रविवार, 12 जुलाई 2020

बोझ



हाँ ,वह  चली गयी थी | उसे जाना ही था |
और वह इतनी सफाई के साथ गयी थी कि चींटी को भी पता ना चलता |
 पर मोहल्ले के एक साँसिये बूढ़े ने, जिसे दमा रत भर सोने न देता था ,  उसने अहले सुबह , सूरज की लाली फूटने से भी घंटा भर पहले , उसे किसी अनजान नौजवान के साथ मोटर साइकिल  पर पीछे चिपक कर जाते देखा था | जीन्स पहने , लड़कों  की तरह टांग फैलाकर बैठे, पीठ पर बड़ा ट्रैकर बैग लाधे और एक हाथ में पॉलीथिन लटकाये , वो फरफराती हुई निकल गयी थी | रीति रिवाज , इज्जत , लाज ,सबको ढेंगा दिखाती|  कम्बख्त , अकल की मारी  |

बमुश्किल अठरह बीस साल की ही तो हुई होगी |  कद की थोड़ी छोटी , गौरवर्ण ,तोते जैसी नाक , बड़ी बड़ी कटार जैसी आँखें  और  वाचाल | चाल चलन लड़को जैसा था उसका | इंदिरा कट बाल रखती | डंडे वाली ऊँची मर्दानी साइकिल दौड़ाती | मोहल्ले में लड़कियों में जीन्स टॉप पहनने का चलन उसी ने तो शुरू किया !
वो आँखे मटका के बातें करती तो गांव की बड़ी बूढ़ियाँ उसे टोक देती  " ऐ लल्ली , ऐसे आँखो में आँखे डाल के बाते न किया कर | बहु बेटी लजाती हुयी ही अच्छी लगा करें हैं  |"
और वो कहती " क्यों काकी , लजाय वो जो चोर हो , जिसमें कोई खोट हो |  मैं क्यों लजाऊ  | "
उससे कौन जीतता भला | मुँहजोर थी वो लड़की |

पर इतना बड़ा दाग | उफ्फ !
जेठ की दुपहरी में सूरज अंगारे बरसाता हो , उसी की हाँ में हाँ मिला पछवा लू थपेड़े लगाती हो और ऐसे में गाँव के एक सिरे पर आग लग जाये | बस  कुछ इसी रफ़्तार से उस लड़की के भाग जाने की खबर गाँव भर में फैल गयी  |
गाँव की होशियार , तेज तर्राट , हर घर के चूल्हे चौके की खबर रखने वाली जनानियों ने एक सुर में कहा " हमे पता था कि वो भागेगी , उसके लक्षण कहते थे | "
गाँव की सीधी सुदल्ली औरतें , जिन्हें  घर की दहलीज  के बाहर की कुछ भी खबर नहीं होती   , उन्होंने भी कहा " हमें तो पहले से ही  पता था वो भागेगी , उसके लक्षण कहते थे ! "

खैर , उस नवयौवना के इस तरह प्यार में अंधे हो भाग जाने की खबर की सनसनाहट जब कम हुई तो गाँव वालों की तबज्जो उसके परिवार की तरफ मुड़ हुई |
बड़े बूढ़े , औरत ,मर्द सबको गुस्सा आया कि इन ससुरो को दिखते  ना थे उसके लक्षण|  वो पूरे दिन कान  में फ़ोन की लीड फंसाये छत पर खड़ी  रहती थी|  जाने किस किस से बतलाती थी | महतारी की आँखें फूट गयी थी क्या | दो दो जवान हलंता भईया घर में पड़े डकारते रहे  , इन जानवरों  को कैसे खबर न हुई | भेड़ के फूफा हैं ये सब के सब | अहह , सबकी ही मत मारी गयी | 

गाँव वालों  का गुस्सा जायज था | वो यूँ , कि  सबके घरों  में जवान होती बेटियाँ थीं  , नई बहुए थीं |  इस तरह के कुकृत्यों का असर सबके कच्चे दिमागों पर पड़ता है | वो सब अपने परिवारों को लेकर फिक्रमंद  थे | 

फिर ऐसा हुआ कि दो तीन दिन बाद  चेतराम ने अपनी जनानी  को खूब जम कर पीटा | और इस कदर पीटा कि उस बेचारी को पड़ोस  के घर में छिप कर जान बचानी पड़ी | और पीट पीट जब उसका शरीर हाँफने लगा तो वो मरियल हाड का आदमी चबूतरे पर आ खड़ा हुआ और खूब ऊँचे सुर में फड़फड़ाया " मेरे ससुर की जनि , मैं दिन रात खेती कमावै था | औलाद पे नज़र रखने का काम तेरा था | बता तेरा था कि  नहीं |ओ हरामन , नीच कमीन खानदान की पैदाइश , बता तेरा फ़र्ज़ था कि नहीं ?"
चौराहों पर , बीड़ी गुटखों की गुमटियों पर खड़े हर आदमी ने कहा " सही बात है | आदमी दिन रात खेत में कमावै था |  धी बेटी पे नज़र रखने का काम मां का हुआ करे है !"
चबूतरे पर झुण्ड में बैठे लोगो को सुना एक बुजुर्ग ताऊ ने धीरे से पर ताल के साथ कहा
"नार नहीं नौरंगी है , नौरंगी नहीं रसरंगी है |
रसरंगी नहीं , दशरंगी है |
ढक ले तो ढक ले सारे कुल को , नहीं तो नंगी की नंगी है | "

और फिर झुण्ड में से कई मर्द एक साथ बोले " नहीं तो नंगी की नंगी है | "
उन सबका पर्याय नारी द्वारा परिवार की इज़्ज़त तार तार करने से था |

चेतराम के तीन बच्चे थे | बड़ा लड़का मंगेश , उससे छोटी ये मुंहफट  निम्मी  और छोटा लड़का गुड्डू |

मंगेश बी ए पास था | दिल्ली में नौकरी के लिए कोचिंग तक कर आया था, पर घर ही पड़ा था | उम्र निकल रही थी पर आस में था | बहुतों ने  समझाया "बेटा उम्र निकल रही है |  सरकारी नौकरियाँ तो दिन ब दिन कम ही होती जा रहीं हैं |  कुछ प्राइवेट काम ही कर लो | पैसा तो प्राइवेट में भी अच्छा खासा है|  "
पर कुल जमा सत्ताईस  सावन देख चुका और बहुत ही ज्ञानी मंगेश एक हथेली से दूसरी हथेली को पीटता ,कहता " ना कक्का  , होना तो पटवारी ही है ! "
फिर वह तिरछी निगाह कर दाएं  हाथ से चुटकी बजाता और कहता " पांच साल में औसत निकल आएगा कक्का  , पांच साल में|  "
फिर अपने अनवरत संघर्ष और कोशिशों की कहानी को आगे खींचता  मंगेश कहता " बात तो हमारी हो गयी थी कक्का , सीधे लखनऊ सचिवालय में | दस लाख में | रकम  उधर और लेखपाल का नियुक्ति पत्र हमारे हाथ | "
और ऐसा कहते हुए वो हाथ की मुठियाँ भींच  लिया करता |
फिर निराश हो कहता " क्या करें  , निम्मी का भी देखना है |  इसके बिहा का काम सबसे अर्जेंट है|  "

पता नहीं कितनी दिवाली आयीं गयीं , उनके घर में रंगाई पुताई तक न हुई | चेतराम को रोज रात को जोर की खांसी का दमदमा उठता ,  पर शहर तक दवाई तक लेने न जाते   |  गांव में ही कुछ अलाय बलाय , जड़ी बूटी खाते   | रोता  झींकते जीते जाते  |

पर बीमारी ने उस आदमी को नहीं तोडा , बेटी के इस अपमान ने जरूर तोड़ दिया |
मर्द ने खाट  पकड़ ली , कई दिन अन्न पानी नहीं  किया | पूरे घर में ऐसी मुरदाई छाई रही जैसे कोई जवान आदमी मर गया हो | 
लड़कों  ने कहा भी कि  कुछ भाग दौड़ करते हैं , तो चेतराम बोले " जाने  दो |  अब अपमान हो ही गया |  जख्म को कुरेदते रहने से क्या फायदा |  "
चेहरे पर घृणा लिए कहते" जिए या मरे , हमारी लिए तो उसी दिन मर गयी जिस दिन उसने घर की दहलीज से बाहर कदम रखा |"
लड़के क्या कहते , वे  बेचारे अपने बिस्तरों पर पड़े , लाज के मारे,  अपने मोबाइलों  में ताकते रहते |
अजी परिवार को संभलने में महीनो लग गए | पर वो संभल गए |
चेतराम जंगल पानी को निकलने लगे | आखिर कब तक खटिया पर पड़े पड़े औलाद के करम को रोते  |  लड़के भी मोटरसाइकिलों  से इधर उधर जाने लगे !



वक्त का क्या है , सूखी रेत है ,यूँ ही फिसलता निकल जाता है | साल बीता , दो साल बीत गए | गाँव वाले अपनी अपनी जिंदगियों में उलझ गए | चेतराम और उसका परिवार पुराने ढर्रे पर आ गया |
मोहल्ले की कोई काकी शहर गयी थी दवा लेने | अस्पताल के बाहर संयोग से निम्मी उससे टकरा गयी |
काकी ने देखा अनदेखा किया पर निम्मी का मन ऐसा उखड़ा, ऐसा उखड़ा  कि वो काकी से लिपट गयी और खूब रोई  |
औरत का चरित्र जो होता है , भावनाओ का ढेर होता है , निम्मी ने हिड़की बाँधी तो काकी का वात्सल्य भी बह चला |
रो धो जी हलके हुए तो दोनों चुप हुई |  काकी ने अपने दोनों हाथ निम्मी के गालों पर रख दिए और बोली" ठीक है मेरी बच्ची ?"
" बस काकी अच्छी हूँ | "
"जीती रह मेरी बच्ची |"
 काकी थोड़ा रुकी , जैसे ये तोलती हो की कुछ कहा जाए या नहीं | "ये निमिया , तुझे ऐसा करना न था मेरी बच्ची|  " काकी ने कह दी , जो उसके दिल में थी | 

निम्मी का जो चेहरा अभी तक किसी छोटे बच्चे जैसा नरम , रुआंसा था, अचानक से सख्त हो गया |
"बस काकी , जो होना था , हो गया | "
फिर खीज और गुस्से के मिश्रित भाव लिए वो बोली" अब तो सब दिलद्दर निकल गया होगा उस घर का , है न काकी ?"
"उनके सारे काम मेरी वजह से ही तो रुके पड़े  थे |
मंगेश की नौकरी लग गयी होगी | पिता जी की दवाई हो गयी होगी | क्यों ?"
"घर भीत लिप पुत गए होंगे | "
" नई भैसिया आ गयी होगी , बाल्टी दो बाल्टी दूध होता होगा|  "
"नया टूबवैल लग गया होगा | "

काकी ने उसे रोका " औ मेरी बच्ची , मेरी मुनिया वो सब वैसे के वैसे हैंगे  , जैसा तू छोड़ के आयी |  करमजले , एक लम्बर के  निकम्मे | "

"क्यों , क्यों ? उन्होंने जो सारी संपत्ति मेरे लिए जोड़ कर रखी थी, अब तो सब काम बन जाने चाहिए थे | "

फिर निम्मी बहती चली गयी |
"काकी,  जब से मैंने उस घर में होश संभाला , सिवाए तानो के कुछ न सुना | उनके हर काम में मैं रोड़ा थी |
बोझ ऐसा भारी  , जिसके तले पूरा परिवार दबा चला जा रहा था |
मुझे भी लगता था उनके  दुखों  का कारण मैं ही थी  |
साल दर साल , गाहे बेगाहे वो मुझे ऐसे दलदल में धकेलते चले गए जहाँ मुझे अपने वजूद से ही घिन हो चली थी |
मैं वहाँ रहती तो मर ही जाती , काकी | मर ही जाती मैं | 
बस ये समझ लो , कि मौत और अपमान में से मैंने अपमान को चुना | "

"और सुनो |  जिस दिन मैं आई काकी , मैं कोई दुबक छिपक के ना आई  | मैं जब निकल रही थी तो मेरी महतारी ने जान बूझ मेरी  तरफ से मुँह फेर लिया | उस माँ ने जिसने मुझे अपनी कोख में पाला | उस माँ ने ! "
निम्मी का गला फिर से रुंध आया  था " वो मुझसे छुटकारा चाहते थे काकी |  वो सब के सब मेरा जाना चाहते थे | सच्ची मानियो काकी | मेरा जाना उनकी सबकी मर्ज़ी था | "

काफी देर हो गयी थी |  निम्मी का पति मोटरसाईकिल पर खड़े खड़े आवाज़ लगा रहा था | काकी को नमस्ते कर निम्मी आगे बढ़ गयी थी |


                                                                                             सचिन कुमार गुर्जर
                                                                                             रविवार , १२ जुलाई २०२०  

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