शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

विद्रोही लड़कियां



सुबह के आठ -साढ़े आठ का समय हुआ होगा।  इडली डोसे की दुकान में मैं अकेला ग्राहक था।  दुकानदार मेरे से अगली कुर्सी की कतार में बैठ मेरे से बतला रहा  था।    

"पहली बार मैंने किसी ऐसे तमिल आदमी को देखा है , जिसे तमिल बोलनी नहीं आती " मैं बोला।  वो चौबीस पच्चीस साल का लड़का थोड़ा शर्मिंदा हुआ " एक्चुअली , कई पीढ़िया हो गयी इधर ही दिल्ली में । मम्मी पापा बोल लेते हैं  , मैं समझ लेता हूँ। "

नारियल की चटनी में जरूरत से ज्यादा पानी था |  मैं इडली के टुकड़े को पहले नारियल की चटनी में डुबोता फिर लाल मिर्च की चटनी में।  चार लड़कियों का समूह धड़धड़ाता हुआ दुकान  में दाखिल हुआ और एंट्री के पास की ही कुर्सियों पर काबिज हो गया। दुकानदार  को कुछ बोल उनमें  से एक मेज पर उँगलियाँ बजाते हुए दूसरी से बोली " तो फेर के देवे गी बॉयफ्रेंड नै  बर्डे गिफ्ट में! "और फिर चारो की हंसी का फब्बारा कुछ यूँ छूटा जैसे कोई बगल की नरम खाल में गुदगुदा के निकल जाए।  

वो निश्चित रूप से हरियाणा  या उसके सीमान्त इलाके की नवयुवतियां थी |  बीस इक्कीस की उम्र की।  उनमें  से एक, जिसकी गर्दन सुराही की तरह लम्बी थी और जिसकी मूछें थी , उसने मुझे कुछ ऐसे भाव से देखा जैसे कोई भी आदमी किसी निर्जीव वस्तु  जैसे कुर्सी या मेज को देखता है।हाँ उसकी मूछें  थी , उतनी जितनी की सोलह सत्रह की उम्र पकड़ते लड़को की होती है।  

मैंने पाया कि उन चारों ने टी शर्ट और काले सलेटी लोअर डाले हुए थे और उनके हाव भाव हॉस्टल में रहने वाले आलसी , उबासी लेते , बिना मुँह  धोये नाश्ता करने वाले लड़को जैसे ही थे । बन ठनकर घर से निकलने का जो मूल  स्त्री स्वभाब होता है, नाखून बराबर भी  नुमाया न था। हाँ , नई जबानी  की कुदरती चमक उनके चेहरों पर थी , नए खिले फूल सी सुकाया थीं , पर प्रयास तो रत्ती भर भी न था।  फिर उमंग में भर उनमे से एक गाने लगी " पल भर के लिए कोई हमे प्यार कर ले , झूठा ही सही "नहीं, वो प्रेमगीत मेरे लिए नहीं था।  वो महज एक एक्सप्रेशन था उन्मुक्त , लापरवाह , बंदिशों से परे , बराबरी का जीवन जीने  का।

आपने विद्रोही लड़के देखे है ? सुना तो जरूर होगा।  वही जो साल दर साल दिल्ली या इलाहाबाद में रह 'यू पी एस सी' की तैयारी करते है।खाकी कुरता पहने , चश्मा लगाए और बाथरूम स्लीपर पहने ऐसे लड़के सरकारी ऑफिसो से घुस बाबुओ को हड़का आते है। मैं कुछ महीनो अपने मित्र के साथ दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहा।   मुखर्जी नगर की जमीन , हवा और आसमान , इस सबमें  सरकारी नौकरी के कम्पटीशन का खुमार इस कदर है कि आप किसी किसी भी रेहड़ी वाले से मूंगफली या पकोड़ी ले लीजिए और फिर उसे संभालती रत्ती को देखिये , लिखा मिलेगा : "सामान्य अध्धयन , समय तीन घंटे , अधिकतम अंक 250 | " हर रोज हज़ारों  हज़ारों  की भीड़ कोचिंग सेंटर्स में पहले क्लास लेती है , फिर मॉक टेस्ट देती है । वहाँ बड़े बड़े प्राइवेट हॉस्टल है , जिनमें  प्लाईवुड के टुकड़ों  से फ़ॉन्ट कर मुर्गी के दड्बो जैसे पार्टीशन बने होते है।  बेरोजगारों को किफायती रिहायशगाह उपलब्ध कराने वास्ते।  वहाँ देश के कोने कोने के लड़के लड़की मिलेंगें  |  एक ही ख़्वाब लिए : ऊँचा सरकारी ओहदा।  

एक परिचय के दौरान एक लड़के से रहा नहीं गया  और बिना किसी लाग लपेट वह  मुझसे बोला " आपकी तो उम्र निकल ली भईया जी !"मैंने बताया कि मैं किसी प्राइवेट फर्म में जॉब करता हूँ, यहाँ तैयारी के वास्ते नहीं आया।  उनमें  से कोई संवेदनशील  था , मैं बुरा महसूस  न करूँ इसलिए बोला " कोई ना भईया  जी , प्राइवेट जॉब भी ऐसी माड़ी न है आजकल! "|ढांढस के लिए मैं शुक्रगुजार था !

फिर मुझे कई लोगो से मिलवाया  गया " देखो भाई साब , वो भईया जाते है न , इनका इनकम टैक्स में सब इंस्पेक्टरी में हो गया | इन भईया का सी आर पी आफ के कमांडेंड के लिए हो गया , लेकिन नहीं जा रहे !कुछ और भी बड़ा करेंगे |"

और  मुखर्जी नगर की तंग गलियों से गुजरता वह  आदमी कुछ ऐसे हाव भाव लिए होता जैसे विराट कोहली शतक मार पवेलियन को लौटता हो !फिर शतक से कम भी तो नहीं, लाखो की भीड़ में कुछ चंद ख़ुशनसीब ही होते है , बाकी बस  विद्रोही ही रहते है। क्रूर है पर सत्य है , लाखो जवानियाँ यूँ ही खप रही है।   

ऐसे ही किसी एक हॉस्टल में मैंने आज  तक की सबसे पावरफुल मोटिवेशनल लाइन पढ़ी जिसे किसी ने अपनी स्टडी टेबल के सामने  चस्पा किये हुए था  " नौकरी नहीं तो छोकरी नहीं !"

मुखर्जी नगर की इन्ही तंग गलियों में मैं 'विद्रोही लड़कियों ' से भी रूबरू हुआ। 

थोड़ा ज्यादा कमा लेनी की चाह में मैं परदेस में रहा हूँ और सिंगापुर  में मैंने हर रोज छोटे से भी बेहद छोटे कपड़ों  में युवतिओं को देखा है।  इस कदर छोटे कि यूँ ही बस या ट्रैन में चढ़ते उतरते , बिना इच्छा ,बिना प्रयास नितम्ब के जोड़ तक नुमाया हो जाते हैं । 'ओवर एक्सपोज़र' इस कदर होता है  और इतने लघु अंतराल पर होता रहता है कि रूचि कब  अरुचि में तबादला पा लेती है ,एहसास भी नहीं होता।  फिर आप दृश्य को ऐसे ही भावशून्य हो देखते  है ,जैसे कोई पेड़ या कोई लैम्प-पोस्ट या कोई फुटपाथ की चिकनी  रेलिंग।लेकिन मुखर्जी नगर में सब्जी , फलो के ठेलो पर , या पानी-पूरी के अड्डों पर जब मैंने उन लड़कियों को ऊँचे और सस्ते निक्कर  पहने खड़े पाया तो मैं हतप्रभ हुए बिना न रह सका।  

समाज में दर्शन के भी कुछ अलिखित नियम है | जो आदमी पर कम, स्त्रियों पर ज्यादा लागू होते है।मतलब, टांगे नंगी तो हो सकती  है पर 'वेल ग्रूम्ड' ,खूबसूरत होनी चाहिए।  निक्कर छोटे हो सकते है , लेकिन डिज़ाइनर और महंगे होने चाहिए!लेकिन खुली गलियों में ठेलो पर दो दो तीन तीन के गुटों में खड़ी उन लड़कियों की नंगी टाँगे ,जिन पर पुरुषों  जैसे ही बाल थे , पुरुषो को जैसे दुत्कारती थी।  गोल गप्पे खाते कई हाथ नाजुक नरम जरूर थे लेकिन मैंने पाया कि उन पर मेरे हाथों  जितने  ही बाल थे। दबाने ढकने का प्रयास था ही नहीं। सन्देश साफ़ था , जैसा चाहते हो वैसा नहीं चलेगा।  

उन दृश्यों में मैं थोड़ा भयभीत था।  मैं पुरुष एक ऊँचे पायदान पर खड़ा था और निचले पायदान से लम्बी डिग भर कोई स्त्री मुझे मेरे पायदान से धक्का दे एक तरफ खिसका अपनी जगह बना रही थी। हाँ  हाँ, वो  विद्रोह था। स्त्री नें  रूप और श्रंगार को अपना औजार बनाने से इंकार  कर दिया था।  एक ही जैसे नियम के खेल खेलने को कमर कसी जा रही थी | किनारे टूट रहे थे। खांचे चटक रहे थे। आपकी राय हो सकती है कि क्या यह सब ही पुरुष कि बराबरी में खड़े होने के लिए जरूरी है?  

ऐसा कर स्त्री पुरुष तो नहीं बनना चाह रही ? चेतना में परिवर्तन बहुयामी होते है|  बाहर का दर्शन अंदर के दर्शन से प्रभावित तो होता ही है।  मुझे लगता है  कि जो स्त्री बिना मूछें छिपाये पुरुष के सामने आने का दम रखती है वो बराबरी की लड़ाई में किसी हद तक भी जाएगी।  आपने 'दीपिका' , 'प्रियंका' वाला ग्लैमरस नारी  सशक्तिकरण सुना पढ़ा होगा।  नारी जब खुद के पंजो पर खड़े हो हक़ मांगती है ,उसकी असली तस्वीर देखनी हो तो मुखर्जीनगर चले जाइए ।  

हाँ, संज्ञान  रहे , अगर ठेलो वाली तंग गलियों  में कोई स्त्री आवाज़ खांटी हरियाणवी में दुत्कारते हुए बोले "परे हट के नें खड़े हो ले बहन के भाई !" , तो मर्दानगी के सुरूर में फड़फड़ाइयेगा मत , चुपचाप रास्ता दे दीजियेगा!        

  


                                                     #WomenEmpowerment    #HindiShortStory


 

बिरादरी का आदमी



लाल ईंटो का खड़ंजा , जो काले डामर की सड़क को गांव से जोड़ता था , भरा जा रहा था।  खड़ंजे पर गाय भैंस के गोबर और नाली के सूखे कीचड से बनी पपड़ी पर छोटे -बड़े , कुछ नंगे तो कुछ चप्पलो में घुसे पैर बदहवास , धड़धड़ाते  चले जा रहे थे।  "अरे म्हारी ससुआ के अंधाधुन्द भगामै हँगे !" बल्लू काका अनजान ड्राइवर पर  खीज  रहे थे और जितना शरीर सहयोग करता था  , उतनी रफ़्तार  से  नौजवानो की भीड़ के पीछे पीछे घिसटते चले जा रहे  थे।

कसबे की हाट से लौटते मुसाफिरों का 'टम्पू' , नहर के पुल के पार एक खेत में , खेत जो  की सड़क से कम से कम पांच फ़ीट गहरा था , पलट गया था ।  तीनो  टायर आसमान की ओर।  आलू - गोभी , पॉलीथिन में बधे मसाले , नन्ही बारीक मछलियां  , काली थैलियों में बधे मॉस के टुकड़े , लाल दवाई की शीशियां , जूते चप्पल  ,सब छितराये पड़े थे।  हड्डी पंजर तो कई के टूटे, पर एक बूढ़ा आदमी , जो छिटक कर दूर  सरकंडो के झुण्ड में जा गिरा था , उसने कुछ देर हाथ पैर फ़ेंक  छटपटाना बंद कर दिया था ।  लम्बी , हिना में पुती दाढ़ी गालों के दोनों कुओं  को ढके हुए थी , साफ़  लेकिन पुराना कुरता डाले  था।   दुर्घटना के बाबजूद  तेहमन्द अपनी जिम्मेदारी संभाले सूखी टांगो को ढ़ापे  था।  

"चलो कोई ना , बुढ़ाई की ढिमरी  तो एक दो साल  में वैसे भी बुझ ही जाती !" कोई धीमे से फुसफुसाया था और फिर उतनी ही धीमी आवाज़ में किसी ने 'हम्बे !' कह कर समर्थन किया था ।  किसी ने पहचान लिया और कुछ देर बाद पास के गांव के जुलाहे चले आये।  कुछ रोये |  अपने के जाने पर कौन नहीं रोता।  सड़क की पालट पर खड़े एक आदमी ने , जो उनमे से ही एक था और इल्मदार  था , बीड़ी का कश लगा बोला  " बस जी , इत्ती ही लिखा के लाये थे चचा।  बहाना तो कुछ न कुछ बनता ही है , ऊपर वाले की जो मर्ज़ी | " और फिर उसने अपने हाथ इबादत में आसमान की ओर उठा दिए । फिर  जुलाहों का झुंड अपने बूढ़े की मिटटी  को ले शाम के झुकमुके में खो गया ।

बल्लू काका का गुस्सा नाजायज नहीं था।  दरअसल ,दर्जन भर गावों को राष्ट्रीय राजमार्ग से जोड़ती  ये सड़क कई सालो से जर्जर  थी।सरकार की मेहर हुई , चौड़ी हो गयी और बेहद चिकनी भी ।  अचानक से नए खून  के लौंडे  अपना आपा खोने लगे।  कानो में मोबाइल फ़ोन की लीड घुसेड़े और रेस का तार पूरा खींच कोई नौजवान फर्राटे मारता निकलता तो कोई बुजुर्ग भी आपा खो बैठता " ऐ देखो , ऐ देखो , खुद भी मरेंगे भेन्ना $$ के , और दूसरो को भी मारेंगे। "


मड़ैया के बागबां  मंडी में सब्जी बेच बाकी बची आलू प्याज़ के साथ लौटते थे।  ठीक उसी ठोर पर मिनी ट्रक पलट गया।  एक जवान चला गया।  कई रोये और बड़े बदहवास हो रोये।  पर उनमे से एक जो काफी समझदार था , चैक की फुल बाजू बुशर्ट और नीचे पजामा पहने था , उसने खेत की पालट पर खड़े हो कहा "   देखो जी , जिसकी जहाँ लिख दी , उसकी वहाँ आनी है, अर जैसे  लिख दी , वैसे आनी है। "उसने आसमान की ओर ऊँगली उठा दी और भगवान पर लगभग तोहमद जड़ते हुए जोड़ा " जैसी उसकी  मर्जी !"और फिर  बगवानों का वो नर झुण्ड , बगवान  जिनसे  प्याज़ , शलजम और पसीने की घुलमिली बू आती  थी और जिनके पाजमो की अंटियों में बाजार में  कमाए कुछ गुड़मुड़ मैले नोट और सिक्के बधे थे , वो बगवान यूकेलिप्टीसो के बाड़े के बीच से जाने वाले कच्चे रास्ते पर उतर गए।            

  

आपको क्या लगता है कि भारत के गाँवो में "घनन घनन घन घिर आये बदरा " पर नंग धडंग हो इन्दर देवता  को रिझाने वाले लोग बसते है ? ऐसा नहीं है , ये बस फ़िल्मी चित्रण है , देखने में अच्छा लगता है | सोचने  समझने वाले लोग गावों में भी है | मंत्रणा हुई , बड़ी पाखड़ तले , सोचने समझने वाले छोटे बड़े दिमागों में रस्सा कसी हुई।   विचार हुआ कि आखिर इसी जगह हादसे क्यों और वो भी  इतने  कम अर्से  में  ।

किसी बूढ़े ने कुछ कहा तो पीले रंग और कमजोर हाड का  जीतू अपनी वाणी का संतुलन खो बैठा।  उसने सलेटी रंग की टीशर्ट पहनी थी जिस पर चे गुएवारा की फोटो छपी थी। किसी क्रांतिकारी की  तरह उबला   " अजी जमराज काहा , गधैय्या की  पूच !!"

फिर सँभलते हुए वो खड़ा हुआ बोला " देखो , मसला ऐ है कि नहर के पुल का ढाल है तेज और फिर ढाल ख़तम होने से पहले ही आ जावै है मोड़ "

" यूँ होया करै है  कै  जो पुराना ड्राइवर है उ हौले सै निकाल लेवे है अर जो  नौसिखिया हौवे है उ मात खा  जावै है। "

"फिर सड़क की दोनों ओर पुश्ते भी तो नाय  बंधे  है ?"

सबको बात जँची, और फैसला  हुआ कि मजिस्ट्रेट के यहाँ दरखास (प्रार्थना पत्र ) लगाई जाए जिसपर गांव के हर जात हर मोहल्ले के आदमी के दस्तखत हो।  किसी ने चिंता की कि  जायेगा कौन तो जीतू फिर बोला " जाने कि जरूरत क्या है , सब काम ऑनलाइन है , शिकायत पोर्टल पे सीधे एप्लीकेशन लगाओ , सात  दिन में शर्तिया कार्यवाही!  "

जागरूक और पढ़े लिखे नौजवान लोक निर्माण विभाग से जबाब मांग रहे थे। और जबाब आया भी , ठीक सात  दिन बाद! लोक निर्माण विभाग के क्लर्क ने लिखा " चूँकि मामला पुल से जुड़ा है , अतः आप सेतु निर्माण विभाग में अर्जी देवें | "                      सेतु विभाग वालों ने लिखा " चूँकि मामला सड़क के मोड़ का है ,अतः लोक निर्माण विभाग को ही अर्जी देवें |"

गांव  वाले समझ गए कि सरकारी बाबुओ ने मामले के साथ फूटबाल फूटबाल खेलना शुरू कर दिया है | जागरूक लोगो ने प्रतिक्रिया दी " लोक निर्माण विभाग , सेतु विभाग मिलकर मामले का संज्ञान लेवे , अर्जी की कॉपी मुख्यमंत्री ऑफिस में प्रेषित की जा रही है | कार्यवाही न होने पर ग्रामीण धरना देने को बाधित होंगे | "

तब जाके सरकारी बाबुओ में कुछ हडकल हुई | जबाब आया " नियत स्थान का सर्वेक्षण किया गया तथा निर्माण में किसी भी तरह की अनियमितता  नहीं पायी गयी | स्थान पर कुछ दुर्घटनाओं का होना महज एक संयोग है | "

महज एक संयोग !सबको पता था , जबाब से कोई हतप्रभ नहीं हुआ | हिन्दुस्तान में आप ऑनलाइन लाइए या ऑफलाइन , सरकारी बाबू सबका भरता बना देते है | सतही व्यवस्थाएं बदलती रहती है , चीज़े अपने ढर्रे पर ही रहती है | 

बड़ी पाखड़ तले फिर चर्चा हुई | विचार हुआ कि सरकारी मुलाजिमों का जबाब तो सबको पता ही था | लेकिन जब पुल  बनता था उसी वक़्त गांव में 'बड़े' क्यों सोये रहे | दिखता नहीं था कि ठेकेदार मिट्टी कम डालता रहा , डामर खाता रहा और सड़क की पालट बांधे बिना ही ठेका पास करा ले गया | जवान शहरों में कमाते थे लेकिन बुजुर्ग ? तभी विरोध क्यों नहीं हुआ ?

काफी देर सन्नाटा रहा | "अहह , अरे उ .. अरे उ ठेकेदार अपनी बिरादरी का आदमी था यार !" किसी बुजुर्ग ने  बीड़ी का कस लेते हुए कहा था | 

और फिर सर्वसम्मति से तय हुआ था कि मामले को अब छोड़ा जाए और जैसे 'ऊपर वाला' रखे वैसे ही रहा जाए !!


                                                                  सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                  #castesystem , #babudom , hindishortstory


                                                  

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

सब कुछ




"तो क्या आजकल अकेले रहते हो ?"

" हाँ , अकेला ही हूँ काफी समय  से  "

"अरे वाह , ऐश करो फिर तो !"

 हमेशा से ही मुझे ये लगता रहा है  कि यह एक तरह का तकिया कलाम है , जिसे लोग- बाग़ यहाँ- वहाँ, गाहे बेगाहे इस्तेमाल करते है।  बिना मतलब , बस यूँ ही ,शायद बातचीत का खालीपन भरने के लिए।  

लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि नाना प्रकार के लोगो से नाना प्रकार की बातचीत में ये सलाह बार  बार नुमाया होने लगी । जिज्ञासा हुई  , लगा कि ये अकेले रहने में और अकेले होकर ऐश करने में कुछ तो ऐसा है जिससे मेरा चित्त अनभिज्ञ है।  कुछ है जो  छूट रहा है।  कुछ ऐसा जिसका किस्मत अवसर दे रही थी  लेकिन मैं मूर्ख भांप नहीं पा रहा था! मेरे सामाजिक जीवन का दायरा बहुत छोटा है पर है मेरे आस पास ऐसे लोग हमेशा विराजमान रहे है जिनसे सलाह मसविरा किया जा सकता है   !

सिंगापूर में मेरे ऑफिस की काले शीशे की सपाट , ऊँची ईमारत कुछ ऐसी थी जैसे कुछ पांच या छै कार्डबोर्ड के चौकोर बक्सों को तले-ऊपर जमा दिया जाए और फिर बीचो बीच के एक बक्से को खींच कर  अलग कर दिया जाए।  ईमारत में  खुद की एक कैंटीन हुआ करती थी  लेकिन शाम के समय अधिकांश लोग दो चार , दो चार की टुकड़ियों  में लालबत्ती के उस पार बने मॉल में चले जाते । एक तो  पैर सीधे  हो जाते और फिर मॉल के फ़ूड कोर्ट में खान पान के विकल्प भी ज्यादा होते ।

 ऑफिस में एक मित्र थे   , बहुत घनिष्ट नहीं पर कई बार जब चाय के लिए बेहतर संगत का अभाव होता तो कभी हम एक दुसरे से पूछ लेते।लम्बे कद के इस इंसान को मैंने हमेशा टीशर्ट और क्रीज जमी हुई पेंट में  पाया।  नीचे कुछ पुराने हवादार चमड़े के सैंडल पहने होते ,मय जुराब।  सिर पर बालो की फसल कही से उजड़ी , तो बकाया  जगह  से पकी हुई थी । पेट निकला हुआ लेकिन कद लम्बा होने  के चलते गेंद जैसा आकार लेने की बजाय यह एक वलय आकार लिए हुए था । कसरत के अभाव में हाथ काफी पतले थे  और ऐसा आभास कराते थे  जैसे किसी ने लम्बी पकी लौकी में, जो ऊपर से पतली और नीचे मोटी हो , उसमे  दो सपाट लकड़ी की कम्मचिया  घुसेड दी हो।    शायद हफ्ते में एक बार शेव करने वाले , चालीस जमा की उम्र के उस  इंसान के हाव भाव , प्रस्तुतीकरण को देखकर लगता कि वो  शख्स अपने हिस्से की उम्र जी चुका था , अब बस जो  भी करना था ,  बच्चो के लिए करना था ।

अक्सर ऐसा होता कि  जब भी मैं पूछता  " चाय के लिए चलोगे ?" तो कभी अकारण एक हाथ से दूसरा हाथ खुजा तो कभी दो उँगलियों से सिर की चाँद खुजा जबाब मिलता  " अच्छा , रुको , पांच मिनट दे दो। "उस दिन ऑफिस से निकल ,ग्रीन हेज के किनारे किनारे चल ,हम लाल बत्ती पर खड़े थे , ट्रैफिक रुकने के इंतज़ार मे।         

"वीकेंड पर क्या करते हो " मैंने पुछा।  

अपनी उदेड़बुन से बाहर आते हुए मित्र ने कहा " ऐसे ही निकल जाता है , कुछ अच्छा पका लिया , कोई मूवी देख ली या कुछ पढ़  लिया या आस पास घूम  आया , शाम को बैठ के बियर पी ली।   "

"अच्छा , तो फॅमिली उधर देश में ही है क्या ?"

"हाँ , काफी समय से "

"और तुम्हारी ?"

मैंने कहा " हाँ , मैं इधर अकेले ही रहता हूँ "

मैंने पाया कि मित्र की भाग  भंगिमा अचानक से बदली और वो बड़ी तर  तबियत लिए  बोले " सही , बहुत सही , ऐश करो फिर तो !"

फ़ूड कोर्ट के लिए एस्कलेटर चढ़ने से थोड़ा पहले एक किताबो की सेल लगी थी।  एक बुक थी : दी कलेक्टेड स्टोरीज ऑफ़ इस्साक बबेल।  पिछले ही दिनों विकिपीडिया पे कुछ पढ़ते पढ़ते मैंने बबेल के बारे में कुछ पढ़ा था।  मैंने किताब उठा ली और हम फ़ूड कोर्ट की किनारे की टेबल पर आ जमे।  

चाय की एक चुस्की ले और फिर शीशे से बाहर घास के लॉन और उसके किनारे बने जापानीज फिश पोंड पर एक सरसरी नज़र मार मैंने पुछा " एक बात बताओ यार , ये ऐश करना क्या होता है ?"

मित्र ने जबाब देना जरूरी नहीं समझा , एक हलकी सी हंसी जिसने कोई ख़ास ऊर्जा नहीं थी , हंसी और फिर चाय में मशगूल हो गए।  

"नहीं , गंभीर सवाल है ये , 'ऐश करना ' है क्या ?"

"मैं इसलिए पूछ रहा हु कि ऐश करना अपने आप में एक ऐसा जेनेरिक सा टर्म है जो मुझे लगता है कि लोगबाग बस यु ही बोलते हैं |"

चूँकि मैंने काफी तबज्जो दे कर बात को दोहराया था इसलिए अब मित्र ने कुछ रूचि ली।  

"देखो , हर किसी का अपना अपना मिजाज होता है।  उसी के हिसाब से आदमी ऐश करता है। "

"आदमी के अपने इंटरेस्ट होते है , अब तुम फॅमिली में हो , जिम्मेदारी से घिरे हो , या कई बार दबाब होता है , काफी कुछ करना चाहते  हो , नहीं कर पाते "

"काफी कुछ मतलब ? " मैंने पुछा। 

"काफी कुछ मतलब ऐश यार !"

अब मुझे झुंझलाहट हुई , मैंने मुठ्ठी का एक झूठा प्रहार बबेल के चेहरे पर किया और बोला " सर सर।। वही तो मैं पूछ रहा , ऐश  करना होता क्या है ?"

उस आदमी को लगा जैसे मैं उसका इंटरव्यू ले रहा हूँ।  

कुछ देर उसने मेरे चेहरे को ऐसे देखा जैसे ये जानने कि कोशिश में हो कि सामने बैठा मैं भरोसे का आदमी हूँ कि नहीं। 

" अच्छा खाना , दारु पार्टी  , घूमना  फिरना , अपने हिसाब से टाइम स्पेंड करना , यही  सब "

फिर कुर्सी को पीछे कर एक आधी अंगड़ाई लेते , तिरछी शरारती मुस्कान में बोला "या फिर अगर तुम्हारा इंटरेस्ट स्त्री जाति में है तो।।  "    

"कहा कहा घूमे हो , ये बताओ ? " उसने मुझसे पूछ।  

"एक बार लंगकावी   , एक बार फुकेत और  आस पास के आइलैंड्स बस यही  " मैंने बताया।

"कभी फिलीपीन्स गए हो , सीबू या मनिला , हूह ?" 

"नहीं मैं तो नहीं और तुम? "

"हाँ , कई बार !"

"साउथ ईस्ट एशिया में कही भी जाओ , वही 'बीच' और वही 'सी फ़ूड' , सब एक जैसा ही है " आधे अधूरे अनुभव के सहारे मैं चतुर बनने की कोशिश में था।  

"नहीं , नहीं , नहीं " मित्र ने काफी जोर से विरोध किया और मुठ्ठी मेज पर दे मारी।  

"वहाँ सब कुछ  सस्ता है , सब कुछ मतलब सब कुछ | वो भी फुल दिन !समझे कुछ ? अररर्र अररर्र बाकि जगहों से काफी सस्ता !"

फिर थोड़ा रुक कर जोड़ा " और सब काम काफी प्रोफेशनल तरीके से होता है !"

बाहर जापानीज पोंड में कुछ पीली तो कुछ लाल तो कुछ चितकबरी  मछलियों और टर्टल्स को एक दंपत्ति कुछ चारा खिला रहा था और दो छोटे छोटे चीनी बच्चे मछलियाँ देख ख़ुशी से कूद  रहे थे।  

चाय की आखिरी चुस्की ले और मेज में एक बार फिर ताल ठोक मित्र ने कहा " शर्त के साथ कह सकता हूँ इंडिया के किसी भी कोने में उस तरह का एक्सपीरियंस मिल ही नहीं सकता।  वहाँ सब कुछ बड़े प्रोफेशनल तरीके से होता है , सब कुछ !!!!"

ये कहते हुए मित्र ने अपनी आँखो को  कुछ इस कदर आसामान की  तरफ तरेरा कि लगा कही गुल्ले आँखों के किनारे तोड़ सीबू  के लिए ना उड़ जाए ! 

वापस लौटते हुए मेरा व्यथित चित्त कुछ सुकून में था।  'ऐश करो  ' को परिभाषा में बांधने में अभी समय और दूसरी कई वार्ताओं का  लगना बाकी था पर ये जानकार कि मेरी जमीन का आदमी  'सब कुछ ' करने फिलीपीन्स तक जा रहा है , मेरा सीना चौड़ा हुए जा  रहा था!
                                                                                      सचिन कुमार गुर्जर'
                                                                                       8 अक्टूबर २०२० 

                                   
                                                       #men will be men

अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...