उस पुराने दालान पर, जिसका चबूतरा एक जबर आदमी के सीने जितना ऊँचा था और जिसके बीचोंबीच एक बहुत पुराना ,पहाड़ सा बुलंद लेकिन गंजा होता नीम का दरखत था , वहाँ मैंने ना जाने कितने जेठ कितने आसाढ़ बूढ़ों को सुना | हुक्के की नाली को ताज़े ठन्डे पानी से तर कर और फिर लाल अंगारो से चिलम को ठूस ठूस भर , मैं दादा लोगो की चौखडी के बीच में हुक्का जमाता और आज्ञाकारी शिष्य सा किसी खाट की पांयत पे चिपक जाता | उनमे से कोई परिवार से रुष्ट हो कहता "खैर भैय्या , बुढ़ापा बुरापा होया करे है " और बाकि सब एक सुर में कहते "हम्बै , सही कहो हो | " दर्जनों गायें और उतनी ही भैंसे , जिनकी पूछें शाम को तंग करने वाली खून चूसा मक्खियाँ उड़ाने को हेलीकॉप्टर के पंखे सी भाग रही होती , वो 'हम्बै' न कहती पर उनके गलों के छोटे बड़े घंटे अपने ग्वालों की बात के समर्थन में देर तक बजते रहते |
और वो नीम , वो जैसे उन बूढ़ो में से ही एक था | उसके पीले पत्ते हमेशा गिरते ही रहते , घर परिवार की बहुये , लड़कियाँ आँगन बुहारती तो कोसती "अये मरजाना , यू पेड़ दिलद्दर हैगा , देखियो जी सुबह ही सकेरा(बुहारा) , अब देखो , कोई देखेगा तो क्या कहेगा , के के इस कुनबे की औरतें काम ना करतीं ! " पर कुदरत पे किसका जोर , किसका जबर | उस नीम के पत्ते गिरते ही रहते , बिना हवा , बिना आवाज़ | और वैसे ही गिरते वो बूढ़े | दादा दरियाब थे , बैलगाड़ी में रस्से की बांध को कसते थे , बस पीछे की ढाल ही लुढ़क गए | घर वाले भागे , गंगा जल भी न गटक पाए , पंछी उड़ गया | दादा कल्लन थे ,कढ़ी चावल खाते थे , पहला गोसा ही लिया था | ऐसा जोर का खांसी का अटैक सा हुआ कि मिनट भर में ठन्डे | जिन घरो से बूढ़े जाते उन घरो में तीन दिन दाना पानी न होता, पर ऊँचे दालान का हुक्का अगले दिन भी बजता और मैं पाता कि बाकि बूढ़ो में से एक के भी अक्स में मौत का भय नहीं है | वे अपने नीले नसों के गुच्छो वाले हाथो को माथे पे जोड़ , नीम की छाव में यहाँ वहाँ में खुले मोखलों में से भगवान् को ताकते और कहते "हे राम जी ,ऐसी ही मौत दीजो , झटफट , बिना धड़क बिना फड़क ! "
और फिर सब चले गए| कुछ ऐसे जैसे खेल खेल में बच्चो ने थोड़ी थोड़ी दूरी पे सतर ईंटें खड़ी कर दी हों और कोई शरारती एक सिरे से लात मार रेला सा चला जाये | ऊँचे दालान का वो रेला चला गया | बड़े बड़े हलंता , पचास पचास गायों के मालिक ,सवा छह छह फ़ीट के सुर्ख रंग वाले , बब्बर शेर से ललाट और मूछों वाले , घुड़सवारी के शौक़ीन दादा लोग चले गए | ऐसे ऐसे जबर गूजर , के जो बुढ़ापे में भी तबियत से दहाड़ मार देते तो हलके फुल्के आदमी की पतलून गीली हो जाती | सब चले गए |
रह कौन गया ? दादा ऊदल | उस फौज के सबसे मरियल आदमी | बाकी बूढ़े उन्हें 'गुरगल' कहते | गुरगल एक छोटा सा पक्षी , गौरैय्या जैसा | ठिगनी रास , परती पड़े खेत जैसा मटेला रंग , तोतई नाक जो बुढ़ापे में आगे से फूल के लटक गयी थी | गालों के गड्ढ़े इतने गहरे कि मुँह के अंदर एक दुसरे को छूते थे |चाचा चौधरी के जैसी छज्जेदार मूछें लिए थे | वो उम्मीद से ज्यादा और बहुत ज्यादा ठहर गए थे | शायद इसलिए कि उन्हें नीम के पत्ते की तरह बेआवाज़ नहीं जाना था , देवता होकर जाना था | हाँ देवता होकर ही | उस हाड ज्यादा , मांस कम की गठरी में जीवते वो जो साक्षात्कार कर गए , आप सामानांतर खोजेंगे तो ईशामसीह की जीवन लीला में ही मिल पायेगा ! इंसानी हदों के पार चले गए थे ऊदल दादा | वरना आज के जमाने में कौन मानता है | दुनिया तेज रफ्तार है, पर आज भी गाँव में हर गाय का पहला दूध उनके स्थान पर चढ़ता है |
**** II *******
ये जो मर्द लोग होते है न , इनकी सीरत में दोगलापन ऐसे ही होता है जैसे उँगलियाँ चटका चटका के गूथे गए आटे में नमक | दिखाई नहीं देता ,पर है सर्वव्याप्त | दिन भर यही मर्द विधाता बन ऊँचे टीकरे पर चढ़ हुंकारे मारेगा | पैर के अंगूठे भर से ढेले को धूल धूल उडा देगा | जरा से विवाद में वनमानुष सा सीना पीटेगा , दूसरो के कंधो पे चढ़ मूतने का इरादा रखेगा | और औरत ? बेचारी तर्क की बात कहे या कुतर्क , आढा तिरछा हो गुर्राएगा " जा चली जा , काम कर अपना | " फिर झुकमुका (dusk ) होगा , रात का सन्नाटा उतरेगा | थके हारे बालक माओं की गरम करवटों में गहरी नींद में उतर जायेंगे ,तब वही मर्द जिसने दिन में 'जा चली जा ' कहा था , औरत के घुटनो में बैठा होगा | और औरत ये जानती है | बड़े अच्छे से , बिना शिक्षा , बस सहज ज्ञान से ही जानती है | यही के जिस तरह अनुकूल मौसम , सही समय, सही ताप पर धान का पौधा रोपा जाता है , ठीक वैसे ही सही समय , सही तबियत में मर्द के दिमाग में विचार रोपा जाता है !
लम्बी बदरंग हवेली में ,जिसके कोठड़े पक्की ईंट और कच्चे गारे के बने थे जिनके बाहर लम्बा फूस का छप्पर बरामदे का काम करता था , उन कोठड़ो में पोत -बहुए , मिट्टी के तेल की ढिमरी बुझा अपने अपने आदमियों से बड़े हौले से कहती " कुछ करो हो बालको के लियो या कटोरा देओगे तम इनके हाथो में | " और गर्माहट के ख्वाहिशमंद उनके आदमी उतने ही धीमे स्वर में कहते "हाँ , हाँ , देखे हैं !" पर जब ये 'देखे हैं देखे हैं ' का दिलासा लम्बा खिचा तो लम्बी चोटी ,गरम खून की पोत-बहुओं ने खुद ही बीड़ा उठाया | दालान उनकी पहुंच से दूर था , पर हवेली में पहले सांझे के चूल्हे फूटे , अपनी अपनी थाली कटोरियों पर पहचान के निशान खीचें गए , लीपने के आंगन बांटे और जब दिल नहीं भरा तो "उत्ती तू ऐसी , तेरा पीहर ऐसा , तेरा खसम मेरा खसम " ये सब वाचा जाने लगा | मर्द कुछ दिन दूर रहे , लेकिन फूस का घर और आग से रहम !
एक दिन ऐसा आया कि छोटी बहु ने बड़ा लम्बा सा घुंघट काढ़े काढ़े आपा खो दिया और चिमटे से अपने जेठ की ओर इशारा कर बोली " उरे कु मुच्छड़ , तेरी ही मूछ उखेड़ुगी सबसे पहलै | " बस उसी दिन सब कुछ बँट गया | पूरब का खेत , पश्चिम की जोत , साझे का कुआँ , मुर्रा भैंस , ढेला भैंस , धान, उड़द, मसूर | सब का सब |
और दादा ऊदल ? अरे उनका हामी कौन होता , जो बेटा पोता सबसे सीधा था , बिना ऐलान उसकी झोली में आ गिरे | दालान चार फाँक हुआ पोतों ने शहर जैसे दड़बे नुमा घर बनाने को फीता डाल दालान बाँट लिया | दादा के हलक से एक बात भी न निकली | हाँ जब नीम का बँटबारा हुआ और लकड़हारे बड़े आरे ले चले तब वे बोले " ओ लल्ला क्यों काटो हो इसे , हम्बे साई ?" किसी ने पूछा "क्यों ना काटें ?"
पर दादा कुछ न बोले |
काश उन्होंने बोला होता कि काट लेना , मुझे चले जाने दो | फिर इसे काट ,आरा मशीन पे ले जा तख्तों में तकसीम कर बाँट लेना | काश उस कभी के जबरदस्त किस्सागो ने कहा होता कि सुनो अकल के मारो , इस नीम के पत्ते पत्ते पे एक कहानी है | आह कितने किस्से उस नीम की छाँव में कहे गए | भूत ,चुड़ैल , परी , फरिश्ते , नल दमयंती , विक्रम बेताल , राजा हरिश्चंद , इन सबके कितने किस्से, वो भी मुँहजबानी ! वो मरघटिया के भूतों के नाच की कहानी , जिसे सुन मेरे और साथ के हमउम्र बालको के मसाने सूख गए थे और कई बड़ी उम्र में भी बिस्तरों में मूतने लगे थे | भूत जिनके पैर पीछे को घूमे होते थे और जो नंग धडंग हो अंगारों पे कूदते थे | अर अर अर... जो सुरैय्या की तरह नाक में ही बोलते थे "कहाँ कू जावै है , कहाँ कू.. ठहर जा "
काश वो कह पाते कि दादा को बर्दाश्त करते हो , तो इसे भी कर लो | पर वे कह भी देते तो उन्हें कौन सुनता | हुह्ह , भला कोई सुनता ? नीम का पेड़ और ऊदल दादा बस जगह भर ही तो घेरते थे |
और मैं कहाँ था ? मेरी मसे भीग रहीं थीं | और किसी भी औसत किशोर की तरह मैं बिना बात की अकड़ , कम उम्र के फिजूल के आकर्षण , जान बूझ घर वालों के हुकुम की नाफरमानी में मशगूल था | मैं वैसे ही था जैसे कि मेरे आस पास के लोग | मैं दुनिया में अपनी जगह ढूँढ रहा था | नीम और नीम वाले दादा पुराने ढोल जैसे थे , मुझे फ़िल्मी गाने जमने लगे थे |
**** III ***
रामकृष्ण परमहंस भक्तिमार्ग के बड़े ही पहुंचे हुए संत थे | काली के उपासक | सत्संग करते तो सैकड़ो लोग उनकी जीवट लीला को देखने सुनने इकठ्ठा होते | लेकिन उनमे एक ऐब था : लजीज खाना | और भोजन में उनकी आसक्ति कुछ उस दर्जे की थी कि सत्संग पूरे शबाब पर भी हो तब भी वो बीच सत्संग उठ जाते और रसोई में जा अपनी ग्रहणी श्रद्धा से पूछते कि आज खाने में क्या है | कई बार किसी बालक से खबर भेजते कि खाने में देरी क्यों है | उनकी पत्नी को ये बात चुभती कि बताइये इतने बड़े ज्ञानी , लोक परलोक के ज्ञाता और जिव्हा इंद्री पे तनिक भी संयम नहीं | वो पूछती तो परमहंस हँस देते | आखिर जब पत्नी ने ज्यादा दबाब बनाया तो उन्होंने समझाया कि देखो इस दुनियादारी से मेरा सम्बद्ध खत्म ही हुआ , इधर जानने को न कोई रहस्य रहा , न बांधने को कोई माया | बस खाने की आसत्ति है जिससे मैंने अपने आप को इस दुनिया से बांधा है | जिस दिन भोजन से भी लगाव गया तो समझ लेना | और फिर ऐसा ही हुआ | एक दिन तरह तरह के पकवान सजा जब पत्नी उनके सामने हाज़िर हुई , परमहंस ने मुँह फेर लिया | बस , पत्नी के हाथ से थाली छूट गयी, चीख निकल गयी | परमहंस ब्रह्मलीन हो गए |
ऊदल दादा की भक्ति में परमहंस जैसा न तेज था, न ही उनके जैसा ज्ञान | अरे वे ऐसे सरल गऊ मन आदमी थे जिसकी जवानी गाय चराने में बीती और ढलती उम्र किस्सागोई और हुक्केबाजी में | वो घुटनों में अपना सिर रखते और सीधा सा मन्त्र उचारते " हे राम। तू ही है मेरे मालिक रे | " हाँ परमहंस की तरह उनकी आसत्ति जरूर थी | दो चीज़ें उन्हें दुनिया से बांधती थी : एक लोटा भर काले गुड़ की चाय और दूसरा बीड़ी का बण्डल | सुबह घर का काम निपटा जब बहुएँ किसी बालक से चाय का लोटा भिजवाती तो दादा उसे एक बड़े कटोरे पे भरवा लेते | दोनों हाथों से देर तक चाय की तपिश को महसूस करते और फिर सपाटे के साथ एक एक घूँट को रुक कर ऐसे पीते जैसे पेट को नहीं आत्मा को सींचते हो | फिर बीड़ी सुलगा लेते | वो साझे का हुक्का लड़कों ने बांध कर टांड पर रख दिया था इस वादे के साथ कि कोई हुक्का-पीवा रिश्तेदार आएगा तो उतार लेंगे | लेकिन दुनिया आई गयी | गायों की बछड़ियों की भी बछड़ियाँ पैदा हो गयी , हुक्का नहीं उतरा |
दुनिया चाँद में उसकी शीतल चांदनी और उसकी छवि में अपनी प्रेमिका का रूप ढूढ़ती है , उसके अड्ढे गढ्ढ़े , काले पीले दाग नहीं | वैसे ही दुनिया का देहाती जीवन से रोमांस है | किसान चरित्र में भोलापन, सादगी और मेहनतकशी के गुण ही तलाशती है | जबकि देहात के जीवन का एक पहलु ये भी है कि शायद कठोर जीवन के चलते उनकी संवेदनायें कम होती है और मजाक के तरीके भी कठोर होते हैं | मौत और बुढ़ापे को लेकर जितने मजाक भारत के ग्रामीण अंचल में मिलेंगे शायद ही दुनिया में कहीं मिलें |
कई बार ऐसा होता कि सूरज की धीमी तपिश में दादा ऊदल अपनी सूखी टांगो को आंच दे रहे होते तो कोई लफंडर तफरीह में यू ही खामखा अपनी साईकल बैठक के आगे रोकता और कहता " ओ दद्दा , सुनो हो के ना | अब खबा भी दो उड़द चावल | दिखियो , महीनो से गाम में कोई दावत न हुई !" उसका इशारा मृत्युभोज की तरफ होता | उसकी बात में बात जोड़ता कोई इधर उधर के चबूतरे से होंका लगाता " अभी नाय जाएं ये , काला कौवा खाय के उतरे हैंगे दादा , देखिये कही तेरे उड़द चावल न खा जाएँ कहीं " और फिर बेगारी में इधर उधर मस्त सांड से घूमते कई जवान ठहाका लगा कर देर तक हँसते |
दादा क्या कहते | मैंने कहा ना दुनिया में उनकी आसक्ति ख़तम हो गयी थी , बस उनके लिवनहार फ़रिश्ते सोते थे | कभी वो धीमी आवाज़ में कहते " राजा हो या रंक , जिसका बखत जब आवेगा तभी जावेगा| सात तालों में बंद हो लियो , हुवा से भी खींच लेंगे फ़रस्ते "
लेकिन फिर वो दिन आया , जिसे मैं क्या पूरा गाँव नहीं भूलता |
**** IV ***
वो सेमल-गददे के फूलों का मौसम था | रास्ते के किनारे पसरे खलियान में, जहाँ मोहल्ले भर की औरते गोबर के कंडे और लकड़ी के ढेर संजोया करती थी , उसके बीच में खड़े दो दैत्याकार सेमल के पेड़ो पर खिले फूल ऐसे थे जैसे जवान मुर्गे की लाल कलगी | दूर तक पीली सरसो पसरी थी | उस रात मैं सही से सो नहीं पाया | एक तो मौसम ऐसा गर्म-सर्द , कि खेस में मुँह ढाँपो तो पसीना और न ढाँपो तो मच्छर पिनपिनाते | उस पर देर रात तक गांव भर के आवारा कुत्ते छतो पर चढ़ रोते रहे | कुत्तो को आसामन से उतरते फरिश्तों का भान होता है |और इस बात का भान मुझे था कि कुत्ते क्यों रोते है !बस इसी के चलते मेरा कलेजा बैठ बैठ जाता |
सुबह जंगल पानी को निकला तो गलिहारो में किसान अपनी अपनी हवेलियों से रात से पानी में भीगी खली के बालटे लटकाये गोशालाओं की तरफ जा रहे थे | सुबह सुबह भजन के समय कोई किसान अपनी भैंस से परेशान उसे कोस रहा था " खा ले महारे ससुर की , कसाई से कटवाऊ तुझे , कसाई सै | "दूर डामर की सड़क से कच्ची सड़क पे उतरती दूधिया की साईकिल से टकराते दूध के खाली गोलटे बेसुरे घंटो से बजते चले आ रहे थे | कोई आध कोस की दूरी पर एक टटीरी पक्षी पूरे जोर से चिल्ला रहा था : टर टर टटर टटर | शायद नित्यकर्म को जाता कोई इंसान उसके अंडो के नजदीक पहुंच गया था | सरकंडो के बाड़ों से घिरी चकरोड के दूर वाले छोर पर, अमराही के सिरे पर सूरज ने जब आसमान को फोड़ा तो मैंने वापसी का रास्ता पकड़ा |
उदल दादा की बैठक के आगे आठ दस लोग जमा थे | जो स्वाभाविक था वही विचार आया और बैठक में पैर रखते ही विचार सही साबित हुआ | दादा के दोनों पैर एक तरफ घूमे पड़े थे और मुँह खुला पड़ा था | कोई आशावादी था, आगे खड़े लोगो से बोला "नबज टटोल के देख तो लो , क्या पता साँस बाकी होवै | " आगे खड़े किसी नौजवान ने इसे अपनी पड़ताल की तौहीन माना और ऊँचा हो बोला "नाय है कुछ भी , ठन्डे पड़ गए | मट्टी ही बची है अब भईया , कुछ नाय बचा | " फिर कुछ लोग ऐसे होते है जो सब कुछ आभास होने पर भी पूछते है , किसी नए ने पूछा " क्या हुआ ?"तो माहौल के हिसाब से किसी ने संजीदा हो कहा " दादा ख़तम हो गए !"
शरीर जमीन पर उतारने की तैयारी होने लगी लेकिन कोई ठीठ पीछे से आके बोला " अरे गर्दन तो घुमा के देख लो , थोड़ा हिला डुला के देख लियो | " कई झुँझलाये | कई बार ऐसा होता है कि मृत को देख ऐसा भास होता है जैसे सांस लेता हो और अभी तपाक से बोल पड़ेगा | मुझे तो ऐसा ही लगा| और फिर मुझे क्या कई को ऐसा ही लगा | किसी ने दादा के मुँह के आगे कान लगा दिया और जोर से चिल्लाया " अबे , चल लइ है दादा की साँस !" और सचमुच दादा तो लौट आये ! भाग हुई कि चाय लाओ, चाय लाओ |
गरम चाय पेट में जाते ही दादा का शरीर ऐसे हरकत में आया जैसे सर्द पाले में अकड़ी छिपकली ने सूरज की तपिश पा ली हो | किसी ने पूछा " ठीक हो?" और फिर बीड़ी सुलगा के दे दी | दादा ने हाथ जोड़ आसमान की ओर उठा दिए और बोले " बस बालको , चला तो गया हा पर लौट आया | "
फिर वो सुनाते गए | शायद सालों बाद इतना बोले होंगे" तीन जने हे | सफ़ेद झक लत्ता में | बोले कि ऊदल , उठो और चलो | मैं नु बोला के थमो तो सई | अपनी लठिया तो उठा लूँ | "
भीड़ में पीछे कुछ हँसे ,पर अधिकतर गंभीर हो सुनते थे | बीड़ी का कश ले दादा बोले " मेरे पैर ऐसे उठे जैसे कि कोई फूल | और यूँ आँख मूंदते ही बादल ही बादल | "
"फिर , उसके बाद क्या हुआ दादा ?"
दादा ने अपने सूखे लकड़ी से हाथ को गोलाई में घुमाया और बोले " ऐसे बहुत से नर नार चुप्पी चान बढे चले जा रये | मैं, मेरे संग वो तीन फिरस्ते | बड़ा सोयना सा द्वार बना हुआ हा , एक ने हमे रोक लिया | नाम की बूझ हुई लल्ला "
"नाम बताओ "
"ऊदल सिंह "
"बल्द ?"
"फूल सिंह "
"बस इसपे आयके वो चारो चुप | पोथी में देर तक पड़ताल हुई | फिर उ जो चौथा हा ना लल्ला | नु बोला के गलत आदमी को ले आये | हलकी सी डांट देई | "
किसी ने पूछा " उनके मुँह दीखे हे क्या दादा ?"
दादा में जैसे नई ऊर्जा आ गयी थी " अरे नाय , उनके सफ़ेद लत्तो में इतनी तेज़ी ही , कि आँख कहाँ खुली पूरी| "
"और फिर वो नू बोले के चलो वापस , अरर आरर .. बस वही से धक्का दे दिया मुझे और बस्स्स| "
बैठक से कुछ लोग निकलते जा रहे थे कुछ आते जा रहे थे | कुछ दादा की कहानी को दोहरा दूसरों को सुनाते तो कुछ दोबारा उनके मुँह से सुनने की गुजारिश करते | कुछ विश्वास लिए तो कुछ बूढ़े का कपोल समझ , घंटे भर में भीड़ छट गयी |
बमुश्किल घंटा भर बीता होगा | पछाय(पश्चिम ) के मोहल्ले के नरपत चले आते थे अपनी 'राजदूत' पे | बनिए की दुकान से बीड़ी का बण्डल ले नरपत किसी बैठक की ओर मुँह ले बोले " काका , मँड़ैया की नदी में जल तो नाय है आजकल | मोटरसाइकल निकल जाएगी | कही जाना हो ना हो , घर परिवार की लौंडियो को तो खबर देनी ही पड़ेगी | "
एक काका चबूतरे पे चले आये " ऐसा क्या हुआ , के खबर देनी पड़ेगी तड़के तड़के ?"
नरपत उदास हो बोले " पते ना चले , अहह , ऊदल ख़तम हो गए ऊदल | "
"क्या ??"
"भल मानसो , अच्छे खासे उठे , जंगल पानी गए , आके चाय पी और अर बस | बड़े लौंडा कू आवाज़ दी जोर से , अर बसस | ठन्डे पड़ गए| "
आस पास के घरो से जनाने मर्दाने सब सुन गलिहारे में आ गए |
"कौन ?अरे कौन, नरपत कौन ??"
"ऊदल | "
ओहो , तो फ़रिश्तो ने अपनी भूल सही कर ली थी | घंटे भर के भीतर ही | और मैंने देखा कि गाँव के गलियारों में भरे लोग " राम तेरी माया , हे प्रभु तू ही है " जपते, हाँफते ऊदल की मँड़ैया की ओर लपके चले जा रहे थे | सबकी आँखों में भय था और सबकी आवाजें काँप रही थी | चबूतरे पे खड़े खड़े मेरी सांस धौंकनी सी चल रही थी | मृत्यु भय और डर के मारे रीढ़ की हड्डी के ऊपर पसीना छूटना क्या होता है , उस दिन मुझे आभास हुआ था |
इस घटना के बाद तो गांव का मौसम ही बदल गया | ऊदल दादा छह महीना और जीवित रहे | घसियारिनो के झुंड उनकी बैठक के आगे से निकलते तो सब एक सांस हो गीत सा गातीं " पाऊँ लागु हूँ बड़े दादा !!"मोहल्ले भर की गुजरियाँ छोटे बड़े तीज त्यौहार पर कटोरा भर खीर भेज देतीं जिसमें दिल खोल मखाने , दाखें और किशमिश बुरके होते | !राह चलता राहगीर रुक जाता और बीड़ी सुलगा दादा को देता | दादा मना करते तो मिन्नत सी करता ,कहता " लो ,पी भी लो भलमानसो , अब सुलगाय लेई मैंने !" रेलबाई या पुलिस की भर्ती का परचा देने कोई युवा शहर जाता तो बस पकड़ने से पहले दादा के चरण लेना न भूलता | सेवा से कुछ के काम सिंद्ध होते ,कुछ के ना होते, पर ऊदल दादा में पूरे गांव की आस्था जम गयी | दादा स्वर्गलोक हो लौट आये थे |
और फिर जब वे सही में गए तो गाँव की सातों जात के आदमी जुटे | ताजा बारिश में बलबलाती गंगा के किनारे चिता पे लिटा जब काका अग्नि देने को हुए तो भीड़ में बैठे किसी हँसोड़ से रहा न गया " औ काका , अभी रुकियो तनक , कुछ पता ना , अभी लौट सकें है दादा !" और फिर सब जोर जोर से हँस पड़े |
लेकिन धुआँ होते ही मिजाज बदल गया और एक बड़ा रुआंसा हो गा उठा :
"पत्ता टूटा डाल सै , ले गई पवन उड़ाय |
अबके बिछड़े नाय मिले , जाय बसेंगे दूर |
बोलो तो भाई , हर गंगे, हर गंगे | "
और फिर जीवन की क्षणभंगुरता और अपनी अपनी आखिरियत के अहसास से बहुत सी आवाजें एक साथ गा उठीं " बोलो तो भाई हर गंगे , हर गंगे | "
घी की लाग पा भड़की ज्वाला ज्यों ही शरीर को लीलने को ऊपर उठी , लकड़ी के सुलगते दो कुंदे चिता से लुढ़क कर बाहर आ गिरे |
हाँ ये उसी पुराने नीम की लकड़ी के कुंदे थे ! दादा अपने साथ एक पूरा युग समेट कर ले गए थे |
इति |
सचिन कुमार गुर्जर
२१ जनवरी २०२१