सुबह के आठ -साढ़े आठ का समय हुआ होगा। इडली डोसे की दुकान में मैं अकेला ग्राहक था। दुकानदार मेरे से अगली कुर्सी की कतार में बैठ मेरे से बतला रहा था।
"पहली बार मैंने किसी ऐसे तमिल आदमी को देखा है , जिसे तमिल बोलनी नहीं आती " मैं बोला। वो चौबीस पच्चीस साल का लड़का थोड़ा शर्मिंदा हुआ " एक्चुअली , कई पीढ़िया हो गयी इधर ही दिल्ली में । मम्मी पापा बोल लेते हैं , मैं समझ लेता हूँ। "
नारियल की चटनी में जरूरत से ज्यादा पानी था | मैं इडली के टुकड़े को पहले नारियल की चटनी में डुबोता फिर लाल मिर्च की चटनी में। चार लड़कियों का समूह धड़धड़ाता हुआ दुकान में दाखिल हुआ और एंट्री के पास की ही कुर्सियों पर काबिज हो गया। दुकानदार को कुछ बोल उनमें से एक मेज पर उँगलियाँ बजाते हुए दूसरी से बोली " तो फेर के देवे गी बॉयफ्रेंड नै बर्डे गिफ्ट में! "और फिर चारो की हंसी का फब्बारा कुछ यूँ छूटा जैसे कोई बगल की नरम खाल में गुदगुदा के निकल जाए।
वो निश्चित रूप से हरियाणा या उसके सीमान्त इलाके की नवयुवतियां थी | बीस इक्कीस की उम्र की। उनमें से एक, जिसकी गर्दन सुराही की तरह लम्बी थी और जिसकी मूछें थी , उसने मुझे कुछ ऐसे भाव से देखा जैसे कोई भी आदमी किसी निर्जीव वस्तु जैसे कुर्सी या मेज को देखता है।हाँ उसकी मूछें थी , उतनी जितनी की सोलह सत्रह की उम्र पकड़ते लड़को की होती है।
मैंने पाया कि उन चारों ने टी शर्ट और काले सलेटी लोअर डाले हुए थे और उनके हाव भाव हॉस्टल में रहने वाले आलसी , उबासी लेते , बिना मुँह धोये नाश्ता करने वाले लड़को जैसे ही थे । बन ठनकर घर से निकलने का जो मूल स्त्री स्वभाब होता है, नाखून बराबर भी नुमाया न था। हाँ , नई जबानी की कुदरती चमक उनके चेहरों पर थी , नए खिले फूल सी सुकाया थीं , पर प्रयास तो रत्ती भर भी न था। फिर उमंग में भर उनमे से एक गाने लगी " पल भर के लिए कोई हमे प्यार कर ले , झूठा ही सही "नहीं, वो प्रेमगीत मेरे लिए नहीं था। वो महज एक एक्सप्रेशन था उन्मुक्त , लापरवाह , बंदिशों से परे , बराबरी का जीवन जीने का।
आपने विद्रोही लड़के देखे है ? सुना तो जरूर होगा। वही जो साल दर साल दिल्ली या इलाहाबाद में रह 'यू पी एस सी' की तैयारी करते है।खाकी कुरता पहने , चश्मा लगाए और बाथरूम स्लीपर पहने ऐसे लड़के सरकारी ऑफिसो से घुस बाबुओ को हड़का आते है। मैं कुछ महीनो अपने मित्र के साथ दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहा। मुखर्जी नगर की जमीन , हवा और आसमान , इस सबमें सरकारी नौकरी के कम्पटीशन का खुमार इस कदर है कि आप किसी किसी भी रेहड़ी वाले से मूंगफली या पकोड़ी ले लीजिए और फिर उसे संभालती रत्ती को देखिये , लिखा मिलेगा : "सामान्य अध्धयन , समय तीन घंटे , अधिकतम अंक 250 | " हर रोज हज़ारों हज़ारों की भीड़ कोचिंग सेंटर्स में पहले क्लास लेती है , फिर मॉक टेस्ट देती है । वहाँ बड़े बड़े प्राइवेट हॉस्टल है , जिनमें प्लाईवुड के टुकड़ों से फ़ॉन्ट कर मुर्गी के दड्बो जैसे पार्टीशन बने होते है। बेरोजगारों को किफायती रिहायशगाह उपलब्ध कराने वास्ते। वहाँ देश के कोने कोने के लड़के लड़की मिलेंगें | एक ही ख़्वाब लिए : ऊँचा सरकारी ओहदा।
एक परिचय के दौरान एक लड़के से रहा नहीं गया और बिना किसी लाग लपेट वह मुझसे बोला " आपकी तो उम्र निकल ली भईया जी !"मैंने बताया कि मैं किसी प्राइवेट फर्म में जॉब करता हूँ, यहाँ तैयारी के वास्ते नहीं आया। उनमें से कोई संवेदनशील था , मैं बुरा महसूस न करूँ इसलिए बोला " कोई ना भईया जी , प्राइवेट जॉब भी ऐसी माड़ी न है आजकल! "|ढांढस के लिए मैं शुक्रगुजार था !
फिर मुझे कई लोगो से मिलवाया गया " देखो भाई साब , वो भईया जाते है न , इनका इनकम टैक्स में सब इंस्पेक्टरी में हो गया | इन भईया का सी आर पी आफ के कमांडेंड के लिए हो गया , लेकिन नहीं जा रहे !कुछ और भी बड़ा करेंगे |"
और मुखर्जी नगर की तंग गलियों से गुजरता वह आदमी कुछ ऐसे हाव भाव लिए होता जैसे विराट कोहली शतक मार पवेलियन को लौटता हो !फिर शतक से कम भी तो नहीं, लाखो की भीड़ में कुछ चंद ख़ुशनसीब ही होते है , बाकी बस विद्रोही ही रहते है। क्रूर है पर सत्य है , लाखो जवानियाँ यूँ ही खप रही है।
ऐसे ही किसी एक हॉस्टल में मैंने आज तक की सबसे पावरफुल मोटिवेशनल लाइन पढ़ी जिसे किसी ने अपनी स्टडी टेबल के सामने चस्पा किये हुए था " नौकरी नहीं तो छोकरी नहीं !"
मुखर्जी नगर की इन्ही तंग गलियों में मैं 'विद्रोही लड़कियों ' से भी रूबरू हुआ।
थोड़ा ज्यादा कमा लेनी की चाह में मैं परदेस में रहा हूँ और सिंगापुर में मैंने हर रोज छोटे से भी बेहद छोटे कपड़ों में युवतिओं को देखा है। इस कदर छोटे कि यूँ ही बस या ट्रैन में चढ़ते उतरते , बिना इच्छा ,बिना प्रयास नितम्ब के जोड़ तक नुमाया हो जाते हैं । 'ओवर एक्सपोज़र' इस कदर होता है और इतने लघु अंतराल पर होता रहता है कि रूचि कब अरुचि में तबादला पा लेती है ,एहसास भी नहीं होता। फिर आप दृश्य को ऐसे ही भावशून्य हो देखते है ,जैसे कोई पेड़ या कोई लैम्प-पोस्ट या कोई फुटपाथ की चिकनी रेलिंग।लेकिन मुखर्जी नगर में सब्जी , फलो के ठेलो पर , या पानी-पूरी के अड्डों पर जब मैंने उन लड़कियों को ऊँचे और सस्ते निक्कर पहने खड़े पाया तो मैं हतप्रभ हुए बिना न रह सका।
समाज में दर्शन के भी कुछ अलिखित नियम है | जो आदमी पर कम, स्त्रियों पर ज्यादा लागू होते है।मतलब, टांगे नंगी तो हो सकती है पर 'वेल ग्रूम्ड' ,खूबसूरत होनी चाहिए। निक्कर छोटे हो सकते है , लेकिन डिज़ाइनर और महंगे होने चाहिए!लेकिन खुली गलियों में ठेलो पर दो दो तीन तीन के गुटों में खड़ी उन लड़कियों की नंगी टाँगे ,जिन पर पुरुषों जैसे ही बाल थे , पुरुषो को जैसे दुत्कारती थी। गोल गप्पे खाते कई हाथ नाजुक नरम जरूर थे लेकिन मैंने पाया कि उन पर मेरे हाथों जितने ही बाल थे। दबाने ढकने का प्रयास था ही नहीं। सन्देश साफ़ था , जैसा चाहते हो वैसा नहीं चलेगा।
उन दृश्यों में मैं थोड़ा भयभीत था। मैं पुरुष एक ऊँचे पायदान पर खड़ा था और निचले पायदान से लम्बी डिग भर कोई स्त्री मुझे मेरे पायदान से धक्का दे एक तरफ खिसका अपनी जगह बना रही थी। हाँ हाँ, वो विद्रोह था। स्त्री नें रूप और श्रंगार को अपना औजार बनाने से इंकार कर दिया था। एक ही जैसे नियम के खेल खेलने को कमर कसी जा रही थी | किनारे टूट रहे थे। खांचे चटक रहे थे। आपकी राय हो सकती है कि क्या यह सब ही पुरुष कि बराबरी में खड़े होने के लिए जरूरी है?
ऐसा कर स्त्री पुरुष तो नहीं बनना चाह रही ? चेतना में परिवर्तन बहुयामी होते है| बाहर का दर्शन अंदर के दर्शन से प्रभावित तो होता ही है। मुझे लगता है कि जो स्त्री बिना मूछें छिपाये पुरुष के सामने आने का दम रखती है वो बराबरी की लड़ाई में किसी हद तक भी जाएगी। आपने 'दीपिका' , 'प्रियंका' वाला ग्लैमरस नारी सशक्तिकरण सुना पढ़ा होगा। नारी जब खुद के पंजो पर खड़े हो हक़ मांगती है ,उसकी असली तस्वीर देखनी हो तो मुखर्जीनगर चले जाइए ।
हाँ, संज्ञान रहे , अगर ठेलो वाली तंग गलियों में कोई स्त्री आवाज़ खांटी हरियाणवी में दुत्कारते हुए बोले "परे हट के नें खड़े हो ले बहन के भाई !" , तो मर्दानगी के सुरूर में फड़फड़ाइयेगा मत , चुपचाप रास्ता दे दीजियेगा!
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