सोमवार, 30 मई 2016

जतावा




दिल्ली लखनऊ राजमार्ग से  जुडी वो पतली, नई सड़क रामगंगा के खादर के गाँवो की ओर निकल जाती है  । 
हिन्दुस्तान में जहाँ  कहीं भी छोटी सड़कें बड़ी सड़कों को चूमती है , अमूमन वहाँ दुकानों का अड्डा  बन जाया करता है । रामपुर की ये जगह फिलहाल  'नया मोड ' के नाम से है |  आबादी  का विस्तार हुआ तो शायद  कोई स्थायी नाम पा जाए ।  एक पुरानी पाखड़, जिसकी छाँव में सरकारी नलका लगा है , उसके इर्दगिर्द चार पाँच पक्की दुकानें हैं | कुछ फलों के ठेले भी हैं जिनसे रिश्तेदारियों को जाते लोग केले , सेब , अंगूर आदि खरीद ले जाते हैं | 
   'गुप्ता मिष्ठान भण्डार ' पुरानी टिन की छत वाली दुकान है । लोहे के जंग खाते बोर्ड पर काले पेंट से घटिया लिखावट में बाद में  जोड़ा गया है " नोट : हमारे यहाँ शादी पार्टी के आर्डर भी बुक  किये जाते है । "
दुकान के अंदर की दीवारें भट्टी के धुंए के संपर्क में रह रह कहीं गहरी काली तो कहीं धुंधली हो गयीं  हैं । एक धनलक्ष्मी की मूर्ति है जो लकड़ी के छोटे बक्से में टंगी है | लाला जी की श्रद्धा ने लक्ष्मी जी पे धुआँ जमने से रोक रखा है | 

दुकान के बाहर लकड़ी की छोटी छोटी खप्पचियों से बनी बैंच पर बैठा मैँ दही समोसा खा रहा था | तभी पुलिस की एक जिप्सी  दुकान से थोड़े से फाँसले पर आकर ठहर गयी । एक दरोगा , दो हमराह सिपाही और एक ड्राइवर । देहात में कहीं कोई दबिश दे लौट रहे थे शायद । सिपाही जिप्सी से उतर नलके तक गए | पेप्सी की पुरानी बोतल के बासी पानी को नल की चबूतरी पर बहाया और ताज़े पानी से बोतल को नाक तक भर लिया  | मुँह हाथ धो और अपने अपने रूमालों को पानी से तर कर वे गाडी के पिछले हिस्से की तरफ जा खड़े हुए | दरोगा जी अपनी सीट को पीछे कर आराम की स्थिति में लेट गए । उन्होंने माचिस की तीली  निकाली,  उसे चबा चबा के एक महीन सा ब्रश तैयार किया और बड़े ही आराम से दाँत कुरेदने लगे ।उनके फुरसतिया अंदाज को देख मालूम होता था कि उनके हलके में बहुत ही सुख शांति थी ।  

दरोगा जी ने हाथ के इशारे से दुकान पे काम करने वाले लड़के को बुलाया । थोड़ी देर में लड़का जिसे लाला जी 'दिलददर ' कहकर पुकार रहे थे , बाँस की थैली में समोसे और सफ़ेद पिन्नी में रसगुल्ले भर कर पहुँचा आया ।

वापस आया तो लाला जी ने बड़े हलके से पूछा  " पैसे दिए हैं क्या ?"
" ऊ हूं , ना | " लड़के ने जबाब दिया ।

लाला जी बिना कुछ बोले अपनी जलेबियों का घांन उतारने में लगे रहे ।पतले किनारे वाली काली कढ़ाई में वे जलेबियों के लच्छों को पलटते जाते | 

मैंने कहा " लाला जी , काम मेहनत और ईमानदारी का है ।पैसे हक़ के साथ माँगने चाहिए ।
                 भई ,जिसका काम दो नंबर का हो वो डरे , क्यों ? "

लाला जी बोले  "हाँ , सही कहो हो | काम हमारा पाक साफ़ है ।  डर की क्या बात । कोई लंगर थोड़े खोला है हमने । "
वे सोचते रहे , अपने काम निपटाते रहे | थोड़ी देर बाद मुँह दूसरी ओर घुमा बड़े हौले  से बोले  " जा रे दिलददर , पैसे माँग ला जाके |  "

लड़का पहुँच गया और दरोगा जी से पैसे जा मांगे । मैंने पाया आराम की स्थिति में सीट पीछे किये लेटे दरोगा जी हलकी सी करवट ली और  सौ का नोट लड़के की ओर बढ़ा दिया ।बहुत ही सहज भाव से ।
कई बार हम बिना कुछ जाँचे परखे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो जाते है|  
लेकिन ज्यों  ही लड़का नोट  थामने को हुआ , लाला जी पीछे से चिल्लाये "अरे ओ दिलददर  , कम्बख्त पैसे ना लीजो दरोगा जी से!" लाला जी के बोल सुनते ही लड़का बिदक के अलग खड़ा हो गया |  

दरोगा जी ने आगे की ओर झुक लाला जी की ओर मुँह कर ऊँची आवाज़ में कहा    " अरे अरे नहीं।  ले लो |   लागत मेहनत के तो ले ही लो कम से कम लाला । " 

"क्या बात कर रहे  हो दरोगा जी । नाराज़ चल रहे हो क्या सरकार  ?" दुकान से उतर लाला जी जिप्सी के पास तक चले गए  थे ।
"दुकान  आपकी अपनी है । जब भी इधर से निकलो  , पानी पत्ता यही कर लिया करो।" लाला जी के बोल ऐसे फूट रहे थे जैसे नरम नरम बताशे ।

वापस दुकान पर लौट लाला जी जलेबियों को घांन से उतार चासनी में डुबोने के काम में तल्लीन हो गए । पुलिस की जिप्सी चली गयी तो लाला जी बोले "खिला पिला चाए कितना भी दो , पर जतावा होना बहुते ही जरूरी है | वर्ना अहसान कौन मानता है इस दुनिया में | "
लाला जी की पलटी का मैंने कोई  स्पष्टीकरण नहीं  माँगा था , उन्हें खुद ही हाज़त हुई थी बात साफ़ करने की !

                                                                                                                   --सचिन कुमार गुर्जर


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी करें -

अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...