क्या लगता है सिर्फ एक माचिस की तीली और शायद थोड़ा सा केरोसिन ।
और कितनो के सपने धुँआ धुँआ हो जाते है न । है कि नहीं ?
कितना मुश्किल होता है , पीढ़ियाँ खप जाती है , एक ठीक ठाक सा काम-धंधा ठीया जमाने में ।
किसलिए , कि कोई सिरफिरों का , कमअक्लो का झुण्ड आये , एक हुजूम आये और सब रौंद के निकल जाये । क्यों ?
पता नहीं क्यों ? निकल नहीं पा रही बात दिमाग से ।
बड़ा कमजोर हो चला हूँ । किसी ने पोस्ट किया था फेसबुक पे रोहतक में धूं धूं होती दुकानो का , लपटों में स्वाह होते रुजगारो का । पूरा नहीं देख पाया ।
दस साल हुए मुझे रोजी रोटी कमाते । कोडी कोडी कर बचाते । सपना , वही आम । कुछ ऐसा ही काम धंधा खड़ा करने का । कोई ऐसी ही दूकान जिसे बच्चे कह सके कि पुश्तैनी है , पापा खड़ी कर गए है ।
काले सुनहरे बालो की फसल थी सिर पर, १० साल में चाँद नज़र आने लगी है । कंपटिया तो कब की छक सफ़ेद हो गयी । तनाव । सध कर चलना । दोस्त कंजूस कहें , बीवी गहनों के लिए गिड़गिड़ाए , फोकस नहीं खोना ।
और हाँ , सब कुछ सही रहा ना , उस नीली छतरी वाले की मेहर रही , तो शायद पूरी तरह गंजा होने तक हो जाए कुछ ।
अतिश्योक्ति है ? आम आदमी को इतना ही समय लगता है भैय्या ! बहुत विरले होते है होनहार , बहुते ही कम , जो इकन्निया बोकर लाखों करोडो उगा लेते है, या जिनके दिमागों के विचार सम्पदा उगाते है । आम आदमी को खपना पड़ता है । पसीने से सींचना होता है ख्वाब , बिना थके बिना भटके । जवानी का मोल चुकाना पड़ता है ।
डर लगता है , ढलते हुए सूरज के साथ , दुखती कमर से , झुर्रीदार चेहरा लिए जब मैं सुस्ताने को बैठना चाहूँगा अपने जवानी का मोल चूका हासिल किये ठीये पर , कोई सिरफिरों का हुजूम फिर से तो नहीं आ जायेगा और उड़ा ले जायेगा सब गुबार में ।
और कहीं उस दिन की सरकार भी यही ना बोले , आर्मी बुला ली गयी है , स्थिति अब नियंत्रण में है । माँगे मान ली गयी है !
मन नहीं लग रहा काम में । उफ्फ , क्या दिक्कत है ससुरी , बाइपोलर हूँ क्या ? बड़ा जज्बाती हो चला हूँ ।
वैसे आरक्षण का हलुआ खाने के बदले लम्बी लम्बी गाड़ियों के आगे चौड़ा सा 'चौधरी' और 'नम्बरदार' लिखने का हक़ तो कम से कम खारिज कर ही देना बड़ी सरकार !
थोड़ी बहुत कलेजे की ठंडक का हक़ तो देदो मेहनतकश को, जिल्ले इलाही !
ज्यादा माँग लिया क्या ?:(
"यहाँ दूध दही का खाना , ये है प्रदेश हरियाणा !"
--सचिन कुमार गुर्जर
और कितनो के सपने धुँआ धुँआ हो जाते है न । है कि नहीं ?
कितना मुश्किल होता है , पीढ़ियाँ खप जाती है , एक ठीक ठाक सा काम-धंधा ठीया जमाने में ।
किसलिए , कि कोई सिरफिरों का , कमअक्लो का झुण्ड आये , एक हुजूम आये और सब रौंद के निकल जाये । क्यों ?
पता नहीं क्यों ? निकल नहीं पा रही बात दिमाग से ।
बड़ा कमजोर हो चला हूँ । किसी ने पोस्ट किया था फेसबुक पे रोहतक में धूं धूं होती दुकानो का , लपटों में स्वाह होते रुजगारो का । पूरा नहीं देख पाया ।
दस साल हुए मुझे रोजी रोटी कमाते । कोडी कोडी कर बचाते । सपना , वही आम । कुछ ऐसा ही काम धंधा खड़ा करने का । कोई ऐसी ही दूकान जिसे बच्चे कह सके कि पुश्तैनी है , पापा खड़ी कर गए है ।
काले सुनहरे बालो की फसल थी सिर पर, १० साल में चाँद नज़र आने लगी है । कंपटिया तो कब की छक सफ़ेद हो गयी । तनाव । सध कर चलना । दोस्त कंजूस कहें , बीवी गहनों के लिए गिड़गिड़ाए , फोकस नहीं खोना ।
और हाँ , सब कुछ सही रहा ना , उस नीली छतरी वाले की मेहर रही , तो शायद पूरी तरह गंजा होने तक हो जाए कुछ ।
अतिश्योक्ति है ? आम आदमी को इतना ही समय लगता है भैय्या ! बहुत विरले होते है होनहार , बहुते ही कम , जो इकन्निया बोकर लाखों करोडो उगा लेते है, या जिनके दिमागों के विचार सम्पदा उगाते है । आम आदमी को खपना पड़ता है । पसीने से सींचना होता है ख्वाब , बिना थके बिना भटके । जवानी का मोल चुकाना पड़ता है ।
डर लगता है , ढलते हुए सूरज के साथ , दुखती कमर से , झुर्रीदार चेहरा लिए जब मैं सुस्ताने को बैठना चाहूँगा अपने जवानी का मोल चूका हासिल किये ठीये पर , कोई सिरफिरों का हुजूम फिर से तो नहीं आ जायेगा और उड़ा ले जायेगा सब गुबार में ।
और कहीं उस दिन की सरकार भी यही ना बोले , आर्मी बुला ली गयी है , स्थिति अब नियंत्रण में है । माँगे मान ली गयी है !
मन नहीं लग रहा काम में । उफ्फ , क्या दिक्कत है ससुरी , बाइपोलर हूँ क्या ? बड़ा जज्बाती हो चला हूँ ।
वैसे आरक्षण का हलुआ खाने के बदले लम्बी लम्बी गाड़ियों के आगे चौड़ा सा 'चौधरी' और 'नम्बरदार' लिखने का हक़ तो कम से कम खारिज कर ही देना बड़ी सरकार !
थोड़ी बहुत कलेजे की ठंडक का हक़ तो देदो मेहनतकश को, जिल्ले इलाही !
ज्यादा माँग लिया क्या ?:(
"यहाँ दूध दही का खाना , ये है प्रदेश हरियाणा !"
--सचिन कुमार गुर्जर
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