मिश्रा जी बड़े हैरान हुए ।जब उन्होंने पाया कि उनके ऑफिस बैग में सारा सामान बड़े करीने से सजाया गया है । मनपसंद नाश्ता बनाया गया है । वो भी बिना किसी गुहार के!
फिर कुत्ते की दुम से , आदतन वो जुराबों को लेकर झुंझलाए ।
तो उन्होंने पाया कि श्रीमती जी एक जोड़ा जुराबे हाथ में लेकर तैयार खड़ी हैं। मुस्कान के साथ !
कोई वाद विवाद नहीं , जैसा की होता आया है ।
शक हुआ कि सारी सुविधा के पीछे जरूर कोई न कोई प्रयोजन है ।
मिश्रा जी के दिमाग ने दो चाल आगे जाकर सोचा और ज़बाब तैयार किया " देखो अभी बजट नहीं है और ये अत्यावश्यक भी नहीं है , सो थोड़ा रुक जाओ । "
फिर वो हतप्रभ रह गए , जब श्रीमती ने केवल सूचनार्थ कहा " सुनो , आज भईया आ रहे है और हम एक महीने के लिए जा रहे है । अपना प्रबंध स्वयं कर लेना । "
मिश्रा जी का उल्लास हलक से बाहर छलकने को हुआ । पर ग्रहस्थ ने उन्हें एक चीज़ बेपनाह दी है , वो है संयम , समंदर से भी गहरा संयम । सो वो उछाल को पी गए।
फिर अंदर का कलाकार जी उठा और उनकी शिकन पे चिंता की लकीर आ गयी । बोले " एक महीना ? तुम्हे क्या लगता है बिटटू और गुड़िया रुक पाएंगे नानी के यहाँ । वो भी एक महीना ? "
श्रीमती जी मन बना चुकीं , ढृढ़ता से बोलीं " यहाँ से भी ज्यादा रमता है बच्चों का मन वहाँ , ये जान लो तुम । "
मिश्रा जी बोले " असुविधाएँ तो होंगी मुझे बेहिसाब , पर हक़ बनता है तुम्हारा । जून है सो हवा पानी बदलने का मौसम है , निसंकोच चली जाओ । "
शाम को अकेले मिश्रा जी बालकॉनी में खड़े हुए और मुँह की भांप लगा ऐनक साफ़ की तो पाया कि
वो जो उनके घर के सामने पीपल है जो हमेशा से ही बदरंग ,धूल धूसरित , बुढ़ाता पीपल है , उसमें बेमौसम बारिश के बाद नयी, ताज़ा, मुलायम कोपलें फूट आई है । पत्तियाँ झक हरी हो गयी है । और उस पीपल के ऊपर ऊपर कौवे का नहीं एक कोयल का घोसला हुआ करता है ।
कोई कनेक्शन नहीं है पर उन्हें यूँ ही खड़े खड़े ख्याल आया कि अभी से कनपटियों को सफ़ेद छोड़ देना महज आलस ही तो है । याद आया गोदरेज की हर्बल डाई के पत्ते हैं तो घर में, खोजने पड़ेंगे बस थोड़े बहुत ही ।
फिर नाइके के जूते , जो अरसे पहले ताव में आके खरीदे थे, उनके जाले हटाने का विचार भी आया, जॉगिंग करने का ख्याल आया । यूँ ही बेबजह ।
फिर उन्होंने अपने जिगरी को फोन मिलाया तो जबाब मिला " क्यों बे साले मतलबी इंसान , खुद के लिए जीने वाले खुदगर्ज़ इंसान । बोल किस मतलब से याद किया । "
मिश्रा जी बड़ी आत्मीयता लिए बोले " सुन यार, तू बोलता था ना , एक नया आहाता है जहाँ चखना जरूर महँगा है पर बियर काफी सस्ती है । जहाँ महफ़िल खुले में सजती है । पुरवाई चले या पछवा सीधे सीने से लगती है ।बोल चलेगा ! "
दोस्त के साथ आहाते पर मिश्रा जी ने पाया कि चार चार पाँच पाँच के झुण्ड में लोग बैठे है । उनके गलों पर निशान तो है वैसे ही जैसा मिश्रा जी के गले पे है , बंधे रहने का निशान । पर पट्टे नहीं है । जाम उठ रहे है 'चियर्स फॉर हेल्थ, हैप्पीनेस एंड प्रोस्पेरिटी ' के नाम ।
वो सब कविताएँ पढ़ रहे है " साले , बेन**, कमीने , मतलबी , डरपोक , गुलाम " कुछ कुछ इस प्रकार की कविताएँ!
जून की खुश्क शाम में मिश्रा जी ने पाया कि मौसम गरम है पर बियर बेहद ठंडी है । लगा, असल में शादीशुदा लोगो की ज़िन्दगी में यही तो मौसम है जो कविताई का मौसम है । श्रृंगार रस, प्रेम रस ,वियोग रस, वीर रस में डूबी कविताएँ कहने का ,लिखने का , जीने का मौसम !
-- सचिन कुमार गुर्जर
फिर कुत्ते की दुम से , आदतन वो जुराबों को लेकर झुंझलाए ।
तो उन्होंने पाया कि श्रीमती जी एक जोड़ा जुराबे हाथ में लेकर तैयार खड़ी हैं। मुस्कान के साथ !
कोई वाद विवाद नहीं , जैसा की होता आया है ।
शक हुआ कि सारी सुविधा के पीछे जरूर कोई न कोई प्रयोजन है ।
मिश्रा जी के दिमाग ने दो चाल आगे जाकर सोचा और ज़बाब तैयार किया " देखो अभी बजट नहीं है और ये अत्यावश्यक भी नहीं है , सो थोड़ा रुक जाओ । "
फिर वो हतप्रभ रह गए , जब श्रीमती ने केवल सूचनार्थ कहा " सुनो , आज भईया आ रहे है और हम एक महीने के लिए जा रहे है । अपना प्रबंध स्वयं कर लेना । "
मिश्रा जी का उल्लास हलक से बाहर छलकने को हुआ । पर ग्रहस्थ ने उन्हें एक चीज़ बेपनाह दी है , वो है संयम , समंदर से भी गहरा संयम । सो वो उछाल को पी गए।
फिर अंदर का कलाकार जी उठा और उनकी शिकन पे चिंता की लकीर आ गयी । बोले " एक महीना ? तुम्हे क्या लगता है बिटटू और गुड़िया रुक पाएंगे नानी के यहाँ । वो भी एक महीना ? "
श्रीमती जी मन बना चुकीं , ढृढ़ता से बोलीं " यहाँ से भी ज्यादा रमता है बच्चों का मन वहाँ , ये जान लो तुम । "
मिश्रा जी बोले " असुविधाएँ तो होंगी मुझे बेहिसाब , पर हक़ बनता है तुम्हारा । जून है सो हवा पानी बदलने का मौसम है , निसंकोच चली जाओ । "
शाम को अकेले मिश्रा जी बालकॉनी में खड़े हुए और मुँह की भांप लगा ऐनक साफ़ की तो पाया कि
वो जो उनके घर के सामने पीपल है जो हमेशा से ही बदरंग ,धूल धूसरित , बुढ़ाता पीपल है , उसमें बेमौसम बारिश के बाद नयी, ताज़ा, मुलायम कोपलें फूट आई है । पत्तियाँ झक हरी हो गयी है । और उस पीपल के ऊपर ऊपर कौवे का नहीं एक कोयल का घोसला हुआ करता है ।
कोई कनेक्शन नहीं है पर उन्हें यूँ ही खड़े खड़े ख्याल आया कि अभी से कनपटियों को सफ़ेद छोड़ देना महज आलस ही तो है । याद आया गोदरेज की हर्बल डाई के पत्ते हैं तो घर में, खोजने पड़ेंगे बस थोड़े बहुत ही ।
फिर नाइके के जूते , जो अरसे पहले ताव में आके खरीदे थे, उनके जाले हटाने का विचार भी आया, जॉगिंग करने का ख्याल आया । यूँ ही बेबजह ।
फिर उन्होंने अपने जिगरी को फोन मिलाया तो जबाब मिला " क्यों बे साले मतलबी इंसान , खुद के लिए जीने वाले खुदगर्ज़ इंसान । बोल किस मतलब से याद किया । "
मिश्रा जी बड़ी आत्मीयता लिए बोले " सुन यार, तू बोलता था ना , एक नया आहाता है जहाँ चखना जरूर महँगा है पर बियर काफी सस्ती है । जहाँ महफ़िल खुले में सजती है । पुरवाई चले या पछवा सीधे सीने से लगती है ।बोल चलेगा ! "
दोस्त के साथ आहाते पर मिश्रा जी ने पाया कि चार चार पाँच पाँच के झुण्ड में लोग बैठे है । उनके गलों पर निशान तो है वैसे ही जैसा मिश्रा जी के गले पे है , बंधे रहने का निशान । पर पट्टे नहीं है । जाम उठ रहे है 'चियर्स फॉर हेल्थ, हैप्पीनेस एंड प्रोस्पेरिटी ' के नाम ।
वो सब कविताएँ पढ़ रहे है " साले , बेन**, कमीने , मतलबी , डरपोक , गुलाम " कुछ कुछ इस प्रकार की कविताएँ!
जून की खुश्क शाम में मिश्रा जी ने पाया कि मौसम गरम है पर बियर बेहद ठंडी है । लगा, असल में शादीशुदा लोगो की ज़िन्दगी में यही तो मौसम है जो कविताई का मौसम है । श्रृंगार रस, प्रेम रस ,वियोग रस, वीर रस में डूबी कविताएँ कहने का ,लिखने का , जीने का मौसम !
-- सचिन कुमार गुर्जर
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