लिंडा से मेरी मित्रता बहुत लम्बी नहीं रही |वो यूँ कि हमारे परिचय के बाद बमुश्किल दो महीने भर ही तो वह सिंगापुर में रही | चुनांचे कसीदे पढ़ने के लिए बहुत कुछ नहीं है | लेकिन कई बार थोड़े समय की मित्रता भी कुछ ऐसे लम्हे दे जाती है कि संस्मरण मात्र से आदमी मुस्कुरा उठता है |
लिंडा वियतनामी मूल की लड़की थी | बिहेवियरल साइंस में विदेश से मास्टर डिग्री कर बेहतर करियर की आस उसे सापा की पहाड़ियों से सिंगापुर तक खींच लायी थी | साउथ पूर्व एशिया के मानक के हिसाब से लम्बे कद की लड़की थी लिंडा | चेहरा मोहरा औसत था | दुबली , सपाट वक्ष स्थल , दाग रहित पीत वर्ण | गर्दन बालिश भर लम्बी थी , जिसमें हमेशा एक महीन तार का सिल्वर पेन्डेन्ट लटका रहता था | कार्गो पैंट , लूस टीशर्ट , ट्रैकिंग शूज, विंटेज स्टाइल गोल्डन घड़ी ,अमूमन यही परिधान होता था उसका |
उसे फिक्शन पढ़ने का शौक न होता तो शायद हमारी मुलाक़ात ही न हुई होती | सिंगापुर सिटी की बुगिस सेंट्रल लाइब्रेरी के रीडिंग लॉउन्ज में जब मैंने उसे पहली बार देखा तो उसके हाथ हरुकी मुराकामी की 'नॉर्वेजियन वुड' थी | मुराकामी के बारे में मैंने काफी सुना था लेकिन इस जापानी लेखक का कुछ भी पढ़ा नहीं था | मैंने उससे पूछा कि क्या इस लेखक की कोई और रचना भी लाइब्रेरी में मौजूद है?
मैं लाइब्रेरी के फिक्शन सेक्शन का चक्कर लगाकर वापस आकर बैठा तो हमारी बातचीत चल निकली | फिर हम घंटा भर रूस ,फ्रांस से लेकर जापान तक के फिक्शन , नॉन-फिक्शन पर गपियाते रहे | लाइब्रेरी गप्पें हांकने के लिए माकूल जगह नहीं होती सो उसके बाद हम जब भी मिले , पास के स्टारबक्स कॉफ़ी हाउस में बैठने लगे | कुछ लोग होते हैं ना, जो तुम्हारी हर छोटी बड़ी बात में ऐसे दिलचस्पी लेते है कि यूँ लगने लगता है कि तुम कुछ तो हो | बस कुछ ऐसे ही एहसास से तरबतर कर दिया था लिंडा ने मुझे |
हम परत दर परत गहरी दोस्ती में उतरते जा ही रहे थे , कि तभी उसके वापस वियतनाम लौट जाने का समय आ गया |
मुझे याद है , उस रविवार लिंडा ने भारतीय परिधान पहना था | पीले कलर का लखनवी करी वर्क का सूट ,सफ़ेद रंग की पेंट , लाइट ग्रे हाई हील शूज | हफ्ते भर में वापस लौट रही थी, सो भारतीय परिधान में सजकर, अलविदा को थोड़ा खुशनुमा बनाने का विचार उसके जेहन में रहा होगा |
और क्या ही लग रही थी | भारतीय परिधान इन मंगोल कुल की लड़कियों पर क्या खूब फबते हैं | सुतवा शरीर और गोरा रंग इन्हें विरासत में मिला होता है | ग़ज़ब का कॉकटेल बन पड़ता है !
मेट्रो ट्रेन स्टेशन के एस्केलेटर वह अचानक पीछे मुड़ी , ऊँगली से अपनी ड्रेस की ओर इशारा किया और बस इतना बोली "सो हाओ ?" जबाब में मैंने दायाँ हाथ अपने सीने पर हाथ रख दिया और देर तक आँखें झपकाता रहा | ट्रेन में चढ़ते हुए हम बेहद खुश थे |
मैं एक अदृश्य आदमी रहा हूँ | 'मिस्टर इंडिया' फिल्म के नायक जैसा अदृश्य नहीं ! मेरा मतलब हील-डोल, रूप-रंग , चाल-ढाल , इन सब मानकों के लिहाज से इस कदर मामूली कि अमूमन गली कूँचे से गुजरते हुए मैं लोगों के विसुअल फील्ड में हाज़री ही दर्ज नहीं करा पाता | गैरदिलचस्प वस्तुओं को नज़रअंदाज करने की प्रवर्ति इंसान की लाखों साल में विकसित हुई चेतना का हिस्सा है | यह प्रवर्ति उसे उसके लिए महत्वपूर्ण चीज़ों पर ही फोकस करने के लिए ऊर्जा संचय में मदद करती है |
लेकिन उस रविवार को ट्रेन में लोगों ने मुझे देखा ! मैं और लिंडा बंद दिशा वाले दरवाजे से सटे खड़े थे | सामने की सीट पर बुजुर्ग चीनी मूल की महिला ने मुझे देर तक नापा | फिर लिंडा को निहारती रही | तिरस्कार के गहरे भाव थे उस महिला के चेहरे पर | मंगोल जीन पूल की लड़की का एक अधेड़ भारतीय पुरुष के साथ होना उसे कुकृत्य जैसा लगा हो शायद | लिंडा किसी कॉकेशियन नस्ल के पुरुष के साथ होती तो स्थिति ज्यादा स्वीकार्य होती ! नस्लीय श्रेष्ठता की अघोषित सूचि में भारतीय पुरुष कॉकेशियन और मंगोल कुल से नीचे माने जाते हैं ! भारतीय पुरुष की इमेज एक कामगार की ही है | समय के साथ स्वीकार्यता बढ़ी है, लेकिन पुरानी पीढ़ी के लोगों के दिमाग में वह लोच नहीं बचती कि वे ये सब श्रेष्ठ-हीन मिश्रण को स्वीकार करें !
उस दिन भारतीय मूल के पुरुषों की अचानक मुझ में बढ़ी दिलचस्पी काबिले गौर थी | वो यूँ , कि भारतीय पुरुष एक दूसरे को देखते ही कहाँ हैं | पार्क के फुटपाथ पर आमने सामने आ जाएँ तो एक आसमान को ताकेगा , दूसरा आसपास के सारे पेड़ पौधों की गिनती कर डालेगा | उनकी थोड़ी बहुत 'हाउ डू यू डू ' दूसरी नस्ल के लोगों को देख कर ही निकलती है ! पर उस दिन उनमें से कई अपनी पत्नियों से नज़रें चुरा मुझे देख रहे थे |
लिंडा पर या तो विदा लेने का इमोशन हावी था या फिर अचानक से यात्रियों की बढ़ी दिलचस्पी को उसने भी भाँप लिया था | वह बड़ी ही नज़ाकत से पूरे सफर मेरे साथ खड़ी रही | कुछ यूँ करके , कि जैसे हमारे अकेले में एक दूसरे से साथ जीने मरने के वादे हुए हैं !
लेकिन मुझे सबसे ज्यादा भौंचक्का किया भारतीय स्त्रियों के व्यवहार ने | निगाह भर कर आदमी को देखने की उनकी तरबियत नहीं रही होती | लेकिन मैंने पाया कि उनमें से कई मुझे रह रहकर निहारे ही जा रही थीं | कुछ जो डिब्बे के स्पोर्ट हैंडल पकडे खड़ी थीं , वे बड़ी बेचैनी से पैर बदल रहीं थीं | अजी सिर से पैर तक मुझे दर्जनों बार नापा गया | मैं क्या बोल रहा था, ये सुनने को कान लगाए गए | न जाने कितनी मुस्कुराहटें यूँ ही मुफ्त में मुझे नजर कर दीं गयीं |
मैं तो जैसे खुमार में था | नयी नयी क्षणिक मशहूरियत का अहसास मुझे शराब सा चढ़ने लगा था | माहौल को थोड़ा अधिक दिलचस्प बनाने की नीयत से मैं बार बार लिंडा के कान के पास जाता और कोई बेफिज़ूल सी बात कहता |
जैसे "देखो न , मौसम कितना अच्छा है | "
"तुम्हे क्या लगता है लिंडा , क्या आज बारिश होगी ?"
"तुमने अभी तक एंटोन चेखोव को क्यों नहीं पढ़ा है ?" वैगरह वैगरह |
मैं सोच रहा था कि जब मैं अपनी जवानी के गुलाबी सालों में था , तब क्यों कर मेरी नस्ल की स्त्रियों की मुझ में कोई दिलचस्पी नहीं रही |अब मैं उम्र के ढलान पर हूँ | क्या मैं समय के साथ बेहतर हुआ हूँ किसी पुरानी शराब की तरह ? कुछ ऐसे ख्याल मेरे मानस में कौंध रहे थे |
फिर यकायक मुझे इल्म हुआ | और कुछ इस फुर्ती से हुआ कि ऐसे लगा कि मानों आसमान से बिजली आन गिरी हो !
ओह माय गॉड ! | मैं किस हद तक उन भारतीय महिलाओं के पतियों जैसा दिख रहा था | कमर छोड़ता पेट , कपटियों से ऊपर जाती हेयर लाइन | मसल लॉस से थुलथुल होती जातीं भुजाएं | किश्तों के बोझ से ढले कंधे | निस्तेज चेहरा | टेलर-मेड पैंट , सिल्वर बैंड विंटेज स्टाइल घडी | हर पोशाक के साथ पहने जाने वाले डल ग्रे चमड़े के जूते, गोल्डन फ्रेम नज़र का चश्मा |
उफ्फ्फ्फ़ , तो मेरा कमउम्र लिंडा के साथ होना एक नुमाइश था | एक अधेड़ मिडिल क्लास भारतीय मर्द के लिए संभावनाओं का प्रदर्शन | एक डेमो !
भारतीय पुरुष को उसकी नैतिक , सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ जकड़े रहतीं हैं | भारतीय पुरुष इन जिम्मेदारियों से भाग बेहयाई कर बाहर की गैर पारम्परिक संभावनाओं का दोहन करने का सोचे तो ? ये पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे सामाजिक ढांचे पर प्रहार न होगा ? भारतीय स्त्रियोँ की मुझ में जिज्ञासा के मूल में ये खौफ ही था शायद ! जनाब , स्त्री का चेतन संभावनाओं के अंतिम सिरे तक सोचता है | उन्होंने उन परिस्थितियों में मेरी जगह अपने पतियों को रखकर भी सोचा हो तो अचरज नहीं !
और उनके इस खौफ का जैसे ही मुझे एहसास हुआ , मेरे होंठ धनुष की प्रत्यंचा की तरह चौड़ी मुस्कान में खिल उठे | यह एक सैडिस्टिक सुख था ! मैं उन तमाम जिम्मेदारियों , जड़ताओं , निषेधों पर मुस्कुरा रहा था जिन्होंने मेरे अल्हड़पन, मेरे छबीलेपन को मार डाला था | मैं समाज , उसमे एक दूसरे को रोंधते , नैतिकता का पाठ पढ़ाते पुरुष व् स्त्रियों पर मुस्कुरा रहा था |
मेरी लिंडा से वह आखिरी मुलाकात थी | हमने एक दूसरे के संपर्क में रहने ,अच्छी किताबों के सुझाव देते रहने के वादे किये | उसने मुझे कभी वियतनाम आने का अनुरोध किया |
लाइब्रेरी से वापस लौट उस दिन मैं देर तक मुस्कुराता रहा | रात को सोने तक मुस्कुरता ही रहा |
-सचिन कुमार गुर्जर
सिंगापुर द्वीप
५ अक्टूबर २०२४