शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

अच्छा और हम्म


" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था | 

"अच्छा " पुरुष ने इतना भर कहा बस |  और ये 'अच्छा ' पत्थर लगाए जाने की क्रिया का स्वागत भाव न था | बनिस्बत इसके ये  इस बात की तसदीक था कि वह बेचारा अनभिज्ञ था | 

"मैं  पूछती हूँ कि भला क्या जरूरत है इस बर्बादी की | माँ बाबा के बाद वहाँ कौन रहेगा | " स्त्री का स्वर तीव्र से मध्यम की ओर चला गया था | उसके रोष में अब दर्द था | बिलाबजह , फिजूल की बर्बादी का दर्द | 

"हम्म " कुरेशिये की बुनाई के मेजपोश पर चाय का कप वापस रखते हुए पुरुष ने हामी भरी | 

"तुम्हे क्या लगता है , माँ बाबा के पास पैसा नहीं है | लाख दो लाख से कम लगेंगे क्या | देखते रहियो , सब का सब छोटे को जायेगा ! " 

"हम्म्म्म " पुरुष का जबाब पहले जैसा ही था , बस पहले से थोड़ा लम्बा | 

आप सोचेंगे , कि शायद पुरुष का कलेजा चूजे का है | स्त्री के तर्क की काट हो सकती थी | 

माँ बाप बूढ़े है तो क्या हुआ | जब अगड़ पड़ोस के सब घरों के आँगन में पत्थर लग गया है वे  भला कच्चे आँगन में क्यों रहे | फिर वे ये सब अपनी फसल की कमाई से ही तो कर रहे , हमे क्या हर्ज़ ? 

सब उनका ही तो है | और फिर उनके बाद गांव के मकान का मालिकाना हक़ में हम भी तो हिस्सेदार होंगे | 


लेकिन वजुआत दूसरी भी हो सकती हैं | हो सकता है इस तर्क वितर्क के खेल को पुरुष ने कई मर्तबा खेला हो और अब मन उकता गया हो | ये एक ऐसा खेल है जिसमे जीत हो ही नहीं सकती  | चीन के प्रसिद्ध मिलिट्री स्ट्रैटिजिस्ट 'सुन ज़ू' ने अपनी किताब 'आर्ट ऑफ़ वॉर ' में लिखा है , जिस युद्ध को आप जीत नहीं सकते , उसमे उतरिये ही मत |  

पुरुष के हाथ में 'हम्म ' और 'अच्छा ' ऐसी दो ढाल है जिससे वह युद्ध से बिना लड़े समूचा बच निकलता है | 


आप कितने गाँव खेड़ो से गुजरते हैं | जहाँ अब पक्के रंग रोगन किये हुए , ऊँचे चबूतरों के मकान पाते हैं | चबूतरे जिन पर संगमरमर के  पत्थर बिछे होते है  | दो चार कुर्सियां रखी होती हैं, कुछ गमले लगे होते हैं  | ये ऊँचे सजीले  चबूतरे इस बात का उद्धघोष होते हैं  कि परिवार अच्छा कर रहा है | 

इन ऊँचे चबूतरों के शहरी मॉडल पर बने मकानों के बीच में आप कोई जर्जर पुरानी हवेली पा जाएं , जिस पर सालों से पुताई न हुई हो , जिस के कंगूरों पर पीपल उग आये हों , जिसका आँगन कच्चा हो , तो आंगन में बैठे बूढ़े बूढी की  गरीबी पर तरस जाँच पड़ताल के बाद ही खाइयेगा | 

बहुत मुमकिन है उस घर का बेटा गाँव का सबसे होनहार लड़का हो | सबसे धनाढ्य भी | लड़का जो दुबई में प्रोजेक्ट मैनेजर हो और जिसके मुंबई और पुणे में दो दो फ्लैट हों |  लड़का जिसने इंजिनीयरिंग , मैनेजमेंट के गूंठ  तो सीखे हों पर 'हम्म' और 'अच्छा ' कह बच निकलने की कला से अनभिज्ञ हो | 


                                                                                         सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                                         सिंगापुर द्वीप 

                                                                                          २० अक्टूबर २०२४ 

 

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

सैडिस्टिक सुख


लिंडा से मेरी मित्रता बहुत लम्बी नहीं रही |वो यूँ कि हमारे परिचय के बाद बमुश्किल दो महीने भर ही तो वह सिंगापुर में रही |  चुनांचे कसीदे पढ़ने के लिए बहुत कुछ नहीं है | लेकिन कई बार थोड़े समय की मित्रता भी कुछ ऐसे लम्हे दे जाती है कि संस्मरण मात्र से आदमी मुस्कुरा उठता है | 

लिंडा वियतनामी मूल की लड़की थी | बिहेवियरल साइंस में विदेश से मास्टर डिग्री कर बेहतर करियर की आस उसे सापा की पहाड़ियों से सिंगापुर तक खींच लायी थी | साउथ पूर्व एशिया के मानक के हिसाब से लम्बे कद की लड़की थी लिंडा | चेहरा मोहरा औसत था | दुबली , सपाट वक्ष स्थल , दाग रहित पीत वर्ण | गर्दन बालिश भर लम्बी थी , जिसमें हमेशा एक महीन तार का सिल्वर पेन्डेन्ट लटका रहता था |  कार्गो पैंट , लूस टीशर्ट , ट्रैकिंग शूज, विंटेज स्टाइल गोल्डन घड़ी  ,अमूमन यही परिधान होता था उसका |  

उसे फिक्शन पढ़ने का शौक न होता तो शायद हमारी मुलाक़ात ही न हुई होती | सिंगापुर सिटी की  बुगिस सेंट्रल लाइब्रेरी के रीडिंग लॉउन्ज में जब मैंने उसे पहली बार देखा तो  उसके हाथ हरुकी मुराकामी की 'नॉर्वेजियन वुड' थी | मुराकामी के बारे में मैंने काफी सुना था लेकिन इस जापानी लेखक का कुछ भी पढ़ा नहीं था |  मैंने उससे पूछा कि क्या इस लेखक की कोई और रचना भी लाइब्रेरी में मौजूद है?

मैं लाइब्रेरी के फिक्शन सेक्शन का चक्कर लगाकर वापस आकर बैठा तो हमारी बातचीत चल निकली | फिर हम घंटा भर रूस   ,फ्रांस  से लेकर जापान तक के फिक्शन , नॉन-फिक्शन पर गपियाते रहे | लाइब्रेरी गप्पें हांकने के लिए माकूल जगह नहीं होती  सो उसके बाद हम जब भी मिले , पास के स्टारबक्स कॉफ़ी हाउस में बैठने लगे | कुछ लोग होते हैं ना, जो तुम्हारी हर छोटी बड़ी बात में ऐसे दिलचस्पी लेते है कि यूँ लगने लगता है कि तुम कुछ तो हो | बस कुछ ऐसे ही एहसास से तरबतर कर दिया था लिंडा ने मुझे | 

हम परत दर परत गहरी दोस्ती में उतरते जा ही रहे थे , कि तभी उसके वापस वियतनाम लौट जाने का समय आ गया | 


मुझे याद है , उस रविवार लिंडा ने भारतीय परिधान पहना था | पीले कलर का लखनवी करी वर्क का सूट ,सफ़ेद रंग की पेंट , लाइट ग्रे हाई हील शूज | हफ्ते भर में वापस लौट रही थी, सो भारतीय परिधान में सजकर, अलविदा को थोड़ा खुशनुमा बनाने का विचार उसके जेहन में रहा होगा |  

और क्या ही लग रही थी | भारतीय परिधान इन मंगोल कुल की लड़कियों पर क्या खूब फबते हैं | सुतवा शरीर और गोरा रंग इन्हें  विरासत में मिला होता है | ग़ज़ब का कॉकटेल बन पड़ता है !

 मेट्रो ट्रेन स्टेशन के एस्केलेटर वह अचानक पीछे मुड़ी , ऊँगली से अपनी ड्रेस की ओर इशारा किया और बस इतना बोली "सो हाओ ?"  जबाब में मैंने दायाँ हाथ अपने सीने पर हाथ रख दिया और देर तक आँखें झपकाता रहा | ट्रेन में चढ़ते हुए हम बेहद खुश थे | 

मैं एक अदृश्य आदमी रहा हूँ | 'मिस्टर इंडिया' फिल्म के नायक जैसा अदृश्य नहीं ! मेरा मतलब  हील-डोल, रूप-रंग , चाल-ढाल  , इन सब मानकों के लिहाज से इस कदर मामूली कि अमूमन गली कूँचे से गुजरते हुए मैं लोगों के विसुअल फील्ड में हाज़री ही दर्ज नहीं करा पाता | गैरदिलचस्प वस्तुओं को नज़रअंदाज करने की प्रवर्ति इंसान की लाखों साल में विकसित हुई चेतना का हिस्सा है | यह  प्रवर्ति उसे उसके लिए महत्वपूर्ण चीज़ों पर ही फोकस करने के लिए ऊर्जा संचय में मदद करती है |   

लेकिन उस रविवार को ट्रेन  में लोगों ने मुझे देखा ! मैं और लिंडा बंद दिशा वाले दरवाजे से सटे खड़े थे | सामने की सीट पर बुजुर्ग चीनी मूल की महिला ने मुझे देर तक नापा | फिर लिंडा को निहारती रही | तिरस्कार के गहरे भाव थे उस महिला के चेहरे पर |  मंगोल जीन पूल की लड़की का एक अधेड़ भारतीय पुरुष के साथ होना उसे कुकृत्य जैसा लगा हो  शायद |  लिंडा किसी कॉकेशियन नस्ल के पुरुष के साथ होती तो स्थिति ज्यादा स्वीकार्य होती ! नस्लीय श्रेष्ठता की अघोषित सूचि में भारतीय पुरुष कॉकेशियन और मंगोल कुल से नीचे माने जाते हैं ! भारतीय पुरुष की इमेज एक कामगार की ही है | समय के साथ स्वीकार्यता बढ़ी है, लेकिन पुरानी पीढ़ी के लोगों के दिमाग में वह लोच नहीं बचती कि वे ये सब श्रेष्ठ-हीन मिश्रण को स्वीकार करें ! 

उस दिन भारतीय मूल के पुरुषों की अचानक मुझ में बढ़ी दिलचस्पी काबिले गौर थी |  वो यूँ , कि भारतीय पुरुष एक दूसरे को देखते ही कहाँ हैं | पार्क के फुटपाथ पर आमने सामने आ जाएँ तो एक आसमान को ताकेगा , दूसरा आसपास के सारे पेड़ पौधों की गिनती कर डालेगा |  उनकी थोड़ी बहुत 'हाउ डू यू डू ' दूसरी नस्ल के लोगों को देख कर ही निकलती है !  पर उस दिन उनमें से कई अपनी पत्नियों से नज़रें चुरा मुझे देख रहे थे | 

लिंडा पर या तो  विदा लेने का इमोशन हावी था या फिर अचानक से यात्रियों की बढ़ी दिलचस्पी को उसने भी भाँप लिया था |  वह बड़ी ही नज़ाकत से पूरे सफर मेरे साथ खड़ी रही | कुछ यूँ करके , कि जैसे हमारे अकेले में एक दूसरे से साथ जीने मरने के वादे हुए हैं !  

लेकिन मुझे सबसे ज्यादा भौंचक्का किया भारतीय स्त्रियों के व्यवहार ने | निगाह भर कर आदमी को देखने की उनकी तरबियत नहीं रही होती | लेकिन मैंने पाया कि उनमें से कई मुझे रह रहकर निहारे ही जा रही थीं | कुछ जो डिब्बे के स्पोर्ट हैंडल पकडे खड़ी थीं , वे बड़ी बेचैनी से पैर बदल रहीं थीं  | अजी सिर से पैर तक मुझे दर्जनों बार नापा गया | मैं क्या बोल रहा था,  ये सुनने को कान लगाए गए | न जाने कितनी मुस्कुराहटें यूँ ही मुफ्त में मुझे नजर कर दीं गयीं  | 

मैं तो जैसे खुमार में था | नयी नयी क्षणिक मशहूरियत का अहसास मुझे शराब सा चढ़ने लगा था | माहौल को थोड़ा अधिक  दिलचस्प बनाने की नीयत से मैं बार बार लिंडा के कान के पास जाता और कोई बेफिज़ूल सी बात कहता | 

जैसे "देखो न , मौसम कितना अच्छा है | "

"तुम्हे क्या लगता है लिंडा , क्या आज बारिश होगी ?"

"तुमने अभी तक एंटोन चेखोव को क्यों नहीं पढ़ा है ?" वैगरह वैगरह | 

मैं सोच रहा था कि जब मैं अपनी जवानी के गुलाबी सालों में था , तब क्यों कर मेरी नस्ल की स्त्रियों की मुझ में कोई दिलचस्पी नहीं रही |अब मैं उम्र के ढलान पर हूँ | क्या मैं समय के साथ बेहतर हुआ हूँ किसी पुरानी शराब की तरह ? कुछ ऐसे ख्याल मेरे मानस में कौंध रहे थे | 

फिर यकायक मुझे इल्म हुआ | और कुछ इस फुर्ती से हुआ कि ऐसे लगा कि मानों आसमान से बिजली आन गिरी हो !

ओह माय गॉड ! | मैं किस हद तक उन भारतीय महिलाओं के पतियों जैसा दिख रहा था | कमर छोड़ता पेट , कपटियों से ऊपर जाती हेयर लाइन | मसल लॉस से थुलथुल होती जातीं भुजाएं | किश्तों  के बोझ से ढले कंधे | निस्तेज चेहरा | टेलर-मेड पैंट , सिल्वर बैंड विंटेज स्टाइल घडी |  हर पोशाक के साथ पहने जाने वाले डल ग्रे चमड़े के जूते, गोल्डन फ्रेम नज़र का चश्मा |   

उफ्फ्फ्फ़ , तो मेरा कमउम्र लिंडा के साथ होना एक नुमाइश था | एक अधेड़ मिडिल क्लास भारतीय मर्द के लिए संभावनाओं का प्रदर्शन |  एक डेमो ! 

भारतीय पुरुष को उसकी नैतिक , सामाजिक और पारिवारिक  जिम्मेदारियाँ जकड़े रहतीं हैं | भारतीय पुरुष इन जिम्मेदारियों से भाग बेहयाई कर बाहर की गैर पारम्परिक संभावनाओं का दोहन करने का सोचे तो ? ये पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे सामाजिक ढांचे पर प्रहार न होगा ? भारतीय स्त्रियोँ की मुझ में जिज्ञासा के मूल में ये खौफ ही था शायद ! जनाब , स्त्री का चेतन संभावनाओं के अंतिम सिरे तक सोचता है | उन्होंने उन परिस्थितियों में मेरी जगह अपने पतियों को रखकर भी सोचा हो तो अचरज नहीं !

और उनके इस खौफ का जैसे ही मुझे एहसास हुआ , मेरे होंठ धनुष की प्रत्यंचा की तरह चौड़ी मुस्कान में खिल उठे | यह एक सैडिस्टिक सुख था ! मैं उन तमाम जिम्मेदारियों , जड़ताओं , निषेधों पर मुस्कुरा रहा था जिन्होंने मेरे अल्हड़पन, मेरे छबीलेपन को मार डाला था | मैं समाज , उसमे एक दूसरे को रोंधते , नैतिकता का पाठ पढ़ाते पुरुष व् स्त्रियों पर मुस्कुरा रहा था |     

मेरी लिंडा से वह आखिरी मुलाकात थी | हमने एक दूसरे के संपर्क में रहने ,अच्छी किताबों के सुझाव देते रहने के वादे किये | उसने मुझे कभी वियतनाम आने का अनुरोध किया | 

 लाइब्रेरी से वापस लौट उस दिन मैं देर तक मुस्कुराता रहा | रात को सोने तक मुस्कुरता ही रहा | 


                                                                                                      -सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                                                         सिंगापुर द्वीप  

                                                                                                        ५ अक्टूबर २०२४ 

                                                                                                                                                                                    


सोमवार, 9 सितंबर 2024

इंस्टूमेंट टू ओपन

"पेरासिटामोल " चाइना टाउन ट्रेन स्टेशन से फर्लांग भर की दूरी पर बने बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के फार्मेसी सेक्शन में बैंठी  फार्मासिस्ट से इतना भर पूछा | और जबाब में उसने दायाँ हाथ हवा में उठाया , एक आधा चंदा  बनाया , उसके बाद फिर दूसरा आधा चंदा  | माने , दो सेल्फ लेन कूद कर तीसरी में चले जाओ |मुझे  कोई 'लो डोज़' , जेनेरिक सी टेबलेट का छोटे से छोटा पैकेट चाहिए था | बताये गए सेल्फ में सब जम्बो पैक ही दिखे सो मैं खुद ही घूम कर दूसरे सेल्फ स्कैन करने लगा |  दो बार चक्कर काट जब मैं तीसरी मर्तबा फार्मासिस्ट के आगे से गुजरा तो वह अपनी चेयर छोड़ मेरे पास चली आयी | चीनी मूल की कृशकाय महिला थी , मोटा चश्मा लगाए| औसत से लम्बी, पीत वर्ण , पचपन से साठ के बीच की रही होगी | 

"तुम्हे पैरासिटामॉल ही चाहिए न या कुछ और ?" उसने मुस्कुराते हुए पूछा | 

"नहीं , कुछ और तो नहीं | चाहिए होगा तो मैं मांग लूँगा " मैंने विनम्रता से जबाब दिया | 

मुझे उसका इस तरह से 'कुछ और' पूछना थोड़ा अजीब लगा था | और उस अजीब लगने की फीलिंग को वह अनुभवी महिला शायद समझ गयी | 

समझाने लगी : "स्टोर में तरह तरह के कस्टमर आते है | बहुत से टूरिस्ट होते है | टूरिस्ट जो अपनी बात कह नहीं पाते | "

" मैं समझ सकता हूँ |  मुझे कम्युनिकेशन  का ऐसा कोई प्रॉब्लम नहीं है |" मैंने नरमी के साथ कहा | 

 लेकिन उसके पास इससे भी आगे बताने को था | 

बोली " अभी पिछले हफ्ते एक टूरिस्ट आया था | अरब की किसी कंट्री का |  कहने लगा , उसे इंस्टूमेंट चाहिए | 

मैंने कहा , इंस्टूमेंट के लिए टूल्स एंड हार्डवेयर सेक्शन में चला जाए | 

वह  थोड़ा परेशान हो बोलै "नो नो , नॉट दैट वन | "

फिर मेरे पास आकर फुसफसाया "एक्चुअली आय नीड इंस्ट्रूमेंट टू ओपन माय वाइफ !" 

मैंने इतने साल से कितने लोगो को सुना है , समझा है | पर उसकी बात सुनकर मैं चकरा ही गयी | 

और मैंने धीरे से एक एक शब्द साफ साफ़ बोल उसे समझाया : "सॉरी , हमारे यहाँ ऐसा कोई इंस्टूमेंट नहीं है | "

टूरिस्ट अचंभित हुआ | कहने लगा "स्ट्रेंज , हाउ कम यू डोंट हैव | इन माय कंट्री आल बिग , आल स्माल शॉप्स हैव | "

मैंने कहा " सॉरी , हमारे यहाँ क्या , पूरे सिंगापुर के किसी भी स्टोर में ऐसा कोई इंस्टूमेंट नहीं है |"

हैरत से बड़ी बड़ी आँखे ले वह झुंझला कर आगे बढ़ गया | 

स्टोर के कोने में एक बूढा मलय मूल का पुरुष पोंछा लगा रहा था  | टूरिस्ट उसके पास गया और कुछ समझाने लगा | मैं उनकी खुसपुसाहट नहीं सुन सकती थी | लेकिन जब क्लीनर ने अति उत्साह में हवा में हाथ उठाकर कहा "हनीमून हनीमून!"  , तब जाकर मैं अरबी नवयुवक की जरूरत को समझ पायी और मैंने उसे सही सेल्फ की तरफ इशारे से भेजा | 

ठहाका लगाकर जब हमने साँस ली तो मैंने कहा " लैंग्वेज बैरियर , कल्चर बैरियर , यू  नो |"

पर बूढी फार्मासिस्ट की राय थोड़ी अलहदा थी | 

कहने लगी " कई बार चीनी टूरिस्ट भी आते है | उन्हें लैंग्वेज का कोई बैरियर नहीं |  पिछले दिनों एक मेन लैंड चाइना का कोई टूरिस्ट था | कहने लगा " ग्लब्स चाहिए | आज ही की तरह उस दिन असिस्टेंट स्टोर में नहीं था , लिहाजा मैं ही सीढ़ी लगाकर सेनेटरी ग्लोब्स उतारने लगी | 

उस टूरिस्ट ने देखा तो बोला , "नहीं नहीं ये वाले नहीं | "

"बाथरूम ग्लब्स !"

मैंने समझाया , ये मल्टीपर्पज़ हैं , कुछ चुनिंदा ब्रांड चाहिए तो बताये , या फिर हाई क्वालिटी मेडिकल क्लास ग्लब्स दे दूँ ?

वह  झुंझला गया।  मैंडरिन में बोला " नहीं नहीं ये वाले नहीं चाहिए , प्राइवेट ग्लब्स चाहिए|  "

प्राइवेट ग्लब्स , माय गॉड ! तब जाकर मैं समझी | और मैंने उसे सही सेल्फ पर भेजा | "


हाथ में पेरासिटामोल का पत्ता लिए बिलिंग काउंटर पर खड़ा मैं सोच रहा था कि दवा लूँ या ना लूँ  | 

फार्मासिस्ट की बातों से ही मेरा  सिरदर्द रफूचक्कर हो चुका था |  


                                                        - सचिन कुमार गुर्जर 

                                                            सितम्बर ९, २०२४ , सिंगापुर द्वीप 


सोमवार, 17 जून 2024

सुकून का आखिरी दिन



आप अपने जीवन से संतुष्ट थे | अपनी औकात से वाकिफ | क्या साध्य है क्या आसाध्य इससे परिचित | इच्छाएं तिलांजित किये हुए | 

फिर कोई मिल गया | चढ़ते सूरज के साथ नहीं मिला | तब मिला जब सूरज दोपहर के बाद ढलान पर था |   वो मिला तो उसने बड़े प्यार से कहा "आप  बुद्दू हो , एकदम पागल |आपको  पता ही नहीं रहा कि आप  क्या हो | क्या डिसर्व  करते हो| "

उसकी बात आपको  जँची | थेरेपिस्ट , लाइफ कोच आपको समझाते रहे | सालो साल समझाते रहे | सेल्फ एस्टीम , सेल्फ बिलीफ , पॉजिटिव अफर्मेशन वगैरह वगैरह | पर आप हमेशा अपने को कम आंकते रहे | सबसे मृदुल रहे पर खुद को हमेशा कठोर नज़र से देखा | किसी की बात आपको मुतमईन न कर सकी | 

पर उसकी बात आपको जँची !

ब्रेकफास्ट , लंच , डिनर का हिसाब लिया जाने लगा | आप फ़ोन ना करो तो सामने वाला परेशां होता |  शिकायतों का अम्बार  लगता | आप असहज होते |  वो यूँ कि आपको इस कदर देखभाल की आदत कहाँ रही | एक माँ और नानी के अलावा  आपको कब किसने पुचकारा  | हाँसिये पर लटके जीने की आपकी आदत रही | बेगौरी में पला ,कतार  में खड़ा आखिरी आदमी | जिसने होने न होने से किसी को कोई फर्क नहीं  पड़ता | पर उसने आपको एहसास कराया के  जैसे आप कोई बेशकीमती नगीना हैं  , जिस पर नज़र रखना बेहद जरूरी है | पहली बार आपने उसकी नज़रो में , उसकी आवाज़ में,  आपको खो देने का डर देखा | 


और फिर आप बह गए | इस कदर बहे कि कह बैठे "सुनो ,  तुम्हारे बिना रह नहीं सकता  |प्यार  है तुमसे , बेहद प्यार  !"

बस वो दिन आपकी जिंदगी के सुकून का आखिरी दिन था !

शुक्रवार, 10 मई 2024

शुक्रवार की शाम

 


शुक्रवार की शाम का अपना एक दबाव  होता है | दबाव यह कि शाम जाया नहीं होनी चाहिये | और इसी के मद्देनज़र मैंने दो तीन दोस्तों को संदेशा भेजा है कि शाम को मिला जाए | ऑफिस की सीढियाँ उतरते हुए सोच रहा हूँ कि पी जाए या न पी जाये | 

अकेले पीने का कोई मूड नहीं है | बिना संगत पीना भी कोई पीना है  |फिर अभी पिछले हफ्ते अपने गृह प्रवास के दौरान मैंने ठीक ठाक मात्रा में 'ब्लैक डॉग' और  '१०० पाइपर्स' धकेली है |  हाँ या ना , बस इसी ऊहापोह  में रिवर फ्रंट की तरफ बढ़ा चला जा रहा हूँ | 

रैफल्स पैलेस जनपथ के साईडवॉक  पर एक गोरा खड़ा है , उम्र के गुलाबी सालों में है  | दो बीगल्स लिए है  | सफ़ेद , लाल , काले चक्क्ते वाले बीगल्स | उनके कान उनके मुँह से बालिश भर नीचे तक लटके है | 

मुझे बीगल्स औसत ही लगते है | लेकिन ट्रैन स्टेशन से रिवर फ्रंट को आती दो चीनी बालाओ से रहा नहीं जा रहा | "ओह्ह सो क्यूट सो क्यूट !" वे  ख़ुशी से उछल रहीं हैं | उनके दूधिया हाथ तालियाँ बजा रहे है | वैसे ही जैसे छोटे बच्चे अति उत्साह में बजाते हैं  | उनमे से एक गोरे से पूछती है कि क्या वो उन्हें छू ले |  'यस , स्योर ' गोरा इज़ाज़त दे देता है | 

यहाँ मुझमे थोड़ा बहुत कॉग्निटिव बायस हो सकता है  , पर आप शुक्रवार की शाम को, सिंगापुर के रिवरसाइड वाक  पर , कुत्तों के टहलाते जवान गोरे को कामदेव ही समझिये | जहाँ निशाना लगा तीर चला दे ,  बड़ी आसानी से खींच लेगा | सीमलेस , एफर्टलेस    ! 

सोच रहा हूँ , आदमी अगर सही जगह, सही जीन पूल में  पैदा हो जाये तो सब कुछ कितना सहज हो जाता है | कम से कम भौतिक स्तर पर तो हो ही जाता है |इसके इतर मेरे जंगल के आदमी को सब कुछ कमाना  होता है| नौकरी,  घर , गृहस्थ , बच्चो की पढाई , हेल्थ इंसोरेंस , माँ बाप का बुढ़ापा , गाढ़े दिनों के लिए कोई जमीन का एक्स्ट्रा प्लाट , बीवी के गहने और किस्मत हुई तो थोड़ा बहुत प्यार | सब कुछ परिश्रम से ही है | लाइफ अपहिल टास्क मोड में ही रहती है |  

उन कुत्तों से मुझे याद पड़ा है कि कॉर्पोरेट ऑफिस का पट्टा अभी तक मेरे गले में लटका हुआ है | मैं झुंझला कर उसे लैपटॉप बैग की साइड पॉकेट में सहेज रहा हूँ | मुझे कुत्ता होना मंजूर नहीं  | 

सच्ची? नहीं, मेरा मतलब है , ऐसा कुत्ता होना मंजूर नहीं जिसे घडी घडी दुत्कारा जाए | ऐसा नहीं, जिसकी दुम हमेशा मारे डर पिछवाड़ा ही ढाँपती  रहे | 

हाँ , ऐसा कुत्ता होने में मुझे कोई गुरेज नहीं जिसके गालों पर कोई हलकी सी थपकी देकर कहे "सो क्यूट !"

उम्र के साथ मुझमे सब कुछ सिकुड़ रहा है  | सिवाय मेरी नाक के | एक नाक है जो दिन प्रतिदिन , इंच दर इंच बढ़ती जा रही है | 

 फिलहाल ये नाक नदी किनारे कतारबद्ध बने रेस्टोरेंट्स के किचनस  तक जा रही है  | चिकन  विंग्स , चिकेन ब्रैस्ट स्ट्राइप्स विथ सोया सॉस, ग्रिल्ड सैमन , डीप फ्राइड प्रॉन , टर्टल सूप , रोस्टेड गूस , पैन स्टिर लॉबस्टर , ग्रेवी क्रैब | एक से एक एक्सोटिक फ़ूड आइटम्स | मेरे नथुने फूल रहे है | गला जेठ की दुपहरी में दरकी जमीन सा बिलबिला रहा है | पेट में ऐठन हैं | कॉर्टिलेस  की कमी से हर कदम के साथ घुटनों से टक टक की आवाज़ आ रही है | 

एक,  दो,  तीन,  चार, और  पांच | पाँचवे ओपन एरिया रेस्टोरेंट तक पहुंचते पहुंचते मेरे घुटने जबाब दे गए है |    

और सूखे गले से , नवयौवना वियतनामी वेट्रेस से मैं बमुश्किल इतना भर कह पाया हूँ  " वन कार्ल्सबर्ग प्लीज !" 


सेरेंडीपिटी

नाम 'गेन किम लिन' था वैसे उसका , पर मेरी सहूलियत के लिए उसने बताया कि मैं उसे केटी पुकार सकता था |  छोटे कद की , औसत से सुन्दर मंगोल...