।
औरत  लंपट थी , बहुत ही मुँहजोर । कमजोर , बीमार पति का उस पर अख्तियार ना चलता था ।

चर्चा था कि पहले उसका उस स्कूल के मालिक से मिलना जुलना रहा जहाँ वो पढ़ाती थी और बाद में शहर के किसी बड़े अस्पताल के डॉक्टर के यहाँ आना जाना हो गया था । ऐसा गाँव के बहुत से समझदार प्राणी वांचते फिरते थे ।उसके कुनबे वाले, अडोस पड़ोस वाले  तो उसे कुलटा कहते थे । हर बात बेबात उसकी इज़्ज़त हवा में उछाल देते थे । बेशर्म चरित्रहीन कहा करते ।  औरते उसकी परछाई छूने भर से कतराती ।

गाँव के लफंडर कहते  कि उसके कई यार थे और उन्होंने उसे शहर के सिनेमा हाल पे , पार्क किनारे कुल्फी उड़ाते औेर काला बड़ा धुप का चश्मा लगाते कई बार देखा था । 
कुछ उसकी अनैतिक कारगुजारियों के किस्से सुनाते , मिर्च मसाले के साथ !

वो औरत सुंदर सजीली नार थी ।
एक बार तो उसने बेशर्मी की हद ही कर दी , बिना स्लीव्स का और पान के गले का ब्लाउज साडी के साथ पहन शहर के लिए निकल ली !
उस दिन गाँव के बड़े मुकद्दम से रहा न गया और उन्होंने औरत के नकारे पति तो खूब लताड़ा ।
" क्यों रे  राम आसरे , आँखो पे कतई पट्टी बांधे ही बैठे रहते हो क्या बे । ओ बुजदिल इंसान , अपना नहीं गाँव बस्ती की दूसरी बहु बेटियों का तो कुछ सोचा कर , तेरी अकेली जनि पूरे गाँव का माहौल ख़राब किये हुए है । नालायक , कुछ न सूझता हो तो कही चुल्लू भर पानी में डूब मर ।"
बुजदिल , नामर्द कह उसके जमीर को झंकझोर गए बड़े मुकद्दम । उनकी बातों का असर हुआ था , शाम को औरत का पति बसंती गटक के उससे खूब लड़ा , दोनों में हाथापाई भी हुई और औरत खूब फूट फूट के रोयी । पर कोई न गया बीच बचाव करने ।

हाँ , उस  दिन के बाद से उस औरत ने स्लीवलेस ब्लाउज पहनना छोड़ दिया था ।

फिर एक दिन अचानक खबर आई कि एक वो औरत जहर खा कर मर गयी ।
बड़ी मूछों वाले समझदार लोगो ने कहा " चटोरी थी , कम दिमाग थी , उसका मन चंचल था । उसका पाँव कही टिकता न था , दुनिया में भी न टिक सकी । "

इसे विधि का विधान कहिये या वो औरत शापित थी पर उसके चले जाने के बाद गाँव के कोने पे बसा राम आसरे का वो घर धीरे धीरे पटरी पे आने लगा ।
लड़कियां पढ़ने में अब्बल  थीं , अकारण घर के बाहर पैर तक न रखती थी । मंझली लड़की ग्रेजुएशन कर गई , अभी आगे भी कॉरेस्पोंडेंस से पढ़ रही थी  । हाई स्कूल , इंटर,  बी. ए. सब के सब डिस्टिकंशन !
गाँव के स्कूल में निर्विवाद शिक्षामित्र हो गयी मंझली । समय आया और सरकार ने सभी शिक्षमित्रों को सरकारी टीचर घोषित कर दिया । अच्छी खासी मोटी पगार पाती है अब !
अज्ञात और कभी ना ठीक होने वाली बीमारी  से पीड़ित राम आसरे अब भी घुटनो के दर्द को ले कराहता है ।
उसकी बीमारी उसे बार बार बीड़ी फूँकने , दर्जनों चाय पीने और खाट पर उकड़ू बैठ दिन भर अखबार को घूरने को मज़बूर करती है ।
वो झगड़ता नहीं अब , मंझली बेटी लक्ष्मी उसकी दवा दारु, बीड़ी मंडल सबका खर्च सहर्ष उठाती है ।

छोटी वाली लड़की मँझली से भी तेज़ है , सिविल सेवा में जाने का सपना देखती है और तैयारी कर रही है  । मँझली  के रिश्ते अच्छे अच्छे घरों से आ रहे है , लेकिन वो हर रिश्ते को कुछ न कुछ नुक्स  निकाल सलटा देती है ।

काका पूरे गाँव के माननीय है, मृदुभाषी  , पढ़े लिखे , देस दुनिया घूमें, सच में समझदार  । शहर के बड़े कॉलेज में प्रोफेसर । बिरादरी वालों का उनपे भी दबाब बना कि किसी तरह राम आसरे की लड़की को समझाओ, इतने अच्छे अच्छे रिश्तों को ठुकराए चली जा रही है ।

दबाब ज्यादा बना  तो काका एक रोज पहुंचे । कांठ के दरवाजे की साँकल खटका काका बोले " किधर हो राम आसरे भैय्या , चले आवे क्या ? " रामआसरे  खाट पे उकड़ू बैठे अखबार में लीन थे , हाथ में बीड़ी सुलगी हुई थी , हाथ खाट से नीचे लटकाए हुए  ।
"तनिक ना झिझको प्रोफेसर साब  , अपना घर समझों , बेहिचक चले आओ । " राम आसरे ने बैठे बैठे ही जबाब दिया ।

 छुटकी ने लपक कर लाल रंग की प्लास्टिक की कुर्सी राम आसरे की खाट के बगल लगा दी । प्रोफेसर काका पसर गए । इधर उधर की बात करने के बाद काका मंझली से बोले " सुनो बिटिया , हम तुम से ही बात करने खातिर आये है , इधर बैठो और हमारी बात गौर से सुनो । "

" वो तो हम समझ ही गए काका , अकारण तुम्हारे दर्शन कहाँ होते है गाँव में " मंझली ने जोड़ा ।

" देखो बेटा , कितने सुथरे कितने ऊँचे घरों से रिश्ते आ रहे , बिरादरी के लोग मुझे भी दबाब में ले रहे , अब तुम पैरों खड़ी हो, घर का काम सही है , तुम्हारी उम्र भी है , हाँ करने में हर्ज़ क्या है ?"
" बड़े मुकद्दम अपने साले के लड़के का योग चाह रहे है , बड़ा घर है , लड़का सरकारी क्लर्क है। अच्छा हिसाब है बेटा । "

"हम प्रण किये है काका। जब तक छुटकी अपने पैरो खड़ी न हो जाए, हम इस घर की देहलीज लांघ पराये घर नहीं जाएंगे । और हाँ, इस गाँव के किसी भी मुकद्दम या दूसरे साहुकार के सुझाये रिश्ते को तो हमारा आँख मूंद इनकार ही होगा । ये गाँठ बाँधी है हमने !"

" हम भरे बैठे है काका , आप हमे कुरेदोगे , तो हम फट पड़ेंगे । "

" काका इस कुनबे ने , बिरादरी ने , इस बस्ती ने हमारी माँ का जो चीर हरण किया , उसके लिए हम इन सबको कभी माफ़ नहीं कर पाएंगे । 
मन होता है किसी दिन लाउड स्पीकर लगा राम कथा सी बांच दे माँ की लिखी डायरी । बहुत सारे इज्जत वालो के नकाब उतर जायेंगे।"

" कहो बेटा , बेख़ौफ़ कहो , हम सुनने ही तो आये है । " काका ने जोड़ा ।

" सच कहूँ  ,  हमें अपने जीवन में दो मर्दों  का ही अनुभव है एक ये पिता जी और दुसरे बड़की दीदी के पति। और दोनों से ही हमारा तजुर्बा ऐसा है कि शादी करने का मन ही नहीं होता । हमे भी कही ऐसे निठल्ले खुदगर्ज़ मर्दों से पला पड़ा तो । "

मंझली की बात सुन राम आसरे सिकुड़ से गए , बीड़ी का कश जोर जोर से मारने लगे पर कुछ बोलने का साहस न जुटा सके ।

मंझली अपनी रौ में बहती चली गयी ।
" हम जो भी है ना काका , माँ की वजह से है । हमने जो भी सीखा माँ से सीखा , माँ ही हमारी गुरु थी ।  माँ ने ही हमे खुली आँखों से बड़े सपने देखने की हिम्मत दी । माँ इंसान के रूप में देवी थी । खुद जलके हमारा जीवन साध गयी ।"

फिर रुआँसी होकर बोली " पता है , माँ ने मरने का प्लान बहुत पहले ही बना लिया था , उसे बस दो बातों का इंतज़ार था , एक छुटकी  के बारहवीं के एग्जाम का और दूसरा निठल्ले जीजा को खुश करने को दी मोटर साइकिल के क़र्ज़ की आखिरी क़िस्त चुकाने का । जिस दिन वो जहर खा मरी , उस दिन क़र्ज़ की आखिरी क़िस्त की  चुकता रसीद उसके पर्स में थी । "

" वो न मरती पर रोज रोज के दुनिया के ताने , घर अकेले चलाने की जद्दोजहद । तनाव उसके शरीर को दीमक सा चाट रहा था भीतर भीतर । सीने में दर्द उठा था कई बार , हमे बताई भी नहीं । डॉक्टरों ने दिल्ली जा इलाज कराने की सलाह दी थी । बस ये एहसास ही उसे लील गया कि कही वो बेटियों पे बोझ न बन जाए । "

" और कितना करती वो , खर्च चलाने को सिलाई तुरपाई , सुई धागे का काम किया । गुजारा होता ना दीख पड़ा   तो स्कूल में पढ़ाना शुरू किया । वहाँ  का मालिक पगार  मार लेता  , गलत नज़र से देखता , इच्छा रखता तो हिम्मत बाँध शहर का रुख किया । भगवान् जाने क्या क्या जतन किये होंगे , शहर के बड़े अस्पताल में नर्सिंग का काम सीखने करने को ।  कोई कमदिल होती तो चारदीवारी से सर पटक पटक रो मरती । खुद को नियति के हवाले छोड़ देती। पर माँ  दुर्गा का अंश थी काका । "

" माँ पूरी कहानी लिख छोड़ गयी है काका ।
हम किसी को भी माफ़ न कर पाएंगे आजीवन। पर हम माफ़ माँ को भी न कर पाएंगे। उसे क्या लगता था , वो हमसे अपनी जद्दोजहद बताती और हम समझ न पाते, हम इतने छोटे भी ना थे  । कंधे से कन्धा मिला लड़ते दुनिया से  और जीत कर दिखाते । अकेली ही लड़ती रही  , दुत्कारो गयी , कुलटा कहलाई पर हमारे सपने सींचती रही।  क्यों री माँ? हम समझ जाते, बोलती तो एक बार । "

आंसुओ का समंदर सा बह निकला वहाँ । हिडकियां बंध गयी । छुटकी मूक सी सुन रही थी सब  ,उसके आगे रखी प्रितियोगिता दर्पण के विशेषांक  का पूरा पन्ना उसके आंसुओ से तर ब तर था । राम आसरे शुन्य में ताकने लगा , गंभीर हो गया  । बस जोर से खांस कर ये जतावा दिया कि वो अभागा  बीमार है,  लाचार है ।

"तनिक भी दबाब महसूस न करो बेटी , विवेक जो सही बताये वही करो । तुम्हारी माँ सचमुच दुर्गा का अंश थी । किसी भी मदद की दरकार हो तो बेझिझक मुझे याद करना । मैँ जो बन पड़ेगा करूँगा । " ये कहते हुए प्रोफेसर साब उठ चले ।

प्रोफेसर साब ने वापसी का रास्ता पकड़ा तो एक कई पूतों वाली समझदार औरत ने उन्हें रोक लिया । 
" तुम भी फेल होके आ गए क्या प्रोफेसर , जे लड़की किसी के कहे सुझाये से बिहा न करेंगीं । पढ़ लिख भले ही गयी हैं  ,  पर इनमे आभा देवी का अंश है। 
अच्छा ही हुआ वो चली गयी वरना अपनी छव में इन्हें भी हीनता की ओर ही खींच ले जाती  ।"

प्रोफेसर साब को कुछ न सूझा कि लठ चलाये या वाद विवाद करे !

हाँ थोडा सुकून है उन्हें , धीरे धीरे ही सही उस औरत की बेटियाँ  अपनी माँ की तस्वीर का खाका 'चटोरी औरत '  से 'कर्मयोगिनी आभा देवी' की ओर पलट रही हैं।

                                                                                 --सचिन कुमार गुर्जर



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