गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

सूरजकुंड मेला भ्रमण

 पिछले हफ्ते यूँ ही सोच रहा था कि क्यों न गुडगाँव के आसपास कही भ्रमण कर लिया जाये ।गूगल महाशय का सहारा लिया , सुझाव आया कि दमदमा झील घूम आओ या सुल्तानपुर पक्षी विहार घूम आओ । फिर कही कोने में सूरजकुंड मेले का भी सुझाव दिख पड़ा । बचपन से सुन रखा था सूरजकुंड के मेले के बारे में ।अरे हाँ , सुबह के अखबार में भी तो सूरजकुंड मेले की रंग बिरंगी तस्वीरे देखी थी,विदेशी नर्तकियों की । हर साल एक फरबरी से पंद्रह फरबरी तक लगता है । ज्यादा सोचा नहीं बस बैग उठाया और निकल पड़ा ।सप्ताहांत में जाता तो शायद ज्यादा भीड़ से दो चार होना पड़ता । कार्य दिवस था सो भीड़ कम ही थी ।

मेले परिसर के गेट पर पहुँचा । मुँह में सुर्ती दबाएँ गार्ड ने बोलने तक की जेहमत ना उठाई , सीधे टिकट काउंटर की ओर ऊँगली उठा दी । सत्तर रुपये ढ़ीले किये तब जाकर प्रवेश की अनुमति मिली ।
भीतर मेले में रंग बिखरे पड़े थे । भांति भांति के देश विदेश से आये लोग ,युवाओं के ठिठोली करते झुण्ड , तरह तरह के हस्त शिल्प।  मानों दुनिया जहान की कलाकारी सिमट आयी हो ।   इस बार के मेले की थीम गोवा हैं सो सारा मेला गोवामय  जान पड़ता है ।

पेश है मेले की कुछ तस्वीरें :








अगर आप सोचते है कि मेला अव्यवस्था और गन्दगी का साम्राज्य होता है तो ये मेला आपको अपने तथ्यों पर पुनर्विचार के लिए मजबूर करेगा ।
साफ़ सफाई चौकस है ,जगह जगह दीर्घशंका और लघुशंका से निपटनें का जबरदस्त प्रबंध किया गया है । सफाई कर्मचारी और सुरक्षा कर्मचारी मुस्तैद है । पक्के ईंट , सीमेंट से बनी संरचनाओं के ऊपर गोबर की लिपाई आपको  दशको पहले ओझल हो चुके मटियाले गाँव की याद दिला जाते है ।




कीकर के पेड़ तले कच्चे चबूतरे पर बैठे लोक कलाकार अपनी बातों में मशगूल थे ।बस अनुरोध भर की देरी थी , फिर तो ऐसा रंग जमा कि दर्शक दीर्घा लाँघ युवतियाँ भी नाच उठीं ।अतुल्य अनुभव , धरोहर बची रहे ऐसी आकांक्षा है ।



फिर कुछ जानी पहचानी सी  एक चीज पे जाकर  नज़र ठहर गयी । अरे ये तो वही बॉयोस्कोप है जो हम अपने गाँव के मेले  में देखा करते थे । बालमन ने चाहा कि फिर से झाँकू एक बार , पर प्रौढ़ मन ने डपट दिया , जैसे बचपन में ताऊ डाँट दिया करते थे । अरे क्या होगा  वही हीरो हीरोइन के चित्र  या फिर ऐतिहासिक इमारतों के चित्र । कभी सबका चेहता आज तिरस्कारित है ।मन कराहता है पर बदलाव की आँधी में सब उखड़े हैं , पुराने पेड़ो की जड़े नये पेड़ो की  खाद होती आयी है । आजकल के बच्चों को ये सब नहीं भाता ।केबल , इंटरनेट ,एक्स-बॉक्स …… सब मिलकर लील गए मेरे बॉयोस्कोप की  दुनिया।बॉयोस्कोप अपने अस्तित्व की लड़ाई हार चूका है । नमूना बन के रह गया है हम जैसे बुढाते  हृदयों में एक टीस पैदा करने के लिए । आह !निर्मोही बचपन , तूने वापस  लौटना क्यों न सीखा ।






कठपुतली नृत्य देखने के लिए ठहरा । मनोरंजन के पुराने साधन कितने सरल से थे ना और कितने शिक्षाप्रद भी । जोगी जोगिन के नाच के साथ माई ने गवई जीवन का सार गाके सुना दिया ।कठपुतली नृत्य के आखिरी भाग में जोगी को जहरी नाग डस लेता है । तम्बू में छिपा कलाकार चिल्लाता है 'डस लिया रे..... जहरी ने मस्तक पे डस खाया। '
जोगन परेशान हो पूछती है ' अब कैसे ठीक होवैगा 'आवाज़ आती है ' दो सेर दूध पीवेगा , तो आपे ठीक हो जावैगा ' …

काश ....दुनिया के सब जहरियों का इलाज़ सेर दो सेर दूध में होता ।

समझने वाले इशारा समझ गए ।  हम भी दस रुपए कला के नाम छोटे कलंदर को थमा आगे बढ़ गए ।



अगर आप शिल्प कला , लोक कला के शौक़ीन है तो सूरजकुंड आपको खूब भायेगा । देश विदेश के नृत्य आपके दिल को झूमने पे मजबूर देंगे ।
हाँ , महिला सम्बन्धियों को साथ ले जाना आपकी जेब पर भारी पड़ सकता है , महिला सम्बंधी साजोसामान का एक समंदर सा है ,बिना जेब हल्की किये लौटना मुश्किल ही  नहीं , नामुमकिन है ।कुल मिला के मेला अपनी प्रसिद्धि पे खरा उतरता है ।
 मेला संयोजको को उम्दा प्रबंध की बधाई !


 

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