सोमवार, 30 मई 2016

जतावा




दिल्ली लखनऊ राजमार्ग से  जुडी वो पतली, नई सड़क रामगंगा के खादर के गाँवो की ओर निकल जाती है  । 
हिन्दुस्तान में जहाँ  कहीं भी छोटी सड़कें बड़ी सड़कों को चूमती है , अमूमन वहाँ दुकानों का अड्डा  बन जाया करता है । रामपुर की ये जगह फिलहाल  'नया मोड ' के नाम से है |  आबादी  का विस्तार हुआ तो शायद  कोई स्थायी नाम पा जाए ।  एक पुरानी पाखड़, जिसकी छाँव में सरकारी नलका लगा है , उसके इर्दगिर्द चार पाँच पक्की दुकानें हैं | कुछ फलों के ठेले भी हैं जिनसे रिश्तेदारियों को जाते लोग केले , सेब , अंगूर आदि खरीद ले जाते हैं | 
   'गुप्ता मिष्ठान भण्डार ' पुरानी टिन की छत वाली दुकान है । लोहे के जंग खाते बोर्ड पर काले पेंट से घटिया लिखावट में बाद में  जोड़ा गया है " नोट : हमारे यहाँ शादी पार्टी के आर्डर भी बुक  किये जाते है । "
दुकान के अंदर की दीवारें भट्टी के धुंए के संपर्क में रह रह कहीं गहरी काली तो कहीं धुंधली हो गयीं  हैं । एक धनलक्ष्मी की मूर्ति है जो लकड़ी के छोटे बक्से में टंगी है | लाला जी की श्रद्धा ने लक्ष्मी जी पे धुआँ जमने से रोक रखा है | 

दुकान के बाहर लकड़ी की छोटी छोटी खप्पचियों से बनी बैंच पर बैठा मैँ दही समोसा खा रहा था | तभी पुलिस की एक जिप्सी  दुकान से थोड़े से फाँसले पर आकर ठहर गयी । एक दरोगा , दो हमराह सिपाही और एक ड्राइवर । देहात में कहीं कोई दबिश दे लौट रहे थे शायद । सिपाही जिप्सी से उतर नलके तक गए | पेप्सी की पुरानी बोतल के बासी पानी को नल की चबूतरी पर बहाया और ताज़े पानी से बोतल को नाक तक भर लिया  | मुँह हाथ धो और अपने अपने रूमालों को पानी से तर कर वे गाडी के पिछले हिस्से की तरफ जा खड़े हुए | दरोगा जी अपनी सीट को पीछे कर आराम की स्थिति में लेट गए । उन्होंने माचिस की तीली  निकाली,  उसे चबा चबा के एक महीन सा ब्रश तैयार किया और बड़े ही आराम से दाँत कुरेदने लगे ।उनके फुरसतिया अंदाज को देख मालूम होता था कि उनके हलके में बहुत ही सुख शांति थी ।  

दरोगा जी ने हाथ के इशारे से दुकान पे काम करने वाले लड़के को बुलाया । थोड़ी देर में लड़का जिसे लाला जी 'दिलददर ' कहकर पुकार रहे थे , बाँस की थैली में समोसे और सफ़ेद पिन्नी में रसगुल्ले भर कर पहुँचा आया ।

वापस आया तो लाला जी ने बड़े हलके से पूछा  " पैसे दिए हैं क्या ?"
" ऊ हूं , ना | " लड़के ने जबाब दिया ।

लाला जी बिना कुछ बोले अपनी जलेबियों का घांन उतारने में लगे रहे ।पतले किनारे वाली काली कढ़ाई में वे जलेबियों के लच्छों को पलटते जाते | 

मैंने कहा " लाला जी , काम मेहनत और ईमानदारी का है ।पैसे हक़ के साथ माँगने चाहिए ।
                 भई ,जिसका काम दो नंबर का हो वो डरे , क्यों ? "

लाला जी बोले  "हाँ , सही कहो हो | काम हमारा पाक साफ़ है ।  डर की क्या बात । कोई लंगर थोड़े खोला है हमने । "
वे सोचते रहे , अपने काम निपटाते रहे | थोड़ी देर बाद मुँह दूसरी ओर घुमा बड़े हौले  से बोले  " जा रे दिलददर , पैसे माँग ला जाके |  "

लड़का पहुँच गया और दरोगा जी से पैसे जा मांगे । मैंने पाया आराम की स्थिति में सीट पीछे किये लेटे दरोगा जी हलकी सी करवट ली और  सौ का नोट लड़के की ओर बढ़ा दिया ।बहुत ही सहज भाव से ।
कई बार हम बिना कुछ जाँचे परखे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो जाते है|  
लेकिन ज्यों  ही लड़का नोट  थामने को हुआ , लाला जी पीछे से चिल्लाये "अरे ओ दिलददर  , कम्बख्त पैसे ना लीजो दरोगा जी से!" लाला जी के बोल सुनते ही लड़का बिदक के अलग खड़ा हो गया |  

दरोगा जी ने आगे की ओर झुक लाला जी की ओर मुँह कर ऊँची आवाज़ में कहा    " अरे अरे नहीं।  ले लो |   लागत मेहनत के तो ले ही लो कम से कम लाला । " 

"क्या बात कर रहे  हो दरोगा जी । नाराज़ चल रहे हो क्या सरकार  ?" दुकान से उतर लाला जी जिप्सी के पास तक चले गए  थे ।
"दुकान  आपकी अपनी है । जब भी इधर से निकलो  , पानी पत्ता यही कर लिया करो।" लाला जी के बोल ऐसे फूट रहे थे जैसे नरम नरम बताशे ।

वापस दुकान पर लौट लाला जी जलेबियों को घांन से उतार चासनी में डुबोने के काम में तल्लीन हो गए । पुलिस की जिप्सी चली गयी तो लाला जी बोले "खिला पिला चाए कितना भी दो , पर जतावा होना बहुते ही जरूरी है | वर्ना अहसान कौन मानता है इस दुनिया में | "
लाला जी की पलटी का मैंने कोई  स्पष्टीकरण नहीं  माँगा था , उन्हें खुद ही हाज़त हुई थी बात साफ़ करने की !

                                                                                                                   --सचिन कुमार गुर्जर


मंगलवार, 24 मई 2016

पहाड़ की चिंता


कॉलेज की छुट्टियों में मैँ गाँव लौट रहा था ।
पौड़ी कस्बे से मैदान की ओर निकलने वाली रोड के जीप अड्डे पर ड्राइवर हाँक मार रहा था " देहरादून , देवप्रयाग , देहरादून "
 मुझे देख बोला " आओ , भाई जी , गाडी लगभग फुल है । बस पाँच मिनट में निकल लेंगे । "
 उसकी जीप की छत सामान से लधपध् भरी हुई थी , बस आगे में लिखा हुआ ही दीख पड़ता था । लिखा था "जय डांडा नागराजा " । शायद ड्राइवर का कुलदेवता रहा होगा, कृपा बनी रहे , ऐसी इच्छा लिए ड्राइवर ने लिखाया होगा  ।

"नहीं  भैय्या , मुझे फ्रंट सीट ही चाहिए , जो आपकी गाडी में फुल है " मैंने जबाब दिया । पहाड़ की घुमावदार सड़कों पे घिन्नी से बचने को मैं हमेशा आगे की सीट पर सफर करता था  , चाहे गाडी पकड़ने में कितनी भी देर क्यों ना हो जाए ।
बिजली सी फुर्ती दिखाते हुए ड्राईवर ने मेरे लिए आगे की सीट खाली करवा दी थी ।

"चम चमकी , चम चमकी घाम काण्ठि मा । हिमाली काठी चांदी की बनी गैनी । "
" आहा , नरेंद्र सिंह नेगी !" जीप के सस्ते म्यूजिक प्लेयर में बजते गढ़वाली गाने को सुन मैंने बोला था ।
"हाँ , सही पहचाना भाई जी ।" ड्राइवर ने मोड़ पे जीप घुमाने के बाद बोला था ।

"नरेंद्र सिंह नेगी तो मोहम्मद रफ़ी हुए पहाड़ के ! पहाड़ के लिए बड़ा योगदान है इनका । है कि नहीं ? " अपने कच्चे ज्ञान के बाबजूद मैँ बोल पड़ा था ।

" पहाड़ में बचा  ही क्या है , बस ऐसे  ही  कुछ जनूनी लोग है जो अपना पहाड़ बचाने की जद्दोजहद में है । "बगल में बैठे मास्टर साब चिंतित से बोले थे ।

"हम्म " इतना भर कहा था मैंने , जो वार्तालाप को जारी रखने को काफी था ।

"पहाड़ का कल्चर तो खत्म ही हो चला है जी । पहाड़ में अब वो ही रुका है जो मज़बूर है , या बूढा है, या कतई नकारा है । " अपने अनुभव से बोले थे मास्टर साहब ।

" या फिर जो सरकारी मास्टर है , क्यों मैथानी साहब ? " ड्राइवर ने परिचित मास्टर साब पे तंज कसते हुए बोला  ।
"आपके देहरादून वाले मकान का क्या हुआ मास्टर साब ? अब तक तो  पूरा हो जाना चाहिए था । " ड्राइवर ने बात को आगे बढ़ाया ।

" हाँ भुला(छोटा भाई ) , तैयार ही समझो , बड़े बेटे की नौकरी दिल्ली में है । दिवाली पे छुट्टी आएगा , गृह प्रवेश तभी होगा !" मास्टर साब उत्साहित से बोले । उनकी आँखे बेहतर, सुविधाजनक और रुतबे वाले जीवन की शुरुआत को लेकर चमक उठी थी ।

"मतलब आप सपरिवार दिवाली  बाद देहरादून शिफ्ट हो लेंगे ।"
"बहुत सही मैथानी साब ! आप बड़ी किस्मत वाले ठैहरे । बच्चे आपके बहुत ही होनहार निकले  ! " ड्राइवर लगभग कायल हो गया था ।  

मास्टर साब रास्ते में अपने स्कूल के सामने जीप से उतर गए तो पिछली सीट पर बैठा एक अधेड़ सा , कम पढ़ा लिखा ठेठ पहाड़ी व्यक्ति , जो पिछले तीन  घंटे के सफर में एक लफ्ज़ ना बोला था , बोल पड़ा "चिंता सबको है पहाड़ की , पर बसना सबने देहरादून  ही है !"

देहरादून जीप अड्डे पर  गाना बज रहा था "मेरी  जन्मभूमि मेरो पहाड़, गंगा जमुना अखि , बद्री केदार।  "

 मैंने पाया कि बड़े बड़े झुंड़ो में लोग पहाड़ से अपना सब लोहा कांठ समेटे  जीपों , छोटी बसों से उतर रहे थे ।  उनमे हर किसी का दिल पहाड़ के लिए धड़क रहा  था , उनमे हर कोई पहाड़ के लिए चिंतित था ! 
पहाड़ की चिंता लिए उन लोगो में से शायद ही कोई वापस पहाड़ लौटे ।स्वेच्छा से भी नहीं ! 
                                                                                         ---सचिन कुमार गुर्जर



सोमवार, 23 मई 2016

रेलवे की नौकरी

भंगी बस्ती से बुलवाए गए ढोल वाले थाप लगाते हुए सजीली सी घोड़ी के आगे आगे चले जा रहे थे ।जयदेव का बड़ा लड़का जित्तू घोड़ी पे सवार चला जा रहा था, पीछे पीछे उसका पूरा कुनबा , अगड पडोसी ।  पतली नाक, पिचके गालों वाला जित्तू यूँ तो हमेशा गाँव की गलियों में आसमान की ओर ताककर चला करता था , पर उस दिन घोड़ी की पीठ पे डरा डरा सा सवार जित्तू गाँव के हर छोटे बड़े को दुआ सलाम ठोकता चल रहा था ।सफलता थोड़े समय  के लिए ही सही,  आदमी को विनयशील , मृदुल और सबका धन्यवादी बनाती है । 

देसी मसालेदार बसंती के पउवे की हुनक ज्यों ज्यों ढोल वाले भंगियों पे सवार होती वो उतनी ही जोर से ढोल पे भंगड़े की थाप लगाते ।  पूरा गाँव खुश था । उस पट्टी में कुल तेरह गाँव थे , मास्टर थे , सरकारी चपरासी थे कुछ प्राइवेट फर्मो में काम करने वाले थे पर रेलबाई की शाही नौकरी पहल पहल जयदेव  के लड़के के नसीब ही आई थी ।

सिर्फ  दो आत्माएं दुखी थी एक लखपत और उसका बेटा धनपाल ,जो कई साल से रेलबाई की नौकरी को कोचिंग कर रहा था । लखपत जश्न का जुलुस देखने घर के बाहर तक भी ना आया था । भैंस के आगे से रात के चारे को साफ़ करता हुआ झुंझलाता हुआ बडबडाया " गू खाने है ससुरे , किस्मत की चार बूंदे क्या बरस पड़ी , छोटी तलैया से उफन पड़े । अरे लौंडा , रेलबाई में क्लर्क ही हुआ है ना , कौन सा जज कलक्टर बन गया , जो ढोल मंजीरे पीटे जा रहे ससुर के नाती !"


धनपाल और जित्तू बहुत अच्छे दोस्त तो ना थे पर  ठीक ठाक सा मेलजोल तो था  ही । दोनों एक दूसरे से अपनी सरकारी नौकरी पाने की जद्दोजहद साँझा किया करते । धनपाल जित्तू  से पढाई लिखाई में थोड़ा सा सवाया तो था ही और धनपाल का बापू लखपत जित्तू के बापू जयदेव  से कही ज्यादा अकलमंद था । ऐसा सब जानते थे और सब मानते थे । 

जयदेव कोई बुरा आदमी ना था , सबका भला ही चाहता था । उसे जैसे ही पता चला कि रेलबाई के इलाहाबाद  बोर्ड में क्लर्की में जुगाड़ की धाँस फँस सकती है उसने लखपत से बात की थी । दस लाख में ठेका छूट रहा था उस साल ! बिचौलिया लिखित परीक्षा से लेकर इंटरव्यू तक की गारंटी दे रहा था , सिर्फ १० लाख में !
पाँच लाख  काम होने से पहले और पाँच काम होने के बाद !

" काम होगा इसकी क्या गारंटी है जयदेव , हम किसान लोग है , पाँच लाख की चपत लगी तो कमर जनम भर सीधी ना हो सकेगी । " अपनी परचून की दुकान के चबूतरे पे बैठे लखपत ने बड़े सोच विचार के बाद ये बात कही थी । फिर अपनी छज्जेदार मूछों को अपने अंगूठे और ऊँगली से चौडाते हुए बोला " अपनी बस्ती या आस पास का कोई आदमी हो तो जरूरत पड़ने पे हम हलक फाड़ पैसा खींच लेते , पर ये इलाहाबाद में कौन जान पहचान है भैय्या  , वहाँ का तो कुत्ता भी हमे रपटाय धरेगा । कोई और मौका तलाशेंगे , जरा धीरज धारो । "

उस दिन के बाद से जयदेव और लखपत के बीच रामा किसना तो कई बार हुई, इस बात को लेकर कोई चर्चा ना हुआ । आज ढोल की थाप सुनके ही लखपत के कान बजे , जयदेव का लगाया दाँव सही पड़ गया था ।


ऐसा नहीं था कि लखपत ने कुछ कोशिश ही ना की हो । लड़के की काबिलियत पे उसे तिल बराबर भी भरोसा ना था , जो की सही था ।उसके हिसाब से लम्बे कद के जित्तू के दिमाग में भूसा भरा था निखालिस , थोड़ी बहुत अकल उसके घुटनो में ही थी जो उसने बचपन में ही साईकिल सीखने के दौरान पक्की सड़क पर घिस दी थी ।

एक सफ़ेद कुर्ताधरी के साथ लखपत कई बार पैसो का झोला ले लखनऊ में शिवपालगंज तक गया था । शिवपालगंज के बारे में ये मशहूर था कि अगर आप वहाँ गए और वहाँ आपका चढ़ावा मंजूर हो गया तो काम होके ही रहता था ।पर धनपाल नाम का ही धनपाल था बस , उसकी किस्मत खोटे सिक्के जितनी भी ना चलती थी , हर दाँव फेल हो जाता था ।
समय बीतता गया , जितुआ ने  रिश्ते की नयी मारुति स्विफ्ट पे बड़ा बड़ा  'रेलवे विभाग ' लिखा लिया था ।  बिना कुछ कहे ही वो लखपत धनपत के कलेजो में जलन का चौंक लगा जाता ।

फिर एक दिन शाम के चूल्हा चौका के वक़्त लखपत के कच्चे दुमंजिले के ऊपर जोर की धमाकेदार आवाज़ हुई "धायँ धायँ !"चबूतरे पर  बैठे इधर उधर की चुगलबाज़ी कर यूँ ही टाइम फोड़ रहे गाँव वाले चौककर उछल पड़े , कोई बोला " तमंचे  का फायर  हुआ है  ये तो , लगता है लखपत  ने अपने लड़के का रिश्ता ले लिया आज!"
कोई दूसरा बीच में ही काट बोला " कौन करेगा उस निकम्मे का रिश्ता , वजह कुछ और है । "

खबर पछैदी  हवा की आग की तरह पूरे गाँव में फैल गयी  थी । लखपत का लौंडा धनपत रेलबाई में टी टी ई हो गया था वो भी बिना कोई रिश्वत!
परिवार के लौंडो ने  ख़ुशी के जश्न में डी. जे. बजवाने की कोशिश की थी तो लखपत ने डाँट दिया " खबरदार जो किसी ने भी कुछ शोर शराबा , रौला किया तो । दिखावे के काम औछे इंसानो का हुआ करै है । चुपचाप लड्डू खाओ और अपने काम धंधे से लगो । "

पन्द्रह दिन के  भीतर ही धनपत अपना सामान बाँध नौकरी की ट्रेनिंग पे इलाहाबाद  निकल गया था । उसके बाद वो कभी कभार ही गाँव आता । छुट्टी ही कहाँ मिल पाती होगी बेचआरे को !

जित्तू जब कभी गाँव आता तो धनपत की टोह जरूर लेता । बरेली के स्टेशन पे उसकी ड्यूटी हुआ करती थी ।
धनपत को उसकी बातों में कोई रूचि न होती पर जित्तू उसके सामने रेलवे विभाग की छोटी बड़ी बातें जरूर बांचता ।एक बार उसे रास्ते में  टोक बोला  "  सुना है दो नकली टी टी ई धरे  गए है , शाहजहांपुर स्टेशन के पास से । दोनों लम्बे समय से ट्रेनों में अवैध वसूली करते आ रहे थे । "

" अच्छा , दुनिया है इसका नाम भैय्या । रोजी रोटी को कुछ ढोंग भी रचते है " इतना कह धनपत निकल लिया था ।


एक बड़े धनाढ्य परिवार से रिश्ता आया तो लखपत ने बिना वक़्त गवाएं हामी भर ली । लड़की वाले  ने चेताया भी " भाई साहब , एक बार लड़के की भी रजामंदी हो जाती तो हमारा मन तसल्ली पकड़ लेता ।
फिर हम ऐसे कोई पुरातन पंथी भी ना है , लड़का लड़की को देखने की चाह रखता हो तो हमे कोई गुरेज़ नहीं।  "
सुनते ही लखपत ताव में आ गया " भाईसाब , लड़का टी.टी. ई  हो जाए या कलक्टर , आज भी जहाँ लकीर खींच दूँ , पार करने की हिमाकत न करेगा । संस्कार भी कोई चीज हैं , मानों हो या ना ?"

दहेज़ में लोहा प्लास्टिक लेने से लखपत ने साफ़ इंकार कर दिया था । उसके उसूलो के हिसाब से ये सब औछा दिखावा करने वाले करते है । जब रिश्ता चढ़ा था तब धनपत को गोद में रखी सफ़ेद स्टील की बड़ी परात में इतना रुपया रखा था कि गाँव वालों  की आँखों के गुल्ले बाहर आने को हुए ।
" नगद आये है जी पच्चीस लाख रुपए ।  सोने की चैन लड़के के लिए और उसकी माँ के लिए भी !" गाँव के पंडित के घोषणा की थी ।बहुतों के मुँह में पिंघलते लड्डूओं का स्वाद कड़वा हो गया था एकदम से , इतनी बड़ी रकम सुनकर !लड़की वालो ने लखपत का घर लाखों से भर दिया था ।

'चट मंगनी पट बिहा' के पैरोकार लखपत ने एक माह के अंदर अंदर बिहा का सारा काम निपटा दिया । उसके बाद लखपत के घर काम इस कदर फैला जैसे बरसों से अटकी कोई सरकारी परियोजना का होता है किसी नए योग्य मंत्री या अधिकारी के आने से। मकान पर पक्की दुमंजिली चढ़ गयी ।  हैंडपंप की जगह समरसेबिल का पंप लग गया । चबूतरे को काट बीचो बीच भविष्य में आने गाडी के लिए स्लोप बन गया ।
परचून की फुटकर दुकान अब थोक की बड़ी दुकान बन गयी । अंग्रेजी सीट वाली लैट्रिन लग गयी । 

फिर ऐसा हुआ कि शादी के यही कोई दो महीने बाद धनपत के पैर में  बाय का बड़े जोर का दर्द उभर आया  इतना जोर दर्द कि उसने खाट पकड़ ली , जंगल पानी को डंडा ले उठता था ।
बीमारी के चलते धनपत को लम्बी छुट्टी लेनी पड़ी , जो महीने दर महीने आगे खिसकने लगीं ।

 ऊँची चौपाल  के सामने से लंगड़ाते हुए गुजरते धनपत को झुण्ड में बैठे एक काका ने रोक लिया एक दिन " क्यों बेटा धन्ना , हकीम के काढ़े का कुछ असर हुआ कि नहीं । अभी भी टांग में लंग दिखता है । "
" हाँ काका , सुधार तो है , पर तुम जानो ही हो ,टी टी ई के काम में घंटो ट्रेन में खड़ा होना पड़ता है , उस लिहाज़ से टांग में अभी बल नहीं दिखता । " फिर गहरी साँस ले फिक्रमंद हो बोला  "भगवान् ही जाने, ये टाँग कब तक ठीक होगी । "

उसके आगे बढ़ते ही जयदेव ने बीड़ी का कश बड़ी जोर से खींचा और भविष्यवाणी करते हुए बोला " तेरे पैर का दर्द कभी सही ना होगा लल्ला , ये बात हमको जँच गयी है "

धनपत वल्द लखपत सिंह नाम का कोई भी नया, पुराना टी टी ई इलाहाबाद खण्ड तो क्या पूरे उत्तर रेलवे में ना था ! ये बात बड़ी खोजबीन के बाद जित्तू ने अपने बापू को बताई थी ।

                                                                                     --- सचिन कुमार गुर्जर

सोमवार, 16 मई 2016

गिरगिट के शिकारी

अभी परसों की ही तो बात है ।चार पांच बच्चे थे। बड़े ही छोटे छोटे , मासूम से ।
सबसे बड़ा  यही कोई नौ या दस साल का होगा। पतला था  , लंबी निक्कर पहने, आधी बाजू शर्ट थी पुरानी सी , सिकुड़ी हुई । और सबसे छोटा तो बमुश्किल पांच साल का ही हुआ  होगा , बड़ा ही मासूम , शर्मीला सा।
उन सभी के हाथो में ताज़े कटे यूकेलिप्टिस के डंडे थे , कोई दो दो हाथ भर के डंडे ।
भरी दुपहरी में उन्हें खेतों  के कोरे  छूती काले डामर की सड़क के किनारे  झुण्ड सा बना जमीन को घूरते पाया तो जिज्ञासावश पूछा " बालको क्या कर रहे हो, भरी दुपहरी अपना बदन क्यों फूँके जाते हो । कोई छाव तले जा खेलो।"
बड़े लड़के ने नज़र ऊपर उठाये बगैर ही जबाब दे दिया " कुछ नहीं , बस ऐसे ही ।  "
पास जाके के देखा तो हक्का बक्का रह गया " दो गिरगिट लहूलुहान डामर की सड़क के किनारे पड़े थे । दोनों मजबूत सरकंडों से बिंधे हुए । एक के प्राण उड़ चुके थे और दूसरा सरकंडे में बिंधा आखरी साँसे लिए पैर पटक रहा था । 
मैंने  बच्चों  की आँखों में बारी बारी से देखा । वो सब इतने छोटे थे कि खोज के भी मैं उन आँखों में मासूमियत के सिवा कुछ और न खोज पाया । नफरत का मुलम्मा चढ़ने में  अभी सालों लगेंगे वहाँ।
" क्यों  रे बालको, ये किस तरह का खेल है । छी छी । इतना घिनौना काम !  
बताओ क्यों मारा इन बेचारो को , हम्म?" आहत मन पूछा ।

बड़ा ही बोला इस बार भी " कुछ नहीं , बस ऐसे ही ।"

थोड़ी झुंझलाहट हुई अबकी बार " ऐसे ही कैसे ? खाओगे इन्हें भूनकर ? गीधीया जात हो ? "
" अंह  हुं  , ना ना " उनमे से एक बोला ।
" गिरगिट हमारे दुश्मन है! "

"दुश्मन ? किसने बोला । किसी बड़े ने बोला ऐसा?" मैंने टटोलना चाहा ।
" हाँ , नहीं तो हम फ़िज़ूल क्यों मारते इन्हें । " जबाब हाज़िर था ।
बच्चे ज्यादा साक्षात्कार के मूड में ना थे सो निकल लिए और मैँ  तजती दुपहरी में खेत किनारे लगे युकेलिप्तिसों के बाड़े की छाँव में बैठ गया ।

नया तो नहीं है ये व्यवहार वैसे  , याद आ पड़ा  । आज जहाँ से ये पक्की डामर की सफ़ेद धारी  वाली सड़क गुजर रही है ना , कभी ऊँचे,  रेत के टीले उगे थे वहाँ  । इतने ऊँचे टीले कि गाँव के जमींदार की  हवेली की  दुमंजिली भी नाटी जान  पड़ती थी । बंजर था सब , रास्ता संकरा था किसी सर्प की पूँछ जैसा , रेतीले टीलों टीलों के बीच से रेंगता हुआ  । 
रास्ते के किनारे बबूल के झाड़ो के झुरमुट हुआ करते थे । बंजर में कांटे ही उग पाते थे बस । 
तब स्कूल से लौटते हुए कई बार कुछ बच्चों के झुण्ड दिख जाते थे  , जो उन बबूल के  झाड़ों पे  बेहताशा पत्थर  बरसाया करते थे ।  हमारी बच्चा टोली उन्हें कई बार रोकती भी थी , पर वो बोलते थे कि गिरगिट गुस्ताख होते है , मुसलमानो के दुश्मन होते है !
 हमारा हत्या विरोध आधा अधूरा होता था तब , चूँकि गिरगिट की मुसलमान बच्चों से दुश्मनी तो जाहिर थी लेकिन गिरगिट के हिन्दू मित्र होने का कोई किस्सा हमारे बालमन के संज्ञान में नहीं था!
लिहाज़ा गिरगिट का क़त्ल हो जाना लाजमी थी , लगभग निर्विरोध । संवेदनशील होने की कोई वजह नहीं !

किसी बड़े समझदार आदमी से पूछा भी था एक बार " ये गिरगिट की हत्या का सिलसिला क्यों है ?"
जबाब मिला था " किसी गिरगिट ने गुस्ताखी की थी।  "
बस इतना ही । इससे ज्यादा ना बताया गया , ना ही आगे पूछा गया । 
वैसे भी धर्म पे मौन बेहतर है , मामला संवेदनशील हो जाता है ।


इलाके के एक छोटे नेता की स्कार्पियो आकर रुकी खेत के कोने पे । जान पहचान के है , सत्तारूढ़ पार्टी से है , अच्छा खासा  रुतबा है आस पास के इलाके में । 
रुक गए , हाथ उठा अभिवादन हुआ , छाँव से उठ सड़क तक जाना पड़ा । 
" पिता जी कहाँ  है आपके आजकल । बोलो उनसे , घर के काम के साथ साथ थोड़ा समय संगठन , सम्बन्धो के लिए भी रखें । " नेता जी ने बड़ी आत्मीयता  के साथ बोला । 
फिर बोले "खुशनसीब हो , सड़क चौड़ी हो गयी है , बदलाव की हवा बह चली है , अपना इलाका तरक्की की ओर  है , है कि नहीं ? "
" सो तो है । " जबाब सूक्ष्म ही रख मैंने । 
" ये सरकंडे का बाड़ा फूंक डालो अब । और ये  जेई,  बाजरा  छोड़ो । सड़क किनारे का खेत है , दुकाने चिनवा दो , देखना मार्कीट बन जाएगी जल्दी ही । बदलाव बहुत तेज़ी पे है मियाँ , जमाने  की नब्ज समझो , रफ़्तार पकड़ो । " हितैषी हो उठे नेता जी बोले  !
उनकी हर बात का समर्थन ही किया मैंने ।नेता जी निकल गए छोटा सा उपदेश दे , अपनी हिमायत का सीमेंट जमा के !

 सोचा , बदलाव  तो बहुत तीव्र है सचमुच । पर बहुत कुछ है जो बदल जाना चाहिए पर जम जूं सा चिपका बैठा है । झाड़ में छुपे गिरगिट अब  भी मारे जा रहे है ।  इक्कीसवी सदी के सन २०१६ में भी !

                                                                                                       -- सचिन कुमार गुर्जर  




शुक्रवार, 6 मई 2016

फल खाना है यार !


"बहुत दिन हो गए यार , फल नहीं खाया फल । फल खाना  है यार कैसे भी ।"  अलकनंदा हॉस्टल के बाहर चाय के खोखे पे सिगरेट का धुंआ उड़ाते हुए उस्ताद  ऐसा बोलेते  । उनके बोलने के अंदाज़ से ही लगता था कि उन्हें फल खाने की जोर की तलब लगी होती थी । उनकी  आँखे किसी पुराने अनुभव को याद कर आसमान की ओर तिरछी होती । निकोटीन को पूरा पेट तक धकियाते हुए बोलते  " दिल्ली जाता हूँ इस वीकेंड ! "

"कितनी छोटी सी बात कर दी उस्ताद ।   कॉलेज के गेट के बाहर की दुकान पर ताज़ी खुमानियाँ , चीकू , सेब, लीचियाँ  लधे पड़े है । अभी लाके देता हूँ अपने उस्ताद को ' वो लड़का चलने को होता ।

उस्ताद ठहाका लगा के हँसते । बड़ी देर तक हँसते ही रहते , उनकी आँखों से शरारत टपकती । वो उस लड़के के बालों में हाथ फिरा बोलते ' छोटे , तू बन्दा कमाल है । सीधा है यार ,बड़ा ही नेक बन्दा है । दोस्त है तू अपना पक्का वाला ।  '

लड़के का दिल ख़ुशी से बाहर आने को होता । कोई ज्ञानी महापुरुष किसी जड़बुद्धि मूर्ख  को अपना सखा बोल दे तो ऐसी फीलिंग आती ही है ।

कुछ देर बाद लड़का ताज़े फलों से भरी पिन्नियां लेकर लौटता तो उस्ताद को अभी भी खोखे पे जमा पाता ।
शिष्य गुरु को नतमस्तक हो फल भेंट करता तो जबाब मिलता
"तू ही खा यार , मेरे को फ्रूट्स हज़म नहीं होते । खाके अपच हो जाती है । "
फिर मन रखने को नाशपाती में एक दो मुँह मार उसे फेंक देते उस्ताद ।

उस्ताद खोखे वाले को धकियाते  " क्या हुआ भै जी ,एक ऑमलेट के लिए कितना इंतज़ार कराओगे ?
और हाँ दो की तीन चाय भी कर देना । चीनी रोक के ,पत्ती झोंक के !"

पहाड़ की सुबह की नरम धूप में अलसाते लौंडो की ओर हांक मार उस्ताद बोलते " सुना है बड़ा ही जोरदार बकरे की आंतों का भुटुवा मिलता है पौड़ी की बूचड़ गली में , कोई चलना चाहेगा क्या , आज दोपहर ?"

वो गंवई लड़का असमंजस में ही रहता  "उस्ताद का भोजन हमेशा राक्षसी ही होता है , पता नहीं फिर फलों का जिक्र ही क्यों करते है ?"

                                                                                                                           -- सचिन कुमार गुर्जर

मंगलवार, 3 मई 2016

बिहा की मोटरसाईकिल

तब स्कूटर, मोटरसाइकिल इक्का दुक्का दिखाई पड़ते थे , उँगलियों पर गिनने भर के । उस समय बड़े मुकददम  ने अपनी छोटी लड़की की शादी में 'राजदूत' दी थी , बड़ा नाम हुआ था उनका काले कोसो तक तूती बाजी थी  !
बारात जब विदा हुई थी तो भरी बारात में एक भी बाराती ऐसा ना था जो मोटर साइकिल चला के ले जाए ।  मुकद्दम ने अपने बहनोई के छोटे भाई को भेज विदा कराई थी मोटर साइकिल ! अनुरोध कर भेजा था कि एक दो रोज़ छुटकी की ससुराल में रुक दामाद को थोड़ी ट्रेनिंग भी दे आएं । 

तेजा बस नाम का ही तेजा था । नौवें दर्जे का आखिरी परचा देने के बाद अपना बस्ता ऊँची खूंटी पे टाँग दिया था उसने । पिता जी हेड मास्टर थे और  इच्छा रखते थे कि  इकलौता पूत तेजा ग्रेजुएट हो जाए , नौकरी खातिर नहीं नाम  इज़्ज़त के लिए  । 

पर तेजा मन बना चुका था । मास्टर थोड़ा बहुत प्रोत्साहित करना चाहते तो बोलता " क्या चाहते हो पिता जी , हम भी गिरधारी काका के सतीश की तरह खूब पढ़ लिख जाये और बम्बई में जा जहाजरानी में नौकरी करे और फिर घर वालो की दवा दारु का  भी न देखे । फिर बलकतरी बहु लाके धरेंगे , देखते रहियो टुकर टुकर ।"

मास्टर कुछ बोलते न बोलते , पर मास्टरनी का  गुर्दा हिल जाता था तेजा की बात सुनकर " ना मेरे वीर , मत पढ़ तू , पर बाहर जाने का सोचियो भी मत मेरे लाल । संखिया खाय मर जाएगी तेरी माँ जो तू परदेसी हुआ तो । "
जमीन जायदाद तेजा के दिमाग में घुस गयी थी । रही सही कसर गाँव वाले पूरी कर देते। वो बस्ता लेकर स्कूल जाता तो कोई न कोई टोक ही देता " तुम किस लिए माथा मार रहे लल्ला, सोने जैसी  जमीन बटाईदार के हवाले कर शहर में चंद सिक्कों खातिर जी हज़ूरी करोगे  पढ़ लिख, क्यों?"

फिर कमी भी तो किसी बात की न थी । हेड मास्टरी की तनख्वाह  थी और ऊपर से पूरी सौ बीघा सिंचित जमीन । जमीन भी ऐसी उपजाऊ कि गन्ना बांस जैसा मोटा मोटा उगता था । तीन तीन  बिहारी मज़दूर दिन रात गन्ना खींचते  थे पर गन्ना समेटे न सिमटता था । 

अब जब औलाद  बस्ता खूंटी पर टांग छोड़े , तो माँ बाप का अगला कर्म उसकी शादी का ही होता है। बेटी वाले तो तेजा पे कबसे  गिद्ध सी निगाह  गढ़ाए बैठे थे।कोई टटोलता तो मास्टर कह देते " अजी दहेज़ मांगने का काम ओछे आदमी किया करै है । घर हमारे कोई कमी नहीं , माल दहेज़ की कोई इच्छा नाही ।  लड़की साफ़ सुथरी हो , लंबी पोई हो और घर परिवार की इज़्ज़त को पहचाने , बस ।"
पर मन ही मन जानते थे और वही क्या बाकि सब भी जानते थे कि तेजा की शादी में मोटरसाईकिल तो मिल के रहेगी।

एक दिन लखमीचंद आ जमे मास्टर साब के दालान पर । बड़े ही हठीले ठहरे लख्मी , बिरादरी में बात थी उनकी । ऐसा खूंटा गाड़ के बैठे दालान पर कि मास्टर साहब से हामी भरा के ही उठे ।
'"हम कहेंगे कुछ न लखमी , पर हमारी इज़्ज़त बाँधियो। तुम समझदार हो, भरोसा है तुम पर। " मास्टर साहब ने चलते वक़्त लख्मी चंद से इतना भर कहा था ।
"निश्चिन्त रहो मास्टर , दूर दूर तक आवाज़ होगी तेजा के बिहा की। धनाढ्य परिवार ढूढ़ा है , किसी बात की कसर न होगी।धन माल इतना होगा कि तुम्हारा मकान छोटा पड़ जायेगा । सवारी भी मिलेगी । "

उधर तेजा की अपनी उमंग थी । उसका सपना था कि बिहा के वक़्त वो मोटरसाईकिल सवार हो ना हो , गौने के वक़्त तक उसका हाथ इतना साफ़ हो जायेगा कि अपनी बिहाता को अकेले ही ससुराल से लाएगा ।  तेजा के दिन रात  मंगा हलवाई के लौंडे , उसके खासम ख़ास यार  की पुरानी यजदी पे बीत रहे थे । पढाई में भले ही कमतर रहा तेजा पर था बड़ा उस्ताद दिमाग । मंगा के लौंडे ने एक दो बार ही कलच और साध बताई थी , तेजा बहुत ही तेजी से नयी विधा सीख रहा था । उसके सपनो में 'राजदूत ' आती थी , काली बॉडी में , चमचमाते स्टील फ्यूल टैंक वाली !

लगन वाले दिन पूरे टोले में बड़ा उत्साह था । बड़ा इंतज़ार हुआ पर 'राजदूत ' ना आई ।
तेजा थोड़ा सकपकाया भी , पर लख्मी चंद स्तिथि भाँप गए " घबराओ न बेटा , धीरज धरो , मोटर साइकिल  विदाई के समय मिल जाएगी । "
"जितना देर मिले उतना सही लख्मी , ये लोहे का घोडा भूसा नहीं , पैसा खाके ही हिलता  डोलता  है " मास्टर साब ने बड़े पते की बात कह दी थी ।

खैर , बिहा का दिन भी आया । बारात नियत समय , नियत स्थान पहुंची । पुरजोर स्वागत हुआ । लड़की के बाप ने मास्टर साब के गले में दस दस के खरे नोटों की माला डाल , पलक बिछा स्वागत किया । तेजा के यार दोस्तों ने घुटनो के बल बैठ बैठ ऐसा जबर नागिन डांस किया कि छतों पे लटकी कुआरी लड़कियों के दिल उछल उछल रास्ते में गिरने को हुए । रसगुल्लों , लड्डुओं , पालक पकोड़ों को बारातियो ने ऐसे ऐठा  जैसे सात जन्मों के भूखे जिन्नों को किसी ने बोतल से निकाल बाहर किया हो ।

सब कुछ सही , पर  मोटरसाईकल  न दिखती थी । निगाहों से छुपा के रखा था ससुराल वालो ने लोहे का घोडा !
तेजा ने एक दो बार पूछा भी " पिता जी , लख्मी मौसा से पूछ भी लो , कही कुछ झोल न हो । "
मास्टर साब डाँट देते " तुम चुपचाप रस्मों पे ध्यानो, ज्यादा उतावलापन काहे ?"
खाना हो गया , फेरे हुए पर मोटर साइकल का पता नहीं । लड़की वाले विदा की रस्म से पहले पत्ते खोलने को तैयार न थे ।

" हाँ जी , दहेज़ की सूची इस प्रकार है , इक्कीस जोड़े लत्ता  , लड़के के लिए सफारी सूट, ग्यारह सोने की चीज़े , लड़के के लिए एक एच अम टी घडी , इक्यावन पीतल के बर्तन , एक दीवान पलंग , दो बक्से एक बड़ा एक छोटा , मर्फी ओरिजिनल ट्रांजिस्टर और..."
" और एक एटलस साईकल मय स्टैंड !" नयी उम्र का वो लड़का दहेज़ की सूची पढ़ हाथ जोड़ लड़की पक्ष के लोगो के झुरमुट में छिप गया ।

बस इस आखिरी आइटम का सुनना था कि मास्टर साब के सीने पे साँप लौट गया । पसीने की लहर माथा भिगो गयी । हलक सूख गया । पूरी बारात में मातम सा सन्नाटा । तेजा की हालत ऐसी कि प्राण अब छूटे कि तब छूटे । उसे लगा कि बस कुछ ऐसा हो कि जमीन फट जाए और वो उसमे समां जाए ।
लख्मी खुद अविश्वास की नज़र से लड़की के बाप को एक टकी  बांध देखे जा रहे थे ।
धोखा हो गया था धोखा !
किसी समझदार बूढ़े ने सन्नाटा तोड़ा " बहुत दिया जी , बहुत दिया । राम जी सबके काज बनाए । "

मास्टर साब की उम्र का अनुभव  तो सदमा दबा गया पर तेजा हुआ नयी उम्र लड़का । बौरा सा गया कतई । सेहरा उतार दर्री पे रख दिया और दोनों हाथ पीछे टिका दिए । उसके कंधे निराशा में नीचे ढलक गए ।
फिर इससे पहले कोई कुछ समझ पाता वो बिजली सा उठा और सीने भर ऊँची चार दीवारी को ऐसे फाँद गया जैसे कोई नया सुतीला, अरबी  घोडा ।
तेजा भाग गया था । हाँ जी , दूल्हा भाग गया था । वो आबादी से पीछे की ओर भागा था । उस ओर जिस ओर उपले बिटोड़ों के खदान थे ।

लड़की पक्ष के दो लड़को ने हाथ में राइफल थामे जगह के निकास पे मोर्चा ले लिया । दो चार बगल की छत पे चढ़ गए । ऐलान हो गया " खबरदार , जो कोई बाराती हिला भर भी । पहले लड़की विदा होगी , फिर बाकी बारातियों की निकासी होगी ।  होश रखोगे तो रिश्तेदारी , जोश दिखाओगे तो लाल खोपड़े लेकर जाओगे सब के सब । "

मास्टर साब ने समधी के हाथ थाम लिए " क्या करो हो हुकुम सिंह , फेरे हुए लड़की हमारी हुई । रिश्तेदारी लठ्ठों से , दुनलियों की बटों से निभाओगे क्या , समधि ? " आँखे छलक आई मास्टर साब की । मास्टर साब के सधे बोलों का सुनना था ,  दुनालियाँ  नीचे झुक गयी , लड़के छतों से नीचे उतर आये ।

फिर शुरू हुई तेजा की ढुंढवार । खेत खलियान , जोहड़ क्यारी , सब टटोले गए , पर तेजा ना मिले ।
बारात , घरात का बड़ा बच्चा सब खोजा , पर दूल्हा ना मिले ।

बालक की नब्ज माँ बाप से अच्छी कोई परख सकता है क्या ? मास्टर साब के कान कुछ टोह ले रहे थे ।
फिर बीच बिटोड़ों के खलियान मास्टर साब ने चेतावनी दी " तेजा बाहर आओ हो , या लगा दे तीली बिटोड़ों में "
मास्टर टोह लेते बिलकुल उसी बिटोड़े तक पहुंच गए थे जहाँ तेजा छुपा बैठा था ।
फिर उपलों के ढेर में जोर की ठोकर मार बोले " बोलो आते हो या लगा दे आग । "

"देर न करो मास्टर साब  , खींच दो तीली और कर दो सब स्वाहा अभी  । तेजा की कहानी इसी बिटोड़े में खत्म हो जाए तो भला ।  दुनिया को मुँह दिखाने से बेहतर मै  स्वाहा ही हो जाऊ ।  ' फिर हिडकी बाँध रो पड़ा तेजा । और ऐसा जोर रोया , ऐसा रोया कि लगा की चारो दिशा रो पड़ेंगी ।

"होश कर रे पूत , तेरा बाप अभी जिन्दा है , आजा मेरे शेर "  मास्टर का गला रूँद गया । हथेलियों से आँखे ढक ली । सात पुश्तो की कमाई इज़्ज़त , बिन अपराध लुटती जान पड़ी ।

किराए की अम्बेसडर में बैठ तेजा अपनी बिहाता  को ले चला आया । बाराती भी अपने अपने साधनों से चल निकले ।
मास्टर साब रुके रहे । एक गिलास पानी मंगाया और लख्मीचंद के सामने खड़े हो गए ।  
"किसी पुराने जनम का बैर रहा होगा हमारा तुम्हारा लख्मी , हम जीते जी अपमान भूल न पाएंगे , हम सीधेपन में रहे और तुम हमारी बगल में घुस हमारे ही पर क़तर गए ।
सुन लो , एक मर्द बच्चा हो तो हमारे खेड़े पाँव न रखियो कभी , सम्बन्ध खत्म हुआ हमारा तुम्हारा "
इतना कह मास्टर साब ने पानी मुँह में ले लख्मी के सामने पानी का कुल्ला किया और गांधी टोपी को साध किराए की जीप में चढ़ गए ।

मौसम आये गए हुए , वक़्त जख्म भर गया ,मास्टर साब का घर परिवार घणी विपदा से उभर फिर से वैभव का जीवन बसर करने लगा । दोनों घर परिवारो का आना जाना तो हो गया पर लख्मी चंद विलेन ही बने रहे ताउम्र। मास्टर साब उन्हें उनकी गैरजिम्मेदारी के लिए माफ़ न कर पाये।

तेजा का लड़का जुआन हो गया है अब । इकलौता है , इंटरमीडिएट कर चुका है और सौ बीघा जमीन है! सुनने में आता है कि तेजा के लड़के के बिहा में 'बोलेरो' मिल के रहेगी ।
बस उसके ऊँची खूँटी पे बस्ता टाँगने की देरी भर है !

                                                                                                 - सचिन कुमार गुर्जर

रविवार, 1 मई 2016

जब जाना ही पड़ा स्कूल

चार दिनों से मेह बरस रहा था । रस्सी के जैसी मोटी मोटी धार बरस रहे थे बादल ।  दादी कई बार राम जी को खरी खोटी सुना चुकी थी ।
गाँव की सबसे बूढी, विधवा  दादी अपने हाथों से गोबर का उलटे पैरों वाला भूत दीवार पे उकेर उकेर थक गयी थी । सब टोटके फेल , मेह ना थमता था ।
ऐसी घनघोर मेघा हुई थी उस बरस कि जमींदार बनियों की पक्की छतों को छोड़ सारे गाँव की कच्ची छतें टपाटप रोई थीं  ।
पिता जी कई बार आशावादी होकर बोलते थे " पूरब की ओर से बादल ऊँचा होता दीखता तो है , राम जी गाय भैंस के लिए घास फूस करने का मौका तो देगा ही । "

पर बारिश न थमी । पांचवे दिन मेह हल्का हुआ तो स्कूल के मास्टर तड़के तड़के मुहल्ले में धमक घोषणा कर गए " अजी ,राम जी न थमे अपनी बला से , आज स्कूल खुल के रहेगा । "
रास्ते कीचड से लबालब , खड़ंजे की ईंटे कई कई इंच मिट्टी गोबर के अंदर धँसी थीं   । बड़े भी इधर उधर पड़ी ईंट पत्थरों  पर पैर जमा निकल रहे थे ।

मेरी नियम की पक्की माँ ! मास्टर की घोषणा के तुंरन्त बाद उसने बिजली की फुर्ती से तैयार कर बस्ता लाद  दिया अपने कुलदीप की नाज़ुक पीठ पर  ।
और वो असहाय बालक महेश बनिए की परचून की दुकान की चौखट के  ठीक सामने धड़ाम से गिर गया । शिखा से नख तक पूरा कीचड ही कीचड !

रोते हुए घर पहुंचा , तो माँ ने कपडे बदल दोबारा भेज दिया । फिर से उसी स्थान,  महेश बनिए के घर के सामने  कीचड में फिर से धड़ाम हो गया अबोध । पूरा कीचड़ में लथपथ ।
इस बार रोता सुबकता वापस लौटा तो माँ को षड़यंत्र जान पड़ा " ढोंग न कर मुन्ना  , जान बूझ फिसला ना इस बार तू , जाना तो पड़ेगा तुझे लल्ला ।  "

कोमल हृदया दादी बीच में कूद पड़ी थी " एक दिन न जायेगा तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा , आज के ही दिन लाट साब बना देंगे क्या मास्टर। "
फिर दोनों में खूब नोक झोंक हुई थी । और माँ तीसरी बार खुद गोद में उठा स्कूल के दरवाज़े तक छोड़ कर आई थी । हलकी हलकी बुंदिया बरस रही थी तब तक भी ।

दादी बीच में न कूदती तो शायद माँ तीसरी बार स्कूल न भेजती । पर दादी पोते के प्यार में अपने आप को थाम  ना  पायी और माँ के अहम् के लिए अपना निर्णय थोपना जरूरी हो गया था ।

शाम होते होते राम जी के बादल तो छितरा के ऊँचे हो गए थे , पर माँ और दादी की नोकझोंक के घनघोर बादल कई दिनों तक टकराते रहे थे रुक रूककर !
                                                                                     --सचिन कुमार गुर्जर

ओए_देहाती _बुड़बक  , आह _बचपन

अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...