रुतबा ऐसा था उसका कि जब वो गर्ल्स हॉस्टल से 'इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन ' डिपार्टमेंट में अपने क्लास रूम के लिए चलती तो चार पाँच सिपाही लड़कियों की टुकड़ी हमेशा चलती उसके साथ | कैंपस के बॉयज हॉस्टल के उसकी क्लास के दो तीन अर्बन , स्मार्ट, लड़कियों की तरह मुलायम लड़के उसके 'अनटूराज' से जुड़ते और फिर ये काफिला हमारे हॉस्टल के सामने से गुजरता |
हमारे हॉस्टल के बगल में एक छोटे से टीले पर चाय की एक टपरी हुआ करती थी , जिसके बाहर सीमेंट की एक कामचलाऊ पटरी बनी थी | ठीक वहाँ मैं एक हाथ में चाय का गिलास, दूसरे में मटरी का चूहे-कुतरा टुकड़ा लिए बैठा होता |
सीना जरूर सपाट था उसका ,पर नैन नक्श इस कदर रौबीले थे कि पटरी पर बैठे , खुद को अल्फा मेल नापते लड़के सड़क के कोने आ खड़े होते | कुछ ऐसे जैसे सड़क के किनारे फड़ पर लगे सस्ते कपडे , के छाँट लो जो अच्छा लगे | सफ़ेद झक रंग था उसका , इंदिरा गांधी कट बाल रखती थी | बटुए जैसा छोटा मुँह | हंसती तो अनारदाने से छोटे दांतो की लड़ी दिखती | नाक रोमन , ऐसी जैसी कॉकेशियन लड़कियों की होती है | और मैं इस कदर जानता था उसे कि उसकी बालिश भर लम्बी गर्दन से होती हुए गालों पे खत्म होती धमनियों को ऊँगली पे गिन सकता था |
कायर का मन फैंटसी में बसता है | ये उसका एक तरह से सच्चाई से एस्केप करने का तरीका होता है | मैं सोचता कि काश ऐसा हो कि इस साल मैं कंप्यूटर डिपार्टमेंट का टॉपर हो जाऊँ , फिर आसान हो जायेगा | या ऐसा हो कि कॉलेज के एनुअल फंक्शन 'गूँज ' में मैं कुछ ऐसा गा दूँ कि वो मेरी फैन हो जाये | कुछ इस तरह बसर हो रही थी अपनी जिंदगी उन दिनों |
फिर एक बार ऐसा हुआ कि पता लगा कि किसी कल्चरल फेस्ट की तैयारी के लिए सभी ब्रांच के लड़के लड़कियाँ लंच के बाद किसी क्लास रूम में जमा होते हैं | मैं रुक पाता भला ? काश मैं रुक गया होता !
उस दिन क्लास रूम में बमुश्किल बारह पंद्रह लड़के लड़कियाँ जमा थे | कुछ कुर्ता पायजामा छाप , कम्युनिस्ट से दिखने वाले लड़के बोर्ड के नीचे स्किड की प्रैक्टिस कर रहे थे | वह तीन बेंच छोड़ चौथी बैंच के कोने में बैठी थी | अकेले |
मैं तीन बैंच औऱ भी पीछे जा इस कोण के साथ बैठा कि जहाँ से वो तो मुझे पूरी दिखे पर मैं उसकी दृष्टि में न आऊं | दोपहर के भोजन के बाद सब उबासे थे |
अचानक ,उसने जोर की जम्भाई ली | फिर अपने दाएं हाथ की तर्जनी को नाक के बाएं नथुने में वहाँ तक घुसेड़ा , जहाँ तक ऊँगली जा सकती थी | फिर घुमाती गई , घुमाती ही गयी | क्लॉक वाइज , एंटी क्लॉक वाइज !क्लॉक वाइज , एंटी क्लॉक वाइज !
जब तर्जनी बाहर आई तो उसके सिरे पर एक मोटा चूहा विराजमान था | उसने उस चूहे को हिकारत से देखा | फिर तर्जनी और अंगुष्ट के बीच कुछ ऐसे भाव से दबा दिया जैसे उसे बड़े गुनाह की सजा देती हो |
क्लॉक वाइज , एंटी क्लॉक वाइज ! क्लॉक वाइज , एंटी क्लॉक वाइज ! उसकीऊँगली व् अंगूठा उस चूहे को दलते ही गये , दलते ही गए | और तब तक दलते गए , जब तक उस बेचारे ने ठोस , मटमैली गेंद का आकार ना ले लिया |
इस क्रिया के बाद उसने सरसरी निगाह से चूहे का मुआयना किया | फिर बड़ी फुर्ती से उसे घुमा तर्जनी के नाखून पर ले आयी | अँगुली पर अंगूठे की कमान चढ़ाई और धड़ाककक ! क्लास रूम की रंग छोड़ती दीवार पर चूहा कुछ देर जमा रहा | फिर धीमे से धरती के गुरुत्वाकर्षण के चलते फर्श पर लुढ़क गया |
और उस लम्हे में , ठीक उस लम्हे में मेरे प्यार का फाख्ता उड़ गया ! और ऐसा उड़ा गया ,कि कभी वापस नहीं लौटा |
सचिन कुमार गुर्जर
सिंगापुर द्वीप
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