रविवार, 17 दिसंबर 2017

क्रूर आदमी


अभी पिछले रविवार की ही तो बात है |  मैंने  कैब  बुक की थी | कनॉट पैलेस से मुखर्जी नगर जाने के लिए |
ड्राइवर समय से पहुंच गया था | कार एक दम साफ़ सुथरी, वेल मैंटेनेड , स्क्रैच फ्री  !

'स्क्रैच फ्री' इसलिए वर्णन योग्य है क्योंकि दिल्ली में स्क्रैच फ्री कार का होना ,  अफेयर फ्री , फुल्ली डिवोटेड गर्लफ्रेंड जितना ही सुखदायी है |  उपलब्धि है अपने आप में !
आई मीन , यू कैन फील प्राउड अबाउट इट !

किस ब्रैंड की ? पता नहीं | ध्यान नहीं रहा |
हाँ , पर रचना संरचना , ढांचागत  आधार पर वैसी ही , जैसी रखने की मेरी विशलिस्ट में है |
 मेरे बिस्तर के सिरहाने दबी विशलिस्ट में , जिसे मैं हर रात सोने से पहले दोहराता हूँ!
ऐसा मैं किसी पागलपन की वजह से नहीं करता , एक जाने माने मोटिवेशनल बाबा  की सलाह पर करता हूँ !
ये  जो मोटिवेशनल बाबा हैंगे , बहुत पहुंचे हुए बाबा हैंगे ! दर्जन भर बेस्टसेलर किताब लिख चुके है |
लॉजिक  ये है कि कुछ भी पाना असंभव नहीं है  , बस उस बात को आपको अपने सबकॉन्सियस  में उतारना होगा | बाकि सारे इंतज़ामात कायनात खुद-ब -खुद करेगी | ऐसा बाबा जी की एक किताब में लिखा है |
और मेरी बाबा के एक एक बोल में श्रद्धा है!

मैंने कही पढ़ लिया था , 'मिनिमलिस्ट ' | यानि ऐसा आदमी जो कम से कम संसाधनों  का इस्तेमाल कर जीवन का सुख अपने अंदर टटोलता है | मुझे अच्छा लगता है ये शब्द !

अभी पिछले दिनों किसी शादी में शरीक हुआ था , अपनी पुरानी फैमिली कार 'आल्टो ' के सहारे |
एक अच्छे दोस्त ने , जो की हर तरह से मुझसे ज्यादा सफल है , फिर भी मेरे किसी रहस्यमयी टैलेंट से जलन खाता है , उसने बीवी के सामने ही मुझे खींच लिया था |
"क्यों बे , गांधीवादी , कुछ तो स्टेटस होना चाहिए यार , सॉफ्टवेयर इंजीनियर हो यार! "

और मैंने पाया कि बीवी की आंखे बड़ी हो गयी है , उसकी आँख के कोने में एक आँसू उभर आया था , गनीमत रही कि आँसू गिरा नहीं ! "
बेटा ,  कुल जमा साढ़े चार साल का है , उसने बोला " पापा , अपनी कार ऐसी होनी चाहिए जिसमें  कैमरे लगे होते है , और जिसमें  स्क्रीन लगी होती है , और और  जिसमें पीछे का दिखता है ! "

"और जो पानी में तैर सके , हवा में उड़ सके, क्यों ?" मैं  हँस  पड़ा था |

पर उस रात घर वापस लौट कर मैंने अपनी विश लिस्ट में जोड़ा : आइटम नं 10- एक अच्छी सी फैमिली कार , क्रीम कलर में |
 
हाँ तो , वो  कैब समय से पहुँच गयी थी | ड्राइवर एकदम वेल ग्रूम्ड , ब्रांडेड कपड़ो में !
28-30 का वो गोरा जवान, बालों में जैल लगाए , चौड़े सिल्वर डाइल की घडी बांधे था | वाइड स्क्रीन महंगा फ़ोन गियर के बगल के ट्रे में रखा था |
गंतव्य पूछने के अलावा उसने अपनी तरफ से बातचीत की कोई पहल नहीं की |

मुझे उससे बात करने की जिज्ञासा कुछ ज्यादा इस लिए भी थी क्योकि वो टिपिकल कैब वाला तो था नहीं |
मेरा अनुमान तो ये था कि वो कोई आई टी वर्कर था | गुस्ताखी माफ़ हो , पर सॉफ्टवेयर इंजीनियर , आई टी प्रोफेशनल , ऍम एन सी वर्कर टाइप्स ही कुछ |

" तो ये काम पार्ट टाइम करते हो , भाई " मैंने संवाद खोलने को यही पूछना उचित समझा |
"हैं जी " उसने बस इतना  बोल कर चुप्पी साध ली |
ये 'हैं जी ' ना तो 'हाँ' था , न  ही 'ना' | ये बस इस बात का संकेत भर था कि मेरी बात सुन ली गयी थी , शायद आधी अधूरी |

पता नहीं क्यों , मुझे वो आदमी अपनी जात का लगता था | सो मैं उससे कुछ सुनना चाहता था |
मैं उससे सुनना चाहता था कि कैसे साल दर साल कॉर्पोरेट में काम करते रहकर भी जिंदगी EMI की भागदौड़ बनकर रह गयी थी  |
मैं  सुनना चाहता था कि कैसे उसका कॉर्पोरेट जॉब से मोहभंग  था पर घर चलाने  की मज़बूरी में वो चलता जाता था |  मैं उसे हामी भरता देखना चाहता था कि लाइफ कितनी डिफिकल्ट है , और शहर में फैमिली वाले आदमी का खर्च चलाना कितना कड़ा काम हो चला है |
मैं उससे उसके किसी दोस्त की सक्सेस स्टोरी सुनना चाहता था जिसने कॉर्पोरेट जॉब ,EMI का मकड़जाल , क्रेडिट कार्ड , स्मोग भरी जिंदगी से मुक्ति का रास्ता निकाल लिया था | ऐसी सक्सेस स्टोरीज मुझे अफीम के नशे सा मजा देती हैं |
पर वो आदमी कुछ बोलने  को तैयार नहीं था |

गंतव्य पास आते देख मैंने एक बार फिर कोशिश की |
" तो ये काम आप सैटरडे , संडे ही करते होंगे | क्यों " मैं बोला |

"नहीं , मैं तो यही करता हूँ , रेगुलर " इतना कहकर  वो फिर से अपनी दुनिया में खो गया था |
 अब मुझे उस आदमी से चिढ़ सी हो चली थी | यूँ ही , ख़मखां, बिला -वजह |

अपने घर की गली  में उतरते हुए मैंने किराया चुकाते हुए बोला  "कीप दी  चेंज , थैंक्स !"
अब  मेरे शब्दों में अकड़ थी |

 मुझे पूरा यकीन था कि वो आदमी एक आई टी  प्रोफेशनल था जो इस हद तक सेल्फ ऑब्सेस्सेड , खुद गर्ज़ था कि अपने साथी प्रोफेशनल को दिल हल्का करने मौका तक नहीं देना चाहता था |
उसने मेरे कह सुनकर, दुःख साझा करने ,  गम गलत करने के प्रयास को बुरी तरह से कुचल दिया था |
मेरी नज़र में वो खुद के लिए जीने वाला बेहद क्रूर आदमी था !


                                                                                          सचिन कुमार गुर्जर
                                                                                           दिसंबर १७ , २०१७











मंगलवार, 7 नवंबर 2017

सर्वज्ञानी ऑटो वाला



"उफ्फ , कितना प्रदूषण है भैय्या , क्या होगा दिल्ली का "  सफर की बोरियत  को तोड़ने के लिए मैंने यूँ ही शिफूगा छोड़ दिया था |

मेट्रो की सर्विस लेन से मेन रोड पे आते ही ऑटो वाले ने ऑटो को स्पीड में डाला और मेरी ओर मुड़कर बोला
"एक बात बताएं भाई साब , केजरीवाल तो कह रहा है कि एक बार हेलीकॉप्टर से बारिश कर पानी का छिड़काव हो जान दओ , सिगरी की सिगरी गर्त दब  जाएगी | पर ये मोदी कुछ करने देवे तब ना बे***** !"

उसके तेवर झुंझलाहट वाले थे |
फिर उसकी झुंझलाहट लाजिमी भी थी, जब इतनी बड़ी समस्या का इतना सीधा साधा सा विकल्प दिया जा रहा है फिर पता नहीं काहे , मोदी जी टांग अड़ा रहे हैंगे !

इन दिनों मैँ इस कदर आलस भरी और लापरवाह जिंदगी जी रहा हूँ कि हो सकता है कि इस तरह के  प्रस्ताव का गुब्बारा मीडिया में छोड़ा गया हो और मैं बेखबर रहा होऊ |  हो सकता है |

मैं सोचने लगा 'क्लाउड सीडिंग' , 'सिल्वर आयोडाइड' , 'पोटैशियम आयोडाइड' , 'ड्राई आइस' इन सबके बारे में |  कृत्रिम बारिश के बारे में |
हो सकता है , मैं अल्पज्ञ हूँ , हो सकता है !

पर उसने मुझे मेरे विचारो के साथ अकेले नहीं छोड़ा |

"जुकाम हो गया भाई साब , दवाई लेनी पड़ेगी सायद | 
 अच्छा जे क्या बात है भाई साब , जिस दिना भी मैं रात को सोते टेम ऊँचा तकिया लगा लूँ , सुबह तक जुकाम हो जाता है ठसा ठस्स !
अब तीन चार दिना नीचा तकिया लगाऊंगा , तो आपे आप भाग जायेगा ससुरा "

मैं अभी उसके हेलीकाप्टर वाले समाधान से ही जूझ रहा था कि उसने नया बाउंसर फ़ेंक दिया था |
 
मेन रोड से कॉलोनी की सड़क की ओर ज्यो ही ऑटो मुड़ा , पता नहीं कहाँ से एक कैब वाला सामने आ गया |
ऑटो वाले ने क्या गाली दी होगी ये तो आप अंदाज लगा ही सकते है |  खुद को थोड़ा सा दाए बाएं हिला कर वो मेरी ओर फिर से मुड़ा और बोला
" जित्ती भी ये पीली पट्टी वाली गाडी देखते हो न भाई साब | पता है  आपको,  जे सिगरी की सिगरी  शीला दीक्षित के दामाद की कंपनी की हैंगी |  सबो के सबो ने ऐसी लूट मचाई दिल्ली में भाई साब | सब सालो ने अपना पेट भरा |  अब केजरीवाल  काम करना चाह रहा तो उसे काम करने नहीं दे रहा मोदी बे*****! "

" सही बात , सही बात "  मैंने जोड़ा |

" तो इहा किसी काम से आये हो या इधर ही रहते हो ? "
दीन  दुनिया की बातों के बाद महनुभाव की दृष्टि मुझ नाचीज़ के अस्तित्व पे आ टिकी थी |

" इधर ही रहता हूँ , नौकरी करता हूँ | " मैंने  जबाब दिया |

" सरकारी या प्राइवेट?  " मेरा जबाब पूरा भी न हुआ था नया सवाल दागा जा  चुका था |

" प्राइवेट ही है भईया "  मैंने फर्ज अदायगी को जबाब दिया |

" क्या करे आदमी , पेट लगा है तो कुछ न कुछ तो करेगा ही | प्राइवेट ही सही | हमे ही देख लो , धूप हो या जाड़ा बरसात , हम 14 घंटे सड़क पे रहते हैं | " उसकी आवाज़ में इस बार गुस्सा न था , सांत्वना का लेस था | ढांढस बांधने  की कोशिश थी |

" हाँ , क्या करें | सरकारी  कहाँ मिलती है भईया |
   केजरीवाल बहुत कोशिश करता है  , भर्ती निकालता भी है , पर बीच में ही टंगड़ी मार देता है मोदी बे****!!"
 इससे पहले की वो सर्व ज्ञानी मुँह पीछे मोड़ कुछ बोलता , मैं गोल दाग चुका था !


                                                                 सचिन कुमार गुर्जर
                                                                 07 /11 /2017















शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

बेटा जब बाप होता है !


वो आदमी जो कि एक अच्छा पिता है , मैंने उसे बेहद गुस्से में देखा |
वो आदमी एक 'सजग पिता' है जो किसी भी हालत में अपनी औलाद को पथ भ्रष्ट  न होने  देने की कसम खाये हुए है |

आँख लाल किये और अपने पुराने कुर्ते की बाहें ऊपर चढ़ाये वो साँवला , तौंदला पिता अपने ऊँचे चबूतरे पर खड़ा था|   हाथ में मोबाइल लिए जिससे लटकी ईयर फ़ोन की तार जमीन छू रही थी |

उसने मुझे रोक लिया | फ़ोन उसने अपने 'बिगड़े हुए' किशोर बेटे से जब्त किया था जो अपमान का घूँट पिए बरामदे में  अपनी माँ के पास खड़ा कुछ बड़बड़ा रहा था |

" प्यार से भी तो समझा सको हो कोई बात , बिना बंदूक कोई बात ना होती  तमारी  " किशोर की माँ  भिनभिनाई | उसका वात्सल्य बेटे की ओट बनके आया |

पर पिता की त्योरियाँ चढ़ी थी|  " तू चुप कर ,  तेरे ही तो लच्छन है इसमें , तेरा लाड ही लेके डूबेगा इसे, देख लीजै " पिता गरजा |

मैं ठिठक गया था | अपनी भावनाओ पे काबू  की कोशिश करते हुए उसने मुझसे पूछा "सुनाओ भईया , कहो , नौकरी कैसी चल रही | बाल गोपाल यही गाँव में है या शहर में ? "

इससे पहले की मैं कोई जबाब देता वो फिर भड़का " भाई साहब , औलाद के लाये सुबिधा सब करो , पर बच्चो को  गर सुधारना है तो देखो सालो को कसाई की  नज़र सै ! "
ऐसा कहते हुए उसने अपने दाए हाथ की ऊँगली  को हवा में कई बार आगे  पीछे लहराया  जो  बात का इजहार था कि उसका प्रवचन जग हित में था , धरती के सभी  पिताओ  के लिए आदर्श सूत्र था |

"चला जा , टर जा मेरे सामने से |  दिन सही हो तेरा तो  किताब खोल ले |"  पिता ने बेटे को फिर लताड़ा | बेटा खुले बरामदे में खटिया पर  पैर सिकोड़े लेटा अपने अपमान का घूँट पी सुनता रहा बस |

" कंधो में मूत आने लगा है , नालायक के " उस पिता की आँखों में गुस्सा तो था ही , हाँ थोड़ा  फ़िक्र भी थी |

मैंने होशियार बनते हुए बात जोड़ने की कोशिश की " भईया , लल्ला तुम्हारा कान बरब्बर हो आया | अब गुस्सा न  किया करो | प्यार से जितना समझे ठीक "
फिर फ़िक्र का माहौल पैदा करने को मैंने जोड़ा "  नया खून है , किसी दिन सामना कर दिया तो !"

पर उसका उबाल था कि थमने का नाम न लेता था " अजी , कर दिया सामना, जब तक मेरे गट्टो में दम है | चलेगा साला मेरे हिसाब से , नहीं तो भाग जाए जहाँ इसका जी करे | "


हम चबूतरे के कोने पे लगे नीम के पेड़ के नीचे चारपाई पे आ बैठे थे |

मुझे याद आया कि कोई दो दशक भर पहले आज के इस  'आदर्श पिता ' का बूढा बाप उसी  स्थान पे खटिया पे चिपका बैठा होता था |
उन दिनों बैठक की  बाहरी बड़ी ताख में टेप रिकॉर्डर दिन भर अश्लील रसिये गाता था |
"गौने वाली रात , बालम तूने धोखा दीयो , ,खटोला छोटा दीयो $..... मर जाउंगी पिया जी मरोड़ा मत मारे , मर जाउंगी $$$..... "

और वो बूढा चिल्लाता था " कम्बखत के मारे , सांझ के टैम तो आरती भजन लगाई दिया कर | "
पर आज का 'आदर्श पिता' जो उस टाइम का 'इंकलाबी लड़का' हुआ करता था एक न सुनता था |  हँसता था , बूढ़े को हड़का भी देता था |
और वो बूढा |  वो बूढा झुंझलाता के रह जाता था बस , कहता  था " मेरा क्या है , मेरी तो कट गयी | अपने करम अपने आप भुगतेगा ससुरा  "
" बुढ़ापा बुरापा होता है " ऐसा कहता था वो बूढा |


मैं चलने को हुआ तो मैंने बरामदे में लेटे  किशोर की तरफ देखा | वो जवानी की सीढ़ियां तेजी से चढ़ रहा था |

मैं गवाह नहीं बनना चाहूँगा पर इस बात की पूरी पूरी गुंजाईश है कि आज का किशोर कल का 'औरंगजेब'  निकले और आज का कड़क पिता कल का ' बूढा शाहजहाँ ' हो जाए |

मैं गवाह नहीं बनना चाहूंगा , पर नियति में हो सकता है कि इसी नीम के नीचे फिर से कोई बूढा पुरानी खाट से चिपका लाचार हो बड़बड़ाये, झुंझलाये  " मेरा क्या है , मेरी तो कट गयी | अपने करम अपने आप भुगतेगा ससुरा  | "


                                                                                    सचिन कुमार गुर्जर
                                                                                     29 /10 /2017


शुक्रवार, 13 अक्टूबर 2017

ऊपरी हवा का असर



परिवार के पढ़े लिखे कई बार मजाक उड़ा जाते है |  बोलते है "भैय्या , पढ़े लिखे हो, समझदार हो , इस सब में यकीन क्यों रखते हो ?"
और मैं मुस्कुराता भर हूँ बस | मेरी मुस्कान उनकी धारणा को बल देती है |

"ये सब अंध विश्वास है भैय्या , इसको बढ़ावा नहीं देना चाहिए  | " पढ़े लिखे नसीहत देते है अक्सर |  नसीहत देना पढ़े लिखे लोगो की आदत हो जाती है |  है कि नहीं ?

मैं उनकी रायशुमारी पर  मुस्कुराता हूँ पर मानता मैं भी नहीं |

मैं अक्सर ऐसा करता हूँ , जब भी घर जाता हूँ |  हर बार नहीं करता ,वो यूँ के हर बार दोहराने  से जादू अपना असर खो बैठता है |

होता यूँ है कि सफर की थकान से चूर मैं अक्सर बिस्तर या सोफे पे पसर जाता हूँ |
थकान जो की अमूमन सफर की धक्कम धक्का  का नतीजा होती है , मैं उसे थोड़ा बढ़ा चढ़ा के, चासनी लपेट के पेश करता हूँ |
माँ की आदत होती है पूछना | तो मैं बोलता हूँ कि हाथ पैरो में दर्द है , हल्का सिर दर्द भी | पूरे शरीर में अकड़न सी है |
माँ माथा छू कर देखती है और बोलती है " सिर तो नहीं गरम तेरा ,    हम्म......  "

ये बाद में जो माँ  'हम्म ' लगाती है ना, उसमे माँ तबियत नासाज़ होने का राज़ जान लेती है |
करीब दर्जन भर घरो के  फासले पर एक बूढी औरत रहती है | अस्सी पार कर जाने  बाबजूद काकी की कमर एकदम सीधी है , लपक के चलती है |
सस्ता चश्मा लगाती है जिसके सिरों पर उसने अपने हाथ से बारीक डोरी लपेटी हुई है | चेहरा झुर्रीदार है , बाल दूध से सफ़ेद | काका दशक भर पहले ही चले गए , बेटे हैं , बहुये है , पोते पोती हैं , पर विधवा काकी का अब वो  रुआब नहीं रहा |  काकी अशक्त है , लड़के दब्बू हैं |  कई बार बहुये खाने पीने को भी तरसा देती है |
कुल मिला के लाचार बुढ़ापा है काकी का |

काकी माँ  के पीछे पीछे आती है दबे दबे पाँव | हाथ में नीम की टहनी लिए होती है |
काकी मेरा सिर नीचा कर अपना हाथ मेरे सिर पर रख देती है और बहुत देर तक कुछ कुछ बुदबुदाती रहती है |
फिर चमड़े का जूता लेकर मेरा सिर छू भर देती है| फिर कई बार जूता जोर जोर से जमीन पर पटापट पीटती जाती है |

टोटका पूरा  होने के बाद काकी हमेशा पूछती है " अब कुछ हल्का हुआ , लल्ला शरीर तेरा |"
और मैं हमेशा बोलता हूँ " हाँ , काकी काफी हद तक सही है | "

जाते जाते काकी माँ को लगभग हड़का के बोलके जाती है " इसके बैग में लहसुन की गाँठ रखे बिना मत जाया दिया कर इसे सहर | 'हवा ' का हिसाब हो जावै है ईसै"
और मेरी मां हमेशा काकी की बात से इत्तेफाक रखती नज़र आती है |

काकी जब जब अपने जादू टोने से मेरे ऊपर से 'हवा ' का असर काटती है ना , उसकी आखों में चमक होती है , उन लम्हो में वो एक ताकतवर औरत होती है जो अपने हुनर से मेरा दर्द खींच लेती है |

काकी की आँखों में वो रौशनी देखने के लिए और उसे उसकी ताकत का एहसास कराने  के लिए ही मेरे शरीर पे अक्सर ' ऊपरी हवा ' का असर होता रहता है!

                                                                                                            सचिन कुमार गुर्जर
                                                                                                                 13/10/2017








मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

तेरे घर की , मेरे घर की



"चलाओ तुम अपनी, जितना मर्ज़ी है चलाओ |  खूब चलाओ | मैं भी देखूं ,  आखिर कब तक अपनी चलाओगे " |
 मिर्ची के छोंक से तीखे , नश्तर से  चुभते ये बोल,  रसोई से उठ घर की फ़िज़ा में तैर गए |
और गुस्सा केवल वाणी  में ही नहीं था  ! लाइटर की आवाज़ , फ्राई पेन के स्टोव  रखने की आवाज़ , जूठी  प्लेट्स  के सिंक में रखे जाने की आवाज़ ! सबसे के सब में एक रौद्रता, भिड़ जाने की , आर पार करने की चाह |
यूँ कह लीजिये कोई बबंडर सा था |

और दुश्मन ? दूसरी ओर  सौफे पे पसरा था | इकहरा लेकिन जिब्राल्टर की चट्टान सा मजबूत इरादा | लापरवाह ! मूड यूँ था कि अजी आओ , टकराओ , बिखर जाओ , हम ऐसे ही खड़े रहेंगे |
जबाब लाज़िम था सो दिया भी गया " गलत होऊ या सही | जो मुझे सही लगेगा वही करूँगा | तुमसे हेल्प नहीं मागूंगा | तुम हेल्प  मत करना |  " 

और बच्चे ?  पुरुष नियति का मर्म ये भी है कि जब जब मुकाबला बराबरी या जीत में छूटने  को होता है , स्त्री बच्चो को ढाल  की तरह इस्तेमाल करती है |   दाव चलता न देख जालिम ने पैतरा बदल दिया |

कुलदीपक  ने  डिमांड नहीं की ,  बिना  फरमाइश उसके सामने उसके फेवरेट नूडल्स परोसे गए  और ममता का तड़का लगा के बालों पे हाथ फिरा बोला गया  " बेटा , तेरे पापा तो  मानेंगे नहीं अपनी | तू जल्दी से बड़ा हो जा | तू ही संभालेगा घर | "

कुल जमा साढ़े चार साल के कुलदीपक ने पुरुष को ऐसे घूरा  जैसे दरोगा किसी मुल्जिम को ,  जो अभी अभी ताज़ा अपराध करके आया हो |
 जायज भी है कौन चाहेगा कि दूसरे  के कंधो का बोझ अपने ऊपर उठाया जाए |

खैर ,घंटे  दो घंटे  में बादल छंट गए  ,  गृहस्थी झूलती झालती अपने ढर्रे पे चल निकली |
टी वी के किसी प्रोग्राम को देख घर में ठहाके भी गूंझे |

माहौल पिंघलता देख कुलदीपक ने कहा " मम्मी मेरा अभी भी बड़ा होना जरूरी है क्या !"
मतलब भाव ये था कि अब जबकि सब नार्मल हो गया मुझे बड़े होने से छूट मिलेगी क्या !

 "ठीक है बेटा , तू अभी बच्चा ही रह | "

हँसी बहुत आयी पर पुरुष मन में पी गया | बच्चे आजकल ओवर सेंसिटिव हैं ! बुरा मान जाते हैं |

कॉलेज टाइम की किसी प्लेलिस्ट का गाना चल  रहा था " 'इट्स नो सैक्रिफाइस.... नो सैक्रिफाइस एट आल... "

ये है गृहस्थी , तेरे घर की , मेरे घर की |


                                                                      सचिन कुमार गुर्जर
                                                                      ०३ अक्टूबर २०१७


शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

फ्रस्टू दोस्त और उबाऊ मीटिंग

वो मीटिंग जो की एक बेहद जरूरी मीटिंग थी ,घंटे भर की माथापच्ची के बाद खत्म हो गयी !
मीटिंग रूम से बाहर निकलते हुए मिंटू के चेहरे पे संतोष था , सुकून था । कुछ पा जाने का सुकून नहीं , छुटकारा पा जाने का सुकून !
और चिंटू , वही जैसा वो  हमेशा से रहा है , उनींदा , आँखे मीड़ता , ढले कंधे लिए हुए बाहर निकल आया था  ।

कतारबद्ध बने केबिन्स को दो फाँक करती पतली गैलरी में टहलते हुए मिंटू  की पेशानी पर बल उभर आया था । बोला " देखा तूने , कुछ गौर किया ? क्यों ?"

" हाँ यार , ये मैनेजर थोड़ा सख्त रहेगा शायद , रूल बुक से चलने वाला !" चिंटू ने बड़ी  ही उबाऊ सी आवाज़ में जबाब दिया था ।

बात पूरी होने से पहले ही मिंटू ऊँची आवाज़ में लगभग दुत्कारते हुए बोल पड़ा  " नहीं साले , नहीं ।  हम इस प्रोजेक्ट  के सबसे सीनियर लोग हो गए है । मेरा मतलब है सबसे पुराने । समझा कुछ ?"

मिंटू को  अपने पुराने हो जाने का , पीछे छूट जाने का , कुछ नया ना कर पाने का , नौकरी न बदल पाने का दर्द  आये दिन उठता ही रहता था । कभी दर्द  हल्का होता तो मिंटू  बस भिन्नाता , तेज होता तो लगता सब कुछ फ़ेंक फाक  कर दुडकी  लगा देगा । पर सालों से वह अपनी जगह टिका रहा ।  रिसता रहा कभी फूटा नहीं ।

निठल्ले और सालों  से किस्मत को अपना स्टेयरिंग थमाए चिंटू  को पता था कि दोस्त के इस दर्द का तुरंत उपचार तो कोई है नहीं । हाँ एक अच्छे दोस्त की तरह दोस्त का गम गलत करने को उसने बोला " चल , नीचे खोखे पे चाय पी आते हैं।  "

पुराने नीम के पेड़ से सटे खोखे  के बाहर पड़ी लकड़ी की सीधी सपाट बेंच । खोखे की तरपाल पर धूल इतनी कि उसका रंग हरे की वजाय मटमैला ही दीखता था ।  सस्ती , कम दूध वाली चाय की चुस्की लेकर  मिंटू बोला " बहुत हुआ । अब  कुछ करना ही होगा । "

अचानक से मिंटू के  भाव बदल गए थे । चाय पत्ती की तेजी ने उसमे जोश सा ला दिया था । " यार सीनियर  लोग फॉर्म में आ रहे इस सीजन । देखा ,धोनी ,युवराज कैसे  रंग में आ गए फिर से ।  और अपना  फेडरर, क्या ग़ज़ब खेला भाई , अब भी ! "

फिर लंबी साँस छोड़ते हुए बोला "इस सीजन मुझे भी PMP सर्टिफिकेशन करना ही होगा । नो एक्सक्यूसेस !"
ऐसा बोलते हुए हुए उसके जबड़े की हड्डियां मजबूती के साथ बाहर उभर  आयी थी , जो की उसके दृढ निश्चयी होने का सबूत थीं !

उसका ये शिफूगा और हवा से मोटिवेशन चूसने की कोशिश  करना चिंटू के  अंदर बैठे निट्ठल्ले को बेहद  नागवार गुजरा था । तिलमिला सा उठा था चिंटू । 

सच्चे दोस्त कौन होते हैं  ? 
वही , जो एक दूसरे  की मदद करते है । हाँ, वो तो होते ही है ।  वो भी होते है जो एक दूसरें  को कुछ भी ना करने की वजह देते है !

सो  मिंटू के ताजा ताजा फुलाव में पंचर करने को चिंटू ने कहा " यार  PMP किया तो कौन सा पसेंजर से बुलेट ट्रैन में सवार हो जायेगा । हाँ, अगले डब्बे में सवार हो जाये शायद !
स्टार्टअप  कर स्टार्टअप  !"

 'स्टार्ट अप'  शब्द   चिंटू ने लंबा खींचा था , जान बूझ कर !  उसे  पता था कि ये शब्द उसके दोस्त के  जेहन में खीझ पैदा करेगा ही करेगा । 


 वो यूँ कि इस विचार के साथ कि 'कुछ अपना कुछ करेंगे' , 'कुछ नया करेंगे '   उन  दोनों जिगरियों ने तमाम मंत्रणाएं की थी  । आइडियाज बहुत आये । चाय की सस्ती दुकानों की चेन खोलने से लेके,  कार्ड बोर्ड बनाने तक , खुद की सॉफ्टवेर कंपनी खड़ी करने से लेके किसानों का काया कल्प  करने तक आदि आदि । फेरिस्त लंबी है । पर वे  स्टार्ट का बटन दबाने में विफल रहे थे । 'ओवर प्लानिंग' , 'अंडर प्लानिंग' , 'कॅश क्रंच' , 'टू रिस्की' , 'नॉट आवर कप ऑफ़ टी' ... वजह  आईडिया के साथ बदलती  रही । 

"कद्दू करेगा तू कुछ । बोलता ही है "  खीज गया था मिंटू । 
"अबे करूँ ना करूँ ।  जिक्र  करने से 'कुछ तो करना है , कुछ  तो करना है ' वाली हाजत तो मिटा लेता हूँ ना  ।  और वे  जोर से हंस दिए थे ।

अपने डब्बे नुमा केबिन की ओर टहलते हुए चिंटू ने पूछा " यार , आजकल ऑफिस  का कुछ गॉसिप नहीं मिलता । ये नए लड़के लड़कियाँ  कुछ अफ़ेयर बफेयर नहीं करते क्या ? कौन किसे लंच पे ले गया । कौन किसके साथ  घूम रहा । कौन कौन ऑफिस टाइम में भी मूवी थिएटर हो आ रहे  । हवा बदल गयी क्या इधर की ?। क्यों ?"

"अबे साले , मैंने बोला न , हम सीनियर हो गए । मेरा मतलब है पूराने और बूढ़े " मिंटू का तर्क मजबूत था ।

हाँ  , उस 'बेहद जरूरी मीटिंग  का' जो की सुबह नए बॉस ने बुलाई थी , उसका  'की टेक अवे' ये था कि उसी तरह की मीटिंग फिर से होगी , पंद्रह दिन बाद !

                                                                         - सचिन कुमार गुर्जर 

अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...