तकनीक ने दुनिया को सिकोड़ दिया है | दुर्गम सुगम्य हो गया है| घंटे मिनटों में सिमट आये है | जहान भर की जानकारी आदमी के अंगूठे के नीचे दबी पड़ी है | तब्दीली आयी है | और कुछ इस रफ़्तार से आयी है कि जिन घरों में एक पीढ़ी पीछे आदमी दिल्ली तक जाने में डरता था , चौपड़ की लकीरो जैसे एक दूसरे को काटती दिल्ली की सड़कों को याद रखना 'तेरह के पहाड़े' को याद रखने से भी कठिन जान पड़ता था ,वहाँ आज लंदन , टोरंटो , दुबई , सिंगापुर , मेलबर्न से होते हुए होनोलूलू और टिमबकटू तक की बातें होती हैं | कुछ ऐसे जैसे ये सब घर के पिछवाड़े ही बसे हों ! लेकिन ज्यों ज्यों दूरियां सिमटी हैं , जमे जमाये परिवार कुछ ऐसे बिखरे हैं जैसे ज्यादा दबाब में मूंगफली के खोल से छिटके छोटे बड़े दाने | बीवी बच्चे इस पार तो अकेला आदमी दूर कही विलायत , शीशे की इमारत में कैद | 'बस ये हो जाए' , 'उतना भर जुट जाए' ,'उसके बाद आराम से इकठ्ठा जियेंगे' |'देखो, बेटे के लिए मकान हो गया है , एक जमीन का टुकड़ा बेटी के नाम हो जाए तो बच्चो की चिंता खत्म' | आगे , 'कुछ अपने लिए जुट जाए , अपना खुद का कारोबार , बुढ़ापे का कुछ साधन जुट जाये ' | बस , बहुत ज्यादा नहीं | कुछ इसी तरह की आकांक्षाओं की सीढ़ियाँ चढ़ते, आशा-निराशा की लहरों में डूबते उतरते , वीडियो कॉल्स में एक दूसरे की पेशानियों की सलवटें पढ़ते , प्रवासियों के परिवार चलते चले जाते हैं | डॉलर , डॉलर, डॉलर ! खुशनसीबी , मुकद्दर ! कुछ इस तरह की खुशामंदे करते अडोसी-पडोसी , यार-रिश्तेदार , और उस सबके बीच अकेलेपन से जूझते परिवार तारीखों के कलेण्डर पलटाते जाते हैं |
कोरोना का आना कुछ ऐसे हुआ जैसे सुई धागे से रफू किये जख्म हों और उन्हें नश्तर से खोला दिया जाए | न इंसानो के कुछ समझ आया न उनके भगवानो को | और सरकारें ? सरकारों के मथ्थे नयी शब्दावलियाँ हत्थे चढ़ गयी | 'लॉक डाउन' , 'बायो बबल' , 'ग्रिडलॉक' , 'क्वारंटीन' , 'नो फ्लाई', 'ग्रीन लेन ' ,'आइसोलेशन' वगैरह वगैरह | जब तक दवाई नहीं , तब तक ढिलाई नहीं !जो जहाँ था वही फंस गया |
फिल्मो में जिस तरह निष्ठुर बाप घर से बाहर कदम रखते बेटे से कहता रहा है : जा तो रहे हो पर वापस देहलीज पर कदम मत रखना | सरकारों ने कुछ वैसा ही रूप धर लिया | निशाने पर आये प्रवासी(NRI पढियेगा ) | जाना है तो जाओ वापसी नहीं | अभी तो नहीं | कब तक नहीं ये भी पता नहीं !
सिंगापुर के स्पेशल इकनोमिक जोन में बनी दर्जनों ऊँची , काले , नीले शीशे की इमारतों में से एक में बैठे, मोटे चश्मे में शक्ल दबाये दीपांकर को कोरोना वोरोना का कोई डर नहीं था | अपने काम की धुन में कंप्यूटर स्क्रीन को वो किसी निशाचर पक्षी की तरह ताकते रहता ,कभी कीबोर्ड को किसी तबला वादक की मानिद पीटता जाता | उसकी तबियत वैसी ही थी जैसी सदा से थी |
दुनिया भर के अखबार पोर्टल कोविड के शिकार लोगों की गिनती क्रिकेट के स्कोर बोर्ड की तरह दिखा रहे थे | चूजे से कमजोर दिल लिए लोगो की पेशानियाँ मारे डर के भीगी रहतीं | शेर सा जबर कलेजा लिए लोगों के चेहरे भी सिकुड़े रहते| वो देखता कि कैसे मारे भय लोगों के गलों के कौए सूखे चले जा रहे हैं | दीपांकर (घर का नाम दीपू ) थोड़ा झुंझलाता , थोड़ा हँसता, फिर बगल के केबिन में बैठे अपने सहकर्मी से कहता " कुछ नहीं है ये , एक तरह का सर्दी जुकाम है बस | गरम पानी पियो , तीन दिन में आदमी चंगा !" फेसमास्क की तंग डोरियों से खिचे उसके कान रडार उपकरण की भॉंति आगे की ओर झूल आये थे | छोटा कद , अधेड़ उम्र , गेहुए वर्ण का वो आदमी , मीटर भर दूरी बनाकर बैठे सहकर्मी के सही गलत हर तर्क को बिना पूरा सुने काट अपनी बात रखता " ये न्यू ऐज वारफेयर है दोस्त , इसे समझो | चीन ने इसे दुनिया की इकॉनमी डुबोने को फैलाया है | ये इतना खतरनाक है नहीं जितना बड़ा हब्बा मीडिया ने खड़ा कर रखा है !"
चर्चाएं चलती रहतीं | फिक्रमंद लोग अपने ही हाथों से नफरत करते जाते | एक हलकी छींक से ट्रेन के कैरिज खाली हो जाते | इस सबके बीच दीपू खुद इत्मीनान में रहता | पुर अमन , वैसे ही जैसे बिना लहर कोई गहरा सागर | कुछ नहीं है ये !
लेकिन जिस तरह शांत सागर की तलहटी में कोई केकड़ा विचरता है , वैसे ही सुकून में डूबे दीपू को एक विचार ततैया के डंक सा छू जाता " गया तो वापस नहीं आ पाउँगा !" सख्त पंडेमिक मैनेजमेंट कोड को लागू करती सिंगापुर सरकार ने साफ़ साफ़ कह दिया :अगर आप डॉक्टर हैं तभी वापस आइयेगा , वरना जहां जाते हैं वही आराम फरमाइयेगा ! " विदेश की नौकरी छोड़ कर जाना , वो भी इस दौर में | उसकी रीड की हड्डी के सिरे से एक सिरहन सी उठती | बस चंद बरस और | दीपू उतना भर रुकना चाहता था | बीवी लड़ती थी | देश में ,बड़े शहर में रहती थी |सास ससुर से दूर | इतना दूर कि वो बेचारे तीज -त्यौहार भी पोता पोती को गोद में उठाने को तरसते | इस लक्ज़री के बाबजूद वो दीपू से लड़ती ! कहती " तुमने मेरी जवानी बर्बाद कर दी | बदकिस्मत हूँ मैं| बहुत हुआ ,इधर आकर रहो | " और फिर दोनों फ़ोन की स्क्रीन में घुस लड़ते जाते , लड़ते ही जाते | जब खरी खोटी सुनते सुनाते दोनों के सिर फटने को होते तो दोनों तय करते कि बॉर्डर खुलते ही बच्चे सिंगापुर आएंगे | और आगे की व्यवस्था ये रहेगी कि टिकट महंगा हो या सस्ता, हर तीन महीने के अंतराल पर दीपू देश आएगा |
पत्नी ज्यादा बात बढाती भी तो क्योंकर | हालात से वाकिफ तो वह भी थी , उसके पास बच्चे तो थे , दीपू के पास वो सुकून भी कहाँ | फिर पूरी जिंदगी रोटी, कपडा और मकान की जुगत में धुंनने से अच्छा है कि चंद साल बाहर कमा लिया जाए | |इधर आदमी की जिंदगी यूँ ही खर्च हो जाती है | प्रदूषण , ट्रैफिक , 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपय्या' , भीड़भाड़ , धक्का मुक्की , छल कपट और इस सबके बीच साधारण से सपने | मकान , बच्चो की पढाई , माँ बाप की देखभाल , गाढ़े वक्त में काम आ जाये उसके लिए कुछ जमा | ये सब जुटाने में भी आदमी का पसीना चोटी से छूटता है और शरीर के पूरे भूगोल को नापता ऐड़ी से निकलता है | लक्ष्य साधे नहीं सधता | प्रवासियों के सपने कुछ अलग नहीं होते | बस फर्क इतना है कि विदेश की चौड़ी सड़कों पर अतिक्रमण नहीं है , हर कोई नियम से चलता है , मील के पत्थर जल्दी जल्दी आते हैं |
दीपू के ऑफिस में ही कोई मित्र था , एकलौता था |माँ बाप देश में थे , खुद बीवी बच्चो समेत सिंगापुर में रहता | एक दिन शाम को पता चला कि उस मित्र के पिता जी चल बसे| ढांढस देने , जरूरी सहयोग देने मित्र लोग जुटे | पता चला वो इंसान गत चार बरसों से देश गया ही नहीं ! बाप कहता रहा | देख जाओ , मन है | उसे फुरसत नहीं हुई |
फिर जब खबर आयी तो वो अपना लेपटॉप बैग पटक बदहवास हो भागा | इस कांउटर से उस काउंटर | एयरलाइन्स वालो ने कहा, एम्बेसी | एम्बेसी वालो ने कहा , कोरोना जांच कराओ | जांच वालो ने कहा कतार में आओ | वो भागा ,दोस्त भी भागे | लेकिन. उस भागदौड़ का फायदा क्या ? जाने वाला चला गया , प्यासा मन लिए , डूबती उबरती आस में मिटटी के तेल की ढिबरी सा जलता बुझता , एकलौते सपूत को देखे बिना चला गया| उफ्फ ये डॉलर | अब वो इंसान 'बी ऍम डब्लू' में घूमे , रियल एस्टेट खड़ा करे | पिता जी तो नहीं आने वाले | जियेगा , मरने वाले के साथ मरता कौन है | लेकिन उसके ही वजूद का एक हिस्सा उसे हमेशा खाता रहेगा | जीवनपर्यन्त |
दीपू फिक्रमंद था, उसके दिल में अभी माँ बाप के लिए जगह बरक़रार थी | सप्ताहांत में माँ पिता जी को फ़ोन करता तो तमाम आसन, योग की जानकारी देता | अपने चचेरे भाई को कुछ पैसे भेजता | उससे उनकी देखभाल करने की गुजारिश करता |विटामिन सी , जिंक , मिनरल्स की डिब्बियाँ भिजवाता | पिता जी से कहता "देखिये , कब तक खुलती है फ्लाइट | "
पिता जी समझदार आदमी थे , कहते " फ़िक्र ना करो , यहाँ सब मजे में है | सब कुसल मंगल "
मौसम बदलता था और जैसा हर बदलते मौसम में होता है , दीपू के पिता जी को हल्का बुखार हो आया | दीपू ने समझाया "तीन दिन ना उतरे तो अस्पताल चले जाना , जांच करा आना |" पिता जी हामी भरते हुए बोले " गंभीर कुछ नहीं , तनिक चिंता ना करो | "
चौथे दिन भाई का फ़ोन आया कि चाचा जी तो आई सी यू में है | कोरोना की पुष्टि हुई है |
और पांचवे दिन दीपू के पिता जी चले गए | ये सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि खबर सुन उसे यकीन ही नहीं हुआ| दो चार जो घनिष्ठ सहकर्मी थे , वो साथ में निकले | वे सब भागे | इस काउंटर से उस काउंटर| एयरलाइन्स से एम्बेसी , एम्बेसी से कोरोना जांच केंद्र | प्रबंध हो गया| दीपू चला गया | जिन्दा रहते ना सही , बाप की मिट्टी के आखिरी दर्शन उसे मुयस्सर हो ही गए |
समय के पंख होते है | तारीखे आगे बढ़ चली | उत्तरी भारत के मैदानों में जाड़ों के दिन बेहद छोटे , सुबह शाम कोहरे की चादर ओढ़े , एक दूसरे को धकेलते हुए निकलते जाने लगे | संस्कार , पितृशोक और मलालो के ज्वर से उबरने में दीपू को महीना भर लग गया | और तब जाकर उसकी तबज्जो अपनी नौकरी की तरफ हुई | वापसी कैसे हो , सब रास्ते बंद ।पूंजीवाद में सब सम्बन्ध नफे नुकसान पर ही टिके होते है | काम नहीं तो वेतन नहीं | वापसी नहीं तो नौकरी नहीं | पिता मृत्यु का दुःख अब झुँझलाहट में तब्दील होने लगा | तमाम दलीले , गुजारिशों के मुलम्मे चढ़ा स्पेशल एंट्री परमिट को अर्जी दी पर ख़ारिज | एक बार नहीं दर्जनों बार ख़ारिज |
हाय री किस्मत ! एक विपदा से उबरे तो दूसरी आन पड़ी | वह छटपटाने लगा | कुछ ऐसे ही जैसे किसी खरगोश को बाहर धकेल उसका बिल मूँद दिया जाए | उम्मीदें , सपने , वादे सब कुछ विदेश की नौकरी से ही तो था |
ऑफिस के मित्र का फ़ोन आया तो दीपू से रहा नहीं गया " यार मुझे लगता है मैंने इधर आकर सही नहीं किया| तूने मुझे क्यों नहीं रोका ? "
मित्र ने समझाया " कैसी बाते करते हो , आ जाओगे वापस | ऐसा सोचा भी कैसे ?"
"नहीं यार , आने का निर्णय प्रैक्टिकल नहीं था !"
"तुम्हे मुझे रोकना चाहिए था | पिता जी तो चले ही गए थे | मैने आकर क्या किया !"
"अरे यार,शर्म करो ,इतने खुदगर्ज़ मत बनो | एकलौते हो , पिता की अंत्येष्टि में भी ना जाते तो कब जाते | "
"खुदगर्ज़ ? हुँह ?"
अब वो गुस्से में फड़फड़ाने लगा "पिता जी कम थे क्या | हर हफ्ते के हफ्ते मैं तोते सा रट्टा लगाता रहा | घर बैठो, घर बैठो |
भाई साब , रिश्तेदारों के रिश्तेदार तक की दावतों में शामिल हुए ये | हर हफ्ते , कभी ये शहर, कभी वो शहर | यार दोस्त | दारु पार्टी | अपनी लापरवाही की वजह से गए है पिता जी |
और खुदगर्ज़ मैं ??"
अब वो अच्छी जगह हैं , क्या बोलू | यहां सामने होते तो..... "
दोस्त हक्का बक्का रह गया | दीपू ऐसा कुछ भी बोल सकता है , ये उम्मीद ना थी | इंसान के चरित्र में भी कितनी परतें होती है "कुछ शर्म करो यार , नौकरी आती जाती रहती है | कुछ कम कमाओगे | नौकरियां तो देश में भी है | किसी और से मत कहना | कोई सुने ना | दुनिया क्या कहेगी | "
पर दीपू भांग खाये भंगड़ी जैसा बकता चला जा रहा था " भाड़ में जाए दुनिया
क्यों ? सुनने वाला भरेगा मेरी किस्ते , वो देगा मुझे ऐसी नौकरी|
बोलो | निर्णय गलत था यार | काश तुमने मुझे रोका होता "
" पिता जी थे यार तुम्हारे "
"तुम नहीं समझोगे यार "और उसने फ़ोन काट दिया |
फिर उसके बाद उसने फ़ोन उठाया ही नहीं | कई दोस्तों ने कोशिश की |
अगले महीने से कंपनी ने उसकी तनख्वाह रोक दी |
कुदरत की व्यवस्था ऐसी है कि वक्त बदलता जरूर है | सूखे के बाद सावन , उजड़ के बाद बहार , सब एक चक्र से घुमते जाते है |
समय लगा ,दीपू का एंट्री पास क्लियर हो गया | और महीनो बाद वो अपने काम , अपने ऑफिससिंगापुर लौट आया | रुपयों में टूटते डॉलर लौट आये | 'बस ये हो जाए' , 'उतना भर और जुट जाए' , दिमाग ने ख्वाबों की बुनाई जहाँ छोड़ी थी ,वही से फिर से शुरू कर दी |
सिंगापुर में सुंगई नदी के किनारे 'क्लार्क की ' में दर्जनों ओपन एयर रेस्टोरेंट है | 'बार' है , जहाँ कम उम्र वियतनामी , फिलिपिनो लड़कियाँ बेहद कम कपड़ो में शराब परोसती है | रोस्टेड चिकन , सी फ़ूड से भरी तस्तरियाँ ले सुंदरियाँ ग्राहकों की खातिर में भागी जा रही होती हैं | नीचे नदी में धीमी गति से लाल पीली बत्त्ती लगी बोटस पर्यटकों को ढोती जाती हैं | कई मित्र जमा थे | जूसी चिकन विंग्स और उम्दा स्कॉच के असर में तर दीपू का गला भर आया | " पिता जी देवता थे यार | मन में फांस की तरह चुभन है मेरे | मुझे उन्हें टाइम देना चाहिए था | "
एल्कोहल के उफान ने दिमाग को जकड़ा तो उसकी हिड़की बध गयी| चश्मे के मोटे किनारे तोड़ते आंसू बह चले | " पैसा क्या है यार | हाथ का मैल ही तो है | कोई मेरी उम्र भर की कमाई भी ले ले ना यार , पिता जी को वापस कर दे | मैं सोचूंगा तक नहीं ! सच कहता हू , सोचूंगा तक नहीं !
"
फ़ोन वाल पर लगी उसके पिता की तस्वीर स्क्रीन के बुझते ही गायब हो गयी |और शोक में डूबे बेटे ने ग्लेंफिडिक सिंगल माल्ट का गिलास कुछ इस भाव से हलक में उड़ेल लिया जैसे जहर पीता हो |
-सचिन कुमार गुर्जर
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