शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

अच्छा और हम्म


" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था | 

"अच्छा " पुरुष ने इतना भर कहा बस |  और ये 'अच्छा ' पत्थर लगाए जाने की क्रिया का स्वागत भाव न था | बनिस्बत इसके ये  इस बात की तसदीक था कि वह बेचारा अनभिज्ञ था | 

"मैं  पूछती हूँ कि भला क्या जरूरत है इस बर्बादी की | माँ बाबा के बाद वहाँ कौन रहेगा | " स्त्री का स्वर तीव्र से मध्यम की ओर चला गया था | उसके रोष में अब दर्द था | बिलाबजह , फिजूल की बर्बादी का दर्द | 

"हम्म " कुरेशिये की बुनाई के मेजपोश पर चाय का कप वापस रखते हुए पुरुष ने हामी भरी | 

"तुम्हे क्या लगता है , माँ बाबा के पास पैसा नहीं है | लाख दो लाख से कम लगेंगे क्या | देखते रहियो , सब का सब छोटे को जायेगा ! " 

"हम्म्म्म " पुरुष का जबाब पहले जैसा ही था , बस पहले से थोड़ा लम्बा | 

आप सोचेंगे , कि शायद पुरुष का कलेजा चूजे का है | स्त्री के तर्क की काट हो सकती थी | 

माँ बाप बूढ़े है तो क्या हुआ | जब अगड़ पड़ोस के सब घरों के आँगन में पत्थर लग गया है वे  भला कच्चे आँगन में क्यों रहे | फिर वे ये सब अपनी फसल की कमाई से ही तो कर रहे , हमे क्या हर्ज़ ? 

सब उनका ही तो है | और फिर उनके बाद गांव के मकान का मालिकाना हक़ में हम भी तो हिस्सेदार होंगे | 


लेकिन वजुआत दूसरी भी हो सकती हैं | हो सकता है इस तर्क वितर्क के खेल को पुरुष ने कई मर्तबा खेला हो और अब मन उकता गया हो | ये एक ऐसा खेल है जिसमे जीत हो ही नहीं सकती  | चीन के प्रसिद्ध मिलिट्री स्ट्रैटिजिस्ट 'सुन ज़ू' ने अपनी किताब 'आर्ट ऑफ़ वॉर ' में लिखा है , जिस युद्ध को आप जीत नहीं सकते , उसमे उतरिये ही मत |  

पुरुष के हाथ में 'हम्म ' और 'अच्छा ' ऐसी दो ढाल है जिससे वह युद्ध से बिना लड़े समूचा बच निकलता है | 


आप कितने गाँव खेड़ो से गुजरते हैं | जहाँ अब पक्के रंग रोगन किये हुए , ऊँचे चबूतरों के मकान पाते हैं | चबूतरे जिन पर संगमरमर के  पत्थर बिछे होते है  | दो चार कुर्सियां रखी होती हैं, कुछ गमले लगे होते हैं  | ये ऊँचे सजीले  चबूतरे इस बात का उद्धघोष होते हैं  कि परिवार अच्छा कर रहा है | 

इन ऊँचे चबूतरों के शहरी मॉडल पर बने मकानों के बीच में आप कोई जर्जर पुरानी हवेली पा जाएं , जिस पर सालों से पुताई न हुई हो , जिस के कंगूरों पर पीपल उग आये हों , जिसका आँगन कच्चा हो , तो आंगन में बैठे बूढ़े बूढी की  गरीबी पर तरस जाँच पड़ताल के बाद ही खाइयेगा | 

बहुत मुमकिन है उस घर का बेटा गाँव का सबसे होनहार लड़का हो | सबसे धनाढ्य भी | लड़का जो दुबई में प्रोजेक्ट मैनेजर हो और जिसके मुंबई और पुणे में दो दो फ्लैट हों |  लड़का जिसने इंजिनीयरिंग , मैनेजमेंट के गूंठ  तो सीखे हों पर 'हम्म' और 'अच्छा ' कह बच निकलने की कला से अनभिज्ञ हो | 


                                                                                         सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                                         सिंगापुर द्वीप 

                                                                                          २० अक्टूबर २०२४ 

 

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

सैडिस्टिक सुख


लिंडा से मेरी मित्रता बहुत गहरी नहीं रही |फिर , हमारे परिचय के बमुश्किल दो तीन महीने भर ही तो वह सिंगापुर  में रही |     चुनाचे  कसीदे पढ़ने के लिए बहुत  कुछ नहीं है | लेकिन कई बार छोटे समय की मित्रता भी कुछ ऐसे लम्हे दे जाती है कि आदमी फुरसत में बैठ मुस्कुरा लेता है | 

लिंडा वियतनामी मूल की लड़की थी | बिहेवियरल साइंस में विदेश से मास्टर डिग्री और फिर उसके बाद बेहतर करियर की आस उसे   चांग माई  की पहाड़ियों से सिंगापुर तक खींच लायी थी | साउथ पूर्व एशिया के मानक के हिसाब से वह लम्बे कद की लड़की थी | औसत चेहरा मोहरा , दुबली , सपाट वक्ष स्थल , रंग साफ़ पीत वर्ण | नैन नक्श मंगोल कुल के थे | गर्दन बालिश भर लम्बी थी , जिसमे हमेशा एक तार जितना महीन सिल्वर कलर पेंडट लिपटा रहता था |  कार्गो पैंट , टीशर्ट , वुडलैंड स्टाइल शूज , दाएं हाथ की इंडेक्स फिंगर में सर्प नुमा अंगूठी, विंटेज स्टाइल गोल्डन केसीओ वाच | यही उसका परिधान होता था |  

उसे फिक्शन पढ़ने का शौक न होता तो शायद हमारी मुलाक़ात ही न हुई होती | बुगिस लाइब्रेरी के रीडिंग लॉउन्ज में जब मैंने उसे पहली बार देखा तो  उसके हाथ हरुकी मुराकामी की 'नॉर्वेजियन वुड' थी | हरुकी मुराकामी के बारे में मैंने काफी सुना था लेकिन इस जापानी लेखक का कुछ भी पढ़ा नहीं था सो मैंने उससे पूछा कि क्या उधर इस लेखक की कोई और रचना भी है क्या ?

मैं फिक्शन सेक्शन के चक्कर लगाकर वापस आकर बैठा तो हमारी बातचीत चल निकली | फिर हम घंटा भर रसियन , फ्रेंच , लेटिन अमेरिकन से लेकर जापान तक के फिक्शन , नॉन फिक्शन पर गपियाते रहे | लाइब्रेरी गप्पे हांकने के लिए माकूल जगह नहीं  थी सो उसके बाद हम जब भी मिले , पास के स्टारबक्स में बैठने लगे | 


उस रविवार लिंडा ने भारतीय परिधान पहना था | 

पीले कलर का लखनवी करी वर्क का सूट , वाइट कलर पेंट , लाइट ग्रे हाई हील शूज | शायद हफ्ते भर में वापस वियतनाम लौट रही थी सो अलविदा को थोड़ा खुशनुमा बनाने का विचार उसके जेहन में रहा हो |  

और क्या ही लग रही थी | भारतीय परिधान इन चीनी मंगोल कुल की लड़कियों पर खूब फवते हैं | सुतवा शरीर और साफ़ गोरा रंग इन्हे विरासत में मिला होता है |ग़ज़ब का कॉकटेल बन पड़ता है !

उसने पूछा कि वह कैसी लग रही है तो मैंने अपने सीने पर हाथ रख दिया और देर तक आँखे झपकाता रहा | ट्रैन में चढ़ते हुए हम खिलखिला रहे थे | 


मैं एक अदृश्य आदमी  रहा हूँ | मिस्टर इंडिया वाला अदृश्य नहीं , बल्कि हील डोल, रूप रंग , नैन नक्श , चाल ढाल , इन सब के लिहाज से इस कदर मामूली , कि अमूमन गली कूचों , बस ट्रैन के सफर में आमजनो के विसुअल फील्ड में मेरी हाज़री दर्ज नहीं होती | 

लेकिन उस रविवार को मेट्रो ट्रैन में लोगो ने मुझे देखा | मैं और लिंडा बंद दिशा वाले दरवाजे से सटे खड़े थे | सामने की सीट पर बुजुर्ग चीनी मूल की महिला ने मुझे देर तक नापा | फिर देर तक लिंडा को देखती रही | 

त्रिस्कार , हीन, डिस्गस्ट  | कुछ इस तरह के भाव उसके चेहरे पर थे |  जैसे कोई चोर कुछ चुरा लिए जाता हो और मालिक की दूर से नज़र पड़ गयी हो | मेरे इस तरह के एक दो अनुभव रहे है , खासकर पुरानी  पीढ़ी के लोगो के साथ | मैं गौर नहीं करता | 

लेकिन भारतीय मूल के पुरुषों की अचानक से मुझ में बढ़ी दिलचस्पी काबिले गौर थी |  वो यूँ कर , कि  भारतीय पुरुष एक दूसरे  देखते ही कहाँ  है | पार्क के फुटपाथ पर आमने सामने आ जाएँ तो एक आसमान को ताकेगा , दूसरा आसपास के सारे पेड़ पौधों की गिनती कर डालेगा |  उनकी  थोड़ा बहुत 'गुड मॉर्निंग' या 'हाउ डू यू डू ' दूसरी नस्ल के पुरुषो को देख कर ही निकलती है |   उस दिन उनमे से कई अपनी पत्नियों से नज़रे चुरा हमें देख रहे थे | 

लिंडा पर शायद नयी पोशाक का असर था या फिर अचानक से ट्रैन के डिब्बे के यात्रिओं की बढ़ी दिलचस्पी को उसने भी भाँप लिया था |  वह  बड़ी ही नज़ाकत से पूरे सफर मेरे साथ खड़ी रही | कुछ यूँ क़े , के जैसे हमने कसमें ली हैं , हमारे अकेले में एक दूसरे से वायदे हुए है |  

लेकिन भारतीय स्त्रियों का व्यवहार भौंचक्का करने वाला था | निगाह भर आदमी को देखने की उनकी तरबियत नहीं रही होती है | लेकिन मैंने पाया कि उनमे से कई मुझे हर दो मिनट में देख रही थीं | कुछ जो स्पोर्ट हैंडल पकडे खड़ी थी , वे बड़ी बेचैनी से पैर बदल रही थीं  | अजी सिर से पैर तक मुझे दर्जनों बार नापा गया | मैं क्या बोल रहा था  ये सुनने को कान लगाए गए | कई मुस्कुराहटें यूँ ही सस्ते में मुझे नजर कर दी गयी | 


मैं तो जैसे खुमार में था | रविवार की उस सुबह मुझे अपनी महशूरियत का अहसास हो चला था | माहौल को थोड़ा और दिलचस्प बनाने के लिए मैं बार बार लिंडा के कान के पास जाता और कोई बेफिज़ूल सी बात कहता | 

जैसे "देखो न , मौसम कितना अच्छा है | "

"तुम्हे क्या लगता है लिंडा , क्या आज बारिश होगी ?"

"तुमने अभी तक अन्तन चेखोव को क्यों नहीं पढ़ा है ?" वैगरह वैगरह | 


मैं सोच रहा था कि जब में अपनी जवानी के गुलाबी सालों में था , तब क्यों कर मेरी नस्ल की स्त्रिओं की मुझ में दिलचस्पी नहीं रही | और अब मैं ढलान पर हूँ | , क्या मैं समय के बेहतर हुआ हूँ| किसी पुरानी शराब की तरह | ऐसे विचार मेरे मानस में कौंध रहे थे 


और फिर मुझे इल्म हुआ | और कुछ इस फुर्ती से हुआ कि ऐसे लगा के  जैसे  बिजली आन गिरी हो ।

'ओह माय गॉड !' , 'ओह माय गॉड !' | मैं किस कदर  उन महिलाओ के पतियों जैसा दिख रहा था | कमर छोड़ता पेट , कपटियों से ऊपर की ओर उड़ती जाती हेयर लाइन  |  माथे पर स्टैटिक ऐज लाइन्स | मसल लॉस से थुलथुल होती जाती भुजाएं | किश्तों  के बोझ से ढले कंधे |  निश्तेज चेहरा | टेलर मेड , क्रीच वाली पैंट , सिल्वर बैंड विंटेज वाच , हर पौशाक के साथ पहने जाने वाले ग्रे लेदर शूज , गोल्डन फ्रेम चश्मा |   

उफ्फ्फ्फ़ , मेरा  लिंडा के साथ होना एक प्रदर्शन था , एक एक्सहिबिशन |एक अधेड़ मिडिल क्लास भारतीय मर्द के लिए सम्भावनाओ का प्रदर्शन ! 

बस और बस , शायद यही बात उन्हें डरा रही थी | मुझमे और उनके पतियों में सिर्फ और सिर्फ बेहयाई का ही फर्क तो था | भारतीय पुरुष जिम्मेदारी और हया का चोला छोड़ भागे तो क्या हो ? उनकी मुझ में जिज्ञासा शायद ये खौफ ही थी | मोरल कोड टूट जाने का डर  | जनाब , स्त्री का चेतन संभावनाओं के अंतिम सिरे तक सोचता है | 

और उनके इस खौफ का मुझे जैसे ही एहसास हुआ , मेरे होठ किसी धनुष की प्रत्यंचा की तरह चौड़ी मुस्कान में खिल उठे | यह  एक सैडिस्टिक सुख था | 

लिंडा से वो आखिरी मुलाकात थी | हमने एक दूसरे के संपर्क में रहने , अच्छी किताबो के सुझाव देते रहने के वादे किये | उसने मुझे कभी चांग माई आने का अनुरोध किया | 

 लाइब्रेरी से वापस लौट उस दिन मैं देर तक मुस्कुराता रहा | रात को सोने तक मुस्कुरता ही रहा | 


                                                                                                      -सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                                                         सिंगापुर द्वीप  

                                                                                                        ५ अक्टूबर २०२४ 

                                                                                                                                                                                    


सोमवार, 9 सितंबर 2024

इंस्टूमेंट टू ओपन

"पेरासिटामोल " मैंने बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के फार्मेसी सेक्शन में बैंठी  फार्मासिस्ट से इतना भर पूछा | और जबाब में उसने दायाँ हाथ हवा में उठाया , एक अधचन्द्राकर बनाया , उसके बाद फिर दूसरा अर्धचद्राकार | माने , दो सेल्फ लेन कूद कर तीसरी में चले जाओ |मुझे  कोई 'लो डोज़' , जेनेरिक सी टेबलेट का छोटे से छोटा पैकेट चाहिए था | बताये गए सेल्फ में सब जम्बो पैक ही दिखे सो मैं खुद ही घूम कर दुसरे सेल्फ स्कैन करने लगा |  दो बार चक्कर काट जब मैं तीसरी मर्तबा फार्मासिस्ट के आगे से गुजरा तो वो अपनी चेयर छोड़ मेरे पास चली आयी | कृशकाय महिला थी , मोटा चश्मा लगाए| औसत से लम्बी, पीत वर्ण , पचपन साठ के बीच की रही होगी | या उससे भी उम्रदराज हो | इन चीनी लोगो की उम्र का पता नहीं चलता | 

"तुम्हे पैरासिटामॉल ही चाहिए न या कुछ और | " उसने मुस्कुराते हुए पूछा | 

"नहीं , कुछ और तो नहीं | चाहिए होगा तो मैं मांग लूँगा " मैंने विनम्रता से जबाब दिया | 

मुझे उसका इस तरह से 'कुछ और' पूछना थोड़ा अजीब लगा था | और उस अजीब लगने की फीलिंग को वो अनुभवी महिला शायद समझ गयी थी  | 

वो समझाने लगी | "स्टोर में तरह तरह के कस्टमर आते है | बहुत से टूरिस्ट होते है | टूरिस्ट जो अपनी बात कह नहीं पाते | "

" मैं समझ सकता हूँ |  मुझे कम्युनिकेशन  का ऐसा कोई प्रॉब्लम नहीं है |" मैंने कहा | 

वो बताने लगी " अभी पिछले हफ्ते एक टूरिस्ट आया था | अरब की किसी कंट्री का |  कहने लगा , उसे इंस्टूमेंट चाहिए | 

मैंने कहा , इंस्टूमेंट के लिए टूल्स एंड हार्डवेयर सेक्शन में चला जाए | 

"नो नो , नॉट दैट वन | "

वो थोड़ा परेशां हुआ | इधर उधर देखने लगा | 

फिर मेरे पास आकर फुसफसाया "एक्चुअली आय नीड इंस्ट्रूमेंट टू ओपन माय वाइफ !" 

मैंने इतने साल से कितने लोगो को सुना है , समझा है | पर उसकी बात सुनकर मैं कन्फूस हो गयी | 

और मैंने कहा "सॉरी , हमारे यहाँ ऐसा कोई इंस्टूमेंट नहीं है | "

वो अचंभित हुआ | कहने लगा "स्ट्रेंज , हाउ कम यू डोंट हैव | इन माय कंट्री आल बिग , आल स्माल शॉप्स हैव | "

मैंने कहा " सॉरी , हमारे यहाँ क्या , पूरे सिंगापुर के किसी भी स्टोर में ऐसा कोई इंस्टूमेंट नहीं है |"

हैरत से बड़ी बड़ी आँखे ले वह  झुंझला कर आगे बढ़ गया | 

स्टोर के कोने में एक बूढा मलय मूल का पुरुष पोंछा लगा रहा था  | टूरिस्ट उसके पास गया और कुछ समझाने लगा | मैं उनकी खुसपुसाहट नहीं सुन सकती थी | लेकिन जब बूढ़े क्लीनर ने अति उत्साह में हवा में हाथ उठाकर कहा "हनीमून हनीमून"  | तब जाकर मैं अरबी नबवयुवक की जरूरत को समझ पायी और मैंने सही सेल्फ की तरह उसे इशारे से भेजा | 

ठहाका लगाकर जब हमने साँस लिया तो मैंने कहा " लैंग्वेज बैरियर , कल्चर बैरियर , यू  नो |"

पर बूढी फार्मासिस्ट की राय थोड़ी अलहदा थी | 

कहने लगी " कई बार चीनी टूरिस्ट भी आते है | उन्हें लैंग्वेज का कोई बैरियर नहीं | मैं समझती हूँ | पिछले दिनों एक मेन लैंड चाइना का कोई टूरिस्ट था | कहने लगा " ग्लब्स चाहिए | आज ही की तरह उस दिन असिस्टेंट स्टोर में नहीं था , लिहाजा मैं ही सीढ़ी लगाकर सेनेटरी ग्लोब्स उतारने लगी | 

उस टूरिस्ट ने देखा तो बोला , "नहीं नहीं ये वाले नहीं | "

"बाथरूम ग्लब्स !"

मैंने समझाया , ये मल्टीपर्पज़ हैं , कुछ चुनिंदा ब्रांड चाहिए तो बताये , या फिर हाई क्वालिटी मेडिकल क्लास ग्लब्स दे दूँ ?

वो झुंझला गया।  मैंडरिन में बोला " नहीं नहीं ये वाले नहीं चाहिए , प्राइवेट ग्लब्स चाहिए|  "

प्राइवेट ग्लब्स , माय गॉड ! तब जाकर मैं समझी | और मैंने उसे सही सेल्फ पर भेजा | "


हाथ में पेरासिटामोल का पत्ता लिए बिलिंग काउंटर पर खड़ा मैं सोच रहा था कि दवा लूँ या ना लूँ , मेरा मूड बेहतर था , सिर दर्द रफूचक्कर हो चुका था |  


                                                        - सचिन कुमार गुर्जर 

                                                            सितम्बर ९, २०२४ , सिंगापुर द्वीप 


सोमवार, 17 जून 2024

सुकून का आखिरी दिन



आप अपने जीवन से संतुष्ट थे | अपनी औकात से वाकिफ | क्या साध्य है क्या आसाध्य इससे परिचित | इच्छाएं तिलांजित किये हुए | 

फिर कोई मिल गया | चढ़ते सूरज के साथ नहीं मिला | तब मिला जब सूरज दोपहर के बाद ढलान पर था |   वो मिला तो उसने बड़े प्यार से कहा "आप  बुद्दू हो , एकदम पागल |आपको  पता ही नहीं रहा कि आप  क्या हो | क्या डिसर्व  करते हो| "

उसकी बात आपको  जँची | थेरेपिस्ट , लाइफ कोच आपको समझाते रहे | सालो साल समझाते रहे | सेल्फ एस्टीम , सेल्फ बिलीफ , पॉजिटिव अफर्मेशन वगैरह वगैरह | पर आप हमेशा अपने को कम आंकते रहे | सबसे मृदुल रहे पर खुद को हमेशा कठोर नज़र से देखा | किसी की बात आपको मुतमईन न कर सकी | 

पर उसकी बात आपको जँची !

ब्रेकफास्ट , लंच , डिनर का हिसाब लिया जाने लगा | आप फ़ोन ना करो तो सामने वाला परेशां होता |  शिकायतों का अम्बार  लगता | आप असहज होते |  वो यूँ कि आपको इस कदर देखभाल की आदत कहाँ रही | एक माँ और नानी केअलावा  आपको कब किसने पुचकारा  | हाँसिये पर लटके जीने की आपकी आदत रही | बेगौरी में पला ,कतार  में खड़ा आखिरी आदमी | जिसने होने न होने से किसी को कोई फर्क नहीं  पड़ता | पर उसने आपको एहसास कराया के  आप कोई बेशकीमती नगीना हैं  , जिस पर नज़र रखना बेहद जरूरी है | पहली बार आपने उसकी नज़रो में , उसकी आवाज़ में,  आपको खो देने का डर देखा | 


और फिर आप बह गए | इस कदर बहे कि कह बैठे "सुनो , हम तुम्हारे बिना रह नहीं सकते | प्रेम है तुमसे , बेहद प्रेम !"

बस वो दिन आपकी जिंदगी के सुकून का आखिरी दिन था | 

शुक्रवार, 10 मई 2024

शुक्रवार की शाम

 


शुक्रवार की शाम का अपना एक दबाव  होता है | दबाव यह कि शाम जाया नहीं होनी चाहिये | और इसी के मद्देनज़र मैंने दो तीन दोस्तों को संदेशा भेजा है कि शाम को मिला जाए | ऑफिस की सीढियाँ उतरते हुए सोच रहा हूँ कि पी जाए या न पी जाये | 

अकेले पीने का कोई मूड नहीं है | बिना संगत पीना भी कोई पीना है  |फिर अभी पिछले हफ्ते अपने गृह प्रवास के दौरान मैंने ठीक ठाक मात्रा में 'ब्लैक डॉग' और  '१०० पाइपर्स' धकेली है |  हाँ या ना , बस इसी ऊहापोह  में रिवर फ्रंट की तरफ बढ़ा चला जा रहा हूँ | 

रैफल्स पैलेस जनपथ के साईडवॉक  पर एक गोरा खड़ा है , उम्र के गुलाबी सालों में है  | दो बीगल्स लिए है  | सफ़ेद , लाल , काले चक्क्ते वाले बीगल्स | उनके कान उनके मुँह से बालिश भर नीचे तक लटके है | 

मुझे बीगल्स औसत ही लगते है | लेकिन ट्रैन स्टेशन से रिवर फ्रंट को आती दो चीनी बालाओ से रहा नहीं जा रहा | "ओह्ह सो क्यूट सो क्यूट !" वे  ख़ुशी से उछल रहीं हैं | उनके दूधिया हाथ तालियाँ बजा रहे है | वैसे ही जैसे छोटे बच्चे अति उत्साह में बजाते हैं  | उनमे से एक गोरे से पूछती है कि क्या वो उन्हें छू ले |  'यस , स्योर ' गोरा इज़ाज़त दे देता है | 

यहाँ मुझमे थोड़ा बहुत कॉग्निटिव बायस हो सकता है  , पर आप शुक्रवार की शाम को, सिंगापुर के रिवरसाइड वाक  पर , कुत्तों के टहलाते जवान गोरे को कामदेव ही समझिये | जहाँ निशाना लगा तीर चला दे ,  बड़ी आसानी से खींच लेगा | सीमलेस , एफर्टलेस    ! 

सोच रहा हूँ , आदमी अगर सही जगह, सही जीन पूल में  पैदा हो जाये तो सब कुछ कितना सहज हो जाता है | कम से कम भौतिक स्तर पर तो हो ही जाता है |इसके इतर मेरे जंगल के आदमी को सब कुछ कमाना  होता है| नौकरी,  घर , गृहस्थ , बच्चो की पढाई , हेल्थ इंसोरेंस , माँ बाप का बुढ़ापा , गाढ़े दिनों के लिए कोई जमीन का एक्स्ट्रा प्लाट , बीवी के गहने और किस्मत हुई तो थोड़ा बहुत प्यार | सब कुछ परिश्रम से ही है | लाइफ अपहिल टास्क मोड में ही रहती है |  

उन कुत्तों से मुझे याद पड़ा है कि कॉर्पोरेट ऑफिस का पट्टा अभी तक मेरे गले में लटका हुआ है | मैं झुंझला कर उसे लैपटॉप बैग की साइड पॉकेट में सहेज रहा हूँ | मुझे कुत्ता होना मंजूर नहीं  | 

सच्ची? नहीं, मेरा मतलब है , ऐसा कुत्ता होना मंजूर नहीं जिसे घडी घडी दुत्कारा जाए | ऐसा नहीं, जिसकी दुम हमेशा मारे डर पिछवाड़ा ही ढाँपती  रहे | 

हाँ , ऐसा कुत्ता होने में मुझे कोई गुरेज नहीं जिसके गालों पर कोई हलकी सी थपकी देकर कहे "सो क्यूट !"

उम्र के साथ मुझमे सब कुछ सिकुड़ रहा है  | सिवाय मेरी नाक के | एक नाक है जो दिन प्रतिदिन , इंच दर इंच बढ़ती जा रही है | 

 फिलहाल ये नाक नदी किनारे कतारबद्ध बने रेस्टोरेंट्स के किचनस  तक जा रही है  | चिकन  विंग्स , चिकेन ब्रैस्ट स्ट्राइप्स विथ सोया सॉस, ग्रिल्ड सैमन , डीप फ्राइड प्रॉन , टर्टल सूप , रोस्टेड गूस , पैन स्टिर लॉबस्टर , ग्रेवी क्रैब | एक से एक एक्सोटिक फ़ूड आइटम्स | मेरे नथुने फूल रहे है | गला जेठ की दुपहरी में दरकी जमीन सा बिलबिला रहा है | पेट में ऐठन हैं | कॉर्टिलेस  की कमी से हर कदम के साथ घुटनों से टक टक की आवाज़ आ रही है | 

एक,  दो,  तीन,  चार, और  पांच | पाँचवे ओपन एरिया रेस्टोरेंट तक पहुंचते पहुंचते मेरे घुटने जबाब दे गए है |    

और सूखे गले से , नवयौवना वियतनामी वेट्रेस से मैं बमुश्किल इतना भर कह पाया हूँ  " वन कार्ल्सबर्ग प्लीज !" 


शुक्रवार, 15 सितंबर 2023

श्रद्धा भाव


 

सिंगापुर सुविधाओं , व्यवस्थाओं का शहर है | सरकार आमजन की छोटी छोटी जरूरतों का ख्याल रखती है | फेरिस्त लम्बी है , हम और आप महीनो जिक्र कर सकते हैं | एक छोटी सी पर हर कम्युनिटी पार्क में दिखने वाली  व्यवस्था है , एक्यूप्रेशर बेल्ट | 

फ्लॉवर बेड के सहारे या ग्रास लॉन के किनारे आठ दस  मीटर की संकरी कंक्रीट फ्लोर होती है | जिस पर नुकीले पैबल्स को बड़ी सघन बसाबट में जमा दिया जाता है | किनारे से , चलते हुए सहारा लेने के लिए  पॉलिशड स्टील की रेलिंग गाढ़ दी जाती है | मान्यता ही है या विज्ञान भी , मुझे नहीं पता , पर ऐसा बोला जाता है कि इस तरह की एक्यूप्रेशर बेल्ट पर सुबह सुबह नंगे पैर चलने से रक्तचाप नियंत्रित होता है | 

मैं सोमवार से शुक्रवार साढ़े आठ बजे उठने को शरीर घसीटता हूँ , लेकिन शनिवार को सात बजे आँख खुल जाती है  | झुंझलाहट होती है , देर  तक सोना चाहता हूँ ,पर ये मेरे बुढ़ाते शरीर की व्यवस्था है | जो है सो है , मॉड में रहकर स्वीकार करता हूँ | 

सुबह मैं कम्युनिटी पार्क के चक्कर काट रहा था तो पाया कि एक अधेड़ भारतीय स्त्री एक्यूप्रेशर बेल्ट के मुहाने पर नंगे पाँव खड़ी है | एक हाथ में ताँवे का लोटा, लोटा जिसकी गर्दन पर मोटा गेरुआ सूती धागा लिपटा था | 

उसने दाए हाथ में लोटा उठाए , एक्यूप्रेशर बेल्ट का एक चक्कर पूरा किया | नुकीले पेवल्स की चुभन से चेहरे पर दर्द उभर आया था | दूसरे सिरे पर पहुंची तो कुछ देर ठिठकी | वापस मुड़ी और फिर उसी दृढ़ता से दूसरा चक्कर पूरा किया | फिर तीसरा और चौथा | 

फिर एक लैम्पपोस्ट के सिरहाने खड़ी हो गयी | चांगी राइज अपार्टमेंट बिल्डिंग के ऊपर सूरज बस ऊगा ही था | उँगलियों के गुलदस्ते में फँसे लौटें को उसने सूरज की ओर उठा दिया | काँपते होठों से कुछ बुबुदाते हुए , उसने लोटे में जमा जल की आखिरी बूंद तक सूर्य को अर्पित की और बड़े तेज कदमों से अपने अपार्टमेंट में लौट गयी | 


दूसरे सिरे पर बनी बेंच पर जम चुका मैं मुस्कुराया तो मेरा दायाँ हाथ अकस्मात आशीर्वाद की मुद्रा में खड़ा हो गया | सूर्य देवता अगर अपने भक्तो पर तबज्जो देते होंगे तो मुस्कुराये वे भी होंगे | अजी ,सुबह उठकर जल चढाने वाले बहुत है | लेकिन पार्क में बनी एक्यूप्रेशर बेल्ट के चार कष्टप्रद  चक्कर काट अर्घ चढाने वाला शायद कोई विरला भी ना हो | 

उस स्त्री के  १० में से १० नंबर बनते है !

                          सचिन कुमार गुर्जर 

                           मेलविल पार्क , सिंगापुर 

                           १६ सितम्बर , २०२३ 

                      

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2022

मलाल


 

अभी पिछले कुछ दिन पहले मैं एक 'मलाल' से टकरा गया | लंच के बाद कॉर्पोरेट दफ्तरों की कतार के गलियारे में चहलकदमी करते हुए वो टकरा गयी | 

"अरे तुम , तुम यहाँ कैसे ?" उसने कहा | 

"मैं तो इधर ही जॉब करता हूँ , तुम यहाँ कैसे ? " सवाल के जबाब में सवाल ही था मेरे पास भी | 

कॉर्पोरट की छोटी दुनिया | पुराने लोग टकराते रहते है  | शायद पास के किसी ऑफिस में क्लाइंट मीटिंग के लिए आयी थी | 

"कितना टाइम हो गया है ना ? याद है तुम्हे ? " उसके शब्दों में गर्माहट कुछ ऐसे थी जैसे हम किसी जमाने में बहुत ही घनिष्ठ रहें हो |  

"शायद दस साल | " एक मोटा अनुमान लगा कर मैंने बोला |  

"दस नहीं बारह साल | "  

हमने पुराने ऑफिस के दो चार साथियों को याद किया | कौन किधर जॉब करता है ये बताया, सुनाया | 

"चलो चाय के लिए मिलते है | तुम हो न अभी इधर?  " मैंने पूछा | 

उसके मिल जाने से दिमाग की तहो में दफ़न ना जाने कितनी बातें बुलबुलों की तरह फूट फूट कर ऊपर आने लगीं | 

यही कोई चौदह साल पहले जब मैं कामगारों के जहाज में सवार हो सिंगापुर आया था , तभी पहल पहल उसका दर्शन हुआ था | और दर्शन ऐसा दर्शनीय कि आदमी भूल नहीं सकता !  शादीशुदा थी | शायद कोई बच्चा नहीं था तब तक | कद औसत भारतीय स्त्री कद से थोड़ा ऊँचा | शरीर भरा हुआ था | डॉयटिंग वाइटिंग के चोचलों से परे थी | रंग दूधिया उजला | हँसती या थोड़ा लजाती तो एक दम से खून के दौर से गाल लाल हो जाते | अनार दाने की तरह बारीक दांतो की कतारें थोड़ी ही खुलती थीं | नाक खड़ी , सुतवा | पर नासिका छिद्र इतने छोटे थे कि देख के अचम्भा होता कि इतने महीन छिद्रो से जीने भर लायक हवा भी कैसे अंदर जाती होगी | पपीहे की तरह छोटी और मीठी आवाज़ वाली , हर बात बेबात पर मोटे बटन सी गोल आँखे घुमा घुमा कर हॅसने वाली| अपने क्यूबिकल और  आस पास के चार पांच क्यूबिकल की ख़ुशनुमाई की अहम् किरदार थी |  

मलाल? मैंने कहा ना वो शादीशुदा थी ! खूबसूरत पर शादीशुदा स्त्री हर दूसरे पुरुष के मन में मलाल ही होती है | मीठा पीठ दर्द होता है ना | दर्द जिसका दिन की आपाधापी  में ना ध्यान होता है ना इलाज | पर फुर्सत में आदमी जब चित्त हो लेटता है , तब वो एहसास देता है |  बर्दाश्त के बाहर नहीं जायेगा , पर आपको चैन से सोने नहीं देगा  | बस वैसा ही कुछ होता है ये मलाल | 

खैर, हम चाय पर मिले | उसने नेवी ब्लू कलर का मॉक नैक ,  ट्रम्पेट स्लीव्स फ्रॉक पहना था | नी लेंथ | ब्राउन कलर , फ्लैट लोफ़र्स डाले हुए थे | और हाथ में एप्पल वाच , जिसका रिस्ट बैंड ऑफ वाइट कलर का था | 

"सुनाओ कुछ।, कैसी चल रही है लाइफ ? " चाय की एक चुस्की भर ले उसने कप किनारे खिसका दिया | 

"बस जी | चलना रुकना अपने हाथ में कहाँ  | बस जिंदगी की नदी बही जा रही है | उसमे हम भी बह रहें हैं | "

"तुम बाबाओ जैसे बातें करने लगे  हो | " वो खिलखिला पड़ी | उसके अनारदाने जैसे दाँतो को पंक्तियाँ अभी वैसी ही थी |  

"तुम बूढ़े हो रहे हो , मोटे भी हो गए हो | "उसने कहा | 

"हाँ जी , देखो ना , मेरे बाल इतना ऊपर तक खिसक गए हैं |" मैंने हामी भरी | 

 वो गुस्सा हो गयी | झूठ मूठ का गुस्सा | नाक चढ़ा कर बोली " तो क्या , इस उम्र में भी कोई अफेयर करना चाहते हो ?हुह ?  हो गया ना बस | "

वो जो महसूस कर रही थी , कह रही थी | कुछ ऐसे जैसे हम बारह साल बाद नहीं बल्कि हफ्ते दो हफ्ते बाद ही मिल रहें हों | 

और मैं ? मैं अपने अंदर एक  बबंडर को दबाये बैठा था | कितना बदल गयी थी वो | उसके बदलाव देख मेरा कलेजा  बैठ गया था | उसके गाल अब हँसते हुए लाल नहीं होते | चेहरा बड़ा हो गया था | रंग फीका था | सिन्दूर लगाने की सीध में फटने वाली बालों की मांग चौड़ी हो गयी थी | वो निश्चित रूप से घर का कोई भारी काम नहीं करती होगी | नौकरानी होगी घर पर | पर उसके हाथ कितने बड़े लगने लगे थे  | आँखे जो बात बात पर नाचतीं थी वो अब इस भाव से देखतीं थी जैसे कहतीं हों सब कुछ देख तो लिया , जी तो लिया ,अब क्या बचा है  | वो अब कितनी सहज हो गयी थी , कोई भी बात उसे अचंभित नहीं करती थी | उसके चेहरे पर दुःख और सुख के भाव ठहर गए थे |शरीर वैसे ही भारी जैसा कि किसी भी आम अधेड़ ग्रहणी का होता है |   

वो जब कोई दुनियादारी की बात कह रही थी तब मैं सोच रहा था कि क्या ये वही थी जिसे सहज हो मैंने एक दिन बोला था " सुनो , तुम्हे शादी की इतनी जल्दी भी क्या थी " और जबाब मे उसने बिना कुछ  बोले मुँह तिरछा किया था बस , कुछ ऐसे जैसे कहती हो " न भी की होती तो क्या एक तुम ही थे !"

मल्लका की खाड़ी से उठा घना बादल अब टपकने लगा था |  टी हाउस की  शीशे की दीवारों के ऊपरी सिरे पर बारिश की  बूंदे आ चिपकती | धीरे धीरे नीचे की ओर खिसकती | अध्-बीच तक आते आते बूंदे भारी होने लगतीं और फिर बढे  भार के चलते  बड़ी तेज गति से नीचे जमीन की ओर को भागती |  वैसे ही जैसे जिंदगी भागती है | 

हमने कोई चालीस पैतालीस मिनट बात की | शायद इससे ज्यादा बात करने के लिए हमारे पास कुछ था भी नहीं | 

उसने बताया कि उसका बड़ा बेटा  सज्जन है | संवेदनशील , हर बात को मानने वाला | और छोटा उसका उलट | वो अब कोई आराम की नौकरी देखना चाहती है | ज्यादा ग्रोथ हो न हो सुकून हो बस | उसके पति कहते  है कि चाहे तो वो नौकरी छोड़ दे , पर उसे लगता है कि घर में बंध कर ही रह न जाए | 

मैंने उसे बताया कि किस तरह से बेटी का बाप बन जाने से आदमी की भावनाओं  के , सोच के नए आयाम खुल जाते है | किस तरह बच्चों के  आ जाने से बाकी सब बातें  गौढ़ हो जाती हैं | सब कुछ उनका और उन्ही के लिए हो जाता है |  

फिर हमने एंग्जायटी , नींद कम आने , कोलेस्ट्रॉल , थाइरोइड  , हैल्थी लाइफ स्टाइल से जुडी बातें की |  

शाम को ऑफिस से ट्रैन से वापस आते हुए मेरा मूड उखड़ा हुआ था | बारह साल , बारह साल | बारह साल में इतना कुछ गुजर जाता है , इल्म ही नहीं था | सोचता  रहा कि कुदरत इतनी बेरहम क्यों है ? सब कुछ पहले बनाना और बिगाड़ना क्यों होता है ?शीत में खिले गेंदे के फूल , बसंत की नयी पत्तियां , और दिलों में हूँक देने वाले खूबसूरत चेहरे | कुछ तो यूँ ही छोड़ देती | 

और उस रात मैंने हाथ मुँह धोने के बाद आईना नहीं देखा |  

अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...