शुक्रवार, 23 मई 2014

नए कंधे , पुराना ढोंग


फ्रांस की जनक्रांति के दौरान जब भूख और कुपोषण से परेशान मज़दूर, किसान  सड़को पर उतर आये और रोटी की मांग करने लगे तो फ्रांस की महारानी मैरी अंटोइनेटे ने उन्हें रोटी के अभाव में केक खाकर गुजारा करने की सलाह दे डाली थी ।महारानी के इस बयां का क्रांतिकारिओ ने खूब प्रचार किया था । आम जनता ने इस बयां को उनके कठिन हालातों का मखौल माना । 

ये बयां आपको भी अटपटा लग सकता है पर महारानी ने ये बयां गरीबो का मखौल उड़ाने के लिए दिया होगा ऐसा मैं कतई नहीं मानता । दरअसल, महारानी के इर्द गिर्द जिन चाटुकारो , सलाहकारों का जमावड़ा था वो सब धनाढ्य वर्ग से आते थे । दो जून की रोटी भी कोई समस्या हो सकती है , महारानी को इसका इल्म न था । केक लक्ज़री नहीं, दिन प्रतिदिन की भोजन सूची में शामिल था । 
 
जनसाधारण की आकांक्षाओं के कंधो पर चढ़ जब कोई नया नायक उभर कर सामने आता है तो उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती तृणमूल से जुड़े रहने की होती है ।चुनौती होती है जनमानस का मूड भाँपने की , उनकी आकांक्षाओं ,दबी आवाज़ो को बुलंद करने की । आप अगर चाटुकारो की  फ़ौज़ से घिर गए और जमीनी हकीकतों से कट गए तो समझो पतन शुरू हुआ ।

 दिन प्रतिदिन के अरविन्द केजरीवाल के व्यवहार में भी सच्चाई से कट जाने और अप्रासंगिक विचार,सुझाव  मंडली से घिर जाने के लक्षण प्रतीत होते है । दिल्ली में 'आप' का प्रादुर्भाव दबी कुचली जन इच्छाओ, छटपटाहटो  और भ्रष्टाचार का कुचक्र तोड़ने की कोशिशो का एक प्रयास था । लेकिन परिवर्तन की इस नाव के चालक दल ने समय के साथ जो दिशा पकड़ी है उससे लगता है कि ये प्रयोग पतन की ओर है । 

भ्रष्टाचार उन्मूलन के मूल मंत्र से पथ भ्रमित अरविन्द केजरीवाल ने उन सब पैंतरों  का इस्तेमाल किया  है जो  ठीठ , पुराने नेता और राजनैतिक दल समय समय पर करते रहे है । न्यायालय की अवमानना कर जेल जाना, जनता में सहानभूति पैदा करने का एक प्रपंच मात्र ही लगता है । 
'आप' के भावुक समर्थक शायद इत्तेफाक न रखें पर माफ़ करना , 'आप' के व्यवहार में बदलाव की हवा नहीं बल्कि जड़ता और पुरातन की सड़ांद ही महसूस होती है ।

                                                                'आप' का एक पुराना समर्थक 
 

गुरुवार, 1 मई 2014

एक अनुत्तरित पत्र



कभी कभी यूँ  होता  है कि आप बड़ी ग़रज से काम के किसी दस्तावेज  की तलाश में अपनी अलमारी में बेहतरतीब  लगी क़िताबों को उलट पलट रहे होते है । अलमारी के उन कोनो में झाँक रहे होते है जहाँ  सालो से सिर्फ़ और सिर्फ़ धूळ  का हीं साम्राज्य रहा  होता है । बन्द पड़ी किताबो के पीले पड़ते पन्नों को पलटते है इस आस में कि न जाने कहीँ आपकी ज़रूरत का  पेपर हाथ लग जाये ।
या आप अपंने मेलबॉक्स के आर्काइव्स में झाँक रहे होते है ।
ऐसे में वो जरूरत का दस्तावेज़  तो हाथ नहीं आता ,पर कुछ ऐसा  दिख जाता है जो बड़ा ही अप्रत्याशित होता  है ।कोई पुराना खत ,कोई  पुरानी  मेल दिख पडती है जो आपकों अतीत में खीच ले जाती  है ।

आज एक ऐसा ही एक भावुक मेल पत्र  हाथ लगा जो कभी  सालों पहले उस युग के प्रेमी मन ने लिखा था । यादों का एक पिटारा सा खुल गया है।धुंधले चेहरे फिर से चटक हो उठे है । 
बहुत कुछ याद आ पड़ा  है झपाक से याद आ गया है वो गुड़गांव का किराये का मकान । वो दोस्त जिससे देर रात तक दुनिया जहान की बातें होती थी ,सब तरह की बातें ! उसके सलाह मशवरे याद आते है जो अक्सर नाकाम हो जाते थे ।याद आ जाती है वो मकान मालकिन जो उम्र के लिहाज़ से तो आँटी ही दिखती थी पर जिसने हमसे साफ़ साफ़ शब्दों में बोला था कि हम उसे भाभी जी बुलाकार ही सम्बोधित करें । 

उस पृष्ठभूमि में और उस काल में ही रचित किया गया था ये प्रेम पत्र । घंटो की मेहनत और अंग्रेजी डिक्शनरी का इस्तेमाल करके लिखा गया ये पत्र उस युग के प्रेमी की करुण चीत्कार है । इसमें मुन्हार है, मान मनोव्वल की कोशिश है , भावनाओं का समंदर है जो उस दौर के मानस में उमड़ा था । सम्मोहन  ,खिचाव ,प्रेम पिपासा  की लबलबाती एक नदी है ।
 एक ऐसी नदी जो भावहीन ,निष्ठुर और संवेदनहीन मरुभूमि में भटकती , राह बनानें  क़ी नाकाम कोशिश करते हुए दम तोड़ देती है ।उस युग के प्रेमी को आस थी कि भले ही तब तक के सारे टोटके असफल ,निष्तेज साबित हुए हो ,पर इस मनुहार का  जबाब जरूर आएगा ।

उसके बाद दिन गए , महीने गए फिर साल भी  गुजर गये । ज़िन्दगियाँ  अपने अपंने रास्ते निकल चलीं , पत्र अनुत्तरित ही रह  गया । शायद अच्छे के लिए ही!

आज सोचता हूँ कि अंग्रेजी में न लिखकर अगर हिँदी मेँ लिखा होता तो शायद शब्द चयन की आसानी होती और भावनाएं भी बेहतर उभर पातीं । हालाँकि अंतिम परिणाम हार ही होता क्योंकि पत्थरदिल चट्टान से सामना था । और चट्टान से टकराकर तो लहर को ही बिखरना होता है ।

हालाँकि पत्र अंग्रेजी में क्यों लिखा गया इस बात को लेकर भी मनोवैज्ञानिक विशलेषण किया जा सकता  है । प्यार का मॉडल अंग्रेज़ीदा हो चला है शायद इसलिए । अपनी संस्कृति और जुबान भी प्यार के इज़हार में असहज महसूस कराती है , टूटीं फूटीं अंग्रेजी में 'आई लव यु ' के उदगार उस सांस्क़तिक असहजता  से निज़ाद दिला देते है ।

कौन कहता है कि भूलना , बिसरा देना एक बीमारी  है । यही तो कुदरत की एक नेमत है कि आज का मन मुस्कराहट के साथ इस प्रेमपाती  को मसालेदार खबर क़ी तरह पढ़ रहा है ।
वर्ना ,उस दौर में तो दिल ख़ून  के आँसू रोया था  !





अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...