शनिवार, 24 मई 2025

तलाक़ की लड़ाई

जब नहीं चला गृहस्थ ,  तो वह हो गयी वापस | 

वैसे ही ,  जैसे ग्राहक लौटा दे ,कोई नापसन्द आया सामान | 

फिर उलझ गयी बड़ों  की मूछें , बिगड़ गयीं जुबान | 

दिखा देंगे , दिखा दो , माँ बहन के रिश्ते हुए तार तार | 

खड़े हो गए वकील , चले मुदकदमे चार , दहेज़ , अप्राकृत सम्बन्ध , फौजदारी व् व्याभिचार | 


वकीलो के चैम्बर में , जहाँ आदमी से आदमी पिसता हैं 

वह  जिसका गृहस्थ था जेरे नज़र ,  कोने में खड़ी होती थी | 

वहाँ जहाँ होता था एक रद्दी का टोकरा , दूसरा एक पीकदान | 

शतरंज की बिसातों की मूक गवाह वह , जीवन अपना खोती थी |   


मर्दो के उस हुजूम को चीरकर आती थी एक कमदिमाग भंगन|  

बदलने को रद्दी का टोकरा ,  उठाने को कानून के रखवालों की जूठन |

उसने ना जाने कितने मुक़दमे देखे थे , दाँव पेंच , टूटती कटती पतंगे | 

रोता था उसका दिल जब वह देखती थी सूखते स्त्री गात ,भाव शुन्य मुखड़े , हाथ नंगे |


और वह हर बार समझाती थी , देख बहन यहाँ से कोई जीत कर नहीं जाता | 

लीपो उस पर जो बिगड़ गया , छोड़ो उसे जो छूट जाना चाहता | 

बसाओ कोई नया नीड , लीपो नया आँगन , सजाओ कोई नया उसारा | 

मिट्टी डालो इन तारीखों पर,  मत बनो मगरमच्छों का चारा | 


और वह मुद्दई अबला , उसकी  आँख के कुएँ से चला आँसू ,गाल का सिरा छूने से पहले ही सूख जाता |  

क्योकि  'देख लेने' , 'दिखा देने' के द्वन्द में , साहस दिखाया जाता है , आंसू नहीं दिखाया जाता |  

                                                                Sachin Kumar Gurjar

                                                                 #desiWordsBySachin , #desiWords 

रविवार, 18 मई 2025

शक्ति का सफर जलन पैदा करता है |


ये लेख मैं तब लिख रहा हूँ जब भारत ऑपरेशन सिन्दूर से जुड़े अपने पक्ष को रखने के लिए अपने प्रतिनिधिमंडल दुनिया भर में भेज रहा है  | यह हर लिहाज से सही कदम है | पहलगाम हमले के बाद से अब तक के घटनाक्रम में सरकार व् एजेंसियों ने बड़े ही नपे तुले ढंग से काम लिया गया है | ऐसे में सवाल ये उठता है कि नैतिक पक्ष मजबूत होने व संयम के दायरे में रहने के बाबजूद हमें ग्लोबल आउटरीच की जरूरत क्यों आन पड़ी है ?  हाई स्पीड इंटरनेट और स्वतंत्र मीडिया के युग में जहाँ दुनिया जहान की जानकारी एक क्लिक भर करने पर उपलब्ध है , ऐसे में क्या वाकई पाकिस्तान की प्रोपेगंडा मशीनरी दुनिया में भारत के खिलाफ भ्रम फैलाने में कामयाब रही है ? एक आम नागरिक की नज़र से मैं दुनिया, खासकर पश्चिमी देशों ,की इस मामले पर प्रतिक्रिया को उदासीन ही पाता हूँ | 

इस लेख के जरिये मेरा तर्क ये है कि पश्चिम के उदासीन रवैये के बीज तत्कालीन ऑपरेशन सिंदूर से जुड़े घटनाक्रम में हैं ही नहीं | मेरा मानना  है कि राष्ट्र छोटे हो या बड़े , उनके व्यवहार में भी वे सब मनोवैज्ञानिक विसंगतियाँ मौजूद होती हैं जो कि किसी एक आम इंसान  के व्यवहार में होती हैं | जलन एक ऐसी कुदरती भावना है जो शत्रुपक्ष में ही नहीं विचरती बल्कि तटस्थ व मित्रपक्ष में भी कमोबेश इसके लक्षण आ ही जाते हैं | 

हम अपने पौराणिक ग्रंथो में ही झांककर देखें तो पाएंगे कि जब जब  मृत्युलोग से उठा कोई  सद्पुरुष अपने तप व कर्म  से देवतुल्य हो चला , स्वर्गलोक में देवताओं के सिंहासन ईर्ष्या से डोलने लगे | राजा हरिश्चंद्र सदा से ही सत्यनिष्ठ रहे , दानवीर रहे | फिर राजा हरिश्चंद्र को  पराकाष्ठा की हद तक परेशान करने की क्या वजह रही होगी | राजपाठ छुड़ाया गया | पत्नी व् पुत्र को बेचना पड़ा | शमशान में काम करना पड़ा | स्वयं के पुत्र को मृत देखना पड़ा | वजह, हरिश्चद्र का मृत्युलोक में रहते देवतुल्य हो जाना ही था |

लेकिन भारत से जलन क्यों  ? शायद इसलिए कि आतंकवाद के अनवरत दुष्चक्र के बाबजूद भारत का रवैया जुबानी धमकी से आगे कभी नहीं गया | हमने सदा दुनिया के लम्बरदारों के आगे अपना दुखड़ा रोया , मदद मांगी | भीरु व्यवहार, घर की दहलीज न लाँघने की नीति पर हम सदा कायम रहे | अब अचानक से करवट लेकर दुश्मन के घर में घुसकर मिसाइल मारने की कूबत का जो ये खुलेआम प्रदर्शन हुआ है , यह बहुतों को नागावार गुजरा है |  ये एक तरह से परंपरागत वर्ल्ड आर्डर को चैलेंज करने जैसा है |     

मैंने दशक भर से ज्यादा दक्षिण पूर्व एशिया में बिताया है | कॉरपोरेट जॉब ने मुझे अलग अलग जियोग्राफी के लोगों के साथ काम करने का मौका दिया है | चीन के साथ हमारा युद्ध का अनुभव है , सीमा विवाद है, सो चीन को संदेही नज़र से देखने व् उसकी चालों से व्यथित होने की हमारे पास वजह हैं  | लेकिन मैंने अपने निजी अनुभव में पोलैंड के आईटी प्रोफेशनल्स, जर्मनी के इतिहास के रिसर्च स्कॉलर्स को चीन के बढ़ते रसूख को लेकर खुद से भी ज्यादा चिंतित पाया है  | और यह चिंता व्यक्तिगत नहीं है |  यह  राष्ट्रों की सीमा लांघते  हुए पूरे पश्चिम में पसरी है | उभरता हुआ पूरब पश्चिम की चिंता है | पश्चिम के लिए चीन अपने आप में एक बहुत बड़ा टास्क है|  ऐसे में अगर भारत भी खुद को नयी वैश्विक शक्ति के रूप  में स्थापित करता है तो उनकी चिंता दोगुनी हो सकती है |  

पश्चिम को कमजोर और गरीब राष्ट्रों को अपनी दया से उपकृत करने की आदत रही है | यही उनके बाकि दुनिया से बेहतर होने के भाव को जीवित रखता है | इसी दृष्टिकोण के चलते उन्हें 'स्लमडॉग मिलेनियर' फिल्म भाती है | भारत आकर झुग्गी झोपडी पर्यटन भी इसी भाव की अभिव्यक्ति है |  आप इस पहलु पर भी विचार करें कि आर्थिक, सामाजिक व्  सैन्य मापदंडो पर भारत और पाकिस्तान को समतुल्य मानना कहाँ तक तर्कसंगत है ? हर मापदंड के हिसाब से  भारत पाकिस्तान से मीलों आगे निकल चुका  है | बाबजूद इसके  , पश्चिम मीडिया व्  लीडरशिप,  हमें  'इंडो -पाक'  हायफ़न के लेंस से ही देखना चाहते हैं  | बदलते परिवेश, उभरते नए शक्ति केंद्रों पर उनकी नज़र है | भारत के मामले में उनकी असहजता अस्वीकृति के रूप में सामने आ रही है | और शायद इसी भावना के चलते पश्चिम के मीडिया ने पाकिस्तान प्रोपेगंडा मशीनरी से उत्पादित कपोल को प्राथमिकता व् तत्परता से  छापा है, दिखाया है | सनद रहे कमजोरी से शक्ति की तरफ बढ़ने का सफर अकेले ही तय करना होता है | स्थापित होने के बाद साथी आएंगे लेकिन इस दरमियान का सफर परीक्षा लेता रहेगा | सवाल खड़े किये जायेंगे , शंकाएं पैदा की जाएंगी राष्ट्र को चाहिए कि इस परीक्षा में अडिग रहे  - सत्य , संयम और संकल्प के साथ आगे बढ़ता रहे  | 

                                                                                         सचिन कुमार गुर्जर 



      


शुक्रवार, 16 मई 2025

नोमैड जंगल कैफे

सोचो , इन काँच की ऊँची इमारतों से दूर,
डेडलाइन , टारगेटस  , फॉलोअपस  की बिसातों से दूर ,
कहीं नहर के किनारे , पीपल की एक छतरी है | 
छितरायी है बेशुमार किताबें , कुछ अखबार हैं , मेरी चाय की एक टपरी है | 

शीशे के कुछ मर्तबान हैं | 
पापे , मटठी , खस्ता बिस्कुट, कोयले की भट्टी पे चढ़े चायदान हैं | 
डामर की एकहरी ,वीरान सड़क, सड़क किनारे यूकेलिप्टीसों की क़तारें | 
एक्का दुक्का पैदल , कुछ जंगल के चौपाये  , ना बाइक ,ना मोटर कारें |
  
तुम्हारे बच्चे अब कामयाब हैं |  अमरीका, यूरोप में बसते उनके ख्वाब हैं |   
बदरंग अपार्टमेंट्स , अपार्टमेंट्स में बने मुर्गी के दड़बे , दड़बो के सीखचे तुम्हे अब भींचते हैं | 
शहर के उस पार जहाँ  सड़कें छोटी हो जाती है , जिंदिगियाँ बड़ी ,वो बचपन के दिन तुम्हे अब खींचते हैं  | 

और तुम आये हो | 
शहर से कुछ डार्क चॉकलेट के टुकड़े , रात की बची कुछ बासी खीर लाये हो | 
हम बस बैठे हैं | चाय आधी पीकर छोड़ दी है | 
 ना गिले, ना  शिकवे , न तारीफें , ना कोई जूनून | 
बस पीपल के हिलते पत्तों की पीपनी , मौन का सुकून | 
अमराही के पीछे डूबता सूरज, नहर के पानी की तरंगो में सिंदूरी रंग |  
और वहाँ बस हम हैं, हम और हमारा बचपन |  

                                       सचिन कुमार गुर्जर 
 

बुधवार, 14 मई 2025

सेक्सी पति

अगर आपको सच्चा प्रेम देखना है तो उस बीवी की आँखो मे देखो जिसका पति उसे पहली बार विदेश लेकर आया है l मै कितने देसी जोड़ो को देखता हूँ l पर्यटक ट्रेन की खिड़की से सिंगापुर की चका चौध देख़ रहे है l पर बीवी है कि अपने पति को ऐसे निहारे जा रही है जैसे पीतम पहली बार मिले हो l बीवी को रिश्तेदारों की चिक चिक, समाज की बंदिशों से निकाल विदेश ले जाने वाला पति दुनिया का सबसे सेक्सी पति होता है l

Next Year, back

 City Hall MRT Station, Singapore.

It’s evening rush hour. There’s no pushing and shoving like in Delhi, but the train is still full. Amid the high-decibel mix of English, Cantonese, Hokkien, Tamil, and Malay, two men seated opposite are speaking in Hindi. From their tone and manner, they seem to be from somewhere around Delhi. Both appear to be working in corporate jobs.


The older one looks to be in his forties; the younger, perhaps thirty-five—or younger, though his slightly overweight frame makes him seem older. The younger man says to the older one:


“I don’t know why everyone at the office is so surprised whenever I talk about going back to India to be with my parents.”


The older man listens with a quiet attentiveness, almost like a therapist.

“Yes, that happens,” he says simply.


I have a book of short stories borrowed from the library open in my hands, but their conversation keeps drawing my attention.


The younger man continues, “You know Jatin from the Infra team?”


“Yes.”


“He’s got a younger brother who works in Pune. Their mother lives alone in Indore. Poor woman keeps shifting between the village and her house in Indore—all alone.”


He sounds frustrated.

“Man, we do everything for our kids. Every struggle, every sacrifice. Didn’t our parents do the same for us? Didn’t they give whatever they could, in their own time, in their own way? Am I wrong?”


“Not at all. They absolutely did,” the older man agrees.


“Then don’t we owe them something? I can’t leave them alone. Money isn’t everything.”


“And Aarti? Does she want to go back?” the older man asks his first real question.


“She’ll never say yes. I’ll have to take that step myself.”


Before my station arrives, both men get off the train. Amid the noise and movement, I hear the younger man declaring,

“Let me see how this year goes. Next year, I’m going back.”


A nearby seat is now empty. I shift slightly, look out of the window, and smile.

As the train speeds ahead, the public housing blocks of Singapore blur past in the background. All of them have different colored stripes. Some have murals painted on them. And yet, they all feel so similar—their design, their material, their past, and their future—all cut from the same mold.


Just like that, our Indian stories are also strikingly similar—our struggles, our dreams, our duties.


Had that man been someone I knew, I would’ve patted his shoulder after his declaration and said,

“You won’t be able to go back, brother. Not next year. Maybe not even in the next ten years.”


Because the very scale that weighs your duty and pulls you toward India has another side to it: your wife’s wishes, your children’s future, better income, a better environment.

More often than not, that side of the scale outweighs the other.

The man working abroad rarely returns home while still young.


रविवार, 11 मई 2025

First casualty of War

मैंने पिछले २४ घंटे से कोई न्यूज़ चैनल , वेबसाइट  व् टविटर नहीं खोला है |अपच सी हो गयी है |  सुना था कि जंग में पहली कैसुअलटी सच की होती है | लेकिन हे भगवान् , किस कदर और किस दर्जे के झूठ | और दोनों तरफ से | लेकिन ये एक अवसर भी है | मीडिया हाउसेस व् आजकल के सोशल मीडिया के ट्रस्ट डेफिसिट को कोई तीसरा प्लेटफार्म अगर  भर दे तो वो छा जायेगा | 

तलाक़ की लड़ाई

जब नहीं चला गृहस्थ ,  तो वह हो गयी वापस |  वैसे ही ,  जैसे ग्राहक लौटा दे ,कोई नापसन्द आया सामान |  फिर उलझ गयी बड़ों  की मूछें , बिगड़ गयीं ज...