"चलाओ तुम अपनी, जितना मर्ज़ी है चलाओ | खूब चलाओ | मैं भी देखूं , आखिर कब तक अपनी चलाओगे " |
मिर्ची के छोंक से तीखे , नश्तर से चुभते ये बोल, रसोई से उठ घर की फ़िज़ा में तैर गए |
और गुस्सा केवल वाणी में ही नहीं था ! लाइटर की आवाज़ , फ्राई पेन के स्टोव रखने की आवाज़ , जूठी प्लेट्स के सिंक में रखे जाने की आवाज़ ! सबसे के सब में एक रौद्रता, भिड़ जाने की , आर पार करने की चाह |
यूँ कह लीजिये कोई बबंडर सा था |
और दुश्मन ? दूसरी ओर सौफे पे पसरा था | इकहरा लेकिन जिब्राल्टर की चट्टान सा मजबूत इरादा | लापरवाह ! मूड यूँ था कि अजी आओ , टकराओ , बिखर जाओ , हम ऐसे ही खड़े रहेंगे |
जबाब लाज़िम था सो दिया भी गया " गलत होऊ या सही | जो मुझे सही लगेगा वही करूँगा | तुमसे हेल्प नहीं मागूंगा | तुम हेल्प मत करना | "
और बच्चे ? पुरुष नियति का मर्म ये भी है कि जब जब मुकाबला बराबरी या जीत में छूटने को होता है , स्त्री बच्चो को ढाल की तरह इस्तेमाल करती है | दाव चलता न देख जालिम ने पैतरा बदल दिया |
कुलदीपक ने डिमांड नहीं की , बिना फरमाइश उसके सामने उसके फेवरेट नूडल्स परोसे गए और ममता का तड़का लगा के बालों पे हाथ फिरा बोला गया " बेटा , तेरे पापा तो मानेंगे नहीं अपनी | तू जल्दी से बड़ा हो जा | तू ही संभालेगा घर | "
कुल जमा साढ़े चार साल के कुलदीपक ने पुरुष को ऐसे घूरा जैसे दरोगा किसी मुल्जिम को , जो अभी अभी ताज़ा अपराध करके आया हो |
जायज भी है कौन चाहेगा कि दूसरे के कंधो का बोझ अपने ऊपर उठाया जाए |
खैर ,घंटे दो घंटे में बादल छंट गए , गृहस्थी झूलती झालती अपने ढर्रे पे चल निकली |
टी वी के किसी प्रोग्राम को देख घर में ठहाके भी गूंझे |
माहौल पिंघलता देख कुलदीपक ने कहा " मम्मी मेरा अभी भी बड़ा होना जरूरी है क्या !"
मतलब भाव ये था कि अब जबकि सब नार्मल हो गया मुझे बड़े होने से छूट मिलेगी क्या !
"ठीक है बेटा , तू अभी बच्चा ही रह | "
हँसी बहुत आयी पर पुरुष मन में पी गया | बच्चे आजकल ओवर सेंसिटिव हैं ! बुरा मान जाते हैं |
कॉलेज टाइम की किसी प्लेलिस्ट का गाना चल रहा था " 'इट्स नो सैक्रिफाइस.... नो सैक्रिफाइस एट आल... "
ये है गृहस्थी , तेरे घर की , मेरे घर की |
सचिन कुमार गुर्जर
०३ अक्टूबर २०१७
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