"तो क्या आजकल अकेले रहते हो ?"
" हाँ , अकेला ही हूँ काफी समय से "
"अरे वाह , ऐश करो फिर तो !"
हमेशा से ही मुझे ये लगता रहा है कि यह एक तरह का तकिया कलाम है , जिसे लोग- बाग़ यहाँ- वहाँ, गाहे बेगाहे इस्तेमाल करते है। बिना मतलब , बस यूँ ही ,शायद बातचीत का खालीपन भरने के लिए।
लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि नाना प्रकार के लोगो से नाना प्रकार की बातचीत में ये सलाह बार बार नुमाया होने लगी । जिज्ञासा हुई , लगा कि ये अकेले रहने में और अकेले होकर ऐश करने में कुछ तो ऐसा है जिससे मेरा चित्त अनभिज्ञ है। कुछ है जो छूट रहा है। कुछ ऐसा जिसका किस्मत अवसर दे रही थी लेकिन मैं मूर्ख भांप नहीं पा रहा था! मेरे सामाजिक जीवन का दायरा बहुत छोटा है पर है मेरे आस पास ऐसे लोग हमेशा विराजमान रहे है जिनसे सलाह मसविरा किया जा सकता है !
सिंगापूर में मेरे ऑफिस की काले शीशे की सपाट , ऊँची ईमारत कुछ ऐसी थी जैसे कुछ पांच या छै कार्डबोर्ड के चौकोर बक्सों को तले-ऊपर जमा दिया जाए और फिर बीचो बीच के एक बक्से को खींच कर अलग कर दिया जाए। ईमारत में खुद की एक कैंटीन हुआ करती थी लेकिन शाम के समय अधिकांश लोग दो चार , दो चार की टुकड़ियों में लालबत्ती के उस पार बने मॉल में चले जाते । एक तो पैर सीधे हो जाते और फिर मॉल के फ़ूड कोर्ट में खान पान के विकल्प भी ज्यादा होते ।
ऑफिस में एक मित्र थे , बहुत घनिष्ट नहीं पर कई बार जब चाय के लिए बेहतर संगत का अभाव होता तो कभी हम एक दुसरे से पूछ लेते।लम्बे कद के इस इंसान को मैंने हमेशा टीशर्ट और क्रीज जमी हुई पेंट में पाया। नीचे कुछ पुराने हवादार चमड़े के सैंडल पहने होते ,मय जुराब। सिर पर बालो की फसल कही से उजड़ी , तो बकाया जगह से पकी हुई थी । पेट निकला हुआ लेकिन कद लम्बा होने के चलते गेंद जैसा आकार लेने की बजाय यह एक वलय आकार लिए हुए था । कसरत के अभाव में हाथ काफी पतले थे और ऐसा आभास कराते थे जैसे किसी ने लम्बी पकी लौकी में, जो ऊपर से पतली और नीचे मोटी हो , उसमे दो सपाट लकड़ी की कम्मचिया घुसेड दी हो। शायद हफ्ते में एक बार शेव करने वाले , चालीस जमा की उम्र के उस इंसान के हाव भाव , प्रस्तुतीकरण को देखकर लगता कि वो शख्स अपने हिस्से की उम्र जी चुका था , अब बस जो भी करना था , बच्चो के लिए करना था ।
अक्सर ऐसा होता कि जब भी मैं पूछता " चाय के लिए चलोगे ?" तो कभी अकारण एक हाथ से दूसरा हाथ खुजा तो कभी दो उँगलियों से सिर की चाँद खुजा जबाब मिलता " अच्छा , रुको , पांच मिनट दे दो। "उस दिन ऑफिस से निकल ,ग्रीन हेज के किनारे किनारे चल ,हम लाल बत्ती पर खड़े थे , ट्रैफिक रुकने के इंतज़ार मे।
"वीकेंड पर क्या करते हो " मैंने पुछा।
अपनी उदेड़बुन से बाहर आते हुए मित्र ने कहा " ऐसे ही निकल जाता है , कुछ अच्छा पका लिया , कोई मूवी देख ली या कुछ पढ़ लिया या आस पास घूम आया , शाम को बैठ के बियर पी ली। "
"अच्छा , तो फॅमिली उधर देश में ही है क्या ?"
"हाँ , काफी समय से "
"और तुम्हारी ?"
मैंने कहा " हाँ , मैं इधर अकेले ही रहता हूँ "
मैंने पाया कि मित्र की भाग भंगिमा अचानक से बदली और वो बड़ी तर तबियत लिए बोले " सही , बहुत सही , ऐश करो फिर तो !"
फ़ूड कोर्ट के लिए एस्कलेटर चढ़ने से थोड़ा पहले एक किताबो की सेल लगी थी। एक बुक थी : दी कलेक्टेड स्टोरीज ऑफ़ इस्साक बबेल। पिछले ही दिनों विकिपीडिया पे कुछ पढ़ते पढ़ते मैंने बबेल के बारे में कुछ पढ़ा था। मैंने किताब उठा ली और हम फ़ूड कोर्ट की किनारे की टेबल पर आ जमे।
चाय की एक चुस्की ले और फिर शीशे से बाहर घास के लॉन और उसके किनारे बने जापानीज फिश पोंड पर एक सरसरी नज़र मार मैंने पुछा " एक बात बताओ यार , ये ऐश करना क्या होता है ?"
मित्र ने जबाब देना जरूरी नहीं समझा , एक हलकी सी हंसी जिसने कोई ख़ास ऊर्जा नहीं थी , हंसी और फिर चाय में मशगूल हो गए।
"नहीं , गंभीर सवाल है ये , 'ऐश करना ' है क्या ?"
"मैं इसलिए पूछ रहा हु कि ऐश करना अपने आप में एक ऐसा जेनेरिक सा टर्म है जो मुझे लगता है कि लोगबाग बस यु ही बोलते हैं |"
चूँकि मैंने काफी तबज्जो दे कर बात को दोहराया था इसलिए अब मित्र ने कुछ रूचि ली।
"देखो , हर किसी का अपना अपना मिजाज होता है। उसी के हिसाब से आदमी ऐश करता है। "
"आदमी के अपने इंटरेस्ट होते है , अब तुम फॅमिली में हो , जिम्मेदारी से घिरे हो , या कई बार दबाब होता है , काफी कुछ करना चाहते हो , नहीं कर पाते "
"काफी कुछ मतलब ? " मैंने पुछा।
"काफी कुछ मतलब ऐश यार !"
अब मुझे झुंझलाहट हुई , मैंने मुठ्ठी का एक झूठा प्रहार बबेल के चेहरे पर किया और बोला " सर सर।। वही तो मैं पूछ रहा , ऐश करना होता क्या है ?"
उस आदमी को लगा जैसे मैं उसका इंटरव्यू ले रहा हूँ।
कुछ देर उसने मेरे चेहरे को ऐसे देखा जैसे ये जानने कि कोशिश में हो कि सामने बैठा मैं भरोसे का आदमी हूँ कि नहीं।
" अच्छा खाना , दारु पार्टी , घूमना फिरना , अपने हिसाब से टाइम स्पेंड करना , यही सब "
फिर कुर्सी को पीछे कर एक आधी अंगड़ाई लेते , तिरछी शरारती मुस्कान में बोला "या फिर अगर तुम्हारा इंटरेस्ट स्त्री जाति में है तो।। "
"कहा कहा घूमे हो , ये बताओ ? " उसने मुझसे पूछ।
"एक बार लंगकावी , एक बार फुकेत और आस पास के आइलैंड्स बस यही " मैंने बताया।
"कभी फिलीपीन्स गए हो , सीबू या मनिला , हूह ?"
"नहीं मैं तो नहीं और तुम? "
"हाँ , कई बार !"
"साउथ ईस्ट एशिया में कही भी जाओ , वही 'बीच' और वही 'सी फ़ूड' , सब एक जैसा ही है " आधे अधूरे अनुभव के सहारे मैं चतुर बनने की कोशिश में था।
"नहीं , नहीं , नहीं " मित्र ने काफी जोर से विरोध किया और मुठ्ठी मेज पर दे मारी।
"वहाँ सब कुछ सस्ता है , सब कुछ मतलब सब कुछ | वो भी फुल दिन !समझे कुछ ? अररर्र अररर्र बाकि जगहों से काफी सस्ता !"
फिर थोड़ा रुक कर जोड़ा " और सब काम काफी प्रोफेशनल तरीके से होता है !"
बाहर जापानीज पोंड में कुछ पीली तो कुछ लाल तो कुछ चितकबरी मछलियों और टर्टल्स को एक दंपत्ति कुछ चारा खिला रहा था और दो छोटे छोटे चीनी बच्चे मछलियाँ देख ख़ुशी से कूद रहे थे।
चाय की आखिरी चुस्की ले और मेज में एक बार फिर ताल ठोक मित्र ने कहा " शर्त के साथ कह सकता हूँ इंडिया के किसी भी कोने में उस तरह का एक्सपीरियंस मिल ही नहीं सकता। वहाँ सब कुछ बड़े प्रोफेशनल तरीके से होता है , सब कुछ !!!!"
ये कहते हुए मित्र ने अपनी आँखो को कुछ इस कदर आसामान की तरफ तरेरा कि लगा कही गुल्ले आँखों के किनारे तोड़ सीबू के लिए ना उड़ जाए !
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