गुरुवार, 21 जनवरी 2021

दादा ऊदल

     


उस पुराने  दालान पर, जिसका चबूतरा एक जबर आदमी के सीने जितना ऊँचा था और जिसके बीचोंबीच एक  बहुत पुराना ,पहाड़ सा बुलंद  लेकिन गंजा होता नीम का दरखत  था , वहाँ मैंने ना जाने कितने जेठ  कितने आसाढ़ बूढ़ों को सुना | हुक्के की नाली को ताज़े ठन्डे पानी से तर कर और फिर लाल अंगारो से चिलम को ठूस ठूस भर , मैं दादा लोगो की चौखडी के बीच में हुक्का जमाता और आज्ञाकारी शिष्य सा किसी खाट की पांयत  पे चिपक जाता |  उनमे से कोई परिवार से रुष्ट हो  कहता "खैर भैय्या , बुढ़ापा बुरापा होया करे है " और बाकि सब एक सुर में कहते "हम्बै , सही कहो हो | " दर्जनों गायें और उतनी ही भैंसे , जिनकी पूछें शाम को तंग करने वाली खून चूसा मक्खियाँ  उड़ाने  को हेलीकॉप्टर के पंखे सी  भाग रही होती , वो 'हम्बै' न कहती पर उनके गलों के छोटे बड़े घंटे अपने ग्वालों  की बात के समर्थन में  देर तक  बजते रहते | 

और वो नीम , वो जैसे उन बूढ़ो में से ही एक था | उसके पीले पत्ते हमेशा गिरते ही रहते , घर परिवार की बहुये , लड़कियाँ  आँगन बुहारती तो कोसती "अये मरजाना , यू पेड़ दिलद्दर हैगा , देखियो जी सुबह ही सकेरा(बुहारा)  , अब देखो , कोई देखेगा तो क्या कहेगा , के के इस कुनबे की औरतें  काम ना करतीं ! " पर कुदरत पे किसका जोर , किसका जबर | उस नीम के पत्ते गिरते ही रहते , बिना हवा , बिना आवाज़ | और वैसे ही गिरते वो बूढ़े | दादा दरियाब थे , बैलगाड़ी में रस्से की बांध को कसते थे , बस पीछे की ढाल ही लुढ़क गए | घर वाले भागे , गंगा जल भी न गटक पाए , पंछी उड़ गया |  दादा कल्लन थे ,कढ़ी चावल खाते थे , पहला गोसा ही लिया था | ऐसा जोर का खांसी का  अटैक सा हुआ कि मिनट भर में ठन्डे | जिन घरो से बूढ़े जाते उन घरो में तीन दिन दाना पानी न होता,  पर ऊँचे दालान का हुक्का अगले दिन भी बजता और मैं पाता  कि बाकि बूढ़ो में से एक के भी अक्स में मौत का  भय नहीं है | वे  अपने नीले नसों के गुच्छो वाले हाथो को माथे पे जोड़ , नीम की छाव में यहाँ वहाँ  में खुले मोखलों  में से भगवान् को ताकते और कहते "हे राम जी ,ऐसी ही मौत दीजो , झटफट , बिना  धड़क बिना फड़क ! "

और फिर सब चले गए|  कुछ ऐसे जैसे खेल खेल में बच्चो ने थोड़ी थोड़ी दूरी पे सतर ईंटें  खड़ी  कर दी हों  और कोई शरारती एक सिरे से लात मार रेला सा चला जाये | ऊँचे दालान का वो रेला चला गया | बड़े बड़े हलंता , पचास पचास  गायों के मालिक ,सवा छह छह फ़ीट के सुर्ख रंग वाले , बब्बर शेर से ललाट और मूछों वाले , घुड़सवारी  के शौक़ीन दादा लोग चले गए |  ऐसे ऐसे जबर गूजर , के जो बुढ़ापे में भी तबियत से दहाड़ मार देते तो हलके फुल्के आदमी की पतलून  गीली हो जाती | सब चले गए | 

रह कौन गया ? दादा ऊदल  | उस फौज के सबसे मरियल आदमी | बाकी बूढ़े उन्हें 'गुरगल' कहते |  गुरगल एक छोटा सा पक्षी , गौरैय्या  जैसा |  ठिगनी रास , परती पड़े खेत जैसा मटेला रंग , तोतई नाक जो बुढ़ापे में आगे से फूल के लटक गयी थी | गालों  के गड्ढ़े इतने गहरे कि मुँह के अंदर एक दुसरे को छूते थे |चाचा चौधरी के जैसी  छज्जेदार मूछें  लिए थे  |  वो उम्मीद से ज्यादा और बहुत ज्यादा ठहर गए थे | शायद इसलिए कि उन्हें नीम के पत्ते की तरह बेआवाज़ नहीं जाना था , देवता होकर जाना था | हाँ देवता होकर ही | उस हाड ज्यादा , मांस कम की गठरी में जीवते वो जो साक्षात्कार कर गए , आप सामानांतर खोजेंगे तो ईशामसीह की जीवन लीला  में ही मिल पायेगा !  इंसानी हदों के पार चले गए थे ऊदल दादा | वरना आज के जमाने में कौन मानता है | दुनिया तेज रफ्तार है, पर  आज भी  गाँव में हर गाय का पहला दूध उनके स्थान पर चढ़ता है | 

                                                            ****  II  ******* 

ये जो मर्द लोग होते है न ,  इनकी सीरत में दोगलापन ऐसे ही होता है जैसे उँगलियाँ चटका चटका के  गूथे गए आटे में नमक | दिखाई नहीं देता ,पर है सर्वव्याप्त | दिन भर यही मर्द विधाता बन ऊँचे टीकरे पर चढ़ हुंकारे मारेगा | पैर के अंगूठे भर से ढेले को धूल धूल उडा देगा | जरा से विवाद में वनमानुष सा सीना पीटेगा , दूसरो के कंधो पे चढ़ मूतने का इरादा रखेगा | और औरत ? बेचारी तर्क की बात कहे  या कुतर्क , आढा तिरछा हो गुर्राएगा  " जा चली जा , काम कर अपना | "                                                                          फिर झुकमुका (dusk ) होगा , रात का सन्नाटा उतरेगा | थके हारे बालक माओं की गरम करवटों में गहरी नींद में उतर जायेंगे  ,तब  वही मर्द जिसने  दिन में 'जा चली जा ' कहा था ,  औरत के घुटनो में बैठा होगा | और औरत ये जानती है |  बड़े अच्छे से , बिना शिक्षा , बस सहज ज्ञान से ही जानती है | यही के जिस तरह अनुकूल मौसम , सही समय, सही ताप पर  धान का पौधा रोपा जाता है , ठीक वैसे ही सही समय , सही तबियत  में  मर्द के दिमाग में विचार रोपा जाता है !

लम्बी बदरंग हवेली में ,जिसके कोठड़े पक्की ईंट और कच्चे गारे के बने थे जिनके बाहर लम्बा फूस का छप्पर बरामदे का काम करता था , उन कोठड़ो में पोत -बहुए , मिट्टी के तेल की ढिमरी बुझा अपने अपने आदमियों से बड़े हौले से कहती " कुछ करो हो बालको के लियो या कटोरा देओगे तम इनके हाथो में | " और गर्माहट के ख्वाहिशमंद उनके आदमी उतने ही धीमे स्वर में कहते "हाँ , हाँ , देखे हैं !" पर जब ये 'देखे हैं  देखे हैं ' का दिलासा लम्बा खिचा तो लम्बी चोटी ,गरम खून की पोत-बहुओं  ने खुद ही बीड़ा उठाया | दालान उनकी पहुंच से दूर था , पर हवेली में पहले सांझे के चूल्हे फूटे , अपनी अपनी थाली कटोरियों पर पहचान के निशान खीचें  गए , लीपने के आंगन बांटे और जब दिल नहीं भरा तो "उत्ती तू ऐसी  , तेरा पीहर ऐसा , तेरा खसम मेरा खसम "  ये सब वाचा जाने लगा | मर्द कुछ दिन दूर रहे , लेकिन फूस का घर और आग से रहम !

एक दिन ऐसा आया कि  छोटी बहु ने बड़ा लम्बा सा घुंघट काढ़े काढ़े आपा खो दिया और चिमटे से अपने जेठ की ओर इशारा कर बोली " उरे कु मुच्छड़ , तेरी ही मूछ उखेड़ुगी सबसे पहलै | "  बस  उसी दिन सब कुछ बँट गया | पूरब का खेत , पश्चिम की जोत , साझे का कुआँ , मुर्रा भैंस , ढेला भैंस , धान, उड़द, मसूर | सब का सब |   

और दादा ऊदल ? अरे उनका हामी कौन होता , जो बेटा पोता  सबसे सीधा था , बिना ऐलान उसकी झोली में आ गिरे | दालान चार फाँक  हुआ  पोतों ने शहर जैसे दड़बे नुमा घर बनाने को फीता डाल दालान बाँट लिया |  दादा के हलक से एक बात भी न निकली | हाँ जब नीम का बँटबारा  हुआ और लकड़हारे बड़े आरे ले चले तब वे बोले  " ओ लल्ला क्यों काटो हो इसे , हम्बे साई ?" किसी ने पूछा "क्यों ना काटें ?"

 पर दादा कुछ न बोले | 

काश उन्होंने बोला होता कि काट लेना , मुझे चले जाने दो | फिर इसे काट ,आरा मशीन पे ले जा तख्तों  में तकसीम कर बाँट लेना | काश उस कभी के जबरदस्त किस्सागो  ने कहा होता कि सुनो अकल के मारो , इस नीम के पत्ते पत्ते पे एक कहानी है | आह कितने किस्से उस नीम की छाँव में कहे गए | भूत ,चुड़ैल , परी , फरिश्ते , नल दमयंती , विक्रम बेताल , राजा हरिश्चंद , इन सबके कितने  किस्से, वो भी मुँहजबानी ! वो मरघटिया के भूतों  के नाच की कहानी , जिसे सुन मेरे और साथ के हमउम्र बालको के मसाने सूख गए थे और कई बड़ी उम्र में भी बिस्तरों में मूतने लगे थे | भूत जिनके पैर पीछे को घूमे होते  थे और जो नंग धडंग हो अंगारों पे कूदते थे | अर अर अर... जो सुरैय्या की तरह नाक में ही बोलते थे "कहाँ कू जावै है , कहाँ कू.. ठहर जा  "

काश वो कह पाते कि  दादा को बर्दाश्त करते हो , तो इसे भी कर लो |  पर वे  कह भी देते तो उन्हें कौन सुनता | हुह्ह  , भला कोई सुनता ? नीम का पेड़ और ऊदल दादा बस जगह भर ही तो घेरते थे | 

और मैं कहाँ था ? मेरी मसे भीग रहीं थीं  | और किसी भी औसत किशोर की तरह मैं बिना बात की अकड़ , कम उम्र के फिजूल के आकर्षण ,  जान बूझ घर वालों  के हुकुम की नाफरमानी में मशगूल था | मैं वैसे ही था जैसे कि मेरे आस पास के लोग | मैं दुनिया में अपनी जगह ढूँढ  रहा था |  नीम और नीम वाले दादा पुराने ढोल जैसे थे , मुझे फ़िल्मी गाने जमने लगे थे | 

                            

                                                                      ****  III ***

रामकृष्ण परमहंस भक्तिमार्ग के बड़े ही पहुंचे हुए संत थे | काली के उपासक | सत्संग करते तो सैकड़ो लोग उनकी जीवट लीला को देखने सुनने इकठ्ठा  होते | लेकिन उनमे एक ऐब था : लजीज खाना  | और भोजन में उनकी आसक्ति कुछ उस दर्जे की थी कि सत्संग पूरे शबाब पर भी हो तब भी वो बीच सत्संग उठ जाते और रसोई में जा अपनी ग्रहणी श्रद्धा से पूछते कि आज खाने में क्या है | कई बार  किसी बालक से खबर भेजते कि खाने में देरी क्यों है | उनकी पत्नी को ये बात चुभती कि बताइये इतने बड़े ज्ञानी , लोक परलोक के ज्ञाता और जिव्हा इंद्री पे तनिक भी संयम नहीं | वो पूछती तो परमहंस हँस देते | आखिर जब पत्नी ने ज्यादा दबाब बनाया तो उन्होंने समझाया कि देखो इस दुनियादारी से मेरा सम्बद्ध खत्म  ही हुआ , इधर जानने को न कोई रहस्य रहा , न बांधने को कोई माया | बस खाने की आसत्ति है जिससे  मैंने अपने आप को इस दुनिया से बांधा है | जिस दिन भोजन से भी लगाव गया  तो समझ लेना | और फिर ऐसा ही हुआ | एक दिन तरह तरह के पकवान सजा जब पत्नी उनके सामने हाज़िर हुई , परमहंस ने मुँह फेर लिया | बस , पत्नी के हाथ से थाली छूट गयी, चीख निकल गयी | परमहंस ब्रह्मलीन हो गए | 

ऊदल दादा की भक्ति में परमहंस जैसा न तेज था, न ही उनके जैसा ज्ञान | अरे वे  ऐसे सरल गऊ मन आदमी थे जिसकी जवानी गाय चराने में बीती और ढलती उम्र  किस्सागोई  और हुक्केबाजी  में | वो घुटनों  में अपना सिर  रखते  और सीधा सा मन्त्र उचारते " हे राम।  तू ही है मेरे मालिक रे | " हाँ परमहंस की तरह उनकी आसत्ति जरूर थी | दो चीज़ें  उन्हें दुनिया से बांधती थी : एक लोटा भर काले गुड़ की चाय और दूसरा बीड़ी का बण्डल | सुबह घर का काम निपटा जब बहुएँ  किसी बालक से चाय का लोटा भिजवाती तो दादा उसे एक बड़े कटोरे पे भरवा लेते | दोनों हाथों से देर तक चाय की तपिश को महसूस करते और फिर सपाटे के साथ एक एक घूँट को रुक कर ऐसे पीते जैसे पेट  को नहीं आत्मा को सींचते  हो | फिर बीड़ी सुलगा लेते | वो साझे का हुक्का लड़कों ने बांध कर टांड पर रख दिया था इस वादे के साथ कि कोई हुक्का-पीवा रिश्तेदार आएगा तो उतार लेंगे | लेकिन दुनिया आई गयी | गायों की बछड़ियों की भी बछड़ियाँ पैदा हो गयी , हुक्का नहीं उतरा |  


दुनिया चाँद में उसकी शीतल चांदनी और उसकी छवि में अपनी प्रेमिका का रूप ढूढ़ती है , उसके अड्ढे गढ्ढ़े , काले पीले दाग नहीं | वैसे ही दुनिया का देहाती जीवन से रोमांस है |  किसान चरित्र में भोलापन, सादगी और मेहनतकशी  के गुण ही तलाशती है |  जबकि देहात के जीवन का एक पहलु ये भी है कि शायद कठोर जीवन के चलते उनकी संवेदनायें  कम होती है और मजाक के तरीके भी कठोर होते हैं |  मौत और बुढ़ापे को लेकर जितने मजाक भारत के ग्रामीण अंचल में मिलेंगे शायद ही दुनिया में कहीं मिलें  |

कई बार ऐसा होता कि सूरज की धीमी तपिश में दादा ऊदल अपनी सूखी टांगो को आंच दे रहे होते तो कोई लफंडर तफरीह में यू ही खामखा अपनी साईकल बैठक के आगे रोकता और कहता " ओ दद्दा , सुनो हो के ना | अब खबा भी दो उड़द चावल | दिखियो , महीनो से गाम में कोई दावत न हुई !" उसका इशारा मृत्युभोज की तरफ होता | उसकी बात में बात जोड़ता कोई इधर उधर के चबूतरे से होंका  लगाता " अभी नाय जाएं ये  , काला कौवा खाय के उतरे हैंगे दादा , देखिये कही तेरे उड़द चावल न खा जाएँ कहीं  " और फिर बेगारी में इधर उधर मस्त सांड से घूमते  कई  जवान ठहाका लगा कर देर तक  हँसते |  

दादा क्या कहते | मैंने कहा ना दुनिया में उनकी आसक्ति ख़तम हो गयी थी , बस उनके लिवनहार फ़रिश्ते सोते थे | कभी वो धीमी आवाज़ में कहते " राजा हो या रंक , जिसका बखत जब आवेगा तभी जावेगा| सात तालों में बंद हो लियो , हुवा से भी खींच लेंगे फ़रस्ते  "

लेकिन फिर वो दिन आया , जिसे मैं क्या पूरा गाँव  नहीं भूलता | 

                                              ****   IV   *** 

वो सेमल-गददे के फूलों का मौसम था | रास्ते के किनारे पसरे खलियान  में,  जहाँ मोहल्ले भर की औरते गोबर के कंडे और लकड़ी के ढेर संजोया  करती थी , उसके बीच में खड़े दो दैत्याकार सेमल के पेड़ो पर खिले फूल ऐसे थे जैसे जवान मुर्गे की लाल  कलगी | दूर तक पीली सरसो पसरी थी | उस रात मैं सही से सो नहीं पाया | एक तो मौसम ऐसा गर्म-सर्द , कि खेस में मुँह ढाँपो तो पसीना  और  न ढाँपो तो मच्छर  पिनपिनाते | उस पर देर रात  तक गांव भर के आवारा कुत्ते छतो पर चढ़ रोते रहे | कुत्तो को आसामन से उतरते फरिश्तों  का भान होता है  |और इस बात का भान मुझे था कि कुत्ते क्यों रोते है !बस इसी के चलते मेरा कलेजा बैठ बैठ जाता | 

सुबह जंगल पानी को निकला तो गलिहारो में किसान अपनी अपनी हवेलियों से रात से पानी में भीगी खली के बालटे लटकाये गोशालाओं  की तरफ जा रहे थे | सुबह सुबह भजन के समय कोई किसान अपनी भैंस से परेशान उसे कोस रहा था " खा ले महारे ससुर की , कसाई से कटवाऊ तुझे , कसाई सै | "दूर डामर की सड़क से कच्ची सड़क पे उतरती दूधिया की साईकिल  से टकराते दूध के खाली गोलटे बेसुरे घंटो से बजते चले आ रहे थे | कोई आध कोस की दूरी  पर एक टटीरी पक्षी  पूरे जोर से चिल्ला रहा था  :   टर टर टटर टटर | शायद नित्यकर्म को जाता कोई इंसान उसके अंडो के नजदीक पहुंच गया था |  सरकंडो के  बाड़ों से घिरी चकरोड के दूर वाले छोर पर,  अमराही के सिरे पर सूरज ने जब आसमान को फोड़ा तो मैंने वापसी का रास्ता पकड़ा  |  

उदल दादा की बैठक के आगे आठ दस लोग जमा थे | जो स्वाभाविक था वही विचार आया और बैठक में पैर रखते ही  विचार सही साबित हुआ | दादा के दोनों पैर एक तरफ घूमे पड़े थे और मुँह खुला पड़ा था |  कोई आशावादी था, आगे खड़े लोगो से बोला "नबज टटोल के देख तो लो , क्या पता साँस बाकी होवै | " आगे खड़े किसी नौजवान ने इसे अपनी पड़ताल की तौहीन माना और ऊँचा हो बोला "नाय  है कुछ भी , ठन्डे पड़ गए | मट्टी ही बची है अब भईया , कुछ नाय बचा | " फिर कुछ लोग ऐसे होते है जो सब कुछ आभास होने पर भी पूछते है , किसी नए ने पूछा " क्या हुआ ?"तो माहौल के हिसाब से किसी ने संजीदा हो कहा " दादा ख़तम हो गए !"

शरीर जमीन पर उतारने की तैयारी होने लगी लेकिन कोई ठीठ पीछे से आके बोला " अरे गर्दन तो घुमा के देख लो , थोड़ा हिला डुला के देख लियो | " कई झुँझलाये  | कई बार ऐसा होता है कि  मृत को देख ऐसा भास होता  है जैसे  सांस लेता हो और अभी तपाक से  बोल पड़ेगा | मुझे तो ऐसा ही लगा|  और फिर मुझे क्या कई को ऐसा ही लगा | किसी ने दादा के मुँह के आगे कान लगा दिया और जोर से चिल्लाया " अबे , चल लइ है दादा की साँस !" और सचमुच  दादा तो लौट आये !  भाग हुई कि चाय लाओ, चाय लाओ | 

गरम चाय पेट में जाते ही दादा का शरीर ऐसे हरकत में आया जैसे सर्द पाले में अकड़ी छिपकली ने सूरज की तपिश पा ली हो |   किसी ने पूछा " ठीक हो?" और फिर बीड़ी सुलगा के दे दी |  दादा ने हाथ जोड़ आसमान की ओर उठा दिए और बोले " बस बालको , चला तो गया हा पर लौट आया | "

फिर वो सुनाते गए |  शायद सालों  बाद इतना बोले होंगे" तीन जने हे | सफ़ेद झक लत्ता में | बोले कि ऊदल , उठो और चलो | मैं नु बोला के थमो तो सई | अपनी लठिया तो उठा लूँ | " 

भीड़ में पीछे कुछ हँसे ,पर अधिकतर गंभीर हो सुनते थे |  बीड़ी का कश ले दादा बोले " मेरे पैर ऐसे उठे जैसे कि कोई फूल | और यूँ आँख मूंदते ही बादल ही बादल | "

"फिर , उसके बाद क्या हुआ दादा ?"

दादा ने अपने सूखे लकड़ी से हाथ को गोलाई में घुमाया और बोले " ऐसे बहुत से नर नार चुप्पी चान बढे चले जा रये | मैं, मेरे संग वो तीन फिरस्ते | बड़ा सोयना सा द्वार बना हुआ हा , एक ने हमे रोक लिया | नाम की बूझ हुई लल्ला "

"नाम बताओ "

"ऊदल सिंह "

"बल्द ?"

"फूल सिंह "

"बस इसपे आयके  वो चारो चुप | पोथी में देर तक पड़ताल हुई | फिर उ जो चौथा हा ना लल्ला | नु बोला के गलत आदमी को ले आये | हलकी सी डांट देई | "

किसी ने पूछा " उनके मुँह दीखे हे क्या दादा ?"

दादा में जैसे नई ऊर्जा आ गयी थी " अरे नाय , उनके सफ़ेद लत्तो में इतनी तेज़ी ही , कि आँख कहाँ  खुली पूरी|  "

"और फिर वो नू बोले के चलो वापस , अरर आरर ..  बस वही से धक्का दे दिया मुझे और बस्स्स|  "

बैठक से कुछ लोग निकलते जा रहे थे कुछ आते जा रहे थे | कुछ दादा की कहानी को दोहरा दूसरों  को सुनाते तो कुछ दोबारा उनके मुँह से सुनने की गुजारिश करते | कुछ विश्वास लिए तो कुछ बूढ़े का कपोल समझ , घंटे भर में भीड़ छट गयी |  

बमुश्किल घंटा भर बीता होगा | पछाय(पश्चिम ) के मोहल्ले के नरपत चले आते थे अपनी 'राजदूत' पे | बनिए की दुकान  से बीड़ी का बण्डल ले नरपत किसी बैठक की ओर मुँह ले बोले " काका , मँड़ैया की नदी में जल तो नाय है आजकल | मोटरसाइकल निकल जाएगी | कही जाना हो ना हो , घर परिवार की लौंडियो को तो खबर देनी ही पड़ेगी  | "

एक काका चबूतरे  पे चले आये " ऐसा क्या हुआ , के खबर देनी पड़ेगी तड़के तड़के ?"

नरपत उदास हो बोले " पते ना चले , अहह , ऊदल ख़तम हो गए ऊदल | "

"क्या ??"

"भल मानसो , अच्छे खासे उठे , जंगल पानी गए , आके चाय पी और अर बस | बड़े लौंडा कू आवाज़ दी जोर से , अर बसस | ठन्डे पड़ गए|  "

आस पास के घरो से जनाने मर्दाने  सब सुन गलिहारे में आ गए | 

"कौन ?अरे कौन, नरपत कौन ??"

"ऊदल  | "

ओहो  , तो फ़रिश्तो ने अपनी भूल सही कर ली थी |  घंटे भर के भीतर ही | और मैंने देखा कि गाँव के गलियारों में भरे लोग " राम तेरी माया , हे प्रभु तू ही है " जपते, हाँफते  ऊदल की मँड़ैया की ओर लपके  चले जा रहे थे | सबकी आँखों में भय था और सबकी आवाजें  काँप रही थी | चबूतरे पे खड़े खड़े मेरी सांस धौंकनी  सी चल रही थी | मृत्यु भय और डर के मारे रीढ़  की हड्डी के ऊपर पसीना छूटना क्या होता है , उस दिन मुझे आभास हुआ था | 

इस घटना के बाद तो गांव का मौसम ही बदल गया | ऊदल दादा छह  महीना और  जीवित रहे | घसियारिनो के झुंड उनकी बैठक के आगे से निकलते तो सब एक सांस  हो गीत सा गातीं " पाऊँ लागु हूँ  बड़े दादा !!"मोहल्ले भर की गुजरियाँ  छोटे बड़े तीज त्यौहार पर कटोरा भर खीर भेज देतीं  जिसमें दिल खोल  मखाने , दाखें  और किशमिश  बुरके होते  | !राह चलता राहगीर रुक जाता और बीड़ी सुलगा दादा को देता | दादा मना करते तो मिन्नत सी करता ,कहता " लो ,पी भी लो भलमानसो , अब सुलगाय  लेई मैंने !" रेलबाई या पुलिस की भर्ती  का परचा देने कोई युवा शहर जाता तो  बस पकड़ने से पहले दादा के चरण लेना न भूलता | सेवा से कुछ के काम सिंद्ध होते ,कुछ के ना होते,  पर ऊदल  दादा में पूरे गांव की आस्था जम गयी  | दादा स्वर्गलोक हो लौट आये थे | 

और फिर जब वे  सही में गए तो गाँव  की सातों जात के आदमी जुटे | ताजा  बारिश में बलबलाती गंगा के किनारे चिता पे लिटा जब काका अग्नि देने को हुए तो भीड़ में बैठे किसी हँसोड़  से रहा न गया " औ काका , अभी रुकियो तनक  , कुछ पता ना , अभी लौट सकें है दादा !" और फिर सब जोर जोर से हँस पड़े | 

लेकिन धुआँ होते ही  मिजाज बदल गया और एक बड़ा रुआंसा हो गा उठा :

"पत्ता टूटा डाल सै  , ले गई पवन उड़ाय | 

अबके बिछड़े नाय मिले  , जाय बसेंगे दूर | 

बोलो तो भाई , हर गंगे, हर गंगे |  "

और फिर जीवन की क्षणभंगुरता और अपनी अपनी आखिरियत के अहसास से बहुत सी आवाजें  एक साथ गा उठीं  " बोलो तो भाई हर गंगे , हर गंगे | "

घी की लाग पा भड़की ज्वाला ज्यों  ही शरीर को लीलने को ऊपर उठी ,  लकड़ी के सुलगते दो कुंदे चिता से लुढ़क  कर बाहर आ गिरे | 

हाँ ये उसी पुराने नीम की लकड़ी के कुंदे थे ! दादा अपने साथ एक पूरा युग समेट कर  ले गए थे | 

                                                            इति | 

                                                      सचिन कुमार गुर्जर 

                                                      २१ जनवरी २०२१ 

  



बुधवार, 23 दिसंबर 2020

खट खट खट.. चॉप चॉप चॉप !



वो मुझे रोज ही मिलती है | यही कोई नौ साढ़े नौ बजे के आस पास | या जानकारी को ज्यादा सटीक बनाना है तो यूँ कहिये कि सप्ताहांत को छोड़कर बाकि सभी दिन , क्योकि उन दो दिनों में मैं देर दोपहर तक सोता हूँ | 'माय लाइफ माय चॉइस ' के खुमार में डूबा होता हूँ |  

सीधी सपाट चिनाई और पीले गेरुए रंग में पुती हाउसिंग बोर्ड की बिल्डिंग्स के झुरमुट से निकल , लाल बत्ती के पार , उन नौ  दुकानों की टुकड़ी  में , हाँ वो मुझे वही मिलती है | नौ दुकानें , जिनमे से पांच एक सीध में तो बाकि चार अंग्रेजी के 'एल' अक्षर की तरह नब्बे डिग्री का घुमाव लिए हुए है | ऊँचे बुलेवार्ड के तेज़ ढलान को रोकने के लिए दुकानों के सामने  पैरापेट बनी है | पैरापेट के सहारे कुछ 'रात की रानी ' के खुशबूदार पौधे लगे है | एक पैर जमीन पर तो एक पैर मोड़ कर पैरापेट पर टिकाये वो यूँ खड़ी होती है जैसे वादा कर समय पर ना पहुंचे प्रेमी के इंतज़ार में हो , बेचैन हो , राह तकती हो |  

मैं उसे दूर से देखता हूँ तो लगता है कि जैसे पास आने पर  वो मुझसे  कहेगी " वेंकट , माय डिअर वेंकट , अरे सोकर देर से उठे क्या ? " फिर थोड़ी फ़िक्र लिए और थोड़ी सलाह के भाव से कहेगी "ऑफिस टाइम से जाया करो ! लेट हो जाओ तो नॉश्ता ऑफिस कैंटीन में ही कर लिया करो | "  

वेंकट ?? आप कहेंगे 'कौन वेंकट ?'

देखिये , सिंगापुर प्रवासियो का शहर है | वैसे अमूमन सभी शहर प्रवासियों के हुजूम समेटे होते है | लेकिन यहाँ प्रवासियों की तादाद इस कदर ज्यादा है कि अड़ोस पड़ोस में रहते , रोज बगल की टेबल पर कॉफी पीते अजनबी चेहरे कोई जिज्ञासा पैदा नहीं करते | फिर 'स्टीरिओ टाइप ' के खांचे इतने  मजबूत है कि आदमी आदमी नहीं रहता , एक किरदार भर रह जाता है | 

सो, अगर  कोई भारतीय है जो पिट्टू बैग लाधे जाता है तो वो 'वेंकट' या 'राजू' है जो कि एक 'आय टी वर्कर' है  | किसी बैंक या टेक्नो फर्म में कंप्यूटर पे काम करता है |  तमिल बोलता है ,इडली डोसा या रोटी पराता खाता है | उसकी जिंदगी में कोई शगल नहीं है , सिवाय इसके कि उसे खूब सारा पैसा कमा , सब का सब इंडिया भेज देना है !कोई भारतीय जैसा ही , पर थोड़ा नाटा और सावला , सस्ते रबर या लेथर के बूट  डाले है , तो वो समसुल है ,बांग्लादेशी है , कंस्टक्शन वर्कर है , या ऐ सी मैकेनिक | कोई पीले रंग का , एशियाई नाक नक्श लिए , मरियल सा , लाल या पीली टीशर्ट डाले है जिस पर कुछ कुछ प्रिंटेड है , वो तेओ है , वियतनामी जो किसी फ़ूड कोर्ट में सर्विंग स्टाफ या क्लीनिंग स्टाफ है |  

किनारे की बेकरी की दुकान की युवतियाँ हर थोड़े अंतराल पर मध्यम स्वर में गाती जाती है "ओफा ओफा ओफा | " मतलब "ऑफर ऑफर ऑफर "|  'एप्पल पाई बन ', 'रेड बीन बन ' , 'चिकन टोस्ट ' , चॉकलेट कप केक।  ऐसे छत्तीस प्रकार के आइटम उन्होंने दुकान के बाहर स्टैंड पे बड़े करीने से सजाये होते है | सामान उठाने के चिमटे और ट्रे सेट एक किनारे पे चट्टा किये होते है | फिर एक इलेक्ट्रीशियन की शॉप, उसके बाद एक सब्जी फल की दूकान | 

चौथी दुकान के सामने , पैरापेट के पैर टिकाये वो मुझे मिलती है | 

दूधिया रंग | और इस कदर दूधिया कि लगे जैसे छूने से मैला हो जायेगा | चिकनी सफ़ेद , सपाट पेशानी  , नक्काशी की हुई भौहे ,कटीली मंगोल आँखे जिनके  किनारे उसने मस्कारे  से बांधे होते है | नाक रोमन तो नहीं लेकिन चमकीली , सुगढ़ | चीनी टँगेरीन के जैसे भरे हुए उसके होठ , ऐसे समरूप जैसे किसी चित्रकार ने पेन्सिल से बड़ी बारीकी से उकेरे हो |  सूरत पे एक धब्बा तक नहीं |  हाँ निचले होठ से गालिबन एक उंगल भर नीचे एक चोट का निशान है , जो उस पर जँचता है , रूप दबाने के बजाय निखारता है |  अपने घने बरगंडी कलर बालों को उसने चारों तरफ से समेट सिर के बीचोबीच एक जूड़े में बाधा होता है | ऐसा करने से उसकी दूधिया गर्दन पे बना टैटू निखर कर ऐसे सामने आता है जैसे बादलो के घने टुकड़ो से पार पा चाँद दौगनी कशिश  से चमकना चाहता हो |  उसके मोटे, भरे हुए गाल जब मुँह की तरफ आते है तो लाफिंग लाइन की एक घाटी सी बन जाती है | हाथ गूदेदार है , मुलायम डबल रोटी जैसे | इस कदर गूदे दार की उंगलियों के जोड़ बाहर उभरने की बजाय अंदर की ओर दबे हुए है | 

कोई ग्राहक आता है तो वो बड़ी तेज़ी से दुकान की तरफ बढ़ती है | छज्जे के नीचे कतार में जमे थर्मोकोल के बक्सों में , टूटी हुई बर्फ में जमी छोटी बड़ी मछलियों में से एक को वो यूँ उठाती है जैसे गुलाब की कोई टहनी | फिर फुर्ती से स्टेनलेस स्टील के गंडासे को उठा वो उस मछली के पर-पूंछ ऐसे कतरती है जैसे टहनी से पत्ते हटाती हो |  बहुत ज्यादा नहीं , थोड़े से प्रयास से ही वो उस 'समुद्रफल' का पेट दो फाँक कर देती है | "खट खट खट .. चोप चोप चोप "| और बस मिनट से पहले सामान पकने के लिए तैयार | 

कई बार जब मैं गुजर रहा होता हूँ तो कोई बॉडी बिल्डर आकर उससे बोलता है "वन चिकन ब्रैस्ट " | और वो दुकान में अंदर जमा फ्रोजेन चिकन को निकल कटान तख़्त पर ला रखती है | "खट खट खट  ...चोप चोप चोप " | इस बार गंडासा ऊँची आवाज़ करता है | लेकिन समय , मिनट भर ही |  काम को निपटा वो रबर के हौज़ में लगे जेट स्प्रे से कटान तख़्त को साफ़ कर देती है | पॉलिथीन को ग्राहक को थमा भुक्तान रकम को थाम आदर भाव से ऐसे झुकती है जैसे कोई बौद्ध  भिक्षु ! फिर बकाया लौटा वो धीमे स्वर में बोल उठती है "शे शे " | शुक्रिया , शुक्रिया | 

काम निपटा वो फिर से 'रात की  रानी' की झाड़ियों के नजदीक पैरापेट पर आ जाती है और बिना किसी साथी की बात जोहे सिगरेट सुलगा लेती है | उसने रबर के वाटरप्रूफ बूट पहने होते है जो बूचरी के काम में उसे भीगने से बचाते है | एक वाटरप्रूफ एप्रन डाला होता है जो काफी मोटा और चिकना है  और हमेशा भीगा रहता है | इस सबके बाबजूद आप उसे देखेंगे तो उसके मजबूत सीने को महसूस किये बिना नहीं रह सकते |  

कई बार जब वो झुक  कर सामान  उठा रही होती है और मैं गुजर रहा होता हू | या काम की तीव्रता में इधर उधर भागते उसे पीछे से अवलोकन का किस्मतगार होता हूँ  | तब मुझे उसके गदीले  , सही विस्तार लिए हुए  कटि  प्रदेश , बिलकुल वैसा जैसा कल्पनशीलता की चरम अवस्था में पुरष मन गढ़ता है , का अहसास होता है | कटि प्रदेश के ऊपर , ठीक लव हैंडल्स के ऊपर अचानक से कमर अंदर की ओर वलय ले लेती है | ऐसा लगता है जैसे मानो वो रेनेसांस के किसी मूर्तिकार की कृति हो , और मूर्तिकार ने  छैनी हथोड़े की चोट से कमर तरासी की  हो | 

अहह , वो सचमुच आज के समय की स्त्री नहीं है | ना ही वो  आजकल के सनकी  'जीरो फिगर', 'ऑवर ग्लास फिगर ' घुड़दौड़ का हिस्सा है| आहा  लापरवाह ,समय के साथ पकता उसका रूप | वैसे ही जैसे मानसून की बौछारों में  पकता आम | ऐसे गोल , सुडोल , मांसल स्त्रीत्व की तलाश में स्टालिन रूस के गाँवो तक चला जाता था , किसान औरतो में अपनी कल्पना का रूप ढूढ़ता था | 

मछली , मुर्गा काटने वाली उस सुकाया  को कोई भी पुरुष प्यार करेगा | खुशकिस्मती समझेगा |इतना अनुभव तो मेरा भी है कि पुरुष में लाख कमियाँ हो , लेकिन इस तरह के ढकोसले कि.. कि ' आई लुक फॉर समवन विथ ग्रेट सेंस ऑफ़ ह्यूमर ' 'समवन  वैरी केयरिंग ' 'समवन हु हैस  मिशन इन लाइफ '  'डॉग  लविंग ' 'एनवायरनमेंट लविंग ' अलाना फलाना !!!|  ये सब नहीं होता | जो पसंद आ जाये , जिसके नैन नक्श , मुखौटा, चाल ढाल , आकृति  भा जाए तो भा जाये | फिर उसके हाथ में कलम हो या गंडासा | हाँ दूसरी चीज़े मायने रखती है , लेकिन उन सबके भारांक कम ही रहते है | 


उस गंडासे वाली  कोई भीपुरुष  प्यार करेगा | हाँ कोई भी !

लेकिन उसका प्यार पा , उसके फूल से खेल कोई उसका दिल तोड़ भी सकता है क्या ?क्या कोई उसे दगा भी दे सकता है क्या ?

किनारे की दूकान से मुड मैं बस स्टॉप की तरफ बढ़ चुका  होता हूँ  | 

कोलाहल के बीच अभी तक गँड़ासे की आवाज़ आ रही होती  है "खट खट खट .. चॉप चॉप चॉप ! "


                                                                               -- सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                                    24th Dec 2020                         

                                                              

                                                                                  #singaporelife, #singaporegirl #shorthindistory 

                                                                                 

शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

विद्रोही लड़कियां



सुबह के आठ -साढ़े आठ का समय हुआ होगा।  इडली डोसे की दुकान में मैं अकेला ग्राहक था।  दुकानदार मेरे से अगली कुर्सी की कतार में बैठ मेरे से बतला रहा  था।    

"पहली बार मैंने किसी ऐसे तमिल आदमी को देखा है , जिसे तमिल बोलनी नहीं आती " मैं बोला।  वो चौबीस पच्चीस साल का लड़का थोड़ा शर्मिंदा हुआ " एक्चुअली , कई पीढ़िया हो गयी इधर ही दिल्ली में । मम्मी पापा बोल लेते हैं  , मैं समझ लेता हूँ। "

नारियल की चटनी में जरूरत से ज्यादा पानी था |  मैं इडली के टुकड़े को पहले नारियल की चटनी में डुबोता फिर लाल मिर्च की चटनी में।  चार लड़कियों का समूह धड़धड़ाता हुआ दुकान  में दाखिल हुआ और एंट्री के पास की ही कुर्सियों पर काबिज हो गया। दुकानदार  को कुछ बोल उनमें  से एक मेज पर उँगलियाँ बजाते हुए दूसरी से बोली " तो फेर के देवे गी बॉयफ्रेंड नै  बर्डे गिफ्ट में! "और फिर चारो की हंसी का फब्बारा कुछ यूँ छूटा जैसे कोई बगल की नरम खाल में गुदगुदा के निकल जाए।  

वो निश्चित रूप से हरियाणा  या उसके सीमान्त इलाके की नवयुवतियां थी |  बीस इक्कीस की उम्र की।  उनमें  से एक, जिसकी गर्दन सुराही की तरह लम्बी थी और जिसकी मूछें थी , उसने मुझे कुछ ऐसे भाव से देखा जैसे कोई भी आदमी किसी निर्जीव वस्तु  जैसे कुर्सी या मेज को देखता है।हाँ उसकी मूछें  थी , उतनी जितनी की सोलह सत्रह की उम्र पकड़ते लड़को की होती है।  

मैंने पाया कि उन चारों ने टी शर्ट और काले सलेटी लोअर डाले हुए थे और उनके हाव भाव हॉस्टल में रहने वाले आलसी , उबासी लेते , बिना मुँह  धोये नाश्ता करने वाले लड़को जैसे ही थे । बन ठनकर घर से निकलने का जो मूल  स्त्री स्वभाब होता है, नाखून बराबर भी  नुमाया न था। हाँ , नई जबानी  की कुदरती चमक उनके चेहरों पर थी , नए खिले फूल सी सुकाया थीं , पर प्रयास तो रत्ती भर भी न था।  फिर उमंग में भर उनमे से एक गाने लगी " पल भर के लिए कोई हमे प्यार कर ले , झूठा ही सही "नहीं, वो प्रेमगीत मेरे लिए नहीं था।  वो महज एक एक्सप्रेशन था उन्मुक्त , लापरवाह , बंदिशों से परे , बराबरी का जीवन जीने  का।

आपने विद्रोही लड़के देखे है ? सुना तो जरूर होगा।  वही जो साल दर साल दिल्ली या इलाहाबाद में रह 'यू पी एस सी' की तैयारी करते है।खाकी कुरता पहने , चश्मा लगाए और बाथरूम स्लीपर पहने ऐसे लड़के सरकारी ऑफिसो से घुस बाबुओ को हड़का आते है। मैं कुछ महीनो अपने मित्र के साथ दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहा।   मुखर्जी नगर की जमीन , हवा और आसमान , इस सबमें  सरकारी नौकरी के कम्पटीशन का खुमार इस कदर है कि आप किसी किसी भी रेहड़ी वाले से मूंगफली या पकोड़ी ले लीजिए और फिर उसे संभालती रत्ती को देखिये , लिखा मिलेगा : "सामान्य अध्धयन , समय तीन घंटे , अधिकतम अंक 250 | " हर रोज हज़ारों  हज़ारों  की भीड़ कोचिंग सेंटर्स में पहले क्लास लेती है , फिर मॉक टेस्ट देती है । वहाँ बड़े बड़े प्राइवेट हॉस्टल है , जिनमें  प्लाईवुड के टुकड़ों  से फ़ॉन्ट कर मुर्गी के दड्बो जैसे पार्टीशन बने होते है।  बेरोजगारों को किफायती रिहायशगाह उपलब्ध कराने वास्ते।  वहाँ देश के कोने कोने के लड़के लड़की मिलेंगें  |  एक ही ख़्वाब लिए : ऊँचा सरकारी ओहदा।  

एक परिचय के दौरान एक लड़के से रहा नहीं गया  और बिना किसी लाग लपेट वह  मुझसे बोला " आपकी तो उम्र निकल ली भईया जी !"मैंने बताया कि मैं किसी प्राइवेट फर्म में जॉब करता हूँ, यहाँ तैयारी के वास्ते नहीं आया।  उनमें  से कोई संवेदनशील  था , मैं बुरा महसूस  न करूँ इसलिए बोला " कोई ना भईया  जी , प्राइवेट जॉब भी ऐसी माड़ी न है आजकल! "|ढांढस के लिए मैं शुक्रगुजार था !

फिर मुझे कई लोगो से मिलवाया  गया " देखो भाई साब , वो भईया जाते है न , इनका इनकम टैक्स में सब इंस्पेक्टरी में हो गया | इन भईया का सी आर पी आफ के कमांडेंड के लिए हो गया , लेकिन नहीं जा रहे !कुछ और भी बड़ा करेंगे |"

और  मुखर्जी नगर की तंग गलियों से गुजरता वह  आदमी कुछ ऐसे हाव भाव लिए होता जैसे विराट कोहली शतक मार पवेलियन को लौटता हो !फिर शतक से कम भी तो नहीं, लाखो की भीड़ में कुछ चंद ख़ुशनसीब ही होते है , बाकी बस  विद्रोही ही रहते है। क्रूर है पर सत्य है , लाखो जवानियाँ यूँ ही खप रही है।   

ऐसे ही किसी एक हॉस्टल में मैंने आज  तक की सबसे पावरफुल मोटिवेशनल लाइन पढ़ी जिसे किसी ने अपनी स्टडी टेबल के सामने  चस्पा किये हुए था  " नौकरी नहीं तो छोकरी नहीं !"

मुखर्जी नगर की इन्ही तंग गलियों में मैं 'विद्रोही लड़कियों ' से भी रूबरू हुआ। 

थोड़ा ज्यादा कमा लेनी की चाह में मैं परदेस में रहा हूँ और सिंगापुर  में मैंने हर रोज छोटे से भी बेहद छोटे कपड़ों  में युवतिओं को देखा है।  इस कदर छोटे कि यूँ ही बस या ट्रैन में चढ़ते उतरते , बिना इच्छा ,बिना प्रयास नितम्ब के जोड़ तक नुमाया हो जाते हैं । 'ओवर एक्सपोज़र' इस कदर होता है  और इतने लघु अंतराल पर होता रहता है कि रूचि कब  अरुचि में तबादला पा लेती है ,एहसास भी नहीं होता।  फिर आप दृश्य को ऐसे ही भावशून्य हो देखते  है ,जैसे कोई पेड़ या कोई लैम्प-पोस्ट या कोई फुटपाथ की चिकनी  रेलिंग।लेकिन मुखर्जी नगर में सब्जी , फलो के ठेलो पर , या पानी-पूरी के अड्डों पर जब मैंने उन लड़कियों को ऊँचे और सस्ते निक्कर  पहने खड़े पाया तो मैं हतप्रभ हुए बिना न रह सका।  

समाज में दर्शन के भी कुछ अलिखित नियम है | जो आदमी पर कम, स्त्रियों पर ज्यादा लागू होते है।मतलब, टांगे नंगी तो हो सकती  है पर 'वेल ग्रूम्ड' ,खूबसूरत होनी चाहिए।  निक्कर छोटे हो सकते है , लेकिन डिज़ाइनर और महंगे होने चाहिए!लेकिन खुली गलियों में ठेलो पर दो दो तीन तीन के गुटों में खड़ी उन लड़कियों की नंगी टाँगे ,जिन पर पुरुषों  जैसे ही बाल थे , पुरुषो को जैसे दुत्कारती थी।  गोल गप्पे खाते कई हाथ नाजुक नरम जरूर थे लेकिन मैंने पाया कि उन पर मेरे हाथों  जितने  ही बाल थे। दबाने ढकने का प्रयास था ही नहीं। सन्देश साफ़ था , जैसा चाहते हो वैसा नहीं चलेगा।  

उन दृश्यों में मैं थोड़ा भयभीत था।  मैं पुरुष एक ऊँचे पायदान पर खड़ा था और निचले पायदान से लम्बी डिग भर कोई स्त्री मुझे मेरे पायदान से धक्का दे एक तरफ खिसका अपनी जगह बना रही थी। हाँ  हाँ, वो  विद्रोह था। स्त्री नें  रूप और श्रंगार को अपना औजार बनाने से इंकार  कर दिया था।  एक ही जैसे नियम के खेल खेलने को कमर कसी जा रही थी | किनारे टूट रहे थे। खांचे चटक रहे थे। आपकी राय हो सकती है कि क्या यह सब ही पुरुष कि बराबरी में खड़े होने के लिए जरूरी है?  

ऐसा कर स्त्री पुरुष तो नहीं बनना चाह रही ? चेतना में परिवर्तन बहुयामी होते है|  बाहर का दर्शन अंदर के दर्शन से प्रभावित तो होता ही है।  मुझे लगता है  कि जो स्त्री बिना मूछें छिपाये पुरुष के सामने आने का दम रखती है वो बराबरी की लड़ाई में किसी हद तक भी जाएगी।  आपने 'दीपिका' , 'प्रियंका' वाला ग्लैमरस नारी  सशक्तिकरण सुना पढ़ा होगा।  नारी जब खुद के पंजो पर खड़े हो हक़ मांगती है ,उसकी असली तस्वीर देखनी हो तो मुखर्जीनगर चले जाइए ।  

हाँ, संज्ञान  रहे , अगर ठेलो वाली तंग गलियों  में कोई स्त्री आवाज़ खांटी हरियाणवी में दुत्कारते हुए बोले "परे हट के नें खड़े हो ले बहन के भाई !" , तो मर्दानगी के सुरूर में फड़फड़ाइयेगा मत , चुपचाप रास्ता दे दीजियेगा!        

  


                                                     #WomenEmpowerment    #HindiShortStory


 

बिरादरी का आदमी



लाल ईंटो का खड़ंजा , जो काले डामर की सड़क को गांव से जोड़ता था , भरा जा रहा था।  खड़ंजे पर गाय भैंस के गोबर और नाली के सूखे कीचड से बनी पपड़ी पर छोटे -बड़े , कुछ नंगे तो कुछ चप्पलो में घुसे पैर बदहवास , धड़धड़ाते  चले जा रहे थे।  "अरे म्हारी ससुआ के अंधाधुन्द भगामै हँगे !" बल्लू काका अनजान ड्राइवर पर  खीज  रहे थे और जितना शरीर सहयोग करता था  , उतनी रफ़्तार  से  नौजवानो की भीड़ के पीछे पीछे घिसटते चले जा रहे  थे।

कसबे की हाट से लौटते मुसाफिरों का 'टम्पू' , नहर के पुल के पार एक खेत में , खेत जो  की सड़क से कम से कम पांच फ़ीट गहरा था , पलट गया था ।  तीनो  टायर आसमान की ओर।  आलू - गोभी , पॉलीथिन में बधे मसाले , नन्ही बारीक मछलियां  , काली थैलियों में बधे मॉस के टुकड़े , लाल दवाई की शीशियां , जूते चप्पल  ,सब छितराये पड़े थे।  हड्डी पंजर तो कई के टूटे, पर एक बूढ़ा आदमी , जो छिटक कर दूर  सरकंडो के झुण्ड में जा गिरा था , उसने कुछ देर हाथ पैर फ़ेंक  छटपटाना बंद कर दिया था ।  लम्बी , हिना में पुती दाढ़ी गालों के दोनों कुओं  को ढके हुए थी , साफ़  लेकिन पुराना कुरता डाले  था।   दुर्घटना के बाबजूद  तेहमन्द अपनी जिम्मेदारी संभाले सूखी टांगो को ढ़ापे  था।  

"चलो कोई ना , बुढ़ाई की ढिमरी  तो एक दो साल  में वैसे भी बुझ ही जाती !" कोई धीमे से फुसफुसाया था और फिर उतनी ही धीमी आवाज़ में किसी ने 'हम्बे !' कह कर समर्थन किया था ।  किसी ने पहचान लिया और कुछ देर बाद पास के गांव के जुलाहे चले आये।  कुछ रोये |  अपने के जाने पर कौन नहीं रोता।  सड़क की पालट पर खड़े एक आदमी ने , जो उनमे से ही एक था और इल्मदार  था , बीड़ी का कश लगा बोला  " बस जी , इत्ती ही लिखा के लाये थे चचा।  बहाना तो कुछ न कुछ बनता ही है , ऊपर वाले की जो मर्ज़ी | " और फिर उसने अपने हाथ इबादत में आसमान की ओर उठा दिए । फिर  जुलाहों का झुंड अपने बूढ़े की मिटटी  को ले शाम के झुकमुके में खो गया ।

बल्लू काका का गुस्सा नाजायज नहीं था।  दरअसल ,दर्जन भर गावों को राष्ट्रीय राजमार्ग से जोड़ती  ये सड़क कई सालो से जर्जर  थी।सरकार की मेहर हुई , चौड़ी हो गयी और बेहद चिकनी भी ।  अचानक से नए खून  के लौंडे  अपना आपा खोने लगे।  कानो में मोबाइल फ़ोन की लीड घुसेड़े और रेस का तार पूरा खींच कोई नौजवान फर्राटे मारता निकलता तो कोई बुजुर्ग भी आपा खो बैठता " ऐ देखो , ऐ देखो , खुद भी मरेंगे भेन्ना $$ के , और दूसरो को भी मारेंगे। "


मड़ैया के बागबां  मंडी में सब्जी बेच बाकी बची आलू प्याज़ के साथ लौटते थे।  ठीक उसी ठोर पर मिनी ट्रक पलट गया।  एक जवान चला गया।  कई रोये और बड़े बदहवास हो रोये।  पर उनमे से एक जो काफी समझदार था , चैक की फुल बाजू बुशर्ट और नीचे पजामा पहने था , उसने खेत की पालट पर खड़े हो कहा "   देखो जी , जिसकी जहाँ लिख दी , उसकी वहाँ आनी है, अर जैसे  लिख दी , वैसे आनी है। "उसने आसमान की ओर ऊँगली उठा दी और भगवान पर लगभग तोहमद जड़ते हुए जोड़ा " जैसी उसकी  मर्जी !"और फिर  बगवानों का वो नर झुण्ड , बगवान  जिनसे  प्याज़ , शलजम और पसीने की घुलमिली बू आती  थी और जिनके पाजमो की अंटियों में बाजार में  कमाए कुछ गुड़मुड़ मैले नोट और सिक्के बधे थे , वो बगवान यूकेलिप्टीसो के बाड़े के बीच से जाने वाले कच्चे रास्ते पर उतर गए।            

  

आपको क्या लगता है कि भारत के गाँवो में "घनन घनन घन घिर आये बदरा " पर नंग धडंग हो इन्दर देवता  को रिझाने वाले लोग बसते है ? ऐसा नहीं है , ये बस फ़िल्मी चित्रण है , देखने में अच्छा लगता है | सोचने  समझने वाले लोग गावों में भी है | मंत्रणा हुई , बड़ी पाखड़ तले , सोचने समझने वाले छोटे बड़े दिमागों में रस्सा कसी हुई।   विचार हुआ कि आखिर इसी जगह हादसे क्यों और वो भी  इतने  कम अर्से  में  ।

किसी बूढ़े ने कुछ कहा तो पीले रंग और कमजोर हाड का  जीतू अपनी वाणी का संतुलन खो बैठा।  उसने सलेटी रंग की टीशर्ट पहनी थी जिस पर चे गुएवारा की फोटो छपी थी। किसी क्रांतिकारी की  तरह उबला   " अजी जमराज काहा , गधैय्या की  पूच !!"

फिर सँभलते हुए वो खड़ा हुआ बोला " देखो , मसला ऐ है कि नहर के पुल का ढाल है तेज और फिर ढाल ख़तम होने से पहले ही आ जावै है मोड़ "

" यूँ होया करै है  कै  जो पुराना ड्राइवर है उ हौले सै निकाल लेवे है अर जो  नौसिखिया हौवे है उ मात खा  जावै है। "

"फिर सड़क की दोनों ओर पुश्ते भी तो नाय  बंधे  है ?"

सबको बात जँची, और फैसला  हुआ कि मजिस्ट्रेट के यहाँ दरखास (प्रार्थना पत्र ) लगाई जाए जिसपर गांव के हर जात हर मोहल्ले के आदमी के दस्तखत हो।  किसी ने चिंता की कि  जायेगा कौन तो जीतू फिर बोला " जाने कि जरूरत क्या है , सब काम ऑनलाइन है , शिकायत पोर्टल पे सीधे एप्लीकेशन लगाओ , सात  दिन में शर्तिया कार्यवाही!  "

जागरूक और पढ़े लिखे नौजवान लोक निर्माण विभाग से जबाब मांग रहे थे। और जबाब आया भी , ठीक सात  दिन बाद! लोक निर्माण विभाग के क्लर्क ने लिखा " चूँकि मामला पुल से जुड़ा है , अतः आप सेतु निर्माण विभाग में अर्जी देवें | "                      सेतु विभाग वालों ने लिखा " चूँकि मामला सड़क के मोड़ का है ,अतः लोक निर्माण विभाग को ही अर्जी देवें |"

गांव  वाले समझ गए कि सरकारी बाबुओ ने मामले के साथ फूटबाल फूटबाल खेलना शुरू कर दिया है | जागरूक लोगो ने प्रतिक्रिया दी " लोक निर्माण विभाग , सेतु विभाग मिलकर मामले का संज्ञान लेवे , अर्जी की कॉपी मुख्यमंत्री ऑफिस में प्रेषित की जा रही है | कार्यवाही न होने पर ग्रामीण धरना देने को बाधित होंगे | "

तब जाके सरकारी बाबुओ में कुछ हडकल हुई | जबाब आया " नियत स्थान का सर्वेक्षण किया गया तथा निर्माण में किसी भी तरह की अनियमितता  नहीं पायी गयी | स्थान पर कुछ दुर्घटनाओं का होना महज एक संयोग है | "

महज एक संयोग !सबको पता था , जबाब से कोई हतप्रभ नहीं हुआ | हिन्दुस्तान में आप ऑनलाइन लाइए या ऑफलाइन , सरकारी बाबू सबका भरता बना देते है | सतही व्यवस्थाएं बदलती रहती है , चीज़े अपने ढर्रे पर ही रहती है | 

बड़ी पाखड़ तले फिर चर्चा हुई | विचार हुआ कि सरकारी मुलाजिमों का जबाब तो सबको पता ही था | लेकिन जब पुल  बनता था उसी वक़्त गांव में 'बड़े' क्यों सोये रहे | दिखता नहीं था कि ठेकेदार मिट्टी कम डालता रहा , डामर खाता रहा और सड़क की पालट बांधे बिना ही ठेका पास करा ले गया | जवान शहरों में कमाते थे लेकिन बुजुर्ग ? तभी विरोध क्यों नहीं हुआ ?

काफी देर सन्नाटा रहा | "अहह , अरे उ .. अरे उ ठेकेदार अपनी बिरादरी का आदमी था यार !" किसी बुजुर्ग ने  बीड़ी का कस लेते हुए कहा था | 

और फिर सर्वसम्मति से तय हुआ था कि मामले को अब छोड़ा जाए और जैसे 'ऊपर वाला' रखे वैसे ही रहा जाए !!


                                                                  सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                  #castesystem , #babudom , hindishortstory


                                                  

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

सब कुछ




"तो क्या आजकल अकेले रहते हो ?"

" हाँ , अकेला ही हूँ काफी समय  से  "

"अरे वाह , ऐश करो फिर तो !"

 हमेशा से ही मुझे ये लगता रहा है  कि यह एक तरह का तकिया कलाम है , जिसे लोग- बाग़ यहाँ- वहाँ, गाहे बेगाहे इस्तेमाल करते है।  बिना मतलब , बस यूँ ही ,शायद बातचीत का खालीपन भरने के लिए।  

लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि नाना प्रकार के लोगो से नाना प्रकार की बातचीत में ये सलाह बार  बार नुमाया होने लगी । जिज्ञासा हुई  , लगा कि ये अकेले रहने में और अकेले होकर ऐश करने में कुछ तो ऐसा है जिससे मेरा चित्त अनभिज्ञ है।  कुछ है जो  छूट रहा है।  कुछ ऐसा जिसका किस्मत अवसर दे रही थी  लेकिन मैं मूर्ख भांप नहीं पा रहा था! मेरे सामाजिक जीवन का दायरा बहुत छोटा है पर है मेरे आस पास ऐसे लोग हमेशा विराजमान रहे है जिनसे सलाह मसविरा किया जा सकता है   !

सिंगापूर में मेरे ऑफिस की काले शीशे की सपाट , ऊँची ईमारत कुछ ऐसी थी जैसे कुछ पांच या छै कार्डबोर्ड के चौकोर बक्सों को तले-ऊपर जमा दिया जाए और फिर बीचो बीच के एक बक्से को खींच कर  अलग कर दिया जाए।  ईमारत में  खुद की एक कैंटीन हुआ करती थी  लेकिन शाम के समय अधिकांश लोग दो चार , दो चार की टुकड़ियों  में लालबत्ती के उस पार बने मॉल में चले जाते । एक तो  पैर सीधे  हो जाते और फिर मॉल के फ़ूड कोर्ट में खान पान के विकल्प भी ज्यादा होते ।

 ऑफिस में एक मित्र थे   , बहुत घनिष्ट नहीं पर कई बार जब चाय के लिए बेहतर संगत का अभाव होता तो कभी हम एक दुसरे से पूछ लेते।लम्बे कद के इस इंसान को मैंने हमेशा टीशर्ट और क्रीज जमी हुई पेंट में  पाया।  नीचे कुछ पुराने हवादार चमड़े के सैंडल पहने होते ,मय जुराब।  सिर पर बालो की फसल कही से उजड़ी , तो बकाया  जगह  से पकी हुई थी । पेट निकला हुआ लेकिन कद लम्बा होने  के चलते गेंद जैसा आकार लेने की बजाय यह एक वलय आकार लिए हुए था । कसरत के अभाव में हाथ काफी पतले थे  और ऐसा आभास कराते थे  जैसे किसी ने लम्बी पकी लौकी में, जो ऊपर से पतली और नीचे मोटी हो , उसमे  दो सपाट लकड़ी की कम्मचिया  घुसेड दी हो।    शायद हफ्ते में एक बार शेव करने वाले , चालीस जमा की उम्र के उस  इंसान के हाव भाव , प्रस्तुतीकरण को देखकर लगता कि वो  शख्स अपने हिस्से की उम्र जी चुका था , अब बस जो  भी करना था ,  बच्चो के लिए करना था ।

अक्सर ऐसा होता कि  जब भी मैं पूछता  " चाय के लिए चलोगे ?" तो कभी अकारण एक हाथ से दूसरा हाथ खुजा तो कभी दो उँगलियों से सिर की चाँद खुजा जबाब मिलता  " अच्छा , रुको , पांच मिनट दे दो। "उस दिन ऑफिस से निकल ,ग्रीन हेज के किनारे किनारे चल ,हम लाल बत्ती पर खड़े थे , ट्रैफिक रुकने के इंतज़ार मे।         

"वीकेंड पर क्या करते हो " मैंने पुछा।  

अपनी उदेड़बुन से बाहर आते हुए मित्र ने कहा " ऐसे ही निकल जाता है , कुछ अच्छा पका लिया , कोई मूवी देख ली या कुछ पढ़  लिया या आस पास घूम  आया , शाम को बैठ के बियर पी ली।   "

"अच्छा , तो फॅमिली उधर देश में ही है क्या ?"

"हाँ , काफी समय से "

"और तुम्हारी ?"

मैंने कहा " हाँ , मैं इधर अकेले ही रहता हूँ "

मैंने पाया कि मित्र की भाग  भंगिमा अचानक से बदली और वो बड़ी तर  तबियत लिए  बोले " सही , बहुत सही , ऐश करो फिर तो !"

फ़ूड कोर्ट के लिए एस्कलेटर चढ़ने से थोड़ा पहले एक किताबो की सेल लगी थी।  एक बुक थी : दी कलेक्टेड स्टोरीज ऑफ़ इस्साक बबेल।  पिछले ही दिनों विकिपीडिया पे कुछ पढ़ते पढ़ते मैंने बबेल के बारे में कुछ पढ़ा था।  मैंने किताब उठा ली और हम फ़ूड कोर्ट की किनारे की टेबल पर आ जमे।  

चाय की एक चुस्की ले और फिर शीशे से बाहर घास के लॉन और उसके किनारे बने जापानीज फिश पोंड पर एक सरसरी नज़र मार मैंने पुछा " एक बात बताओ यार , ये ऐश करना क्या होता है ?"

मित्र ने जबाब देना जरूरी नहीं समझा , एक हलकी सी हंसी जिसने कोई ख़ास ऊर्जा नहीं थी , हंसी और फिर चाय में मशगूल हो गए।  

"नहीं , गंभीर सवाल है ये , 'ऐश करना ' है क्या ?"

"मैं इसलिए पूछ रहा हु कि ऐश करना अपने आप में एक ऐसा जेनेरिक सा टर्म है जो मुझे लगता है कि लोगबाग बस यु ही बोलते हैं |"

चूँकि मैंने काफी तबज्जो दे कर बात को दोहराया था इसलिए अब मित्र ने कुछ रूचि ली।  

"देखो , हर किसी का अपना अपना मिजाज होता है।  उसी के हिसाब से आदमी ऐश करता है। "

"आदमी के अपने इंटरेस्ट होते है , अब तुम फॅमिली में हो , जिम्मेदारी से घिरे हो , या कई बार दबाब होता है , काफी कुछ करना चाहते  हो , नहीं कर पाते "

"काफी कुछ मतलब ? " मैंने पुछा। 

"काफी कुछ मतलब ऐश यार !"

अब मुझे झुंझलाहट हुई , मैंने मुठ्ठी का एक झूठा प्रहार बबेल के चेहरे पर किया और बोला " सर सर।। वही तो मैं पूछ रहा , ऐश  करना होता क्या है ?"

उस आदमी को लगा जैसे मैं उसका इंटरव्यू ले रहा हूँ।  

कुछ देर उसने मेरे चेहरे को ऐसे देखा जैसे ये जानने कि कोशिश में हो कि सामने बैठा मैं भरोसे का आदमी हूँ कि नहीं। 

" अच्छा खाना , दारु पार्टी  , घूमना  फिरना , अपने हिसाब से टाइम स्पेंड करना , यही  सब "

फिर कुर्सी को पीछे कर एक आधी अंगड़ाई लेते , तिरछी शरारती मुस्कान में बोला "या फिर अगर तुम्हारा इंटरेस्ट स्त्री जाति में है तो।।  "    

"कहा कहा घूमे हो , ये बताओ ? " उसने मुझसे पूछ।  

"एक बार लंगकावी   , एक बार फुकेत और  आस पास के आइलैंड्स बस यही  " मैंने बताया।

"कभी फिलीपीन्स गए हो , सीबू या मनिला , हूह ?" 

"नहीं मैं तो नहीं और तुम? "

"हाँ , कई बार !"

"साउथ ईस्ट एशिया में कही भी जाओ , वही 'बीच' और वही 'सी फ़ूड' , सब एक जैसा ही है " आधे अधूरे अनुभव के सहारे मैं चतुर बनने की कोशिश में था।  

"नहीं , नहीं , नहीं " मित्र ने काफी जोर से विरोध किया और मुठ्ठी मेज पर दे मारी।  

"वहाँ सब कुछ  सस्ता है , सब कुछ मतलब सब कुछ | वो भी फुल दिन !समझे कुछ ? अररर्र अररर्र बाकि जगहों से काफी सस्ता !"

फिर थोड़ा रुक कर जोड़ा " और सब काम काफी प्रोफेशनल तरीके से होता है !"

बाहर जापानीज पोंड में कुछ पीली तो कुछ लाल तो कुछ चितकबरी  मछलियों और टर्टल्स को एक दंपत्ति कुछ चारा खिला रहा था और दो छोटे छोटे चीनी बच्चे मछलियाँ देख ख़ुशी से कूद  रहे थे।  

चाय की आखिरी चुस्की ले और मेज में एक बार फिर ताल ठोक मित्र ने कहा " शर्त के साथ कह सकता हूँ इंडिया के किसी भी कोने में उस तरह का एक्सपीरियंस मिल ही नहीं सकता।  वहाँ सब कुछ बड़े प्रोफेशनल तरीके से होता है , सब कुछ !!!!"

ये कहते हुए मित्र ने अपनी आँखो को  कुछ इस कदर आसामान की  तरफ तरेरा कि लगा कही गुल्ले आँखों के किनारे तोड़ सीबू  के लिए ना उड़ जाए ! 

वापस लौटते हुए मेरा व्यथित चित्त कुछ सुकून में था।  'ऐश करो  ' को परिभाषा में बांधने में अभी समय और दूसरी कई वार्ताओं का  लगना बाकी था पर ये जानकार कि मेरी जमीन का आदमी  'सब कुछ ' करने फिलीपीन्स तक जा रहा है , मेरा सीना चौड़ा हुए जा  रहा था!
                                                                                      सचिन कुमार गुर्जर'
                                                                                       8 अक्टूबर २०२० 

                                   
                                                       #men will be men

सोमवार, 28 सितंबर 2020

बिरजू का बिहा


                                                                      
                                                              I
  गांव में पश्चिमी छोर पर , खदाने के उस पार , गूजरो के ऊँचे दालान से धुआँ उठ रहा था। गाय भैंसो का झुण्ड सुबह से गायब था | शायद उन्हें दालान से हटा पिछवाड़े के नीम तले बांध दिया गया था | किराये के रंगीन तरपाल टंगे थे  , जिनमे कुछ नए नीले तो कुछ थेक्ली लगे, बदरंग  पुराने थे | उन तरपालों  को जब पछुआ का झोका छेड़ता  तो उनका गठजोड़  कुछ ऐसे फड़फड़ाता जैसे कोई अनाड़ी ढोल पीटता हो।  
हीर रांझे के किस्से की कोई रागनी बज रही थी , किसी सस्ते और पुराने टेप रिकॉर्डर पर ।
 " रात मेरे सपने में चिनवा दे गई हीर दिखाई  रे  , 
   आंख खोल के देखन लागा फेर नहीं वा पाई रे| 
  .......
   हीर र र र र......"

अल्मुनियम के बड़े दैत्याकार भगोने ,बांस की लकड़ियों के जोड़ से बनी  कामचलाऊं पकडन में गर्दन फंसाये , कुछेक  सीधे तो कुछ औंधे पड़े हुए थे।  औंधे पड़े भगोनो के मुँह से लपटे सूती छन्नो  से रिसता मांड  नालियों में ऐसे बह रहा था जैसे गाढ़े गरम लावे पर किसी ने सफेदी पोत दी हो।  काले, कवरे ,लाल और भूरे  ,  कुछ नाम वाले तो कुछ बेनाम , ऐसे सारे आवारा कुत्ते बिना न्योते की बाँट जोहे, नाली से गरमागरम  मांड की दावत उड़ा रहे थे।     
"औ काका सुनो हो , मिर्च कम रखियो इस बार।  चेता के लौंडे के बिहा में उड़द की दाल में इतनी  मिरच ही , कै कै  पब्लिक ने खाया कम, पानी ज्यादा पिया|  " किसी उत्साही आवाज़ ने खानसामे को चेताया था | 
नेतराम का छोटा लड़का जिसका कागजी नाम बलदेव था  वैसे, पर मोटी अकल और जानवर जैसे शरीर के चलते सामने से बल्लू तो पीठ पीछे  बैल कहके पुकारा जाता था, उसी का बिहा था। कुछ शराबी भरी दुपहरी में धुत्त कभी नाली में लौट-पोट  तो कभी गोबर के घूर में बिस्तर का आराम फरमाते, पूरे गांव का मनोरंजन कर रहे थे  ।   

मंढे की दावत का बुलावा देने को नाई  जब चला तो नेतराम ने किसी चक्रवर्ती राजा की तरह चारों  ओर हाथ घुमा कहा " सुन रे नाई के |  गुजर , बनिए , कुम्हार , चमार , गडरिये , बगवान अरर.. मुसलमान , सात जात है इस गाम मे| कोई घर छोड़िये ना | पीढ़ी  का आखरी बिहा है , सबकी ही दावत है !"
पूरा गांव खुश था| बड़े और छोटे सबके पेट चावल बूरा , मसालेदार उड़द के लिए गुडगुडा रहे थे। 

पर ऐसा जान पड़ता  जैसे  बासमती की खुशबु में लिपटा वो धुएं  का बादल आसमान की ओर ऊर्ध्वाधर होने की बजाय यूकेलिप्टिस के झुरमुटों में बसे रामवती के आँगन में उतरा जा रहा हो |     
 ऊँचे दालान से वो उठता ख़ुशी और कहकहो के साथ ,पर जब रामवती के आँगन में उतरता तो घर में बसने वाली  आत्माओ को जलाता , सुलगाता| | बूढी , जवान,  सब  आँखों को चिरमराता।  
कच्ची पक्की अनघड़ हाथो से बनी दीवार जिसे गाय के ताजे गोबर से लीपा गया था , दो बड़े हवादार मोखले खुले थे , उसी दीवार और कोई चार पांच आडी तिरछी लकड़ी की टेकनो पे टंगे छप्पर तले  रामवती का परिवार जमा था |
इधर उधर की बातें कर बड़े लड़के  ने कहा " तो बताओ , क्या राय है तुम सब  की , दावत में जाया जाये कि नहीं ?"
सब चुप रहे तो मंझले ने कुछ तो बोलना लाजमी समझा , बिना वजह  सिर खुजला  के बोला " कैसे ही कर लो हमारे जाने | सब की मर्जी हो तो जाएँ नहीं तो ना जाए | "ये बिना मतलब  की, सिर्फ बात को आगे बढ़ाने वाली बात थी | 

तीनो लड़के , बड़ा रणपाल , मंजला नेपाल और छोटा बिरजू , सब जानते थे कि  असल फैसला तो  माँ से ही आना है | पिता जी थे , तीसरी खाट पर बिराजमान  थे पर बुढ़ाते और बेहद सीधे मिजाज के  बाप का ओहदा किसी काठ के पुराने लट्ठे जैसा था , जो आती जाती बरसात गरमी में गल चुका  था ,किसी काम का ना था , बस स्थान भर घेरता था |        

"जाना तो चाहिए लल्ला , नेतराम से हमारा कैसा बैर | बिरादरी से मुँह फेर  के किसकी गुजर हुई है|  " रामवती का तुजर्बा बोल रहा था | 
 लेकिन ये कहना अलग बात थी उस पर अमल करना एक अलग बात | 
कुछ दिन पहले ही तो चेता के लड़के की दावत में ये हुआ था जब दावत खाने को बैठी भरी पंगत में मुंहफट कन्हाई ने अट्टहास किया था " औ रणपाल , अरे भले मानस पूरे गांव में दावत उड़ाओ हो , कभी अपने घर भी खिलाओ | "
और जो बन पड़ा वो जबाब दे रणपाल चला आया था | 
ये बात हंसी मज़ाक की हलकी फुल्की बात मानी जाती|   पर परस्थिति कुछ ऐसी थी कि रामवती के घर में पिछले दसो सालों से कोई कारज न हुआ था | बिरजू कब से जवान था , उम्र ढलान पकड़ रही  थी पर उसका  बिहा न होता था | कन्हाई तो एक मुंहफट आदमी था उसका क्या | पर इन परिवारजनों  को खुद  ही एक अपराध बोध सा रहता था |  बिरजू की शादी न हो पाना समाज में एक तरह का अपमान तो  था ही | 
 
     
'जख्म  में नमक ' वाली बात ये  थी कि ये जो नई बिहाता नेतराम के लड़के के घर आ रही थी , बिरजू से इसका लगन लगभग तय हो गया था | 
अहह... उस दिन रामवती कजइतन होती , बासमती के भगोने उसके आँगन में लुढ़के होते | सबसे बड़ी बात उसकी परलोक जाने से पहले की  आखिरी इच्छा पूरी हो गयी होती | 
 अगर और अगर उस करमजले कन्हाई ने भांजी ना मारी  होती |
खैर, मलाल और दर्द अपनी जगह , बिरादरी में खान पीन , उठा बैठ अपनी जगह | 
अपने नील लगे कुर्तो को निकालने का आदेश दे मर्द सरकारी नलके पर नहाने चले गए थे | दावत में शामिल होना तय हुआ था |    

                                    
                                                                                    II
                                                                                   ***
बिरजू काया से सुकुमार था | लम्बा कद , मजबूत कंधे ,खड़ी  रोमन नाक , सुर्ख रंग | अभी तक उसके गालों पर छोटे बच्चो जैसी लाली थी | 
उसकी आँखे दीये जैसी बड़ी बड़ी और इस कदर नशीली कि किसी को जी भर  कर देख ले तो कलेजा खींच ले जाये | 
सच तो ये है कि रामवती जहाँ दिन रात अपने राजकुमार से बेटे के बिहा की आस बांधती, वही अंदरखाने दोनों बड़ी बहुये नहीं चाहती थी कि बिरजू का बिहा हो | जमीन कम थी,  क्यों एक  और नया हिस्सेदार खड़ा किया जाए ! 
रामवती ढोर डंगरो या खेत खलियान में जमी होती तो दोनों अपने अपने तीर आजमाती | मीठी चासनी में डुबो बातें सुनाती , रिझाती | कुछ अच्छा सा पका बच्चो के हाथ देवर तक पहुँचाती|  कभी सीधे ,कभी घुमा फिरा बिरजू की तारीफों के पुल बांधती | 
अजी सगी भाभियों का छोड़ो , बिरजू कभी बाहर निकलता तो मौका पा अड़ोस पड़ोस की स्त्रियां भी अपना जी हल्का कर लेती | 
कोई शिकायत करती " तम तो निगाह भर देखते तक न बिरजू , भले मनसो , आ जाया करो कभी हमारी लग भी !"
तो कोई किसी बहाने खीर का कटोरा बिरजू को थमा जाती | 
बिरजू सबको एक रस देखता , सबकी सुनता , सबके छोटे बड़े  काम करता  | कोई बोलती, बोल लेता | कोई खिलाती , खा  लेता | कोई सुनाती , सुन लेता | 
असल में औरतों  में बिरजू को कोई विशेष आसत्ति थी नहीं  !

उसका एक ही शगल था | चारपाई पर पैर पसार , कच्ची भीत से कमर चिपका कर बैठ जाना और घंटो शून्य  में ताकते रहना | 
और वह  ऐसा तब तक करता रहता जब तक रामवती उसे खरी खोटी सुना गाय भैस दुहने न भेज देती | 
बी ए पास था | सिपाही , वन  दरोगा , पटवारी , आग बुझाने वाली पुलिस , स्कूल चपरासी , रेलवई , हर तरह की सरकारी मुलाजमी  को उसने अर्ज़ी दी थी | 
पर सरकारी उसे मिली नहीं , प्राइवेट उसने की नहीं ! बस इसी में उम्र निकलती चली गई | 
ज्यादा सोचने की उसकी चित्तवृति थी नहीं  | 


सोचने का जिम्मा रामवती के मत्थे था | दिन रात सोचती | 
कोई रिश्तेदार आता तो जरूर कहती "सुंनियो रिश्तेदार  , बिरजू की उम्र निकली जावे है | मैं कब तक हूँ  |  लगाओ कही जुगत | इतनी  बड़ी बिरादरी है , क्या  कोई ऐसा गरीब गुरबा नहीं , जो हमे सीधी साधी ओढ़नी में  अपनी लड़की  दे दे |
रूपमति की दरकार ना है , बस साफ़ सुध , बिरादरी की बालक हो | 
हमारे अमीरी ना है , पर दो रोटिओ में टोटा न है | सच मानियो |   पूछो इन बड़ी बहुओं  से |  ये भूखी मरी जावें  है क्या ?"

और जबाब अक्सर यही होता " सब जमीन देखे है मौसी  , घनी जमीन या सरकारी नौकर | आदमी का रूप , लक्षण न देखती बिरादरी | 
अच्छी जमीन हो या लड़का नौकरी पेशा हो , फिर देखो कैसे भागे हैंगे महारे ससुरे बिरादरी के लम्बरदार | 
काले तवे का बिहा कर देंगे मौसी  , काले तवे का !"

बिरजू भिनभिनाता, कभी कभार माँ की मान मन्नतों  का दौर ज्यादा लम्बा खिंच  जाता तो धीमे से कहता "तू रिस्तेदारो का आना छुडवाएगी माँ , इतना मत झींका कर | कौन सा हमारा नाम डूबा जावे है | बड़े भईयों के बालक है तो "
रामवती कुछ झिड़कती , फिक्रमंद चेहरे पर अपने हाथ की मुठ्ठी  से ढांप लेती  और बहुओं की ओर इशारा कर कहती  " अरे मेरे भोलू , जिस दिना मेरी आंख मिच गई, चार रोटियों को तरसा देंगी तुझे ये  दोनों त्रिया |  " उसकी आँखे डबडबा जातीं |    

रामवती को अपनी छोटी बहु से थोड़ी  आस थी | उसकी एक छोटी कुँवारी  बहन थी, बिहाने लायक | 
छोटी बहु खांट थी , कैंची की तरह जवान चलती थी उसकी | पर रामवती सब सहती , आस बहु के सब तीरों  पर भारी पड़ती | 
फिर जब बहु की बहन का रिश्ता  कही और तय हुआ तो बहु बोली " मुझे ही दे के पछताए मेरे बाबा , छोटी को भी इसी घर डुबो देते क्या !"
रामवती का कलेजा मुँह को आने को हुआ | दुःख और ऊपर से बेइज्जती का जो तेज़ाब बहु ने फेंका , भड़भड़ाती हुई बोली " हे राम जी , मेरे बिरजू का बिहा हो या न हो , ऐसी खांट लुगाई न चईये|   "

बहु और भी ज्यादा कड़वी " हाँ हाँ। देखूंगी , लाओ तो सही कही से भानुमति | लाओ तो | "

बहु की बात रामवती तो ऐसे चीरती जैसे नुकीले कांच से कोई हलक में चीरा लगा दे | 

बड़ी मिन्नतों से एक रिश्ता गांव तक आया था | पता नहीं कन्हाई ने कहाँ  से सूंघ लिया | क्या रिश्तेदारी  निकाली , राम ही जाने | लड़की वालों  को बीच  रास्ते से खींच ले गया | गुड और गाढ़े दूध में उन्हें तर किया और फिर सगा बनता हुआ कानों  में बोला " कहाँ डुबो हो रिश्तेदार , इन सालों  के गाम में मँड़ैया ना, हार में टपरिया ना " | उसका तात्पर्य घर और जमीन से था | 
फिर उसने ऐसा रंग जमाया, ऐसा रंग जमाया कि बिरजू के गले की  माला का हकदार  बन बैठा बल्लू उर्फ़ बैल उर्फ़ बलदेव | 

  
                                                                         III
                                                                        ***
 प्रकृति ने ही शायद हम इंसानो की  बनावट  में  कुछ ऐसा फेर किया है कि हमे लगता है कि हम लम्बे समय तक यहाँ टिकने वाले है | 
 सच ये है कि एक बार जिंदगानी का सूरज ढलान का रास्ता पकड़ता है  तो फिर शाम , और किताब के आखिरी पन्नो को पलटाती रात बड़ी तेज़ी से आती  है|    
घर के पीछे लगे यूकेलिप्टीसो के पौधे अब दरखत हो चले थे | ज्यों ज्यों उन पेड़ों  की नयी टहनियाँ  आसमान को निगलने को बढ़तीं   , रामवती की उम्मीदों का दामन त्यों त्यों सिकुड़ता जाता |   
घर का काम करती तो उसकी बुढ़ाती देह हाँफने  लगती | 
हाथ पैरो पे सूजन  आ जाती  |  चेहरा पीतवर्ण हुआ जा रहा था | जिगर ने खून बनाना बंद कर दिया था | 
शहर के बड़े डॉक्टर ने पोटली भर के दवा दी थी |  कोई कुछ खाने को कहता तो वो कराहती "अरे पेट तो दबाइयों से भरा रेहँवे है , खान पान की  गुंजास  कहाँ  | "
परिवार भला था , बहुओ के व्यबहार बदल गए थे | अब वो उसे 'माँ' कह पुकारतीं |  खान पीन का ख्याल रखतीं  | 
बड़े लड़कों  को अहसास था कि माँ ज्यादा दिन टिकेगी नहीं |  बिरजू के हाथ पीले होते देखने की फ़िक्र अब उनकी फ़िक्र हो गयी थी | 
बिरादरी अच्छे बुरे लोगो की खिचड़ी हुआ करे है | कोई भला मानस एक प्रस्ताव लेकर आया | सब काम चट मंगनी पट बिहा की रफ़्तार से होना था | लड़की का बाप गरीब था बस ग्यारह आदमी बुलाता था | बिरजू के हिस्से कितनी जमीन आती है , इसकी उसने कोई पूछतांछ तक ना की | 
राम जी की मेहर हो रही थी | परिवार जन राहत में थे | माँ की आत्मा तड़फती तो ना जाएगी | 
घर का माहौल बदल गया था | सब साथ खाते , हर छोटी बड़ी बात पर हँसते | 
रणपाल कहता " औ माँ , कुछ खाया कर| लगन का हफ्ता भर है , कमजोरी में मालपुए कैसे बनाएगी ?"
बड़ी बहु चहकती " माँ कू चूल्हे पे नाय बैठें देमे हम दोनों | तम पलंग पर बैठ हुकम करियो माँ |"
रामवती कराहती , धन्यवाद की मुद्रा में हाथ ऊपर करती और कहती " सब हो जायेगा | तुम अपने अपने कामों  की फ़िक्र करो "


लगन से ठीक चार दिन पहले बिचौलिया आ गया और पुरुष चाय पानी के बाद छपरे तले जमी चारपाइयों पर आ जमें  | 
"डेढ़ लाख तो बहुत ज्यादा है रामफल भईया , वो भी ऐन मौके पर आकर | " रणपाल ने खाट पर बैठे बैठे ही जमीन पर लकीर खींची और फिर अगले  ही पल मिटा दी | 
"भईया , नहीं तो लड़की वाला बिहा टाले है अगले साल तक | उसकी गुंजाईश नहीं है |"
"कपडे लत्ते , सदूक़ पलंग , बरतन गहने | फिर चार आदमियों की दाबत | मैंने कोशिश की पर इससे काम में नहीं बनती बात | "
"पर डेढ़ लाख हमारी हद के बाहर है रामफल| तीस हज़ार चालीस हज़ार होते तो हम दो तीन भैसिया बेच देते |  जमीन के खूँड़ कम है, इसे बेच बच्चों  के हाथ कटोरा कैसे थमा दें?  " रणपाल का स्वर हताश  था | 

बिरजू खाट की पायत पर जमा था | उसके नथुने फूल कर चौड़े हो गए थे | सांस धोकनी सी चल रही थी | भृकुटियां तन गयी थी | 
"लड़की बेचता है हरामखोर | सूअर का बीज | माँ ना मर रही होती ना रामफल तो उस साले की गर्दन गंडासे से काट कर आता | ख़तम करो ये स्वांग |" आँखों में आंसू लिए और लाचारी में पैर पटकता बिरजू वहाँ से निकल  गया था  |  
इतनी बड़ी बात माँ से कैसे छुपती | 

हे विधाता , सालो की मन्नते , खुशामंदी , कोशिशे | इतनी ख़ुशी तो तुझे दे देनी चाहिए थी ! तेरी माया तू ही जाने !     

 
                                                                             IV 
                                                                            ***                                
उस साल बारिश बहुत कम हुई थी | पूरब से तेज बादल उठता , गड़गड़ाता  फिर थोड़ी बहुत फुसार होती और बिना बरसे ही बादल उड़ जाता | 
खड़ंजों पर निकलते  किसान मज़दूर कहते " तेरे घर भी न्याब ना है राम जी | कही बरसे है तो मूसलाधार तो कही निपट सूखा | "
कोई फुर्सत में होता तो कुछ देर रामवती के पास बैठ लेता | वह  अक्सर नीम तले लेटी होती | शरीर अब विघटन की ओर था |  पूरे शरीर में पानी उतर आया था | 
और वाकई भगवान के घर न्याय था ही नहीं |
रामवती के घर से दो घर छोड़ कृपाल सिंह का मकान था | जमीन थी , बड़े नखरे किये थे | लम्बी हो , दरमियानी भी  ना हो | गोरी हो , गेहुए रंग कि भी ना हो |  परिवार ऐसा हो , वैसा हो | तमाम मापदंड नाप तौल अपने लड़के का रिश्ता थामा था | 
हुआ यूँ कि रिश्ता जुड़ने के बाद कृपाल का लड़का पुलिस में भर्ती हो गया | एक तो अच्छी जमीन ,ऊपर से लड़का हो गया सरकारी नौकर !
बस  दिमाग में बू भर गयी | बाप ने समझाया लेकिन लड़का कहाँ माने | 
अड़ गया कि लड़की पढ़ी लिखी ही लेगा | चाहे जो करो | 
कहने वाले तो ये कहते कि बाप और  बेटे दोनों के ही दिमाग  घूम  गए थे | ज्यादा धन दहेज़ की इच्छा बलबला उठी थी | बाप खुल कर कह नहीं पाता था | बेटे को आगे कर दिया था | 

पर बिरादरी और चार पंचो में दिया हुआ वचन  |उसका क्या ?  लड़की वाला चार  पंच ले दहलीज पर आ धमका |
"खुल कर बोलो मुकद्दम , चाहो क्या हो | वचन निभाओ हो या लालच में  कतई अंधे हो चले ? "
कृपाल सिंह ने खूब लीपापोती की ,पर नए खून के लड़के ने अहंकार में साफ़ कर दिया कि रुपय्या (वचन की निशानी में दिया जाने वाला चांदी का रुपय्या ) वापस ले जाओ और हमारी राम राम पकड़ो | 

होनी बड़ी बलबान होती है | लड़की के पिता ने चार पंचो में ऐलान किया " देखो मुकद्दम , जब हम कोसों  मंजिल  काट , सात सुगन शुभ काम  को  इस गांव में  है तो लड़की तो यही बिहायेंगे | इस घर ना सही किसी और घर सही ! "

हवा इतनी मरियल थी कि गौर से देखने पर ही कोई पत्ता हिलता जान पड़ता था | 
कुछ दवा के नशे में तो कुछ बेहद कमजोरी के चलते रामवती आँख मूंदे आँगन में खाट पर पड़ी थी | सब आस पास खड़े थे | बड़ी बहु हाथ का पंखा झलती थी | 
लड़की के बाप ने खाट की बांसी पकड़ पहले धीमे फिर ऊँची आवाज़ में कहा " चौधरन औ चौधरन ,मक्क  सुनो हो |"
"तुम्हारी मर्ज़ी हो तो मैं बिरजू का रुपय्या दूँ हूँ !  .. बोलो "

रामवती की  देह में इतना दम कहाँ बचा  था कि वो 'हां' या 'ना' कहती | उसकी बंद आँखों से आंसू की धारा किनारे तोड़तीं हुई बुझते गालों पर लुढ़क गयी | 
"हाँ कह  रई हैं माँ   , हाँ जी,  हाँ  है|  " बड़ी बहु बोल उठी थी | 
लड़की के बाप ने चांदी का रूपया जेब से निकाल  , नसों और हड्डी के गुच्छे बन चुके रामवती के हाथ में रख दिया और अपने हाथ का बल प्रयोग कर रमावती की मुठ्ठी बाँध दी | 
रामवती ने  इस बार हिचकी ली तो फिर सांस नहीं लौटी | हिड़की बांधे रणपाल ने अपनी माँ की ठोडी उठा ऊपरी जबड़े से मिला दी और बिलखते हुए बोला " तू जा माँ , तू जा | अब तेरा दुःख ना देखा जाता | "
बहुये दहाड़े मार मार कर रोने लगीं  " बिरजू का बिहा आ लिया  री माँ |  ओह माँ , बिरजू का बिहा देख जइयो  री माँ | ओ म्हारी माँ  !"

                                                             इति
                                                           ******
 

                                                           #indian Village Life, Indian Farmer Life , Poor Life

सोमवार, 13 जुलाई 2020

होता आया है , होता रहेगा !

आपने कभी कोई चोर देखा है ? कोई जेबकतरा , उठाईगीर या कोई छोटा मोटा चोर उचक्का ?
अपवाद हो सकते है लेकिन अमूमन ऐसा होता है कि कोई भी ऐसा निकृष्ट आदमी रंगेहाथ पकडे जाने पर लज्जित महसूस करता है | लात घूंसे पड़ें या पुलिस के डंडे , ऐसे आदमी की गर्दन नीची ही रहती है | ये एक अलग बात है कि छुटकारा पा वो फिर से उन्ही कुकृत्यों में संलिप्त हो जाए | पर पकडे जाने पर  लजायेगा जरूर |
हमारे लोकतत्र का नेता ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपनी हवस , लालच , सत्तालोभ का नंगा नाच करता हुआ पकड़ा जाए , उसकी चालीस चोरो की माल बॅटवारे को लेकर सर फुटब्बल की कहानी पब्लिक डोमेन में भी आ जाये , फिर भी वो किसी महंगे रिसोर्ट में विक्ट्री का "V" साइन वाला पोज़ ऐसे देगा , जैसे महाराज ने समाजहित में बड़ा ऊँचा झंडा गाढ़ दिया है |
देखि है कही आपने समाज सेवा को लेकर ऐसी सिर फुटव्वल ??

आप इस फोटो को देखिये और मुझे बताइये कि कोरोना की मार झेलते देश में , जहाँ हर दूसरा आदमी बेरोजगारी के मुहाने पे खड़ा है , जनमानस अवसाद से गुजर रहा है , इन लोगो ने कौन सा तीर मारा है जो ये विक्ट्री सिंबल बना रहे ? क्या इन्हे शर्मिंदा नहीं होना चाहिए कि इनकी हवस , ज्यादा से ज्यादा डकारने की छीना झपटी , जो अभी तक सत्ता के बंद , गुप्प गलियारों तक दबी ढकी थी , वो अब खुले मैदान में आ गयी है ?


हमे घोट कर पिलाया गया है लोकतंत्र , लोकतंत्र , लोकतंत्र |
असल में ये लोकतंत्र है ही नहीं , भीड़तंत्र है | सही लोकतंत्र एक लक्ज़री है जो चेतना के एक स्तर को पार कर चुके समाज के हिस्से आता है |
जरा सोचिये , जिस भीड़तंत्र में एक पव्वे के लिए , 500 की पत्ती के लिए, या महज ये सोच के कि फलाँ हमारी जात  का है ,  कही भी ठप्पा लगा देने वाले वोट की ताकत , 'देश दुनिया की सोचने समझने वाले' आदमी के वोट के बराबर हो , वहाँ किस तरह के नेता सामने आएंगे ?
आप इसे गरीब -अमीर के खाँचो में रखकर नहीं , चेतना के स्तर के लिहाज से आंकिये  |
डेमेगॉग समझते है न आप ? बस वही लोग सामने आते है |

सुकरात का लोकतंत्र से इन्ही कारणों से मोह भंग था |
प्लेटो की कृति 'रिपब्लिक ' में सुकरात का एक वार्ता उल्लेख है जिसने वो पूछता है कि यात्रियों से भरे जहाज को कौन चलाएगा , जहाज का कप्तान कौन होगा , इसका निर्णय किसको करना चाहिए ?
क्या जहाज के सभी यात्रियों को ?
या उन लोगो को जिन्हे जहाज चलाने का कुछ ज्ञान हो , हवा , दिशा , भूगोल का कुछ  अध्ययन जिन्होंने किया हो  , और जो ये जानते हों कि जहाज को सही दिशा में में ले जाने के लिए कौन सबसे होनहार कैप्टेन साबित होगा |

अपने तर्क को और आगे बढ़ा सुकरात कहता है कि एक डॉक्टर है और एक मीठे की दुकान वाला हलवाई |
अपना समर्थन बटोरने को हलवाई कहता है की देखो भाइयों ये इंसान तुम्हे कड़वे काढ़े देता है , तुम्हारे शरीर में छेद करता है , चीरे लगाता है , तुम्हारा खून निकाल लेता है , ये तुम्हारा भला कैसे हो सकता है !
मुझे समर्थन दो , मैं तुम्हे मिठाइयां , रेवड़ियाँ देता हूँ , मैं ही तुम्हारा हितैषी हूँ !

और देखो न , सचमुच मिठाइयां , रेवड़ियाँ बांटने वाले डेमागोग ही तो हम चुनते आये है |
बदकिस्मती  कि  ये दस्तूर जारी रहेगा  | हाँ ,पार्टियों के नाम बदलते रहेंगे |

                                                                                              -सचिन कुमार गुर्जर
                                                                                              १३ जुलाई २०२०    

नवोदय के दिन

बक्सा , बाल्टी, एक अदद मग्गा , कुछ जोड़ी कपडे , बिस्कुट , दालमोठ और पंजीरी | इंतज़ाम तो कुछ ऐसा था जैसे कोई फौजी पल्टन को जाता हो | ऐसे जैसे  ...