शनिवार, 3 अप्रैल 2021

परिवार की लड़कियाँ

माता के जगराते बोले गए | तीर्थों के बरगदों से डोरे बाँधे गए | पचास पचास कोस के बाबाओं की राख भभूत देह से लपेटी गयी | तब जाकर लल्ला पैदा हुआ | तीन तीन देवियों के पीछे आया घर का वारिस | पूरे गाँव में लड्डू बाटें गए | बड़े जनों को चार और छोटे बच्चों को दो दो लड्डू | और तब से ही हर साल कुलदीप के जन्म के त्यौहार  पर पूरा मोहल्ला दावत न्योता जाता है | और वो तीन लड़कियां भाग भाग खीर पूड़िया परोसती हैं | 'थोड़ा और, थोड़ा और' खुशामंद कर कर सब जनों को इतना खिलाती हैं कि वे  मारे बोझ के कराहते हुए उठते हैं |  उन तीनों का जन्मदिन नहीं होता | पर त्यौहार तो परिवार का होता है ना | पूरे परिवार का | और वो परिवार की लड़कियाँ हैं | वैसे ही जैसे परिवार की गायें , परिवार की जमीन , परिवार की अलमारी में रखी उधारी की पर्चियां, पीढ़ी दर पीढ़ी हाथ बदलते जाते पुराने गहने  |

हाँ इतना ही वजूद है उनका  | वो परिवार की हैं | महज, परिवार की लड़कियाँ |  

 


                                                                                     

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