शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

क्रांति बनाम मी टू


पौ फटी ही थी कि कंसा  कुम्हार के लड़को ने लड़ाई का बिगुल बजा दिया |
"अबे ओये  कोडिया , जो एक लगा दिया तेरे थूथ पे , तो धूल चाटता नज़र आएगा अभी "  बड़ा लड़का बोला | लम्बा , सींक सा पतला, सामने के दो दांत बाहर की ओर ,  हवा का झोखा भी आये तो उसे झंकझोर जाए !
अपनी हर धमकी के साथ वो अपना दायाँ हाथ सीने पे मारता | दूसरा हाथ उसने अपने ढीले तहमद में, अपने पिछवाड़े में डाला होता |

"अच्छा , हाथ लगा तो जरा, न अभी तेरा भूत उतार दूँ | " मंझला कम बोलता था पर कब तक | कद का छोटा था पर बदन गंठा हुआ था | जवानी में था , उसके हाथ बड़े बड़े थे , किसी हथियार जैसे | सच में दोनों भिड़ते तो मंझला भारी पड़ता |

दोनों अपने सांझे घर के चबूतरे पर बमुश्किल चार कदम पे खड़े थे , न पीछे हटते न आगे बढ़ते |
गाँव का बच्चा हो , बूढा हो या जवान , हर कोई सामने के रास्ते से ऐसे निकल जाता जैसे सब बहरे हों | एक चिड़िया का बच्चा भी उनकी लड़ाई का गवाह नहीं बनना चाहता था |

आप स्थिति की विडंबना (आएरनी ऑफ सिचुएशन ) को इस बात से समझिये कि  ये सब उस गांव में हो रहा था जहाँ आज भी अगर किसी की भैंस बच्चा दे रही हो तो दस पाँच ठलुए ऐसे ही बिन बुलाये इकट्ठे हो जाया करते है और जब भैंस प्रसव कर चुकी होती है तो बच्चे की जांच पड़ताल कर कहते है " मुबारक हो लड़का हुआ है , कुछ मिठाई मंगा लो !"
उस गाँव में जहाँ  हर तरह से नाउम्मीद फिर भी मस्त जवान , अधेड़ लोगो का झुण्ड सड़क के किनारे वाले पाखड़ के  नीचे दिन भर ताश के पत्ते खेलता रहता है और दूर बस अड्डे से उतरने वाली हर सवारी का आंकलन हुआ करता है  कि कौन है और किसके घर जायेगा !
उस गाँव में कंसा  के लड़कों की इतनी गंभीर लड़ाई जो कभी भी सिर फुटब्बल की हद तक जा सकती थी ,  उसका गवाह बनने को कोई तैयार न था !


दूधिये ने रास्ते के किनारे अपने बर्तन जमा दिए थे , और एक एक कर मर्द , बजरवानी  गलियों से आकर दूध बेच रहे थे | वो अपना दूध का वजन करा के बड़े बर्तन में डालते और फिर चिड़ा सा मुँह बना कर दूधिया से कहते " हफ्ता हो लिया अब , पैसो का हिसाब कर दो अब तो  "|  यू पी के इस इलाके में किसान , खेतहर लोगो को  दूध बेचकर थोड़ा बहुत ताजा आमद हो जाया करती है , नमक मिर्च का जुगाड़ होता रहता है |
दूधिये के बर्तनो से सटे लकड़ी के बड़े तख्त पे टिकते हुए छंगा कराहता हुआ सा बोला " इन सालो का तो रोज का ड्रामा है ये , सुसरे चुपेंगे भी न और भिड़ेंगे भी ना | कौन करें इनका बीच बचाव "
"नट कंजरो सा स्वांग है ससुरों का , लो बीड़ी पीं लो !" तखत पे पहले से जमे कलुआ ने बात बढ़ाई |
छंगा ने थोड़ी न नुकुर की " अरे अभी पी मैंने बीड़ी "
" लो सुलगा ली मैंने अब " कलुआ ने बीड़ी आगे बढ़ा के छंगा के हाथ में थमा दी |

'क्रांति ' जात से गडरनी है , जमीन अच्छी है , कई गायें भैंसे पाल रखी है |  दूध की बाल्टी को वो हमेशा मोटे सूती गमछे से ढक कर लाती है |
ढककर क्यों? धूल , मच्छर ,मख्खियों से दूध बचाने को?? शायद नहीं |
शायद इसलिए कि उसके घर से दूधिये के अड्डे तक आने का रास्ता दुनिया की  सबसे ज्यादा जलकडवी, ईर्ष्यालु  लुगाई   'चंपा'  का  और  'कल्लो ' का घर पड़ा करता है  !
क्रांति की मानें तो  ये दोनों ही बड़ी ख़राब नज़र की बजरबानियाँ  हैं , दूध की भरी बाल्टी देख लेंगी  तो जल उठेंगी |
और ख़राब , बदनीयत  'नज़र ' वो होती है जो पथ्थर को भी फोड़ देती है | " समझे?
सो एहतियातन 'क्रांति ' द्वारा दूध की बड़ी बाल्टी को अच्छे से ढाँप के लाने का लॉजिक बनता है  |

क्रान्ति जब अपनी दूध की भरी बाल्टी का वजन करा दूधिए के बड़े बर्तन में डाल  रही थी , उसी वक़्त कंसा के बड़े लड़के की बहु की जोर जोर से रोने की आवाज़ आ रही थी |
ये रोज का था , जिस दिन भाइयो की लड़ाई में बड़ा कमतर पड़ता तो बड़े की औरत को खीज उतारने को मार खानी पड़ती | जिस दिन छोटा हार जाता उस दिन उसकी बीवी का नंबर होता !

क्रांति कुछ बोली नहीं पर  पास के घर से उठते रुदन से  उसके कोमल नारी हृदय में ठसक  जरूर हुई  |
चार फ़ीट दस इंच की लम्बाई लिए , सांबली , अधेड़ , गठा शरीर लिए क्रांति गाँव की सबसे कमेरी औरत है | बड़ी हंसोड़ भी , रास्ता चलते आदमी को छेड़ देती है |
पर उसका दिल,  एक दम मोती सा साफ़ |

उसे मैंने खुद कई बार कहते हुए सुना ," जिस दिन मेरा बिहा हुआ , मेरे बाबा बोले , देख क्रांति , राजी ख़ुशी कू आइये , दरवाजे खुले है , पर जो मैंने जरा भी ऊंच नीच व्यवहार की बात सुन ली , तो सुन लीजे , ठोर मार दूंगा "
और अपने बाबा की वो बात क्रांति ने  गांठ से बांध ली |
अब क्या है , अब तो उसका यौवन ढलान का रास्ता पकड़ चला , बड़े लड़के का बिहा भी कर लिया |  वो भरी जवानी में भी थी तब भी  कोई भी ऊंच नीच का उसका चर्चा न हुआ | एक खूंटे से बंधके रही !
हाँ, वो हंसोड़ हमेशा से रही |

हाँ तो , दूध नपा के क्रांति अपने घर को चली |
अचानक उसे पता नहीं क्या सूझा , उसने अपनी बाल्टी जमीन पे रखी और तखत पे जमा सात आठ ठलुओ की ओर  मुखातिब होकर बोली " एक बात बताओ , जु क्या बात है "

"कौन सी बात " ठलुओ में से किसी ने कहा |

" जुई , के जब दिन के वक़्त मरद लोग औरत के सिर पे सवार रहा करें है , फिर रात कू किस लाये औरत के घुटनो में बैठा करें है ? हुह? "

फिर वो अपना एक हाथ अपने कूल्हे पे रख के बड़े इत्मीनान से खड़ी हो गयी , जैसे जब तक उसे जबाब नहीं मिल जाता वो रास्ता रोक के रखने वाली हो !

कुछ ने समझा , कुछ ने नहीं समझा | पर जब बात क्रांति ने कही है तो कुछ मजेदार , मसालेदार ही होगी ,
बस इसी भाव से सारे ठलुए एक साथ ठहाका लगा के हंस पड़े |

थोड़ी देर बाद मोटी  तोंद लिए  कलुआ को अहसास हुआ कि चार फुट दस इंच की वो औरत मज़ाक नहीं पूरी मरद जात पे कटाक्ष कर रही थी |
उसका पौरुष जागा , वो जोर से खाँसा और अपनी कसैली ऊँची आवाज़ में शेर सा दहाड़ा " अरे ओ लुगाई , हम न बैठते औरत के घुटनो में , हम वो है जो औरत को अपने घुटनो में बिठाते है "
दो चार ठलुए पीछे से बोले "हुह हुह , हम्म हुम्म्म "

कलुआ के शरीर में जैसे कोई  फौलाद सा आ गया , उसने अपने हाथ चौड़े कर दिए और लगभग ललकारते हुए बोला " तू कहे , तो दिखा दे , बोल "
ऐसा बोल के वो बड़ी घिनौनी सी हंसी हँसा , इतनी जोर की कि बीड़ी के धुए से, और मंजन न करने से  पीले  दांतो के ऊपर के मसूड़े काफी देर तक नुमाया होते रहे |


" ओ हो , ओ हो , क्या कहने तुम्हारे , तम हो अनोखे सजन " , क्रांति चार कदम आगे ऐसे बढ़ आयी जैसे कलुआ को तमाचा जड़ देगी , पर उसने व्यंग को खोया नहीं | हंसती रही |

" तम मत ही बोलो , तुम्हारी लुगाई जब तक ज़माने भर की गालियाँ तुम्हे न दे दे , शाम की रोटी तुम्हे नसीब न होती  |"
"तुम दुनिया के सबसे न्यारे सजन , मक्कार कही के, कामचोर कही के  " वो आगे बढ़ती रही और साथ में मुस्कुराती भी रही |

ये मर्दो की जात भी न , माफ़ करना पर कुत्तो जैसी ही है !
क्रांति ने जैसे सी कलुआ को  ढंग से होंकना शुरू किया , अधिकतर उसके खेमे आ गए और 'कलुआ मर्द' की पतलून उतारने लगे |
हल्ले गुल्ले , हाहा हुल्ले  को बीच में छोड़ क्रांति अपने घर की ओर निकल चली |

उसके घर पहुंच कर अपनी बहु की दोपहर के खाने में क्या बनना है , ये सब समझाया और खुद हाथ में हंसिया ले जंगल की राह पकड़ ली |
नाटे से कद  की कर्मयोगिनी क्रांति, निडर , निपट अकेले  गन्ने के घने खेतो को चीरती , यूकेलिप्टीसो के झुरमुटों के भी पार, दूर अपने खेतो की ओर बढ़ चली |   खेत की सिचाई , पशुओ के चारे की कटाई , ईंधन की लकड़ी की छंटाई , दिन छोटा है , क्रांति के काम की फेहरिस्त लम्बी है | उसके पैरो में चपलता है , पोर पोर में ऊर्जा है और सब कुछ सही से , अपने बूते ही निपटा लेने  का विश्वास है |

इसी दौरान , ए सी की ठंडी हवा में आराम से सोफे पे पसरे , और  जीवन का सब ऐशो आराम भोगती किसी मोहतरमा ने सोशल मीडिया में लिख दिया " मुझे नौकरी की जरूरत थी , मैं चुप रही , मी टू , मी टू "
हल्ला हो गया , 'मी टू' सपोर्टर्स मैदान में उतर आये |  'गटसि' ,   'ब्रेवो ' , 'शेम शेम' 'आल मेन आर डॉग्स' , 'एक्सपोज़ एक्सपोज़' , 'वुमन एम्पावरमेंट' ऐसे नारे लगने लगे !

एक बड़े ऑनलाइन अखबार के यूजर कमेंट सेक्शन में किसी बेहूदे आदमी ने , संवेदनहीन  गंवार आदमी ने लिख दिया  "तेरे पास जो था , वो तूने दे दिया  ,  उसके पास जो था ,उसने तुझे दे दिया , हिसाब  बरोबर ,अब चिल्लाती काहे को ?"

हम्म , मुझे लगता है कि ऑनलाइन अखबारों की यूजर कमेंट्स का प्रॉपर मॉडरेशन होना चाहिए | शेमफुल !


                                                                                                          सचिन कुमार गुर्जर
                                                                                                           3  नवंबर 2018 

















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