शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

बावरा मन





उस दिन अचानक तुम यूँ ही दिख पड़ी थी गुडगाँव के उस मॉल की सीढ़िया उतरते  हुए । एक क्षण को तो पहचान ही न पाया ।पहचानता भी कैसे , तुम इतना  जो बदल गयी हो  ।बोलने के लिए दो शब्द भी न जुटा पाया । सही किया तुम शायद पहचान भी न पाती । बोल तो तब भी न पाया था जब बोलना  चाहिए था । अब तो गृहस्थी के घेरे बंध गए है इधर भी ,उधर भी ।

सच में ,शर्मीला होना भी एक त्रासदी है । भावनाओं का , उलझे विचारों का , इच्छाओं का एक भॅवर सा उमड़ता है पर संकोच का कवच भेद दो शब्द बाहर नहीं आ पाते । पल्ले आती है तो सिर्फ झुंझलाहट । बारिश  में भीगी पत्तियों के ढेर में लगी आग की  सुलगन की तरह , ना भड़कती है , ना मरती है ।

पर ये जो समय है न , बड़ा ही बलबान है । सब कुछ बदल छोड़ता है ,यादें भी ।आज जिसे तुम अपनी जिंदगी की त्रासदी समझ निढाल हुए जाते हो , कल हो सकता है महज एक संस्मरण बन कर रह  जाये । महज एक याद , भावना का लेस भी शायद जाता रहे ।

तुम एक ऐसी स्मृति ही हों , भावना के अंकुर  तो कब के  सूख गए ।
फिर भी ,न जाने क्यों देर तक पीछे मुड़कर  देखता रहा तुम्हे , जब तक तुम मॉल के मुख्य द्वार से  ओझल न हो गयी । तुम्हारी बेटी बिलकुल तुम ही पे  गयी है । वही नाक नक्श ,दिये  सी चमचमाती आँखे , वही सूरज को शर्माता उजला रंग । कही से भी नहीं उतरी । शायद जिद्दी भी होगी ,तुम्हारी ही तरह।  निष्ठुर !



तुम कितना बदल गयी हो , पिछले कुछ ही सालों में । मोटी हो गयी हो , समय की  लकीरें माथे पे साफ़ दिखती है ,हिना में रंगे कुछ बाल भी सफेदी की दुहाई देते दीख पड़ते है । अब भी सुन्दर हो कोई दोराय नहीं , पर वो रूप कहाँ जिसे मैंने अपने मानस की गहराइयो में दबा संजो के रखा है ।
कॉलेज में तो साँसे थम जाया करती थी नजरो के साथ साथ  । किसी सिद्ध योगी के ध्यान सा अनुभव देता था तुम्हारा साक्षात्कार । मन बाँध लिया था तुमने ,सम्मोहन का अटूट तिलिस्म था जो कभी न टूटता था ।

पहले तुम हँसती थी तो आँखे नाच उठती थी ,फूल से झड़ते थे ।तुम्हारी परछाई को भी छू मन झूम उठता था । तुम आज  भी हँसी थी पर वो उल्हास न था ,महज खानापूर्ति थी  ।पहले  तुम कितना सजती थी , बालो की लटे बार बार झटकती थी । बाल आज  भी ठीक ठाक से बंधे थे  पर उपेक्षा की दुहाई देते थे  , शायद अब तुम्हारा सारा ध्यान तुम्हारी बिटिया पे रहता होगा ।तुम अब आँटी हो चली हो , किसी खाते पीते घर की आँटी, दूसरी आँटियों की ही तरह , साधारण !
 क्रूर है, पर तुम्हारे आंटी होने में मन को बड़ा सुकून है। तार्किक  मन, भावुक मन को समझा रहा है कि कॉलेज का प्यार महज एक कैमिकल लोचा था जो अक्सर उस उम्र में  हुआ करता है। परी तो दिमाग में ही बसती  थी , तुम हमेशा से ही साधारण थी । 

समय की लकीरें इधर भी खिची हैं।  और भी ज्यादा गहरी, और भी ज्यादा उलझी हुई ।मॉल से लौटते हुए एक दुकान के शीशे में झांकता हुँ , कनपटी के सफ़ेद बाल अब प्रबल होते जा रहे है ।
बूढ़ा हम भी रहे हैं ,पर शायद हमारे अंकल होने में किसी को सुकून न आये । हम कभी किसी के सपनों के राजकुमार  जो न थे ।










 

3 टिप्‍पणियां:

  1. ईर्ष्या ने प्रेम को बिसरा दिया या ईर्ष्या ही बिसराने का भ्रम बनाये रखती है , अंतर्मन की थाह इतनी सरल नहीं .
    अच्छा लिखा है लेकिन !

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