शुक्रवार, 14 जून 2019

आखिरी दांव


I
काली अमावस से पिछली रात ,उस हवेली में सब बड़े आराम में थे | एक मै ही था जो उस तंग , बौने पायें  वाले खटोले में करवटें बदल रहा था | ठीक उसी दिन दोपहर में , गांव के बाहर खदाने में , जहाँ गांव के तमाम लोग कूड़ा फेंकते थे , एक काला नाग , ऊँचे दरखत पर चढ़ कऊओं के अंडे खा गया था |
खटोला , जिसे मैंने भाइयों से लड़-झगड़ कर कब्जाया था , उसमे फंसा मै किसी कोवे के अंडे जैसा महसूस कर रहा था |
जब रहा नहीं गया तो मै बोला " माँ , एक बात बताओ , जब सांप ऊँचे नीम पर चढ़ सके है , तो चारपाई के पाए तो बहुत छोटे होवे हैं !"
माँ बड़े आश्वस्त स्वर मे बोली " ना लल्ला , साँप खाट-खटोलो पे ना चढ़ा करते | "
"पर क्यों ?" जबाब से मै मुत्मइन नहीं था |
थोड़ा दूर पुराने कोठड़े के सामने, निवाड़ के पलंग पर लेटी दादी सब सुन रही थी , बोली " जिस दिंना, कोई सांप खाट खटोले पै चढ़ गया , ठीक उसी दिना सांपो का वंश ख़तम हो जावेगा | ऐसा किसी देवता का वचन है |"
फिर हवेली की सारी औरतों और बच्चो को चुनौती देती हुई दादी बोली " कही भी , किसी सांप के खाट पर चढ़ने की बात सुनी हो तो बताओ| "
सचमुच किसी ने नहीं सुनी थी |
यानी खटोले के किले मे मै सुरक्षित था !
गांव के बाहर जोहड़ के किनारे भंगियों के कच्ची भीत, पक्की खपरैलों के कुछ मकानों का छत्ता था | उन घरों मे शायद कुछ मेहमान थे उस रात | करीब आधे घंटे चिंघाड़ने के बाद सूअर अब चुप था | घरों  के बगल में टीकरी पर , लोहे के सरिये में धंसा साबुत जानवर आग की लपटों मे भुनता , अब गुलाबी हो चला था | कोई आधा फर्लांग की दूरी पर , रास्ते के किनारे, मोहल्ले  के कुछ शराबी-कबाबी खुसर-पुसर बतिया रहे थे | खुद को ऊँची जात मानने वाले उन आदमियों मे से कोई भंगियों से सूअर का गोश्त मांगने जाने वाला था |
ये पहली दफा नहीं था | ऐसा करते हुए ये चटोरे लोग पहले भी पकडे गए थे | जब किसी 'समझदार' ने इन्हे ऊँची जात का हवाला दे दुत्कारना चाहा तो इनमे से कोई बड़ा गुमान लिए बोला था " जिसने ना खाया सूरा , ऊ हिन्दू ना है पूरा !"
और मामला रफा दफा हो गया था |
एक बैल गाड़ी चली आ रही थी | हाँकिया बैल को धमकाता " चल भी ले , म्हारे ससुर के | कसाई कै कटवाऊ तुझे | "
बैल कुछ तेज चले पर हाँकिया हड़बड़ाया हुआ था | उसने बांस की पतली लकड़ी मे धंसी कील को एक बैल के पिछवाड़े मे ठोंक दिया | मारे दर्द खड़ंजे पर पैर पटकते बैल भाग निकले |
एक बूढी औरत की आवाज़ आयी " ले चलो रे , जल्दी ले चलो | मेरा लाल , मेरा जिगर का टुकड़ा | आहहह .. हाय रे .. हाय| "
बूढी दादी के पैरो मे जैसे इस्पात के स्प्रिंग लग गए हो " चौधरन चौधरन | "
चिल्लाती हुई दादी दरवाजा खोल गली मे आ गयी | उसके पीछे पीछे हमारी सारी पल्टन |
बैलगाड़ी आगे निकल गयी थी | दो तीन जनें  उसके पीछे रोते हुए लपकते चले जा रहे थे |
आगे जाकर शराबियों की टुकड़ी ने बैलगाड़ी को थाम लिया |
एक नौजवान गाड़ी मे चित्त पड़ा था | उसके मुँह पर एक पुराना, मैला गमछा लिपटा था जिससे बासी , खट्टे दूध की बू आ रही थी |
काका नरपत जो शराबियों की टोली के उस्ताद थे , उन्होंने नौजवान के मुँह से गमछा हटाया और अपने हाथ से उसका सिर डुलाके बोले " जगपाल ओ जगपाल , सुनै है ना | "
कोई प्रतिक्रिया नहीं | उस नौजवान का मुँह आधा खुला था | आँखे बंद थी पर पुतलियाँ  घूम रही थी |
एक हाथ गाडी से नीचे लटका हुआ था तो दूसरा छाती पर जमा था | मैला और सिकुड़ा हुआ घुटन्ना पहने , यूकेलिप्टिस के तने सी मांसल टाँगे ,गाडी के तखत से चिपटी पड़ी थीं  |
रुक रुक कर वो नौजावन ऐसे सांस लेता जैसे बरसात मे कोई भैंसा ज्यादा घास खा गया हो |
काका नरपत हांकिए से मुखातिब हो धीमे से बोले " गुंजायस दिखती हो तो ही ले जइयो भैया |
सुसरे डांग्दर (डॉक्टर) ठन्डे आदमी मे भी सुआ लगा देवे है पैसो के लालच में  | "
काका की बात सुनकर बूढ़ी चौधरन और भी ऊँचा कराहने लगी " ले चलो रे , ले चलो रे जल्दी | मेरा लाल , मेरा लख्ते जिगर | आअह्ह हाय, मुझै मरी कू ना आती रे , हाय..."
माँ का दिल , उसकी ममता |
जगपाल ने फांसी लगा ली थी | किसलिए ? उसकी विहाता ने अपने पीहर से वापस लौटने से मना कर दिया था , इसलिए !


अचानक कुछ नहीं होता , कुछ भी नहीं | भूकंप भी अचानक नहीं आता | धरती के नीचे फँसी चट्टाने एक दूसरे  को रगड़ रही होती है | एक दूसरे को नीचा दिखाने , हावी होने की परिणीति मे धरती डोलती है |
तीन तीन चंट, हर तरह के छल कपट करने वाली बहुओं  को बूढी चौधरन जैसे तैसे बांधती चली आ रही थी | घर का अनुशासन तो उसी दिन उड़न छू हो गया था जिस दिन चौधरी की जिंदगी का कबूतर उड़ा था |
तब से वो बेचारी बूढ़ी, झींकती रोती गाती, जैसे तैसे साझे मे परिवार को चलाती रही |
चौधरी कह गए थे "बेटे अलग हों  तो हवेली के चबूतरे से बाहर तक भी चर्चा न हो | बड़ा पहले अपना मकान बनाये और छोटे उसमें  सहयोग करें  | फिर मंझला | और तब तक खाना सांझे चूल्हे पर ही बने |"
अच्छी खासी जमीन थी | दोनों बड़े खेती मे कमाते |
और सबसे छोटा जगपाल ढोर-डंगरो का दाना पानी करता | दूध दूहता | दूधिये को दूध बेच माँ के हाथ पैसे धरता|
बहुओं  में  छटपटाहट तो बहुत थी पर चौधरी जो कह गए , उस लकीर को कौन लांघे |
पर जब से छोटी राजवती आई, बर्तन भांडे रोज खटकने लगे | इकहरे हाड की सांवली  राजवती बुरी औरत न थी | हाँ वो थोड़ा महत्वकांक्षी थी | बड़े चींटी की मानिंद रेंगे तो रेंगे , भला वह  क्यों उनके चक्कर मे पिछड़े ?
वह  खेत क्यारी अलग कर अपने हिसाब से काम चाहती थी |
फिर उसके जेठ सुबह शाम ही तो खेतो मे होते , दिन मे अपनी अपनी जनानियों संग कमरों मे पड़  सुस्ताते | और उसका हलंता सुबह से लेकर रात तक भैंसो के पिछवाड़े साफ़ करता ! उसके चौड़े  कंधे और उनसे जुड़े  किसी पेड़ के तने जैसे मजबूत हाथों  मे खली (मवेशियों का चारा) की भारी बाल्टियां लटकी ही रहतीं  |
जगमाल घर का ही काम न करता | असल में वह  एक ऐसे पालतू भैंसे जैसा था जिसे मुहल्ले  वाले भी गरज़ पड़ने पर अपने अपने काम मे जोत लेते |
पूरे गांव मे किसी का भी छप्पर छाया जाता तो जगपाल की ढुँढ़वार होती |
और वो गवरू मोटी सी टेक ले पूरी ताकत लगा एक सिरे से अकेला ही छप्पर उठा लेता |
उसके रूखे , झाड़ू जैसे बालो मे कूड़ा करकट घुस जाता | फूस की सूखी पत्तियों से हाथो मे चीरे लग जाते | और वो मुस्कुराता हुआ काम निपटा बदले मे एक गुड़ की डली खाता मस्त सांड सा लम्बी लम्बी डग भरता चला आता | उसकी छोटी आँखे चमकती और दरमियानी गोल नाक के नथुने फड़फड़ाते |
कौन औरत बर्दाश्त करेगी ये सब?
"अय्यो मति लिवाने , मै नाय  आउ अब " गेहूँ की फसल से निपट जब राजवती अपने पीहर गयी तो ये बोल कर गयी |
और जगपाल बाहर से नकली गुस्सा तो अंदर से बहुत सारा प्यार लिए बोला " मति आइये , इहा कौन भूखा है तेरा , मेरे ससुर की !"
पर राजवती मन पक्का करके गयी थी |
पंद्रह दिन पीछे जगपाल पहुंच गए लिबनहार | माँ और बेटी दोनों ने इतनी सुनाई, इतनी सुनाई कि कथा सुनते सुनते रात से भोर हो आई |
सुबह फिर गुजारिश की तो सास बोली " नाय भेजू , जब तक वो डंकनी (दोनों बड़ी जेठानी ) उस घर मे है , नाय भेजूँ  |" थका हारा नौजवान चला आया |
माँ से किस्सा सुनाया तो माँ बोली " अब तो चला गया , अब से आगे न जइयो | अरे , नाक रगड़ती हुई आवेगी | देखियो | चुप्पी चान पड़ा रह तू | रोटी खा , मौज कर | मै भी देखूं , कब तक ना आवेगी |पीहर मे भी भला किसी का गुजारा हुआ है आजतक | "
और भाभियाँ ? भाभियाँ के सुकून की तो खबर ही ना पूछो !
पर मरद की जिंदगी मे उसकी औरत की कमी कोई और पूरा कर सकता  है क्या ?
फिर अभी बिहा को डेढ़ साल ही तो हुआ था | कोई बच्चा भी न था |
पंद्रह दिन और बीते | पड़ोस की एक औरत  जो राजवती के ही गांव की थी , अपने पीहर को जाती थी | जगपाल ने रोक लिया " ओ भाभी , ओ भाभी , खादर कू जाओ हो क्या ?"
फिर कुछ दूर उस औरत के साथ साथ चल जगपाल धीमे से लालच देते बोला " छड़ी के मेले कू गाडी जोड़ूंगा मै भाभी | कह दीजो | उसकी बात सर माथे रखूँगा !"
और प्यारी भाभी ने बड़े भरोसे से कहा " धीरज रखो देवर , संगी लेती आऊंगी  "
जगमाल ने सड़क के किनारे कि पाखड़ तले खूब इंतज़ार किया | निठल्लो की चौकड़ी संग खूब ताश खेले | खूब चिलम धुआँ किया |
उसकी आँखे टकटकी बाँध सड़क पर जमी रहीं | राजवती नहीं आई |
जगमाल की छटपटाहट बढ़ती ही जा रही थी | घर मे उसकी औरत का जिक्र तक न होता था |
मर्द का दिल दिन रात रोता था |
उसने काका नरपत को तैयार किया | कहलवाया "पीर की हाट उजड़ने से पहले नहीं आयी तो मरा मुँह देखेगी | जिन्दे पे ही आ जा , नहीं तो मेरे सीने पे चूड़ी तोड़ने आएगी|  "
नतीजा ? राजवती नहीं आयी !
उस शाम जगमाल ने मोहल्ले के शराबियो के साथ कच्ची बसंती पी , आम के अचार और कच्ची प्याज़ की गोल कतरनों के साथ |
देर से घर पंहुचा तो माँ ने डाट दिया |
कमरे मे जा वो बेचारा नौजवान खटिया पर निढाल सा पड़ा रहा |
खटिया पर कुछ लत्ते बिखरे पड़े थे | एक साडी थी , पुरानी साडी जिसे राजवती घर के काम करते हुए पहनती थी | गुस्से मे जाते हुए नार लत्ते कपडे बिखरे छोड़ गयी थी |
उसने साडी किसी तकिये की भांति गुड़मुड़ कर सिर तले दबा ली | साडी में  राजवती की देह की खुशबु ने उसे पागल सा कर दिया | विरह की वेदना में  पड़ा वो नौजवान घंटो तडफता रहा | अचानक वो बिजली की फुर्ती सा उठा , किबाड़ की सांकल लगाई और फिर उसी साडी मे फंदा लगा, छत के कुंडे से लटक गया | घहघहघह ... किसी जानवर के घुटने जैसी आवाज हुई और हवेली मे हल्ला मच गया |
III
पुरानी पाखड़ तले ताश खेल खेल , निठल्ले शराबी उकता गए थे | दोपहर अभी लम्बी थी |
गजुआ ताऊ , जिनका निकम्मे और बिगडो की टोली मे काका नरपत जितना ही ओहदा था , उन्होंने बच्चों की टोली को बुलावा भेजा |
हम आठ दस लड़के अर्ध चंद्राकार गोले मे खड़े थे | गोले को पूरा करते एक तरफ गजुआ ताऊ बैठे थे | तोतई नाक के नीचे पतली और नीचे को लटकी मूछों  को उन्होंने इत्मीनान से खुजलाया |
फिर कमची से जमीन मे एक वलय खींच दिया | वलय के ऊपर तीन बिंदु बनाये |
फिर हंसी दबाते हुए बोले "बालको , चलो आज मजे करते है !"
"क्या ?" एक साथ कई बारीक स्वर गूंझे |
"चलो आज खरमहुआ पकड़ते है | "
खरमहुआ एक प्रकार की जँगली  चिड़िया जो मुर्गे से कुछ छोटी होती है | कुछ काले कुछ गाजरी रंग की ये चिड़िया बमुश्किल तीन उड़ान भर पाती है | इसका मांस मुर्गे जैसा , पर थोड़ा खट्टा होता है |
खेल खेल मे गजुआ ताऊ अपनी जीभ के चटान का सामान  जुटा रहे थे !
किसी सेनानायक की तरह हमें  समझाते हुए वे  बोले " देखो , खरमहुआ पहली उड़ान झील के खेतों  की तरफ से भरेगा | हम धावा देंगे | पहली बार पंछी गिरेगा दूधियों  के ट्यूबवेल के आस पास |
आराम न पकड़ने पाए | हम फिर धावा देंगे | दूसरी बार पंछी गिरेगा धर्मा के खेतो के आस पास |
हम दबाब बनाते रहेंगे | फिर तीसरी और आखिरी उड़ान मरघटियाई के आस पास ख़तम हो जाएगी |
बस , काम ख़तम !"
पल्टन की ब्रीफिंग ख़तम कर गजुआ ताऊ अपने तहमद की एन्टी से बीड़ी निकाल सुलगा रहे थे |
एक बुजुर्ग जिसने नील लगा कुरता और फेट की धोती बाँधी थी , पाखड़ के पास से गुजरे |
ताऊ की तरफ दायाँ हाथ उठा बुजुर्ग ने ऊँची आवाज़ मे बड़े जोर से कहा " राम राम साहब | "
बुजुर्ग के बाए हाथ मे एक पारदर्शी थैली थी , जिसमे दर्जन भर , अच्छे पके हुए , बड़े बड़े केले थे |
उन केलो को देख मुझे याद आया कि उन गर्मियों की  छुट्टियों मे एक भी रिश्तेदार हमारे घर नहीं आया था | वे  जगपाल के ससुर थे |
पीछे पीछे राजवती चली आ रही थी | जून की तपती दुपहरी मे उसने बड़ी भारी और चमकीली साडी पहनी हुई थी | लम्बा घूँघट काढ़ा था | उसके कंधे अपराध बोध में  झुके थे | ऐसा लगता था जैसे किसी रोग ने उसकी सारी जान खींच ली हो और वो बेचारी रोने का दम भी न रखती हो |
ससुर साब परिवार के किसी बच्चे के हाथ में केले की थैली थमा बाहर की तरह बने दालान की ओर मुड़ गए |
"आ गयी कुलटा , आ गयी मुँह दिखाने | बेशर्म | नीच जात | भंगी की औलाद | " जगपाल खाट पर चित पड़ा था , पड़े पड़े ही फड़फड़ाया |
उसका गला सूजा हुआ था औऱ उस पर बुझे हुए चूने औऱ शहद का लेप लपटा था | बाजु वाले सूती बनियान औऱ तहमद मे वो किसी चोट खाये सांड सा फनफना रहा था |
राजवती कुछ भी ना बोली | चुपचाप सासु के पाँव लगे |  जेठानियों से गले मिली औऱ अपने कमरे मे घुस गयी |
कपडे बदल बाहर निकली तो उसकी सासु ने उसका दुप्पटा पीछे से पकड़ लिया |
"अब क्यों आयी है यु हरामन, पूछ तो इससे | " जगपाल माँ की तरफ देख गुस्से मे फड़का |
राजवती सासु की तरफ मुड़ी तो चौधरन बोली " चिकना है , रपटना लगे है तेरा दुपट्टा| छापा अच्छा है औसे!! "
"नीलोफर दुपट्टा है माँ , बिलकुल भी रपटना ना है !" राजवती ने जबाब दिया था |
फिर उसने अपना बैग  खोल झमकीली ओढ़नी अपनी सासु की गोद मे लाकर रख दी |
घरवाले काम काज मे लग गए | राजवती कुछ सामान ढूँढ़ती  जगपाल की खाट के पास से गुजरी तो उसने उसकी बाँह पकड़ ली औऱ फिर बच्चे की तरह नखरे करते हुए बोला " अब भी तो आयी ससुरे  की .. मै तो तब मानता जो अब भी ना आती | "
राजवती का चेहरा सख्त था पर उसकी आँखे डबडबा आयी थी |
जगपाल ने हाथ छोड दिया था औऱ कोहनी से अपना मुँह ढाँप लिया |
कितना गुस्सा करता औऱ किससे गुस्सा करता ?
जिसे वापस लेन के लिए उसने 'दाँव' खेला था , आखिर वो वापस आ गयी थी |

-सचिन कुमार गुर्जर
14 जून 2019

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