शनिवार, 14 जून 2014

मैं और अंतर्द्वंद



बात साल २००१  की है , गर्मियों के दिनों में मैं एन डी ए  की प्रवेश परीक्षा देने बरेली गया हुआ था । चूँकि बरेली मेरे गाँव से करीब सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर है इसलिए सुबह की पाली में परीक्षा के लिए सीधे गाँव से पहुँचना  नामुमकिन था ।हमारे पिता जी बड़े ही जुगाड़ू किस्म के रहे है कही से दूर के मामा जी का पता निकाल लिया जो पुलिस में थे और उन दिनों बरेली में ही नियुक्त थे ।

परीक्षा से एक दिन पहले ही मैं बरेली चला गया । मामा जी शहर से बाहर नयी बसावट वाली कॉलोनी में किराये के मकान में रह रहे थे ।  तिकोनी बसावट वाली कॉलोनी का एक सिरा शहर से जुड़ा था तो दूसरा राजमार्ग को छूता था । तीसरी तरफ खुले खेत थे । नयी कॉलोनी में इंसानो ने जमीन को  फाँक फाँक कर बाँट तो लिया था पर मकान अभी  छीदे छड़े   ही थे ।

मकान के पहले तल पर गृह स्वामी का परिवार बसता था । दूसरे माले पर मामा जी रहते थे ।गृहस्वामी के दो बच्चे थे , एक लड़का और एक लड़की।
लड़के के हाव भाव ,इतिहास ,भूगोल में तो हमारे किशोर की कोई रूचि नहीं थी किन्तु धनात्मक , ऋणात्मक आवेशों के प्राकृतिक आकर्षण नियम में बंधे मन ने लड़की का कम समय में जितना हो सका , विश्लेषण  कर लिया था ।आँगन बुहारते मोहिनी की मुस्कान का परोपकार पा मन और भी रुचिकर हो उठा था । 

अगले दिन परीक्षा से निपट मैं वही रुक गया । खाना खा कोने में पड़ी पत्रिका के पन्ने पलटते नींद आ जाने की बाँट जोह रहा था । तभी  नीचे से  'साँप साँप ' की आवाज़ सुनाई दी ।नीचे जाकर देखा तो घर के कोने वाले स्टोर रूम में कही से सर्प घुस आया था । शायद नाली से आया होगा , गर्मी में बिलबलाता  छाँव ढूँढ़ता होगा ।मैंने दर्शन के अलावा कोई और प्रतिक्रिया  नहीं दी । गृहस्वामिनी के हाथ में पुरानी ढूढ़दार झाड़ू थी और मोहिनी के हाथ मे डंडा , पर हिम्मत कौन करे ! ' मोनू भैय्या होते तो मार देते,' कहाँ  चले गए मोनू भैय्या' , लाचारी भरे स्वर लिए मोहिनी ने कहा ।

उन दिनों मोबाइल फ़ोन आम आदमी की जेबों तक नहीं पहुंचा था । लिहाजा मोनू भईया के इंतज़ार के अलावा कोई चारा न था ।उन्होंने  दुपहरी में घर के आगे से गुजरते इक्के दुक्के राहगीरों को  रोका भी , पर सब कुछ न कुछ बहाना बना खिसक लिए ।

मैंने समझाने  की कोशिश की कि थोड़ा इंतज़ार कर लो शायद नाली  से ही बाहर निकल जाये । घर के मुख्या हिस्से में न जाये इसके लिए मैंने स्टोर  के दरवाज़े से टाट फँसा कर दरवाजा बंद कर दिया ।समझाया  कि थोड़ा शांति का माहौल बनाया जाये और प्राणी को मौका दिया जाये ।घर के इर्द गिर्द खुला जंगल था , तर्क था कि एक बार वो सर्प बाहर की नाली का रुख कर ले तो फिर आराम से उसे  घर से दूर जंगल की तरफ जाने को बाध्य किया जा सकता था ।

पर माँ बेटी की  ची पों  बंद न हुई और हो हल्ले से डरा सर्प और भी कोने में सिकुड़ कर बैठ गया ।किशोर मन धरम संकट में था । एक और बौद्ध मन जीवन को अवसर देने का पक्षधर था  तो दूसरी ओर मोहिनी मोनू भैय्या  का नाम ले लेकर पौरुष को ललकारे  जाती थी ।
इंसान अहिंसा और  कायरता में  भेद करने में चूकता आया है ।यही  चूक कई बार उकसावे का कारण  बनती है । उफ्फ   …क्यों कर हो । राह  चलते  गलती से कोई चींटी भी पाँव तले दब जाये तो बड़ा मलाल होता है । फिर वहाँ  तो बड़े प्राणधारी के वध का प्रश्न  था!
 
मानव चेतना की विडंबना और विरोधाभास तो देखिये । प्राणी वध करने की इच्छा मोहिनी की थी पर वो स्त्रीत्व का लबादा ओढ़े ताने मार कर ही कर्म से छुटकारा पा  रही थी । उधर बौद्ध के दर्शन शास्त्र का अनुगामी वो किशोर, मन में  तो 'जियो और जीने दो ' का  भाववृक्ष पोषित करता था ,जीवन को अवसर देने के पक्ष में था ,पर पौरुष कर्त्तव्य का भार उसे ढाये जा रहा था । पुरुष के चेहरे पे मूछें बाद में उगती है ,  दम्भ की मूछें पहले ही ताव खाने लगती है ।खून से बाल धोने की  इच्छा द्रौपदी की है ।  रण में अर्जुन किंकर्त्तवविमूढ़ है, किन्तु कर्त्तव्य और धर्म निर्वाह के आग़े मजबूर है । मूल स्वभाव और कंधो पड़े पौरुष भार की टकराहट दिमाग  में एक गुबार खड़ा कर देती है । संवेदनाये शून्य  हो जाती है , तर्क  को ग्रहण लग जाता है और स्थिति के त्वरित निपटारे को पशु रूप मुखर हो उठता है ।

फिर वही हुआ जैसा अक्सर इस तरह के हालातो में होता है ।
बिजली की तरह लपककर किशोर ने सीढ़ियों के किनारे रखा डंडा उठा ताबड़तोड़ प्रहार कर जीव के प्राण हर लिए  ।लड़की  और माँ के चेहरे पर जीत के  भाव उभर आये ,मोहिनी ने गहरी मुस्कराहट से फिर से परोपकारित  किया किन्तु बौद्ध मन में मलाल का ज्वर उमड़ आया था ।उस रात सपने में शिव जी आये और हिंसा और हत्या का स्पष्टीकरण माँगा । किशोर मन के पास पैरों में गिर गिडग़ड़ाने के अलावा कोई जबाब न था ।

कभी कभी इंसानो के गिरोह का हिस्सा होने का मलाल होता है जो दुनिया के निरीह बाकी प्राणियों को अपने पौरुष तले कुचलता , लीलता बढ़ा जा रहा है । संवेदी मन की हार व बौद्ध तत्व की कमी दुनिया को विनाश की सुरसा के मुँह में खींचे जा रही  है ।

अच्छा ही हुआ कि उस साल देहरादून के एस एस बी चयन बोर्ड ने उस किशोर को आर्म्ड फ़ोर्स की सेवा के लिए नकारा  घोषित कर दिया ।ऐसा सूक्ष्म संवेदी मन  अपने कर्तव्य से शायद ही न्याय कर पाता  । 

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