"बहुत दिन हो गए यार , फल नहीं खाया फल । फल खाना है यार कैसे भी ।" अलकनंदा हॉस्टल के बाहर चाय के खोखे पे सिगरेट का धुंआ उड़ाते हुए उस्ताद ऐसा बोलेते । उनके बोलने के अंदाज़ से ही लगता था कि उन्हें फल खाने की जोर की तलब लगी होती थी । उनकी आँखे किसी पुराने अनुभव को याद कर आसमान की ओर तिरछी होती । निकोटीन को पूरा पेट तक धकियाते हुए बोलते " दिल्ली जाता हूँ इस वीकेंड ! "
"कितनी छोटी सी बात कर दी उस्ताद । कॉलेज के गेट के बाहर की दुकान पर ताज़ी खुमानियाँ , चीकू , सेब, लीचियाँ लधे पड़े है । अभी लाके देता हूँ अपने उस्ताद को ' वो लड़का चलने को होता ।
उस्ताद ठहाका लगा के हँसते । बड़ी देर तक हँसते ही रहते , उनकी आँखों से शरारत टपकती । वो उस लड़के के बालों में हाथ फिरा बोलते ' छोटे , तू बन्दा कमाल है । सीधा है यार ,बड़ा ही नेक बन्दा है । दोस्त है तू अपना पक्का वाला । '
लड़के का दिल ख़ुशी से बाहर आने को होता । कोई ज्ञानी महापुरुष किसी जड़बुद्धि मूर्ख को अपना सखा बोल दे तो ऐसी फीलिंग आती ही है ।
कुछ देर बाद लड़का ताज़े फलों से भरी पिन्नियां लेकर लौटता तो उस्ताद को अभी भी खोखे पे जमा पाता ।
शिष्य गुरु को नतमस्तक हो फल भेंट करता तो जबाब मिलता
"तू ही खा यार , मेरे को फ्रूट्स हज़म नहीं होते । खाके अपच हो जाती है । "
फिर मन रखने को नाशपाती में एक दो मुँह मार उसे फेंक देते उस्ताद ।
उस्ताद खोखे वाले को धकियाते " क्या हुआ भै जी ,एक ऑमलेट के लिए कितना इंतज़ार कराओगे ?
और हाँ दो की तीन चाय भी कर देना । चीनी रोक के ,पत्ती झोंक के !"
पहाड़ की सुबह की नरम धूप में अलसाते लौंडो की ओर हांक मार उस्ताद बोलते " सुना है बड़ा ही जोरदार बकरे की आंतों का भुटुवा मिलता है पौड़ी की बूचड़ गली में , कोई चलना चाहेगा क्या , आज दोपहर ?"
वो गंवई लड़का असमंजस में ही रहता "उस्ताद का भोजन हमेशा राक्षसी ही होता है , पता नहीं फिर फलों का जिक्र ही क्यों करते है ?"
-- सचिन कुमार गुर्जर
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