शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

मेरी छतरी के नीचे आजा!


वो इकहरे हाड की जवान औरत थी।जब भी हमारे मोहल्ले से गुजरती , उसके  सिर पर पानी का घड़ा होता या हाथ में  हँसिया होता ।  हमेशा किसी न किसी काम की हड़बड़ी में होती । उसे देखते ही हम जोर जोर से गाते  "मेरी छतरी के नीचे आजा , क्यों भीगे रे कमला खड़ी खड़ी! "

बड़े हमारे गाने पे हँसते तो हमारा हौसला और भी बढ़ जाता , हम एक सुर हो और भी जोर से गाते " अरे आजा दिल में समां जा , क्या सोचे है तू घडी घडी  ।"

वो औरत नागिन सी फनफनाती । दो चार कदम जोर से पटकती , मानो हमे पकड़ना चाहती हो । पर हम, तब हमारे पैर फूलो से भी हलके उठते थे और हवा के माफिक भागता था हमारा पुराना साइकिल का टायर!

वो औरत चिढ़ती , झुंझलाती और कहती " मैं जानू हुँ तुम किस किसके पूत हो, तुम्हारी  मेहतारियों से तुम्हारी खाल न उतरवाई ना, तो मेरा नाम कमला नहीं । "

चबूतरे पे नीम की छाँव  में खुरदरी  खटिया पे पैर पसार बीड़ी का सुट्टा लगा रहे काका सही मौका भांप  कहते " री कमला , जाने भी दे री भलामानस , नासमझ बालक ही तो हैं । "

फिर अपनी बात आगे बढ़ा बोलते  " कभी सुस्ता भी लिया कर कमेरी।"
हाथ में बीड़ी का बण्डल और माचिस ले उसकी ओर बढ़ा आग्रह करते " ले बीड़ी सुलगा ले, तनिक सुस्ता  ले, फिर  निकल जइयो खेतों  की ओर। "
 कमला का गुस्सा एक मिनट में छू मंतर हो जाता और हम बालक काका की चपलता, त्वरित बुद्धि  के कायल हो जाते।

लट्ठे का  पायजामा  और सैंडो बनियान पहने बच्चों की फ़ौज़ अपने टायरों की रैली के साथ घंटो  बाद गाँव का पूरा फेर लगा वापस  नीम के पेड़ तले लौटती।
काका की आँखे तब तक भी प्यार भरी शरारत से तर-ब-तर  होती !
                                                                                       -सचिन कुमार गुर्जर


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